सुरों की 'मल्लिका-ए-तरन्नुम' नूरजहां जी को आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें ख़िराज-ए-अक़ीदत //
हिंदी व उर्दू सिनेमा की महान अदाकारा व गायिका 'नूरजहां' जिनकी सुंदरता और गायिकी को भारत व पाकिस्तान की आवाम ने सर आंखों पर बैठाया। अपनी दिलकश आवाज़ और अदाओं से मदहोश कर देने वाली नूरजहां हमेशा से ही बेबाक़, बिंदास व किसी बंदिश को न मानने वाली शख़्शियत रहीं। पूरा जमाना लता मंगेशकर को सुनना चाहता है, वहीं लता मंगेशकर के लिए नूरजहां को सुनना सबसे अहम रहा है। नूरजहां, जिन्होंने 1947 में यह कहकर हिंदुस्तान छोड़ दिया था कि जहां पैदा हुई हूँ, वहीं रहूंगी और मरूंगी। वही नूरजहां, जिनका गाया गाना 'आवाज़ दे कहां है ...' कहीं बजता है, तो अब भी वैसी ही लज्ज़त देता है।
हिंदी व उर्दू सिनेमा की महान अदाकारा व गायिका 'नूरजहां' जिनकी सुंदरता और गायिकी को भारत व पाकिस्तान की आवाम ने सर आंखों पर बैठाया। अपनी दिलकश आवाज़ और अदाओं से मदहोश कर देने वाली नूरजहां हमेशा से ही बेबाक़, बिंदास व किसी बंदिश को न मानने वाली शख़्शियत रहीं। पूरा जमाना लता मंगेशकर को सुनना चाहता है, वहीं लता मंगेशकर के लिए नूरजहां को सुनना सबसे अहम रहा है। नूरजहां, जिन्होंने 1947 में यह कहकर हिंदुस्तान छोड़ दिया था कि जहां पैदा हुई हूँ, वहीं रहूंगी और मरूंगी। वही नूरजहां, जिनका गाया गाना 'आवाज़ दे कहां है ...' कहीं बजता है, तो अब भी वैसी ही लज्ज़त देता है।
नूरजहां, जिन्हें मल्लिका-ए तरन्नुम कहा जाता है। जिनके बारे में रेहान फजल ने बीबीसी में पाकिस्तानी पत्रकार खालिद हसन के शब्दों को दोहराया है। इनके मुताबिक 1998 में नूरजहां को जब दिल का दौरा पड़ा। तब खालिद हसन ने लिखा था कि दिल का दौरा तो उन्हें पड़ना ही था। पता नहीं कितने दावेदार थे उसके। और पता नहीं, कितनी बार धड़का था उन लोगों के लिए, जिन पर मुस्कुराने की इनायत की थी उन्होंने। यह सच है। न जाने कितने मर्दों पर नूरजहां का दिल आया और न जाने कितने मर्दों का दिल नूरजहां पर। इसे लेकर नूरजहां हमेशा फ़ख्र करती रहीं। और उन्होंने कभी छिपाने की कोशिश भी नहीं की।
21 सितंबर 1926 को नूरजहां का जन्म इमदाद अली और फतेह बीबी के घर कसूर, पंजाब (पाकिस्तान) में हुआ। इनका पैदाइशी नाम 'अल्लाह रक्खी वसई' था। इनका परिवार संगीत से जुड़ा था। माता-पिता चाहते थे कि उनकी बेटी भी संगीत में आए। हालांकि नूरजहां को फिल्मों में काम करने का ज्यादा शौक था। पांच या छह साल की उम्र में ही नूरजहां ने लोक संगीत गाना शुरू कर दिया था। वो थिएटर से भी जुड़ गई थीं। उनकी मां ने उन्हें सीखने के लिए उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब के पास भेजा। नौ साल की उम्र में उन्होंने ग़ज़ल गाना शुरू किया। अब तक उनका नाम अल्लाह रक्खी ही था। कलकत्ता में उन्हें बेबी नूरजहां नाम मिला। उन्हें फिल्मों में काम शुरू किया और जल्दी ही बड़ी स्टार बन गईं। इसी दौरान उन्होंने शौकत हुसैन रिजवी से शादी कर ली। शौकत साहब उनके अनगिनत चाहने वालों में एक थे।
1947 में विभाजन के समय उन्होंने अपने पति के साथ पाकिस्तान जाने का फैसला किया। उनका कहना था, जहां पैदा हुई हूँ, वहीं जाऊंगी। यह वो दौर था, जब बंबई में वो बड़ा नाम कमा चुकी थीं. उनकी फिल्में खानदान, नौकर, दोस्त, जीनत, विलेज गर्ल, बड़ी मां, अनमोल घड़ी और जुगनू थीं, जो खासा नाम कमा चुकी थीं। एक बेहद मशहूर कव्वाली भी गाई थी। "आहें न भरीं, शिकवे न किए ..." यह कव्वाली जोहराबाई अंबालेवाली और अमीरबाई कर्नाटकी के साथ गाई थी। माना जाता है कि दक्षिण एशिया में पहली बार किसी फिल्म में महिला आवाज में कव्वाली का इस्तेमाल हुआ। उनकी शोहरत आसमान छूने लगी थी। लेकिन शोहरत भी उन्हें नहीं रोक पाई। पाकिस्तान में भी वो फ़िल्मों से जुड़ीं। 1951 में उनकी फ़िल्म आई "चन्न वे"। इस बीच इनका पति से अलगाव हुआ। इसकी एक वजह यह थी कि उनके नाम तमाम अफेयर्स के किस्से जुड़ते जा रहे थे। इनमें से एक अफेयर क्रिकेटर मुदस्सर नजर के पिता नज़र मोहम्मद के साथ था। कहा जाता है कि एक बार घर में नज़र मोहम्मद और नूरजहां मौजूद थे। इसी दौरान नूरजहां के पति आ गए। और नजर मोहम्मद को खिड़की से कूद कर भागना पड़ा, जसकी वजह से उनकी टांग टूट गई। और उनका क्रिकेट कैरियर खत्म हो गया।
पहली शादी से उनके तीन बच्चे थे, जिनमें गायिका जिल-ए हुमा शामिल हैं। 1959 में उन्होंने खुद से नौ साल छोटे अदाकार 'एजाज दुर्रानी' से शादी की। इस शादी से भी उनके तीन बच्चे हुए। 1963 में उन्होंने फिल्मों से रिटायर होने का फैसला किया। उनकी दूसरी शादी भी सफल नहीं रही और 1970 में उनका तलाक हो गया।
फ़िल्मों में अदाकारी बंद करने के बाद नूरजहां ने गाने और गज़ल गायिकी ज्यादा ध्यान देना शुरू किया। वो तमाम महफिलों का भी हिस्सा बनीं। जिस दौर में पाकिस्तान में ज्यादातर गायकों को एक गाने के साढ़े तीन सौ रुपये मिलते थे, लोग नूरजहां को दो हजार रुपये देने को तैयार रहते थे। उनकी उलेखनीय फिल्में रहीं - ज़ीनत (1945), अनमोल घड़ी (1946), जुगनू (1947), दुपट्टा (1952), इंतज़ार (1956), अनारकली (1958), कोयल (1959)। उन्होंने एक भजन भी गाया - 'मन मंदिर के देवता ...' हालांकि रेडियो पाकिस्तान ने इसे बैन कर दिया।
1982 में वो भारत आईं। उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी मुलाकात की। स्टेज पर तीन गाने गाए, इनमें से एक था 'मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग ...' फ़ैज़ की नज़्म है यह। लेकिन नूरजहां ने इसे इतना मक़बूल कर दिया कि फ़ैज़ हमेशा कहा करते थे कि यह नज़्म मेरी नहीं रही, यह तो नूरजहां की हो गई है। 1982 के उस भारत दौरे पर हुए स्टेज शो में दिलीप कुमार ने उन्हें स्टेज पर आमंत्रित किया था। नौशाद का संगीतबद्ध गाना भी उन्होंने गाया था 'आवाज दे कहां है ...'।
पाकिस्तान में उनका गाया 'चांदनी रातें ...' इस कदर लोकप्रिय हुआ कि 90 के दशक में उसका रीमिक्स वर्जन भारत में भी आया। यह वर्जन भी खासा मक़बूल हुआ। उनसे एक बार किसी ने पूछा था कि गाना कब शुरू किया। इस पर नूरजहां ने जवाब दिया कि जब पैदा हुई, तबसे। यह सही भी लगता है। लेकिन पैदा होने से गायकी से जुड़ने वाली नूरजहां के लिए अंतिम वक्त बहुत अच्छा नहीं रहा। 1986 में वो अमेरिका गई थीं। वहां सीने में दर्द हुआ। उन्हें पेसमेकर लगाना पड़ा। 23 दिसंबर 2000 को उन्हें दिल का दौरा पड़ा। वो शनिवार का दिन था जब नूरजहां का निधन हुआ। ऐसी शख्सीयत, जिसने अपनी जिद पर जिंदगी जी। जिसने अपनी मर्जी से जिंदगी जी।
