राजेश कुमार गुप्ता
श्याम बेनेगल भारतीय सिनेमा के वह शिखर पुरुष हैं जिन्होंने 'समानांतर' (पैरेलल सिनेमा) को यथार्थवाद और सामाजिक चेतना के साथ एक नई पहचान दी। किसी अन्य निर्देशक की तुलना में वह भारतीय समाज की जटिलताओं और विरोधाभासों को अधिक प्रभावी ढंग से दर्शाते थे। 1974 से 2023 के दौरान, उन्होंने तक़रीबन 24 फीचर फ़िल्में निर्देशित कीं, जिनमें से कई फ़िल्मों को आज क्लासिक्स का दर्जा हासिल है। उनकी फ़िल्मों जैसे अंकुर, निशांत, मंथन, भूमिका, जुनून, कलयुग, मंडी, सूरज का सातवां घोड़ा, मम्मो और सरदारी बेग़म ने समाज के बिल्कुल शुष्क और कठिन विषयों को सहज, सरोकारी और आकर्षक ढंग से पेश किया। उनके विषयों में सत्ता संरचनाओं की विकृत प्रकृति, सामाजिक परिवर्तन की चुनौतियां, और महिलाओं द्वारा झेले जाने वाले दमन शामिल थे।
देखा जाय तो, हिंदी में सिनेमा की एक समानांतर धारा शुरू करने का श्रेय मृणाल सेन और उनकी फ़िल्म ‘भुवन शोम’ (1969) को जाता है, लेकिन अगर किसी निर्देशक ने उस बीज को सींचकर एक हरे-भरे वृक्ष में बदला है तो वह श्याम बेनेगल ही थे। इसकी एक वजह यह भी थी कि वे सिनेमा की तरफ अनायास नहीं बल्कि पूरी तैयारी और वैचारिक स्पष्टता के साथ आए थे। इसलिए उनका काम अपने समय के कई अन्य निर्देशकों की तरह 'रचनात्मक सनक' नहीं लगता, न सिर्फ एक विद्रोही तेवर तक सीमित रहता है, बल्कि उनकी फ़िल्मोग्राफी में एक पूरी विचार यात्रा दिखती है। जबकि उसी दौर में समानांतर सिनेमा आंदोलन से जुड़े और पूणे के फ़िल्म संस्थान से निकले बहुत सारे निर्देशक एक-दो फ़िल्मों के बाद या तो अपनी रचनात्मकता से समझौता कर बैठे या फिर हाशिए पर चले गए।
श्याम बेनेगल का जन्म 14 दिसंबर 1934 को हैदराबाद में एक कोंकणी भाषी हिंदू परिवार में हुआ था, उनका नाम श्याम सुंदर बेनेगल था। उनके पिता कर्नाटक से थे। श्याम का परिवार राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक था। बचपन से ही फ़िल्मों के प्रति उनकी दिलचस्पी थी। जब वह बारह वर्ष के थे, तब उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म अपने फोटोग्राफर पिता श्रीधर बी. बेनेगल द्वारा दिए गए कैमरे पर बनाई थी। उन्होंने उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद से अर्थशास्त्र में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की थी। लिंटास के साथ विज्ञापन फ़िल्में बनाने, इप्टा में अपनी सक्रियता और सत्यजीत रे तथा ऋत्विक घटक से प्रेरणा हासिल कर रहे श्याम ने बिना किसी हड़बड़ी के सिनेमा की दुनिया में कदम रखा। यह जानना दिलचस्प होगा कि फ़िल्म निर्माता, निर्देशक और अभिनेता गुरुदत्त की नानी और श्याम की दादी सगी बहनें थीं। श्याम बेनेगल ने नीरा बेनेगल से शादी की। उनकी एक बेटी, पिया बेनेगल, एक कॉस्ट्यूम डिजाइनर हैं। श्याम के भाई, सोम की 2014 में मृत्यु हो गई थी। उनके भतीजे, देव और राहुल ने भी फ़िल्म निर्माण में अपना करियर बनाया है।
लगभग 40 साल की उम्र में उन्होंने फीचर फ़िल्म 'अंकुर' (1974) का निर्माण किया। उस समय भारत और विश्व के ज्यादातर फ़िल्म समीक्षकों ने श्याम बेनेगल की शैली को यथार्थवादी सिनेमा का नाम दिया। 'अंकुर' का दुनिया भर के फिल्म समीक्षकों ने खुले दिल से स्वागत किया। सिने आलोचक चिदानंद दासगुप्ता ने इसे कला और यथार्थवाद का मेल कहा। उनके शब्दों में, "यह फिल्म एक नई सिनेमाई भाषा की शुरुआत है, जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है।" द गार्डियन के समीक्षक डेरेक मैल्कम के मुताबिक, ‘अंकुर’ न केवल भारतीय समाज के जटिल जातीय और आर्थिक विभाजन की गहराई से पड़ताल करती है, बल्कि यह वैश्विक स्तर पर यथार्थवादी सिनेमा की धारा को मजबूत बनाती है।
‘अंकुर’ का निर्माण हिंदी सिनेमा जगत में एक ऐतिहासिक घटना की तरह था। अपनी पहली फ़िल्म के साथ ही श्याम बेनेगल ने उस सबसे बड़ी चुनौती का आजीवन सामना किया, जो आज भी मुख्यधारा से अलग सिनेमा बनाने वालों के सामने बनी हुई है। श्याम उस दौर के अकेले ऐसे फ़िल्मकार थे, जिन्होंने एनएफडीसी के पास जाकर वित्तीय सहायता लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने निजी कंपनियों की मदद से अपनी फ़िल्मों के लिए फाइनेंस जुटाया। इस तरह श्याम बेनेगल जहां एक तरफ सिनेमा में ऐसे विषय उठा रहे थे, जिनके बारे में भारतीय सिनेमा उद्योग दूर-दूर तक सोच भी नहीं सकता था। हिंदी सिनेमा को एक नई यथार्थवादी भाषा दे रहे थे, शोधपरक पटकथाएं तैयार करा रहे थे, उनके कलाकार अभिनय में नए कीर्तिमान बना रहे थे। वहीं, दूसरी तरफ उन्होंने आजीवन काम की निरंतरता भी बनाए रखी। उन्होंने सन् 1972 से 1987 तक लगभग हर साल एक फ़िल्म बनाई। सिर्फ 80, 84 और 86 में उनकी कोई फ़िल्म नहीं रिलीज हुई। वे अपनी फ़िल्मों के लिए स्पांसर खोजते थे और उनकी बहुत सी फिल्में आर्थिक रूप से भी सफल रहीं।
इस लिहाज से 'मंथन' (1976) सबसे रोचक उदाहरण है। इस फिल्म का निर्माण 'नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड' ने किया था और इसकी कहानी भारत में श्वेत क्रांति और वर्गीस कुरियन के सहकारी आंदोलन पर आधारित थी। फ़िल्म के निर्माण में करीब पांच लाख किसानों ने दो-दो रुपये का योगदान किया था। कहते हैं कि जब यह फ़िल्म रिलीज हुई तो इसे ‘अपनी फ़िल्म' मानकर किसान ट्रकों और ट्रालियों भरकर फ़िल्म देखने जाते थे। यह फ़िल्म व्यावसायिक रूप से बेहद सफल रही थी।
इसके बाद से श्याम बेनेगल ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। हर बार वे एक नए विषय के साथ सामने आते थे। अंतिम समय तक वे किसी भी विषय को दोहराते नहीं पाए गए। ‘जुनून’ (1979) जैसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली फ़िल्म के तुरंत बाद वे ‘कलयुग’ (1981) में महाभारत को आधार बनाकर आधुनिक कारोबारी दुनिया में रिश्तों की पड़ताल करते नजर आते हैं। ‘मंडी’ (1983) में कोठे के जीवन के यादगार और प्रामाणिक चित्रण के बाद वे ‘त्रिकाल’ (1985) में गोवा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि चुनते हैं। ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ (1993) जैसे जटिल बहुस्तरीय कथानक पर काम करने के बाद ‘मम्मो’ (1994) में बिल्कुल सीधे-सरल ढंग से अपनी बात रखने का साहस दिखाया।
इतना ही नहीं नब्बे के दशक में जब ज्यादातर समानांतर सिनेमा आंदोलन के निर्देशक अपनी चमक खो चुके थे, श्याम बेनेगल लगातार प्रासंगिक बने रहे। उन्होंने ‘सरदारी बेगम’ (1996), ‘समर’ (1999), ‘हरी-भरी’ (2000), ‘जुबैदा’ (2001) और ‘द फॉरगॉटन हीरो’ (2005) जैसी फ़िल्में बनाईं और चर्चा में बने रहे। अपनी रचनात्मकता के उत्तरार्ध में उन्होंने अपनी जानी-पहचानी शैली से बिल्कुल अलग ‘वेलकम टु सज्जनपुर’ (2008) और ‘वेल डन अब्बा’ (2010) जैसी फ़िल्में बनाईं और उस पीढ़ी से बहुत सहजता के साथ कनेक्ट हो गए जो सत्तर के दशक में ‘अंकुर’ और ‘निशांत’ वाले बेनेगल को नहीं जानती थी। श्याम बेनेगल का सबसे बड़ा योगदान विषय को उसकी पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करना माना जा सकता है। उनकी फ़िल्में किसी डाक्यूमेंट्री की हद तक प्रामाणिक होती थीं। वे चाहे कोई भी विषय चुनें, उनकी फ़िल्मों में वेशभूषा, परिवेश, बोलचाल ... सभी पर गहरा शोध मिलता है। ‘जुनून’ जैसी फ़िल्म बनाना आसान नहीं था, जो सन् 1857 के गदर की पृष्ठभूमि में प्रेमकथा रचने का साहस करती है। इस बहाने बेनेगल उस दौर को ठीक वैसे देखते हैं, सपाट यथार्थवाद से अलग, किसी भी काल या परिवेश को अलग-अलग पहलुओं से देखना और इस तरह से यथार्थ को उसके तीनों आयाम के साथ लेकर आना। यथार्थ को इकहरे ढंग से न देखकर उसके सभी पहलुओं की पड़ताल की यह उत्कंठा उन्हें धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ तक ले आता है। ‘समर’ (1999) जटिल यथार्थ को समझने की इस शैली का चरमोत्कर्ष मिलता है, जहां सिनेमा के भीतर सिनेमा बन रहा है और उसमें सत्य के कई पक्ष उजागर हो रहे हैं।
लेखन के तौर पर भी उनका सिनेमा बहुत मजबूत रहा। खास तौर पर अपनी आरंभिक फ़िल्मों में जिस तरह उन्हें मराठी के श्रेष्ठतम नाटककारों का सहयोग मिला है, उसने उनके सिनेमा को एक नई ऊंचाई दी। पहली ही फिल्म ‘अंकुर’ के संवाद नाटककार सत्यदेव दुबे ने लिखे, तो ‘निशांत’, ‘मंथन’ की पटकथा मराठी के जाने-माने नाटककार विजय तेंडुलकर, और ‘भूमिका’ की पटकथा गिरीश कर्नाड ने लिखी थी। ‘जुनून’ के संवाद उर्दू लेखिका इस्मत चुगताई ने लिखे, ‘मंडी’ और ‘मम्मो’ में शमा ज़ैदी का लेखन सामने आया। दूरदर्शन के माध्यम से उन्होंने ‘भारत एक खोज’ जैसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पर काम किया, जो अब एक दस्तावेज की शक्ल ले चुका है।
श्याम बेनेगल यथार्थवादी धारा के होते हुए भी पुराने दौर के चेतन आनंद, बिमल रॉय, गुरुदत्त और राज कपूर जैसे निर्देशकों की उस परंपरा से जुड़े हुए नजर आते थे, जिन्होंने अपने काम को ही अपनी बात कहने का माध्यम बनाया। आरंभिक फ़िल्मों में सामाजिक असमानता और जाति व्यवस्था से शुरू करके वे मजदूरों के शोषण, सहकारी आंदोलन, लैंगिक भेदभाव और सत्ता के दुरुपयोग जैसे विषयों पर आए और बाद में नेहरू, बोस तथा मुजीब के बहाने वृहत्तर राजनीतिक परिदृश्य को सिनेमा के माध्यम से समझने का प्रयास किया।
श्याम बेनेगल की फ़िल्मों ने भारत के कुछ बेहतरीन अभिनेताओं को दर्शकों से परिचित कराया। इनमें स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी और नसीरुद्दीन शाह शामिल थे। वहीं, कई अन्य कलाकारों ने उनके कुशल निर्देशन में अपने करियर के सबसे गहन और संवेदनशील प्रदर्शन किए। इनमें ओम पुरी, अमरीश पुरी, अनंत नाग, मोहन आगाशे, कुलभूषण खरबंदा, इला अरुण, नीना गुप्ता और केके रैना जैसे कलाकार शामिल थे। 1977 की भूमिका में, बेनेगल ने स्मिता पाटिल को उनके सबसे प्रभावशाली प्रदर्शन में निर्देशित किया, जिसमें उन्होंने एक ऐसी अभिनेत्री की भूमिका निभाई जो अपने जीवन में कई अशांत रिश्तों से जूझ रही है। 1983 की हास्य प्रधान फ़िल्म मंडी में, बेनेगल ने एक बड़े कलाकार दल को निर्देशित किया और सुनिश्चित किया कि हर कलाकार अपनी उपस्थिति दर्ज कराए। 1981 की कलयुग में, उन्होंने महाभारत की कहानी को दो व्यावसायिक परिवारों के बीच के युद्ध के रूप में कल्पनाशील ढंग से पेश किया, जिसमें एक बड़ा कलाकार समूह शामिल था।
अभिनेताओं को लेकर बेनेगल की दृष्टि के बारे में गिरीश कर्नाड ने संगीता दत्ता से कहा: “श्याम ने स्टार सिस्टम को अलविदा कहा और नए कलाकारों को चुना, और उन्होंने अपना खुद का स्टार सिस्टम और तकनीकी टीम बनाई।”
अभिनेताओं के अलावा, बेनेगल ने लेखकों के साथ दीर्घकालिक सहयोग बनाए रखा। इनमें सत्यदेव दुबे, गिरीश कर्नाड, शामा ज़ैदी और अतुल तिवारी जैसे नाम शामिल थे। सिनेमैटोग्राफर गोविंद निहलानी ने बेनेगल की 11 फ़िल्मों में अपने चित्रात्मक योगदान दिए, बाद में वे खुद निर्देशक बने। संगीतकार वनराज भाटिया भी उनके लगातार सहयोगी थे और बेनेगल के साथ जुड़ाव के कारण घर-घर में पहचाने जाने लगे।
सिनेमा के अलावा भी श्याम सेंसरशिप, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा सिनेमा के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने को लेकर लगातार मुखर रहे। उन्होंने सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों, सिनेमा के बदलते स्वरूप और संस्कृति के महत्व पर कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में विचार साझा किए। विभिन्न फिल्म फेस्टिवल्स, साहित्य उत्सवों और पब्लिक मंचों के माध्यम से अपनी बात रखने से पीछे नहीं हटते थे। आईएफएफआई और मामी जैसे प्रमुख महोत्सवों में उन्हें अक्सर पैनलिस्ट के रूप में अपनी बात कहते हुए पाया गया।
भारतीय सिनेमा की आत्मा के तौर पर देखे जाने वाले इस लीजेंड फ़िल्मकार को पिछले साल 2024 में उनके 90वें जन्मदिन के कुछ दिनों बाद स्ट्रोक की समस्या के चलते मुंबई के अस्पताल में भर्ती किया गया था, जहां 23 दिसंबर 2024 को उनका निधन हो गया। आज उनकी पहली पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि...
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