डॉ. फ़िरदौस ख़ान
’लौह महिला’ के नाम से मशहूर इंदिरा गांधी न सिर्फ़ भारतीय राजनीति पर छाई रहीं, बल्कि विश्व राजनीति के क्षितिज पर भी सूरज की तरह चमकीं. उनकी ज़िन्दगी संघर्ष, चुनौतियों और कामयाबी का एक ऐसा सफ़रनामा है, जो अदम्य साहस का इतिहास बयां करता है. अपने कार्यकाल में उन्होंने अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना किया और हर मोर्चे पर कामयाबी का परचम लहराया. मामला चाहे कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी कलह का हो, अलगाववाद का हो, पाकिस्तान के साथ जंग का हो, बांग्लादेश की आज़ादी का हो, या फिर इसी तरह का कोई और बड़ा मुद्दा हो. हर मामले में उन्होंने अपनी सूझबूझ और साहस का परिचय दिया. बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स का ख़ात्मा, प्रथम पोखरण परमाणु विस्फोट, प्रथम हरित क्रांति जैसे कार्यों के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा. गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अगुवाई और बांग्लादेश की आज़ादी भी उनके साहसिक कार्यों में शामिल है.

देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी का जन्म 19 नवंबर 1917 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में हुआ था. उनका पूरा नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी था. उनके पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री थे और माता कमला नेहरू थीं. उन्होंने शुरुआती तालीम इलाहाबाद के स्कूल में ही ली. इसके बाद उन्होंने गुरु रबींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन स्थित विश्व भारती विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया. कहते हैं, रबीन्द्रनाथ टैगोर ने ही उन्हें ’प्रियदर्शिनी’ नाम दिया था. इसके बाद वे इंग्लैंड चली गईं और ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में बैठीं,लेकिन नाकाम हुईं. इसके बाद उन्होंने ब्रिस्टल के बैडमिंटन स्कूल में कुछ महीने बिताए. फिर साल 1937 में इम्तिहान में कामयाब होने के बाद उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड के सोमरविल कॉलेज में दाख़िला ले लिया. उस दौरान उनकी मुलाक़ात फ़िरोज़ गांधी से हुई, जिन्हें वे इलाहाबाद से जानती थीं. फ़िरोज़ गांधी उन दिनों लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स में पढ़ रहे थे. उनकी जान-पहचान मुहब्बत में बदल गई और फिर 16 मार्च 1942 को उन्होंने इलाहाबाद के आनंद भवन में  फिरोज़ से विवाह कर लिया. उनके दो बेटे संजय और राजीव हुए. राजीव गांधी बाद में देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री बने.

बचपन से ही इंदिरा गांधी को सियासी माहौल मिला था, जिसका उनके किरदार और उनकी ज़िन्दगी पर गहरा असर पड़ा. साल 1941 में ऑक्सफ़ोर्ड से स्वदेश वापसी के बाद वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गईं. उन्होंने युवाओं के लिए वानर सेना बनाई. वानर सेना विरोध प्रदर्शन और झंडा जुलूस निकालने के साथ-साथ कांग्रेस नेताओं की भी ख़ूब मदद करती थी, मसलन संवेदनशील प्रकाशनों और प्रतिबंधित सामग्रियों को गंतव्य तक पहुंचाने का काम करती थी. आज़ादी की लड़ाई में इसके काम को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.  1930 की दहाई के शुरू का वाक़िया है, जब इंदिरा गांधी ने पुलिस की निगरानी में रह रहे अपने पिता के घर से एक अहम दस्तावेज़ को अपनी किताबों के बस्ते में छुपाकर गंतव्य तक पहुंचाया था. इस दहाई के आख़िर में ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में अपनी पढ़ाई के दौरान वे लंदन में आज़ादी के समर्थक दल भारतीय लीग की सदस्य बनीं और विदेश में रहकर भी स्वदेश के लिए काम करती रहीं. सितम्बर 1942 में उन्हें  ब्रिटिश हुकूमत द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया. आख़िर तक़रीबन 243 दिन जेल में गुज़ारने के बाद उन्हें 13 मई 1943 को रिहा किया गया. साल 1947 के देश के बंटवारे के दौरान उन्होंने शरणार्थी शिविरों को संगठित किया और पाकिस्तान से आए लाखों शरणार्थियों के लिए भोजन और चिकित्सा का इंतज़ाम किया. उनके इस कार्य को ख़ूब सराहा गया और इससे उन्हें एक नई पहचान मिली.

1950 की दहाई में इंदिरा गांधी अपने पिता यानी देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के निजी सहायक के तौर पर काम कर रही थीं. साल 1959 वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं. पार्टी के लिए उन्होंने सराहनीय काम किया. 27 मई, 1964 को उनके पिता का देहांत हो गया. इसके बाद वे राज्यसभा सदस्य के रूप में चुनी गईं और प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मंत्री बनीं. साल 1965 की भारत-पाकिस्तान जंग के दौरान वे सेना की हौसला अफ़ज़ाई के लिए श्रीनगर सीमा के इलाक़े में गईं. सेना की चेतावनी के बावजूद उन्होंने दिल्ली आना मंज़ूर नहीं किया और सेना का मनोबल बढ़ाती रहीं. उस दौरान लालबहादुर शास्त्री ताशक़ंद गए हुए थे, जहां सोवियत मध्यस्थता में पाकिस्तान के अयूब ख़ान के साथ शांति समझौते पर दस्तख़त करने के कुछ घंटों बाद ही उनका निधन हो गया.

इसके बाद 19 जनवरी, 1966 को इंदिरा गांधी देश की तीसरी प्रधानमंत्री बनीं. उस वक़्त कांग्रेस दो गुटों में बंट चुकी थी. समाजवादी ख़ेमा इंदिरा गांधी के साथ खड़ा था, जबकि दूसरा रूढ़िवादी गुट मोरारजी देसाई का समर्थक था. मोरारजी देसाई इंदिरा गांधी को ’गूंगी गुड़िया’ कहा करते थे, क्योंकि वे बहुत कम बोलती थीं. साल 1967 के चुनाव में 545 सीटों वाली लोकसभा में कांग्रेस को 297 सीटें मिलीं. उन्हें प्रधानमंत्री चुन लिया गया और वे  24 मार्च, 1977 अपने पद पर बनी रहीं. क़ाबिले-ग़ौर है कि वे 1967 में प्रधानमंत्री पद के लिए चुने जाने के बाद आख़िर तक प्रधानमंत्री बनी रहीं, लेकिन 1977 से 1980 के बीच उन्हें हुकूमत से बेदख़ल रहना पड़ा. उन्होंने मोरारजी देसाई को देश का उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री बनाया. साल 1969 में मोरारजी देसाई के साथ अनेक मुद्दों पर मतभेद हुए और आख़िरकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बंट गई. उन्होंने समाजवादी और साम्यवादी दलों के समर्थन से हुकूमत की. इसके कुछ वक़्त बाद फिर से देश को जंग का सामना करना पड़ा. साल 1971 में जंग के दौरान उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति को नई दिशा दी. नतीजतन, जंग में भारत ने शानदार जीत हासिल की. इस दौरान बांग्लादेश को पाकिस्तान से आज़ादी मिली. दरअसल, बांग्लादेश को आज़ाद कराने में इंदिरा गांधी ने बेहद अहम किरदार निभाया था. कहते हैं कि इस जीत के बाद जब संसद सत्र शुरू हुआ, तो विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने भाषण मे इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ कहकर संबोधित किया था.

इंदिरा गांधी ने  26 जून, 1975 को देश में आपातकाल लागू किया. इसकी वजह से उनकी पार्टी 1977 के आम चुनाव में पहली बार हार गई. उन्हें अक्टूबर 1977 और दिसम्बर 1978 में जेल तक जाना पड़ा. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और जद्दोजहद करती रहीं. फिर 1980 में उन्होंने हुकूमत में वापसी की. कांग्रेस को शानदार कामयाबी मिली और 22 राज्यों में से 15 राज्यों में कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी. 14 जनवरी, 1980 को वे फिर से देश की प्रधानमंत्री बनीं और अपनी ज़िन्दगी के आख़िर तक हुकूमत की. उन दिनों पंजाब में आतंकवाद चरम पर था. उन्होंने पंजाब में अलगाववादियों के ख़िलाफ़ मुहिम शुरू कर दी. इसकी वजह से अलगाववादी उनकी जान के दुश्मन बन गए और 31 अक्टूबर, 1984 को दिल्ली में उनके अंगरक्षकों ने ही उनका क़त्ल कर दिया. उनकी आकस्मिक मौत से देश शोक में डूब गया.

श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पंडित जवाहरलाल  नेहरू से श्रीमती इंदिरा गांधी की तुलना करते हुए कहा था कि अपने पिता के विपरीत श्रीमती इंदिरा गांधी संसद से दूर-दूर रहती थीं. आरंभ में तो वह इतनी चुप रहती थीं कि उन्हें ’गूंगी गुड़िया’ तक कह दिया गया था, किंतु यह उनके साथ अन्याय था. वह कम बोलने में विश्वास करती थीं. सबकी बातें सुनने के बाद अपना मत स्थिर करती थीं और सबसे अंत में प्रकट करती थीं. वह सदन में आकर समय गंवाने की बजाय अपने कमरे में बैठकर सत्ता की चाबियां घुमाती थीं. उन्होंने चौदह वर्ष तक शासन कर विश्व को चमत्कृत कर दिया और विरोधियों को कई बार पछाड़ा. इंदिरा जी के साथ संसद में कई बार काफी नोक-झोंक होती रहती थी, किंतु राजनीति के मतभेदों को उन्होंने व्यक्तिगत संबंधों में बाधक नहीं बनने दिया. उनकी निर्मम त्रासद और क्रूर हत्या ने एक ऐसे व्यक्तित्व को हमारे बीच से उठा लिया, जिन्हें योग्य पिता की योग्य पुत्री के नाते ही नहीं, अपनी निजी योग्यता, कुशलता, निर्णय क्षमता तथा कठोरता के कारण याद किया जाएगा.

दरअसल, सियासत की इस महान और कामयाब शख़्सियत को अपनी निजी ज़िन्दगी में कई ग़म मिले थे. साल 1936 में उनकी मां कमला नेहरू तपेदिक से एक लम्बे अरसे तक जूझने के बाद उन्हें अकेला छोड़ गईं. उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 18 साल थी. फिर शादीशुदा ज़िन्दगी में भी उन्हें दुख मिले.शादी के बाद उनकी शुरुआती ज़िन्दगी ठीक रही, लेकिन बाद में वे अपने पिता के घर आ नई दिल्ली आ गईं. देश के पहले आम चुनाव 1951 में वे अपने पिता और पति दोनों के लिए चुनाव प्रचार कर रही थीं. चुनाव जीतने के बाद फ़िरोज़ गांधी ने अपने लिए अलग घर चुना. फिर साल 1958 में उप-निर्वाचन के कुछ वक़्त बाद फिरोज़ गांधी को दिल का दौरा पड़ा. इस दौरान इंदिरा गांधी ने उनकी ख़ूब ख़िदमत की. उनके रिश्ते बेहतर होने लगे, लेकिन 8 सितम्बर1960 को जब इंदिरा गांधे अपने पिता के साथ एक विदेश दौरे पर गई थीं, तब फिरोज़ की मौत हो गई. उन्होंने ख़ुद को पार्टी और देश के काम में मसरूफ़ कर लिया. उन्होंने संजय गांधी को अपना सियासी वारिस चुना, लेकिन 23 जून, 1980 को एक उड़ान हादसे में उनकी मौत हो गई. इसके बाद वे अपने छोटे बेटे राजीव गांधी को सियासत में लेकर आईं. राजीव गांधी पायलट की नौकरी में ख़ुश थे और सियासत में आना नहीं चाहते थे, लेकिन मां को वे इंकार न कर सके और न चाहते हुए भी उन्हें सियासत में क़दम रखना पड़ा.

इंदिरा गांधी ख़ाली वक़्त में अपने परिजनों के लिए स्वेटर बुना करती थीं. उन्हें संगीत और किताबों से भी ख़ास लगाव था. पाकिस्तानी गायक मेहंदी हसन की ग़ज़लें भी अकसर सुनती थीं. सोने से पहले वे आध्यात्मिक किताबें पढ़ती थीं. भारत रत्न से सम्मानित इंदिरा गांधी ने कहा था- जीवन का महत्व तभी है, जब वह किसी महान ध्येय के लिए समर्पित हो. यह समर्पण ज्ञान और न्याययुक्त हो. शहादत कुछ ख़त्म नहीं करती, वो महज़ शुरुआत है. अगर मैं एक हिंसक मौत मरती हूं, जैसा कि कुछ लोग डर रहे हैं और कुछ षड़यंत्र कर रहे हैं, तो मुझे पता है कि हिंसा हत्यारों के विचार और कर्म में होगी, मेरे मरने में नहीं. लोग अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं, लेकिन अधिकारों को याद रखते हैं. अपने आप को खोजने का सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि आप अपने आप को दूसरों की सेवा में खो दें. संतोष प्राप्ति में नहीं, बल्कि प्रयास में होता है पूरा प्रयास पूर्ण विजय है. प्रश्न करने का अधिकार मानव प्रगति का आधार है. देशों के बीच के शांति, व्यक्तियों के बीच प्यार की ठोस बुनियाद पर टिकी होती है
उन्होंने यह भी कहा था, जब मैं सूर्यास्त  पर आश्चर्य या चांद की ख़ूबसूरती की प्रशंसा कर रही होती हूं, उस समय मेरी आत्मा इन्हें बनाने वाले की पूजा कर रही होती है.
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं) 


डॉ. फ़िरदौस ख़ान
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू आधुनिक भारत के निर्माताओं में एक माने जाते हैं.
देशभर में उनके जन्म दिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही वजह थी कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता था. एक बार चाचा नेहरू से मिलने एक सज्जन आए. बातचीत के दौरान उन्होंने नेहरू जी से पूछा- पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गए हैं,  लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, जबकि आपसे छोटा होते हुए भी मैं बूढ़ा दिखता हूं. नेहरू जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- इसके तीन कारण हैं.  पहला, मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूं. उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूं., इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूं. दूसरा, मैं प्रकृति प्रेमी हूं और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरनों, चांद, सितारों से बहुत प्यार करता हूं. मैं इनके साथ में जीता हूं, जिससे यह मुझे तरोताज़ा रखते हैं. तीसरी वजह यह है कि ज़्यादातर लोग हमेशा छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसके बारे में सोच-सोचकर दिमाग़ ख़राब करते हैं. मेरा नज़रिया अलग है और मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता. यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस पड़े.

पंडित जवाहरलाल नेहरू  का जन्म 14 नवंबर 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था. वह पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी के इकलौते बेटे थे. उनसे छोटी उनकी दो बहनें थीं. उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं. उनकी शुरुआती तालीम घर पर ही हुई. उन्होंने 14 साल की उम्र तक घर पर ही कई अंग्रेज़ शिक्षकों से तालीम हासिल की. आगे की शिक्षा के लिए 1905 में जवाहरलाल नेहरू को इंग्लैंड के हैरो स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहां से उन्होंने प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की. 1912 में उन्होंने लंदन के इनर टेंपल से वकालत की डिग्री हासिल की और उसी साल भारत लौट आए. उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी, लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. भारतीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी और वह सियासी कार्यक्रमों में शिरकत करने लगे. उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया लिया. 8 फ़रवरी 1916 को कमला कौल से उनका विवाह हो गया. 19 नवंबर 1917 को उनके यहां बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमंत्री बनीं. इसके बाद उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ, लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई.

पंडित जवाहरलाल नेहरू  1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए. मगर 1929 में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे. इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य का ऐलान किया गया. इससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की मांग थी. वह जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की जांच में देशबंधु चितरंजनदास और महात्मा गांधी के सहयोगी रहे और 1921 के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गांधी के बेहद क़रीब में आ गए और गांधी जी की मौत तक यह नज़दीकी क़ायम रही. कांग्रेस पार्टी के साथ नेहरू का जुड़ाव 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के फ़ौरन बाद शुरू हुआ. उस वक़्त राष्ट्रवादी गतिविधियों की लहर ज़ोरों पर थी और अप्रैल 1919 को अमृतसर के नरसंहार के रूप में सरकारी दमन खुलकर सामने आया. स्थानीय ब्रिटिश सेना कमांडर ने अपनी टुकड़ियों को निहत्थे भारतीयों की एक सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया, जिसमें 379 लोग मारे गए और तक़रीबन बारह सौ लोग ज़ख़्मी हुए.

1921 के आख़िर में जब कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुछ प्रदेशों में ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया,  तब पहली बार नेहरू जेल गए. अगले 24 साल में उन्हें आठ बार गिरफ्तार कर जेल भेजा गया. नेहरू ने कुल मिलाकर नौ साल से ज़्यादा वक़्त जेलों में गुज़ारा. अपने मिज़ाज के मुताबिक़ ही उन्होंने अपनी जेल-यात्राओं को असामान्य राजनीतिक गतिविधि वाले जीवन के अंतरालों के रूप में वर्णित किया है.  कांग्रेस के साथ उनका राजनीतिक प्रशिक्षण 1919 से 1929 तक चला. 1923 में और फ़िर 1927 में वह दो-दो साल के लिए पार्टी के महासचिव बने. उनकी रुचियों और ज़िम्मेदारियों ने उन्हें भारत के व्यापक क्षेत्रों की यात्रा का मौक़ा दिया, ख़ासकर उनके गृह प्रदेश संयुक्त प्रांत का,  जहां उन्हें घोर ग़रीबी और किसानों की बदहाली की पहली झलक मिली और जिसने इन महत्वपूर्ण समस्याओं को दूर करने की उनकी मूल योजनाओं को प्रभावित किया. हालांकि उनका कुछ-कुछ झुकाव समाजवाद की ओर था, लेकिन उनका सुधारवाद किसी निश्चित ढांचे में ढला हुआ नहीं था. 1926-27 में उनकी यूरोप और सोवियत संघ की यात्रा ने उनके आर्थिक और राजनीतिक चिंतन को पूरी तरह प्रभावित कर दिया.
वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े, चाहे असहयोग आंदोलन हो या फिर नमक सत्याग्रह, या फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन हो. उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत की. नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे. 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया. वह 1923 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए. गांधी जी ने यह सोचकर उन्हें यह पद सौंपा कि अतिवादी वामपंथी धारा की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं को नेहरू कांग्रेस आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल कर सकेंगे.
1931 में पिता की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए. हालांकि 1942 तक गांधी जी ने आधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, लेकिन 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे. मार्च 1931 में महात्मा और ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड इरविन (बाद में लॉर्ड हैलिफ़ैक्स) के बीच हुए गांधी-इरविन समझौते से भारत के दो प्रमुख नेताओं के बीच समझौते का आभास मिलने लगा. इसने एक साल पहले शुरू किए गए गांधी जी के प्रभावशाली सविनय अवज्ञा आंदोलन को तेज़ी प्रदान की, जिसके दौरान नेहरू को गिरफ़्तार किया गया. दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद लंदन से स्वदेश लौटने के कुछ ही वक़्त बाद जनवरी 1932 में गांधी को जेल भेज दिया. उन पर फिर से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की कोशिश का आरोप लगाया गया. नेहरू को भी गिरफ़्तार करके दो साल की क़ैद की सज़ा दी गई.

भारत में स्वशासन की स्थापना की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलनों की परिणति आख़िरकार 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के रूप में हुई, जिसके तहत भारतीय प्रांतों के लोकप्रिय स्वशासी सरकार की प्रणाली प्रदान की गई. इससे एक संघीय प्रणाली का जन्म हुआ, जिसमें स्वायत्तशासी प्रांत और रजवाड़े शामिल थे. संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन प्रांतीय स्वशासन लागू हो गया.
1930 के दशक के मध्य में नेहरू यूरोप के घटनाक्रम के प्रति ज़्यादा चिंतित थे, जो एक अन्य विश्व युद्ध की ओर बढ़ता प्रतीत हो रहा था. 1936 के शुरू में वह अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए यूरोप में थे. इसके कुछ ही वक़्त  बाद स्विट्ज़रलैंड के एक सेनीटोरियम में उनकी पत्नी की मौत हो गई. उस वक़्त भी उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि युद्ध की स्थिति में भारत का स्थान लोकतांत्रिक देशों के साथ होगा. हालांकि वह इस बात पर भी ज़ोर देते थे कि भारत एक स्वतंत्र देशों के रूप में ही ग्रेट ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन में युद्ध कर सकता है.
सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के बाद जब वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने स्वायत्तशासी प्रांतीय मंत्रिमंडलों से मशविरा किए बगैर भारत को युद्ध में झोंक दिया, तो इसके ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी के आलाकमान ने अपने प्रांतीय मंत्रिमंडल वापस ले लिए. कांग्रेस की इस कार्रवाई से राजनीति का अखाड़ा जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए साफ़ हो गया.

अक्तूबर 1940 में महात्मा गांधी जी ने अपने मूल विचार से हटकर एक सीमित नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का फ़ैसला किया, जिसमें भारत की आज़ादी के अग्रणी पक्षधरों को क्रमानुसार हिस्सा लेने के लिए चुना गया था. नेहरू को गिरफ़्तार करके चार साल की क़ैद की सज़ा दी गई. एक साल से कुछ ज़्यादा वक़्त तक ज़ेल में रहने के बाद उन्हें अन्य कांग्रेसी क़ैदियों के साथ रिहा कर दिया गया. इसके तीन दिन बाद हवाई में पर्ल हारबर पर बमबारी हुई. 1942 में जब जापान ने बर्मा के रास्ते भारत की सीमाओं पर हमला किया  तो इस नए सैनिक ख़तरे के मद्देनज़र ब्रिटिश सरकार ने भारत की तरफ़ हाथ बढ़ाने का फ़ैसला किया. प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को संवैधानिक समस्याओं को सुलझाने के प्रस्तावों के साथ भेजा. सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स  युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य और राजनीतिक रूप से नेहरू के नज़दीकी और मोहम्मद अली जिन्ना के परिचित थे. क्रिप्स की यह मुहिम नाकाम रही, क्योंकि गांधी जी आज़ादी से कम कुछ भी मंज़ूर करने के पक्ष में नहीं थे.

कांग्रेस में अब नेतृव्य गांधी जी के हाथों में था, जिन्होंने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ देने का आह्वान किया. 8 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस द्वारा भारत छोड़ो  प्रस्ताव पारित करने के बाद गांधी जी और नेहरू समेत पूरी कांग्रेस कार्यकारिणी समिति को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया. नेहरू 15 जून 1945 को रिहा हुए. लंदन में युद्ध के दौरान सत्तारूढ़ चर्चिल प्रशासन का स्थान लेबर पार्टी की सरकार ने ले लिया था. उसने अपने पहले कार्य के रूप में भारत में एक कैबिनेट मिशन भेजा और बाद में लॉर्ड वेवेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को तैनात कर दिया. अब सवाल भारत की आज़ादी का नहीं, बल्कि यह था कि इसमें एक ही आज़ाद राज्य होगा या एक से ज़्यादा होंगे. गांधी जी ने बटवारे को क़ुबूल करने से इंकार कर दिया, जबकि नेहरू ने मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए  मौन सहमति दे दी. 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग आज़ाद देश बने. नेहरू आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए.
फिर 1952 में आज़ाद भारत में चुनाव हुए. ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को आधार मान कर बनाए गए भारतीय संविधान के तहत हुआ यह पहला चुनाव था, जिसमें जनता ने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल किया. इस चुनाव के वक़्त मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी, जिनमें से 15 फ़ीसदी साक्षर थे. इस चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत से सत्ता में आई और पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने. इससे पहले वह 1947 में आज़ादी मिलने के बाद से अंतरिम प्रधानमंत्री थे. संसद की 497 सीटों के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए.  देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पहला चुनाव प्रचार भी यादगार है. कहा जाता है कि कांग्रेस का चुनाव प्रचार केवल नेहरू पर केंद्रित था. चुनाव प्रचार के लिए नेहरू ने सड़क, रेल, पानी और हवाई जहाज़ सभी का सहारा लिया. उन्होंने 25,000 मील का सफ़र किया यह सफ़र 18,000 मील हवाई जहाज़ से,  5200 मील कार से, 1600 मील ट्रेन से और 90 मील नाव से किया गया. ख़ास बात यह भी रही कि देशभर में 60  फ़ीसदी मतदान हुआ और पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 364 सीटें मिली थीं.

नेहरू के वक़्त एक और अहम फ़ैसला भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का था. इसके लिए राज्य पुनर्गठन क़ानून-1956 पास किया गया. आज़ादी के बाद भारत में राज्यों की सीमाओं में हुआ, यह सबसे बड़ा बदलाव था. इसके तहत 14 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों की स्थापना हुई. इसी क़ानून के तहत केरल और बॉम्बे को राज्य का दर्जा मिला. संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया, जिसके तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा हासिल करने का अधिकार मिला.

1929 में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था,  तब से 35 बरसों तक 1964 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मौत तक नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेहरू का सितारा अक्टूबर 1956 तक बुलंदी पर था, लेकिन 1956 में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ हंगरी के विद्रोह के दौरान भारत के रवैये की वजह से उनकी गुटनिरपेक्ष नीति की जमकर आलोचना हुई. संयुक्त राष्ट्र में भारत अकेला ऐसा गुटनिरपेक्ष देश था, जिसने हंगरी पर हमले के मामले में सोवियत संघ के पक्ष में मत दिया. इसके बाद नेहरू को गुटनिरपेक्ष आंदोलन के आह्वान की विश्वनियता साबित करने में काफ़ी मुश्किल हुई. आज़ादी के बाद के शुरूआती बरसों में उपनिवेशवाद का विरोध उनकी विदेश-नीति का मूल आधार था, लेकिन 1961 के गुटनिरपेक्ष देशों के बेलग्रेड सम्मेलन तक नेहरू ने प्रति उपनिवेशवाद की जगह गुटनिरपेक्षता को सर्वोच्च प्राथमिकता देना शुरू कर दिया था. 1962 में लंबे वक़्त से चले आ रहे सीमा-विवाद की वजह से चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी घाटी पर हमले की चेतावनी दी. नेहरू ने अपनी गुटनिरपेक्ष नीति को दरकिनार कर पश्चिमी देशों से मदद की मांग की. नतीजतन चीन को पीछे हटना पड़ा. कश्मीर नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व काल में लगातार एक समस्या बना रहा, क्योंकि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान भी इस पर अपना दावा कर रहा था. संघर्ष विराम रेखा को समायोजित करके इस विवाद को निपटाने की उनकी शुरुआती कोशिशें नाकाम रहीं और 1948 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर क़ब्ज़े की कोशिश की. भारत में बचे आख़िरी उपनिवेश पुर्तग़ाली गोवा की समस्या को सुलझाने में नेहरू अधिक भाग्यशाली रहे. हालांकि दिसंबर 1961 में भारतीय सेनाओं द्वारा इस पर क़ब्ज़ा किए जाने से कई पश्चिमी देशों में नाराज़गी पैदा हुई, लेकिन नेहरू की कार्रवाई सही थी. हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा उस वक़्त बेमानी साबित हो गया, जब सीमा विवाद को लेकर 10 अक्तूबर 1962 को चीनी सेना ने लद्दाख़ और नेफ़ा में भारतीय चौकियों पर क़ब्ज़ा कर लिया. नवंबर में एक बार फिर चीन की ओर से हमले हुए. चीन ने एकतरफ़ा युद्धविराम का ऐलान कर दिया, तब तक 1300 से ज़्यादा भारतीय सैनिक शहीद हो चुके थे. पंडित नेहरू के लिए यह सबसे बुरा दौर साबित हुआ. उनकी सरकार के ख़िलाफ़ संसद में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया. चीन के साथ हुई जंग के कुछ वक़्त बाद नेहरू की सेहत ख़राब रहने लगी. उन्हें 1963 में दिल का हल्का दौरा पड़ा, फिर जनवरी 1964 में उन्हें दौरा पड़ा. कुछ ही महीनों बाद तीसरे दौरे में 27 मई 1964 में उनकी मौत हो गई.

जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए. उन्होंने औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया. उन्होंने विज्ञान के विकास के लिए 1947  में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की. देश  के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं. खेलों में भी नेहरू की रुचि थी. उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी बताया. उन्होंने 1951 दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया.

पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि विख्यात लेखक भी थे. उनकी आत्मकथा 1936  में प्रकाशित हुई और दुनियाभर में सराही गई. उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद आदि शामिल हैं. वह भारतीय भाषाओं को काफ़ी महत्व देते थे. वह चाहते थे कि हिन्दुस्तानी जब कहीं भी एक-दूसरे से मिले तो अपनी ही भाषा में बातचीत करें. उन्होंने कहा था-मेरे विचार में हम भारतवासियों के लिए एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा. मैं आपको कह सकता हूं कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है  तो मुझे कितना बुरा लगता है. लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता है?

पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने विचारों और अपने उल्लेखनीय कार्यों की वजह से ही महान बने. विभिन्न मुद्दों पर नेहरू के विचार उन्हीं के शब्दों में- भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों पीड़ितों की सेवा है. इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान और अवसर की विषमता का अंत करना है. हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा रही है कि हर आंख के हर आंसू को पोंछ दिया जाए. ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू हैं और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा.

नेहरू जी ने कहा था- अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से आज का बड़ा सवाल विश्व शांति का है. आज हमारे लिए यही विकल्प है कि हम दुनिया को उसके अपने रूप में ही स्वीकार करें. हम देश को इस बात की स्वतंत्रता देते रहें कि वह अपने ढंग से अपना विकास करे और दूसरों से सीखे, लेकिन दूसरे उस पर अपनी कोई चीज़ नहीं थोपें. निश्चय ही इसके लिए एक नई मानसिक विधा चाहिए. पंचशील या पांच सिद्धांत यही विधा बताते हैं.

नेहरू जी ने कहा था- आप में जितना अधिक अनुशासन होगा, आप में उतनी ही आगे बढ़ने की शक्ति होगी. कोई भी देश, जिसमें न तो थोपा गया अनुशासन है, और न आत्मा-अनुशासन-बहुत वक़्त तक नहीं टिक सकता.

मीडिया द्वारा अपना विरोध करने के बारे में उन्होंने कहा था, ’हो सकता है, प्रेस गलती करे, हो सकता है, प्रेस ऐसी बात लिख दे, जो मुझे पसंद न हो. प्रेस का गला घोंटने की बजाय मैं यह पसंद करूंगा कि प्रेस गलती करे और गलती से सीखे, मगर देश में प्रेस की स्वतंत्रता बरकरार रहे.
वह यह भी कहा करते थे कि एक ऐसा क्षण जो इतिहास में बहुत ही कम आता है , जब हम पुराने को छोड़ नए की तरफ जातेहैं , जब एक युग का अंत होता है , और जब वर्षों से शोषित एक देश की आत्मा , अपनी बात कह सकती है.
बेशक, पंडित नेहरू जैसे नेता सदियों में जन्म लेते हैं. उनके विचार आज भी बेहद प्रासंगिक हैं. बस ज़रूरत है उनको अपनाने की.



लाल बिहारी लाल
बच्चें हर देश का  भविष्य और उसकी तस्वीर होते हैं। बच्चे ही किसी देश के आने वाले भविष्य को तैयार करते हैं। लेकिन भारत जैसे देश में बाल मजदूरी, बाल विवाह और बाल शोषण के तमाम ऐसे अनैतिक और क्रूर कृत्य मिलेंगे जिन्हें देख आपको यकीन नहीं होगा कि यह वही देश है जहां भगवान विष्णु को बाल रूप में पूजा जाता है और जहां के प्रथम प्रधानमंत्री को बच्चे इतने प्यारे थे कि उन्होंने अपना जन्म दिवस ही उनके नाम कर दिया.
देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को बच्चों से विशेष प्रेम था। यह प्रेम ही था जो उन्होंने अपने जन्म दिवस को बाल दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। जवाहरलाल नेहरू को बच्चों से लगाव था तो वहीं बच्चे भी उन्हें चाचा नेहरू के नाम से जानते थे। जवाहरलाल नेहरू ने नेताओं की छवि से अलग हटकर एक ऐसी तस्वीर पैदा की जिस परचलना आज के नेताओं के बस की बात नहीं। आज चाचा नेहरू का जन्मदिन है, तो चलिए जानते हैं जवाहरलाल नेहरू के उस पक्ष के बारे में जो उन्हें बच्चों के बीच चाचा बनाती थी।

14 नवंबर, 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में जन्मे पं. नेहरू का बचपन काफी शानोशौकत से बीता। उनके पिता देश के उच्च वकीलों में से एक थे। पं. मोतीलाल नेहरु देश के एक जाने माने धनाढ्य वकील थे। उनकी मां का नाम स्वरूप रानी नेहरू था। वह मोतीलाल नेहरू के इकलौते पुत्र थे। इनके अलावा मोती लाल नेहरू की तीन पुत्रियां थीं उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं।
    पं. नेहरु महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़े। चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफी प्रभावित थे और इसीलिए आजादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे। सन् 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया। 1923 में वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए। 1929 में नेहरू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर सत्र के अध्यक्ष चुने गए। नेहरू आजादी के आंदोलन के दौरान बहुत बार जेल गए। 1920 से1922 तक चले असहयोग आंदोलन के दौरान उन्हें दो बार गिरफ्तार किया गया।
नेहरू जहां गांधीवादी मार्ग से आजादी के आंदोलन के लिए लड़े वहीं उन्होंने कई बार सशस्त्र संघर्ष चलाने वाले क्रांतिकारियों का भी साथ दिया। आजाद हिन्द फौज के सेनानियों पर अंग्रेजों द्वारा चलाए गए मुकदमे में नेहरू ने क्रांतिकारियों की वकालत की। उनके प्रयासों के चलते अंग्रेजों को बहुत से क्रांतिकारियों का रिहा करना पड़ा। 27 मई, 1964 को उनका निधन हो गया.

बच्चों के चाचा नेहरू
एक दिन तीन मूर्ति भवन के बगीचे में लगे पेड़-पौधों के बीच से गुजरते हुए घुमावदार रास्ते पर नेहरू जी टहल रहे थे।उनका ध्यान पौधों पर था, तभी पौधों के बीच से उन्हें एक बच्चे के रोने की आवाज आई. नेहरूजी ने आसपास देखा तो उन्हें पेड़ों के बीच एक-दो माह का बच्चादिखाई दिया जो रो रहा था।नेहरूजी ने उसकी मां को इधर-उधर ढूंढ़ा पर वह नहीं मिली। चाचा ने सोचा शायद वह बगीचे में ही कहीं  माली के साथ काम कर रही होगी। नेहरूजी यह सोच ही रहे थे कि बच्चे ने रोना तेज कर दिया। इस पर उन्होंने उस बच्चे की मां की भूमिका निभाने का मन बना लिया।वह बच्चे को गोद में उठाकर खिलाने लगे और वह तब तक उसके साथ रहे जब तक उसकी मां वहां नहीं आ गई। उस बच्चे को देश के प्रधानमंत्री के हाथ में देखकर उसकी मां को यकीन ही नहीं हुआ।
दूसरा वाकया जुड़ा है तमिलनाडु से, एक बार जब पंडित नेहरू तमिलनाडु के दौरे पर गए तब जिस सड़क से वे गुजर रहे थे वहां लोग साइकलों पर खड़े होकर तो कहीं दीवारों पर चढ़कर नेताजी को निहार रहे थे। प्रधानमंत्री की एक झलक पाने के लिए हर आदमी इतना उत्सुक था कि जिसे जहां समझ आया वहां खड़े होकर नेहरू जी को निहारने लगा। इस भीड़ भरे इलाके में नेहरूजी ने देखा कि दूर खड़ा एक गुब्बारे वाला पंजों के बल खड़ा डगमगा रहा था, ऐसा लग रहा था कि उसके हाथों के तरह-तरह के रंग-बिरंगी गुब्बारे मानो पंडितजी को देखने के लिए डोल रहे हों. जैसे वे कह रहे हों हम तुम्हारा तमिलनाडु में स्वागत करते हैं। नेहरूजी की गाड़ी जब गुब्बारे वाले तक पहुंची तो गाड़ी से उतरकर वेगुब्बारे खरीदने के लिए आगे बढ़े तो गुब्बारे वाला हक्का-बक्का-सा रह गया।नेहरू जी ने अपने तमिल जानने वाले सचिव से कहकर सारे गुब्बारे खरीदवाए और वहां उपस्थित सारे बच्चों को वे गुब्बारे बंटवा दिए। ऐसे प्यारे चाचा नेहरू को बच्चों के प्रति बहुत लगाव था। नेहरू जी के मन में बच्चों के प्रति विशेष प्रेम और सहानुभूति देखकर लोग उन्हें चाचा नेहरू के नाम से संबोधित करने लगे और जैसे-जैसे गुब्बारे बच्चों केहाथों तक पहुंचे बच्चों ने चाचा नेहरू-चाचा नेहरू की तेज आवाज से वहां का वातावरण उल्लासित कर दिया. तभी से वे चाचा नेहरू के नाम से प्रसिद्ध हो गए। भारत के भारत में इस तरह के महान मानव का जन्म बहुत कम ही हो रहा है जो देश के युवाओं एव बच्चों की सोंच रखता है और इसके चहुमुखी विकास की बात करता हो।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं  साहित्य टी.वी.के संपादक हैं)


डॉ. फ़िरदौस ख़ान
हिन्दुस्तान में आज जब मुट्ठीभर ख़ुदग़र्ज़ लोग मज़हब, जात, भाषा और प्रांत के नाम पर देश को बांटने की कोशिश कर रहे हैं, तो ऐसे में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संदेश बेहद प्रासंगिक हो जाते हैं. उन्होंने हमेशा देश की एकता और अखंडता को क़ायम रखने पर ज़ोर दिया. बक़ौल जवाहरलाल नेहरू,हिंदुस्तानी ज़िंदगी में कितनी विविधता है और उसमें अलग-अलग कितने वर्ग, क़ौमें और पंथ हैं तथा संस्कृति विकास की कितनी अलग-अलग सीढ़ियां हैं, फिर भी समझता हूं कि उसकी आत्मा एक है. भारत में अनेक प्रकार के लोग रहते हैं. उनमें एकता भी है, लेकिन अनेकता बहुत है. आप असम से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक जाइए. आप कितना अंतर पाएंगे, भाषा में, खाने-पीने में, कप़डे-लत्ते पहनने में और सब बातों में, उसी के साथ आप संस्कृति की एक पक्की एकता भी पाएंगे, जो प्राचीन समय से चली आती है. भारत की जो असली संस्कृति है, वह दिमाग़ की है या मन की है, आध्यात्मिक है. इस वक़्त देश में जो सबसे ज़रूरी बुनियादी चीज़ है और जिसे हर कोई बुनियादी मानता है, वह है भारत की एकता.

हिन्द पॉकेट बुक्स ने हाल में जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियों की किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियां. किताब के संपादक राजवीर सिंह दार्शनिक ने विभिन्न मुद्दों पर जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियों को शामिल किया है. गंगा के बारे में जवाहर लाल नेहरू कहते हैं-गंगा तो भारत की प्राचीन सभ्यता की प्रतीक रही है, निशान रही है, सदा बदलती, सदा बहती, फिर वही गंगा की गंगा. मैंने सुबह की रौशनी में गंगा को मुस्कराते, उछलते-कूदते देखा है. और देखा है शाम के साये में उदास, काली-सी चादर ओढ़े हुए. यही गंगा मेरे लिए निशानी है भारत की प्राचीनता की, यादगार की, जो बहती आई है वर्तमान तक और बहती चली जा रही है भविष्य के महासागर की ओर.

पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर, 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था. देशभर में जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिन 14 नवम्बर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही वजह थी कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता है. वह पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी के इकलौते बेटे थे. उनसे छोटी उनकी दो बहनें थीं. उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्तराष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं. उनकी शुरुआती तालीम घर पर ही हुई. उन्होंने 14 साल की उम्र तक घर पर ही कई अंग्रेज़ शिक्षकों से तालीम हासिल की. आगे की शिक्षा के लिए 1905 में जवाहरलाल नेहरू को इंग्लैंड के हैरो स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहां से उन्होंने प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की. साल 1912 में उन्होंने लंदन के इनर टेंपल से वकालत की डिग्री हासिल की और उसी साल भारत लौट आए. उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी, लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. भारतीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी और वह सियासी कार्यक्रमों में शिरकत करने लगे. उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया लिया. 8 फ़रवरी, 1916 को कमला कौल से उनका विवाह हो गया. 19 नवंबर, 1917 को उनके यहां बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमंत्री बनीं. इसके बाद उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ,लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई.

पंडित जवाहरलाल नेहरू 1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए. 1921 के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गांधी के बेहद क़रीब में आ गए और गांधी जी की मौत तक यह नज़दीकी क़ायम रही. वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े, चाहे असहयोग आंदोलन हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन. उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत की. नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे. साल 1931 में पिता की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए. हालांकि 1942 तक गांधी जी ने अधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, लेकिन 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे. जब 15 अगस्त, 1947 को देश आज़ाद हुआ तो वह आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए. जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए. उन्होंने औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया. उन्होंने विज्ञान के विकास के लिए 1947 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की. देश के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं. खेलों में भी नेहरू की रुचि थी. उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी बताया. उन्होंने 1951 दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया. 1955 में उन्हें देश की सर्वोच्च उपाधि भारत रत्न से नवाज़ा गया. मगर देश को बहुत दिनों तक उनका साथ नहीं मिला. दिल का दौरा प़डने से 27 मई, 1964 में उनकी मौत हो गई. वह देश से बेहद प्यार करते थे. इसलिए उनकी वसीयत भी यही थी-मेरी भस्म उन खेत-खलिहानों में बिखेर दी जाए, जहां भारत के किसान अपना ख़ून-पसीना बहाते हैं, ताकि भस्म भारत माता की धूल और मिट्टी में मिलकर उसमें विलीन हो जाए.

पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि विख्यात लेखक भी थे. उनकी आत्मकथा दुनिया भर में सराही गई. उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद आदि शामिल हैं. वह भारतीय भाषाओं को काफ़ी महत्व देते थे. वह चाहते थे कि हिंदुस्तानी जब कहीं भी एक-दूसरे से मिले तो अपनी ही भाषा में बातचीत करें. उन्होंने कहा था-मेरे विचार में हम भारतवासियों के लिए एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा. मैं आपको कह सकता हूं कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है तो मुझे कितना बुरा लगता है. लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं?

वह कहते हैं-यूरोप और दूसरे देशों के लोग मानते हैं कि भारत में सैक़डों भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन उनकी यह धारणा ग़लत है. भारत की भाषाएं दो परिवारों में बांटी जा सकती हैं-पहला परिवार द्रव़िड भाषा का है, जिसमें तमिल, तेलुगू,कन्ऩड और मलयालम हैं और दूसरी भारतीय आर्य जाति की भाषा है, जो मूलरूप से संस्कृत है. हिंदी, बांग्ला, गुजराती और मराठी संस्कृत से निकली हैं. हां,बोलियां सैकड़ों हो सकती हैं. वह मानते थे कि किसी क़ौम के विकास और उसके बच्चों की शिक्षा का एकमात्र साधन उसकी अपनी भाषा ही है. भारत में आज हरेक चीज़ उलट- पुलट हो रही है और हम आपस में भी अंग्रेजी बहुत ज़्यादा प्रयोग कर रहे हैं. तुम्हें (इंदिरा प्रियदर्शिनी) अंग्रजी में लिखना मेरे लिए कितनी भद्दी बात है. फिर भी मैं ऐसा कर रहा हूं. लेकिन मुझे विश्वास है कि हम लोग जल्दी ही इस आदत से छुटकारा पा लेंगे.

वह एक ज़िंदादिल इंसान थे. उनका कहना था-हमें पूरा यक़ीन है कि सफलता हमारा इंतज़ार कर रही है और कभी न कभी हम उसे ज़रूर प्राप्त कर लेंगे. यदि पार करने के लिए ये रुकावटें न होतीं और जीतने के लिए ये लड़ाइयां न होतीं,तो जीवन नीरस और बेरंग हो जाता. जब हम ज़िंदगी में वर्तमान काल में जहां कि इतनी कशमकश है और हल करने के लिए इतने मसले हैं, एक जीती-जागती क़डी न क़ायम कर सकें, तब तक हम ज़िंदगी को ज़िंदगी नहीं कह सकते. असल में मेरी दिलचस्पी इस दुनिया में और इस ज़िंदगी में है, किसी दूसरी दुनिया या आने वाली ज़िंदगी में नहीं. आत्मा जैसी कोई चीज़ है भी या नहीं, मैं नहीं जानता. ज़िंदगी में चाहे जितनी बुराइयां हों, आनंद और सौंदर्य भी है और हम सदा प्रकृति की मोहिनी वनभूमि में सैर कर सकते हैं.

बहरहाल, आकर्षक कवर वाली यह किताब पाठकों ख़ासकर चाचा नेहरू के प्रशंसकों और राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को बहुत पसंद आएगी. किताब में एकाध जगह दोहराव है, जो पाठकों को कुछ अखर सकता है. फिर भी इसमें कोई शक नहीं कि यह किताब संग्रहणीय है.

समीक्ष्य कृति : जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियां
संपादक : राजवीर सिंह दार्शनिक
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 110 रुपये


डॉ. फ़िरदौस ख़ान
देशभर में जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिन 14 नवम्बर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही वजह थी कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता था. एक बार चाचा नेहरू से मिलने एक सज्जन आए. बातचीत के दौरान उन्होंने नेहरू जी से पूछा- पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गए हैं,  लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, जबकि आपसे छोटा होते हुए भी मैं बूढ़ा दिखता हूं. नेहरू जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- इसके तीन कारण हैं.  पहला, मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूं. उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूं. इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूं. दूसरा, मैं प्रकृति प्रेमी हूं और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरनों, चांद, सितारों से बहुत प्यार करता हूं. मैं इनके साथ में जीता हूं, जिससे यह मुझे तरोताज़ा रखते हैं. तीसरी वजह यह है कि ज़्यादातर लोग हमेशा छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसके बारे में सोच-सोचकर दिमाग़ ख़राब करते हैं. मेरा नज़रिया अलग है और मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता. यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस पड़े.

पंडित जवाहरलाल नेहरू  का जन्म 14 नवम्बर 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था. वह पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी के इकलौते बेटे थे. उनसे छोटी उनकी दो बहनें थीं. उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं. उनकी शुरुआती तालीम घर पर ही हुई. उन्होंने 14 साल की उम्र तक घर पर ही कई अंग्रेज़ शिक्षकों से तालीम हासिल की. आगे की शिक्षा के लिए 1905 में जवाहरलाल नेहरू को इंग्लैंड के हैरो स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहां से उन्होंने प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की. साल 1912 में उन्होंने लंदन के इनर टेंपल से वकालत की डिग्री हासिल की और उसी साल भारत लौट आए. उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी, लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. भारतीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी और सियासी कार्यक्रमों में शिरकत करने लगे. उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया लिया. 8 फ़रवरी 1916 को कमला कौल से उनका विवाह हो गया. 19 नवंबर 1917 को उनके यहां बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमंत्री बनीं. इसके बाद उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ, लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई.

पंडित जवाहरलाल नेहरू  1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए. मगर 1929 में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे. इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य का ऐलान किया गया. इससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की मांग थी. वह जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की जांच में देशबंधु चितरंजनदास और महात्मा गांधी के सहयोगी रहे और 1921 के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गांधी के बेहद क़रीब में आ गए और गांधी जी की मौत तक यह नज़दीकी क़ायम रही. कांग्रेस पार्टी के साथ नेहरू का जुड़ाव 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के फ़ौरन बाद शुरू हुआ. उस वक़्त राष्ट्रवादी गतिविधियों की लहर ज़ोरों पर थी और अप्रैल 1919 को अमृतसर के नरसंहार के रूप में सरकारी दमन खुलकर सामने आया. स्थानीय ब्रिटिश सेना कमांडर ने अपनी टुकड़ियों को निहत्थे भारतीयों की एक सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया, जिसमें 379 लोग मारे गए और तक़रीबन बारह सौ लोग ज़ख़्मी हुए.

साल 1921 के आख़िर में जब कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुछ प्रदेशों में ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया,  तब पहली बार नेहरू जेल गए. अगले 24 साल में उन्हें आठ बार गिरफ्तार कर जेल भेजा गया. नेहरू ने कुल मिलाकर नौ साल से ज़्यादा वक़्त जेलों में गुज़ारा. अपने मिज़ाज के मुताबिक़ ही उन्होंने अपनी जेल-यात्राओं को असामान्य राजनीतिक गतिविधि वाले जीवन के अंतरालों के रूप में वर्णित किया है.  कांग्रेस के साथ उनका राजनीतिक प्रशिक्षण 1919 से 1929 तक चला. साल 1923 में और फ़िर 1927 में वह दो-दो साल के लिए पार्टी के महासचिव बने. उनकी रुचियों और ज़िम्मेदारियों ने उन्हें भारत के व्यापक क्षेत्रों की यात्रा का मौक़ा दिया, ख़ासकर उनके गृह प्रदेश संयुक्त प्रांत का,  जहां उन्हें घोर ग़रीबी और किसानों की बदहाली की पहली झलक मिली और जिसने इन महत्वपूर्ण समस्याओं को दूर करने की उनकी मूल योजनाओं को प्रभावित किया. हालांकि उनका कुछ-कुछ झुकाव समाजवाद की ओर था, लेकिन उनका सुधारवाद किसी निश्चित ढांचे में ढला हुआ नहीं था. 1926-27 में उनकी यूरोप और सोवियत संघ की यात्रा ने उनके आर्थिक और राजनीतिक चिंतन को पूरी तरह प्रभावित कर दिया.

वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े, चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो. उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत की. नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे. साल 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया. वह 1923 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए. गांधी जी ने यह सोचकर उन्हें यह पद सौंपा कि अतिवादी वामपंथी धारा की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं को नेहरू कांग्रेस आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल कर सकेंगे.

1931 में पिता की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए. हालांकि 1942 तक गांधी जी ने आधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, लेकिन 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे. मार्च 1931 में महात्मा और ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड इरविन (बाद में लॉर्ड हैलिफ़ैक्स) के बीच हुए गांधी-इरविन समझौते से भारत के दो प्रमुख नेताओं के बीच समझौते का आभास मिलने लगा. इसने एक साल पहले शुरू किए गए गांधी जी के प्रभावशाली सविनय अवज्ञा आंदोलन को तेज़ी प्रदान की, जिसके दौरान नेहरू को गिरफ़्तार किया गया. दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद लंदन से स्वदेश लौटने के कुछ ही वक़्त बाद जनवरी 1932 में गांधी को जेल भेज दिया. उन पर फिर से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की कोशिश का आरोप लगाया गया. नेहरू को भी गितफ़्तार करके दो साल की क़ैद की सज़ा दी गई.

भारत में स्वशासन की स्थापना की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलनों की परिणति आख़िरकार 1935 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के रूप में हुई, जिसके तहत भारतीय प्रांतों के लोकप्रिय स्वशासी सरकार की प्रणाली प्रदान की गई. इससे एक संघीय प्रणाली का जन्म हुआ, जिसमें स्वायत्तशासी प्रांत और रजवाड़े शामिल थे. संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन प्रांतीय स्वशासन लागू हो गया.

1930 के दशक के मध्य में नेहरू यूरोप के घटनाक्रम के प्रति ज़्यादा चिंतित थे, जो एक अन्य विश्व युद्ध की ओर बढ़ता प्रतीत हो रहा था. 1936 के शुरू में वह अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए यूरोप में थे. इसके कुछ ही वक़्त  बाद स्विट्ज़रलैंड के एक सेनीटोरियम में उनकी पत्नी की मौत हो गई. उस वक़्त भी उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि युद्ध की स्थिति में भारत का स्थान लोकतांत्रिक देशों के साथ होगा. हालांकि वह इस बात पर भी ज़ोर देते थे कि भारत एक स्वतंत्र देशों के रूप में ही ग्रेट ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन में युद्ध कर सकता है.
सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के बाद जब वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने स्वायत्तशासी प्रांतीय मंत्रिमंडलों से मशविरा किए बगैर भारत को युद्ध में झोंक दिया, तो इसके ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी के आलाकमान ने अपने प्रांतीय मंत्रिमंडल वापस ले लिए. कांग्रेस की इस कार्रवाई से राजनीति का अखाड़ा जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए साफ़ हो गया.

अक्टूबर 1940 में महात्मा गांधी जी ने अपने मूल विचार से हटकर एक सीमित नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का फ़ैसला किया, जिसमें भारत की आज़ादी के अग्रणी पक्षधरों को क्रमानुसार हिस्सा लेने के लिए चुना गया था. नेहरू को गिरफ़्तार करके चार साल की क़ैद की सज़ा दी गई. एक साल से कुछ ज़्यादा वक़्त तक ज़ेल में रहने के बाद उन्हें अन्य कांग्रेसी क़ैदियों के साथ रिहा कर दिया गया. इसके तीन दिन बाद हवाई में पर्ल हारबर पर बमबारी हुई. 1942 में जब जापान ने बर्मा के रास्ते भारत की सीमाओं पर हमला किया  तो इस नए सैनिक ख़तरे के मद्देनज़र ब्रिटिश सरकार ने भारत की तरफ़ हाथ बढ़ाने का फ़ैसला किया. प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को संवैधानिक समस्याओं को सुलझाने के प्रस्तावों के साथ भेजा. सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स  युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य और राजनीतिक रूप से नेहरू के नज़दीकी और मोहम्मद अली जिन्ना के परिचित थे. क्रिप्स की यह मुहिम नाकाम रही, क्योंकि गांधी जी आज़ादी से कम कुछ भी मंज़ूर करने के पक्ष में नहीं थे.

कांग्रेस में अब नेतृव्य गांधी जी के हाथों में था, जिन्होंने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ देने का आह्वान किया. 8 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस द्वारा भारत छोड़ो  प्रस्ताव पारित करने के बाद गांधी जी और नेहरू समेत पूरी कांग्रेस कार्यकारिणी समिति को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया. नेहरू 15 जून 1945 को रिहा हुए. लंदन में युद्ध के दौरान सत्तारूढ़ चर्चिल प्रशासन का स्थान लेबर पार्टी की सरकार ने ले लिया था. उसने अपने पहले कार्य के रूप में भारत में एक कैबिनेट मिशन भेजा और बाद में लॉर्ड वेवेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को तैनात कर दिया. अब सवाल भारत की आज़ादी का नहीं, बल्कि यह था कि इसमें एक ही आज़ाद राज्य होगा या एक से ज़्यादा होंगे. गांधी जी ने बटवारे को क़ुबूल करने से इंकार कर दिया, जबकि नेहरू ने मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए मौन सहमति दे दी. 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग आज़ाद देश बने. नेहरू आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए.

फिर 1952 में आज़ाद भारत में चुनाव हुए. ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को आधार मान कर बनाए गए भारतीय संविधान के तहत हुआ यह पहला चुनाव था, जिसमें जनता ने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल किया. इस चुनाव के वक़्त मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी, जिनमें से 15 फ़ीसद साक्षर थे. इस चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत से सत्ता में आई और पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने. इससे पहले वह 1947 में आज़ादी मिलने के बाद से अंतरिम प्रधानमंत्री थे. संसद की 497 सीटों के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए.  देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पहला चुनाव प्रचार भी यादगार है. कहा जाता है कि कांग्रेस का चुनाव प्रचार केवल नेहरू पर केंद्रित था. चुनाव प्रचार के लिए नेहरू ने सड़क, रेल, पानी और हवाई जहाज़ सभी का सहारा लिया. उन्होंने 25,000 मील का सफ़र किया यह सफ़र 18,000 मील हवाई जहाज़ से,  5200 मील कार से, 1600 मील ट्रेन से और 90 मील नाव से किया गया. ख़ास बात यह भी रही कि देशभर में 60  फ़ीसद मतदान हुआ और पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 364 सीटें मिली थीं.

नेहरू के वक़्त एक और अहम फ़ैसला भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का था. इसके लिए राज्य पुनर्गठन क़ानून-1956 पास किया गया. आज़ादी के बाद भारत में राज्यों की सीमाओं में हुआ, यह सबसे बड़ा बदलाव था. इसके तहत 14 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों की स्थापना हुई. इसी क़ानून के तहत केरल और बॉम्बे को राज्य का दर्जा मिला. संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया, जिसके तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा हासिल करने का अधिकार मिला.

1929 में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था,  तब से 35 बरसों तक 1964 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मौत तक नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेहरू का सितारा अक्टूबर 1956 तक बुलंदी पर था, लेकिन 1956 में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ हंगरी के विद्रोह के दौरान भारत के रवैये की वजह से उनकी गुटनिरपेक्ष नीति की जमकर आलोचना हुई. संयुक्त राष्ट्र में भारत अकेला ऐसा गुटनिरपेक्ष देश था, जिसने हंगरी पर हमले के मामले में सोवियत संघ के पक्ष में मत दिया. इसके बाद नेहरू को गुटनिरपेक्ष आंदोलन के आह्वान की विश्वनियता साबित करने में काफ़ी मुश्किल हुई. आज़ादी के बाद के शुरूआती बरसों में उपनिवेशवाद का विरोध उनकी विदेश-नीति का मूल आधार था, लेकिन 1961 के गुटनिरपेक्ष देशों के बेलग्रेड सम्मेलन तक नेहरू ने प्रति उपनिवेशवाद की जगह गुटनिरपेक्षता को सर्वोच्च प्राथमिकता देना शुरू कर दिया था. साल 1962 में लंबे वक़्त से चले आ रहे सीमा-विवाद की वजह से चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी घाटी पर हमले की चेतावनी दी. नेहरू ने अपनी गुटनिरपेक्ष नीति को दरकिनार कर पश्चिमी देशों से मदद की मांग की. नतीजतन चीन को पीछे हटना पड़ा. कश्मीर नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व काल में लगातार एक समस्या बना रहा, क्योंकि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान भी इस पर अपना दावा कर रहा था. संघर्ष विराम रेखा को समायोजित करके इस विवाद को निपटाने की उनकी शुरुआती कोशिशें नाकाम रहीं और 1948 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर क़ब्ज़े की कोशिश की. भारत में बचे आख़िरी उपनिवेश पुर्तग़ाली गोवा की समस्या को सुलझाने में नेहरू अधिक भाग्यशाली रहे. हालांकि दिसम्बर 1961 में भारतीय सेनाओं द्वारा इस पर क़ब्ज़ा किए जाने से कई पश्चिमी देशों में नराज़गी पैदा हुई, लेकिन नेहरू की कार्रवाई सही थी. हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा उस वक़्त बेमानी साबित हो गया, जब सीमा विवाद को लेकर 10 अक्टूबर 1962 को चीनी सेना ने लद्दाख़ और नेफ़ा में भारतीय चौकियों पर क़ब्ज़ा कर लिया. नवंबर में एक बार फिर चीन की ओर से हमले हुए. चीन ने एकतरफ़ा युद्धविराम का ऐलान कर दिया, तब तक 1300 से ज़्यादा भारतीय सैनिक शहीद हो चुके थे. पंडित नेहरू के लिए यह सबसे बुरा दौर साबित हुआ. उनकी सरकार के ख़िलाफ़ संसद में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया. चीन के साथ हुई जंग के कुछ वक़्त बाद नेहरू की सेहत ख़राब रहने लगी. उन्हें 1963 में दिल का हल्का दौरा पड़ा, फिर जनवरी 1964 में उन्हें दौरा पड़ा. कुछ ही महीनों बाद तीसरे दौरे में 27 मई 1964 में उनकी मौत हो गई.

जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए. उन्होंने औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया. उन्होंने विज्ञान के विकास के लिए 1947  में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की. देश  के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं. खेलों में भी नेहरू की रुचि थी. उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी बताया. उन्होंने 1951 दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया.

पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि विख्यात लेखक भी थे. उनकी आत्मकथा 1936  में प्रकाशित हुई और दुनियाभर में सराही गई. उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद आदि शामिल हैं. वह भारतीय भाषाओं को काफ़ी महत्व देते थे. वह चाहते थे कि हिन्दुस्तानी जब कहीं भी एक-दूसरे से मिले तो अपनी ही भाषा में बातचीत करें. उन्होंने कहा था-मेरे विचार में हम भारतवासियों के लिए एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा. मैं आपको कह सकता हूं कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है  तो मुझे कितना बुरा लगता है. लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं?

पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने विचारों और अपने उल्लेखनीय कार्यों की वजह से ही महान बने. विभिन्न मुद्दों पर नेहरू के विचार उन्हीं के शब्दों में- भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों पीड़ितों की सेवा है. इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान और अवसर की विषमता का अंत करना है. हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा रही है कि हर आंख के हर आंसू को पोंछ दिया जाए. ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू हैं और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा.

नेहरू जी ने कहा था- अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से आज का बड़ा सवाल विश्व शांति का है. आज हमारे लिए यही विकल्प है कि हम दुनिया को उसके अपने रूप में ही स्वीकार करें. हम देश को इस बात की स्वतंत्रता देते रहें कि वह अपने ढंग से अपना विकास करे और दूसरों से सीखे, लेकिन दूसरे उस पर अपनी कोई चीज़ नहीं थोपें. निश्चय ही इसके लिए एक नई मानसिक विधा चाहिए. पंचशील या पांच सिद्धांत यही विधा बताते हैं.

नेहरू जी ने कहा था- आप में जितना अधिक अनुशासन होगा, आप में उतनी ही आगे बढ़ने की शक्ति होगी. कोई भी देश, जिसमें न तो थोपा गया अनुशासन है, और न आत्मा-अनुशासन-बहुत वक़्त तक नहीं टिक सकता.
बेशक, नेहरू के विचार आज भी बेहद प्रासंगिक हैं. बस ज़रूरत है उनको अपनाने की. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

 


نظم
میرے محبوب
عمر کی
تپتی دوپہری میں
گھنے درخت کی
چھاؤں ہو تم
سلگتی ہوئی
شب کی تنہائی میں
دودھیا چاندنی کی
ٹھنڈک ہو تم
زندگی کے
بنجر سحرا میں
آبِ زم زم کا
بہتا دریا ہو تم
میں صدیوں کی
پیاسی دھرتی ہوں
برستا ،بھیگتا
ساون ہو تم
مجھے جوگن کے
من مندر میں بسی
مورت ہو تم
میرے محبوب
میرے تابندہ خیالوں میں
کبھی دیکھو
سراپا اپنا
میں نے
دنیا سے چھپا کر
برسوں
...تمہاری پرستش کی ہے
فردوس خان-


अब तुम को कैसा लगता है
जाड़ों के मौसम का सूरज
गर्मी की रातों का चन्दा
बारिश तुम को बहुत पसन्द थी
जब भी बादल घिर आते थे
लम्बी काली घनेरी ज़ुल्फें
अपने कांधों पर बिखराकर
आंगन में ऐसे फिरती थीं
जैसे कोई हिरनी बन में
देख के काले काले बादल
अपना आपा खो बैठी हो
अब तुमको कैसा‍‍------
इक दिन टेलीफोन पे तुमने
नाम मिरा "साहिल" रक्खा था
मैंने हंसकर ये पूछा था
नाम मिरा साहिल क्यों रक्खा
इठला कर तुम ये बोली थीं
हमने अपने दिल की किश्ती
प्यार के दरिया में छोड़ी है
किश्ती को तो इक न इक दिन
साहिल पर रुकना होता है-----
चारों जानिब सन्नाटा है
पलकों पर जुगनू रक्खे हैं
तन्हा बैठा सोच रहा हूँ
तुमने झूट कहां बोला था
मैं ही आज समझ पाया हूँ
साहिल एक कहाँ होता है
साहिल भी तो "दो " होते हैं
-फा़खि़र अदीब
                    ساحل
           اب تمکو کیسا لگتا ہے
جاڈوں کے موسم کا سورج
گرمی کی راتوں کا چندا
بارش تمکو بہت پسند تھی
جب بھی بادل گھر اَتے تھے
لمبی کالی گھنیری ذلفیں
اپنے کاندھوں پر بکھرا کر
اَنگن میں ایسے پھرتی تھیں
جیسے کوی ہرنی بن میں
دیکھ کے کالے کالے بادل
اپنا اَپا کھو بیٹھی ہو۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔ 
اب تمکو کیسا لگتا ہے
-----
اک دن ٹیلیفون پے تم نے
نام مرا ساحل رکھا تھا  
مینے ہنس کر یہ پوچھا تھ
نام مرا "ساحل" کیوں رکھا
اٹھلا کر تم یہ بولی تھیں
ہم نے اپنے دل کی کشتی
پیار کے دریا میں چھو ڈی ہے
کشتی کو تو اک نہ اک دن
ساحل پر رکنا ہوتا ہے۔۔۔۔۔۔ 
چاروں جانب سناٹہ ہے
پلکوں پر جگنو رکھے ہیں
تنہا بیٹھا سوچ رہا ہوں 
ساحل" ایک کہاں ہوتا "
ساحل بھی تو دو ہوتے ہیں
فاخر ادیب


डॉ. फ़िरदौस ख़ान
भारतीय साहित्य के प्रमुख स्तंभ यानी उर्दू के मशहूर अफ़सानानिग़ार कृष्ण चंदर का जन्म 23 नवम्बर, 1914 को पाकिस्तान के गुजरांवाला ज़िले के वज़ीराबाद में हुआ. उनका बचपन जम्मू कश्मीर के पुंछ इलाक़े में बीता. उन्होंने तक़रीबन 20 उपन्यास लिखे और उनकी कहानियों के 30 संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. उनके प्रमुख उपन्यासों में एक गधे की आत्मकथा, एक वायलिन समुंदर के किनारे, एक गधा नेफ़ा में, तूफ़ान की कलियां, कॉर्निवाल, एक गधे की वापसी, ग़द्दार, सपनों का क़ैदी, सफ़ेद फूल, प्यास, यादों के चिनार, मिट्टी के सनम, रेत का महल, काग़ज़ की नाव, चांदी का घाव दिल, दौलत और दुनिया, प्यासी धरती प्यासे लोग, पराजय, जामुन का पेड़ और कहानियों में पूरे चांद की रात और पेशावर एक्सप्रेस शामिल है.

उनका उपन्यास एक गधे की आत्मकथा बहुत मशहुर हुआ. इसमें उन्होंने हिंदुस्तान की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था को व्यंगात्मक शैली में चित्रित किया है. प्रख्यात साहित्यकार बेकल उत्साही ने कृष्ण चंदर का ज़िक्र करते हुए एक बार कहा था, यह क़लमकार वाक़ई अल्फ़ाज़ का जादूगर था, जिसके शब्दों का जाल पढ़ने वाले को अपनी तरफ़ बरबस खींच लेता था. इसी तरह उनके समकालीन उर्दू उपन्यासकार राजेंद्र सिंह बेदी ने भी एक बार उनसे कहा था कि सिर्फ़ शब्दों से ही खेलेगा या फिर कुछ लिखेगा भी. बेकल उत्साही ने एक लेखक के तौर पर कृष्ण चंदर की सोच के बारे में कहा कि उन्होंने मज़हब और जात-पात की भावनाओं से ऊपर उठकर हमेशा इंसानियत को सर्वोपरि माना और इसी को अपना धर्म मानकर उसे ताउम्र निभाया. कृष्ण चंदर हिंदुस्तान और पाकिस्तान के अलावा रूस में ख़ासे लोकप्रिय थे. उन्होंने जीवन के संघर्ष और जनमानस की हर छोटी-बड़ी परेशानी का अपनी रचनाओं में मार्मिक वर्णन किया. उन्होंने बंगाल के अकाल पर अन्नदाता नाम से कहानी लिखी. इस पर चेतन आनंद ने 1946 में धरती के लाल नाम से एक फ़िल्म  बनाई. उन्हें 1969 में पद्मभूषण से नवाज़ा गया. 8 मार्च, 1977 को मुंबई में उनका निधन हो गया.

यह कृष्ण चंदर के लेखन की ख़ासियत रही कि उन्होंने जितनी शिद्दत से ज़िंदगी की दुश्वारियों को पेश किया, उतनी ही नफ़ासत के साथ के मुहब्बत के रेशमी जज़्बे को भी अपनी रचनाओं में इस तरह पेश किया कि पढ़ने  वाला उसी में खोकर रह गया. उनके उपन्यास मिट्टी के सनम में एक नौजवान की बचपन यादें हैं, जिसका बचपन कश्मीर की हसीन वादियों में बीता. इसे पढ़कर बचपन की यादें ताज़ा हो जाती हैं. इसी तरह उनकी कहानी पूरे चांद की रात तो दिलो-दिमाग़ में ऐसे रच-बस जाती है कि उसे कभी भुलाया ही नहीं जा सकता है. बानगी देखिए-

अप्रैल का महीना था. बादाम की डालियां फूलों से लद गई थीं और हवा में बर्फ़ीली ख़ुनकी के बावजूद बहार की लताफ़त आ गई थी. बुलंद व बाला तिनकों के नीचे मख़मली दूब पर कहीं कहीं बर्फ़ के टुकड़े सफ़ेद फूलों की तरह खिले हुए नज़र आ रहे थे. अगले माह तक ये सफ़ेद फूल इसी दूब में जज़्ब हो जाएंगे और दूब का रंग हरा सब्ज़ हो जाएगा और बादाम की शाख़ों पर हरे हरे बादाम पुखराज के नगीनों की तरह झिलमिलाएंगे नीलगूं पहाड़ों के चेहरों से कोहरा दूर होता जाएगा. लेकिन अभी अप्रैल का महीना था. अभी पत्तियां नहीं फूटी थीं. अभी पहाड़ों पर बर्फ़ का कोहरा था. अभी पगडंडियों का सीना भेड़ों की आवाज़ से गूंजा न था. अभी समल की झील पर कंवल के चिराग़ रौशन न हुए थे. झील का गहरा सब्ज़ पानी अपने सीने के अंदर उन लाखों रूपों को छुपाए बैठा था, जो बहार की आमद पर यकायक उसकी सतह पर एक मासूम और बेलोस हंसी की तरह खिल जाएंगे. पुल के किनारे-किनारे बादाम के पेड़ों की शाख़ों पर शिगूफ़े चमकने लगे थे. अप्रैल में ज़मिस्तान की आख़िरी शब में जब बादाम के फूल जागते हैं और बहार की नक़ीब बनकर झील के पानी में अपनी किश्तियां तैराते हैं. फूलों के नन्हे-नन्हे शिकारे सतह आब पर रक्सा व लरज़ा बहार की आमद के मुंतज़िर हैं.

और अब मैं अड़तालीस बरस के बाद लौट के आया हूं. मेरे बेटे मेरे साथ हैं. मेरी बीवी मर चुकी है, लेकिन मेरे बेटों की बेटियां और उनके बच्चे मेरे साथ हैं और हम लोग सैर करते-करते समल झील के किनारे आ निकले हैं और अप्रैल का महीना है और दोपहर से शाम हो गई है और मैं देर तक पुल के किनारे खड़ा बादामों के पेड़ों की क़तारें देखता जाता हूं और ख़ुनक हवा में सफ़ेद शगू़फों के गुच्छे लहराते जाते हैं और पगडंडी की ख़ाक पर से किसी के जाने पहचाने क़दमों की आवाज़ सुनाई नहीं देती. एक हसीन दोशीज़ा लड़की हाथों में एक छोटी सी पोटली दबाए पुल पर से भागती हुई गुज़र जाती है और मेरा दिल धक से रह जाता है. दूर बस्ती में कोई बीवी अपने ख़ाविंद को आवाज़ दे रही है. वह उसे खाने पर बुला रही है. कहीं से एक दरवाज़ा बुलंद होने की आवाज़ आती है और एक रोता हुआ बच्चा यकायक चुप हो जाता है. छतों से धुआं निकल रहा है और परिंदे शोर मचाते हुए एकदम दरख्तों की घनी शाख़ों में अपने पर फड़फड़ाते हैं और फिर एकदम चुप हो जाते हैं. ज़रूर कोई गा रहा है और उसकी आवाज़ गूंजती गूंजती उफ़क़ के उस पार गुम होती जा रही है. मैं पुल को पार करके आगे बढ़ता हूं. मेरे बेटे और उनकी बीवियां और बच्चे मेरे पीछे आ रहे हैं. वे अलग-अलग टोलियों में बटे हुए हैं. यहां पर बादाम के पेड़ों की क़तार ख़त्म हो गई. तल्ला भी ख़त्म हो गया. झील का किनारा है. यह ख़ूबानी का दरख्त है, लेकिन कितना बड़ा हो गया है. मगर किश्ती, यह किश्ती है. मगर क्या यह वही किश्ती है. सामने वह घर है. मेरी पहली बहार का घर. मेरी पूरे चांद की रात की मुहब्बत.

घर में रौशनी है. बच्चों की सदाएं हैं. कोई भारी आवाज़ में गाने लगता है. कोई बुढ़िया चीख़कर उसे चुप करा देती है. मैं सोचता हूं, आधी सदी हो गई. मैंने उस घर को नहीं देखा. देख लेने में क्या हर्ज है. मुझे घर के अंदर घुसते देखकर मेरे घर के सदस्य भी अंदर चले आए थे. बच्चे एक दूसरे से बहुत जल्द मिलजुल गए. हम दोनों आहिस्ता-आहिस्ता बाहर चले आए. आहिस्ता-आहिस्ता झील के किनारे चलते गए. मैंने कहा-मैं आया था. मगर तुम्हें किसी दूसरे नौजवान के साथ देखकर वापस चला गया था. वह बोली-अरे वह तो मेरा सगा भाई था. वह फिर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी. वह मुझसे मिलने आया था, उसी रोज़ तुम भी आने वाले थे. वह वापस जा रहा था. मैंने उसे रोक लिया कि तुमसे मिलके जाए. तुम फिर आए ही नहीं. वह एकदम संजीदा हो गई. छह बरस मैंने तुम्हारा इंतज़ार किया. तुम्हारे जाने के बाद मुझे ख़ुदा ने एक बेटा दिया. तुम्हारा बेटा. मगर एक साल बाद वह भी मर गया. चार साल और मैंने तुम्हारी राह देखी, मगर तुम नहीं आए. फिर मैंने शादी कर ली.
हम दोनों चुप हो गए. बच्चे खेलते-खेलते हमारे पास आ गए. उसने मेरी पोती को उठा लिया, मैंने उसके पोते को. और हम ख़ुशी से एक दूसरे को देखने लगे. उसकी पुतलियों में चांद चमक रहा था और वह चांद हैरत और मुसर्रत से कह रहा था- इंसान मर जाते हैं, लेकिन ज़िंदगी नहीं मरती. बहार ख़त्म हो जाती है, लेकिन फिर दूसरी बहार आ जाती है. छोटी-छोटी मुहब्बतें भी ख़त्म हो जाती हैं, लेकिन ज़िंदगी की बड़ी और अज़ीम सच्ची मुहब्बतें हमेशा क़ायम रहती हैं. तुम दोनों पिछले बहार में न थे. यह बहार तुमने देखी. उससे अगली बहार में तुम न होगे. लेकिन ज़िंदगी फिर भी होगी और जवानी भी होगी और ख़ूबसूरती और रानाई और मासूमियत भी. बच्चे हमारी गोद से उतर पड़े, क्योंकि वे अलग से खेलना चाहते थे. वे भागते हुए ख़ूबानी के दरख्त के क़रीब चले गए. जहां किश्ती बंधी थी. मैंने पूछा-यह वही दरख्त है. उसने मुस्कराकर कहा- नहीं यह दूसरा दरख्त है.


डॉ. आभा दुबे 
 
इस दुनिया में कुछ रिश्ते भले बिना किसी नाम के हों, लेकिन वो अपनी ऐसी छाप छोड़कर जाते हैं जो लोगों के लिए किसी हैरानी से कम नहीं। सुलक्षणा पंडित और संजीव कुमार का ये रिश्ता एक ऐसा ही रिश्ता है, जो प्यार के बंधन में बंध तो नहीं पाए लेकिन उनकी कहानियां लोग हमेशा-हमेशा एकसाथ याद करेंगे। कल 6 नवंबर को संजीव कुमार की डेथ एनिवर्सरी थी और उनसे बेइंतहां प्यार करने वालीं सुलक्षणा उसी  दिन 6 नवंबर को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
ये संयोग कुछ ऐसा है, जो कुछ ना होते हुए भी एक मजबूत रिश्ते की मौजूदगी का एक एहसास कराते हैं। दिग्गज गायिका और एक्ट्रेस सुलक्षणा पंडित अब हमारे बीच नहीं रहीं।  06 नवंबर को उनका निधन हो गया। एक्ट्रे,स के भाई व म्यूजिक डायरेक्टर ललित पंडित ने उनके निधन की खबर को कम्फर्म किया है।
संजीव कुमार की वजह से वह ताउम्र अविवाहित
सुलक्षणा ने कभी शादी नहीं की और माना जाता है कि इसके पीछे उनकी अधूरी मोहब्बत की दास्तान थी। संजीव कुमार की वजह से वह ताउम्र अविवाहित रह गईं। उन्होंने संजीव कुमार के साथ कई फिल्मों में काम किया और वो उनसे मोहब्बत करने लगीं। कहते हैं कि सुलक्षणा पंडित संजीव कुमार से बेपनाह इश्क करने लगी थीं और वो उनसे शादी करना चाहती थीं
कहते हैं कि संजीव कुमार ने एक्ट्रेस की शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और उनका दिल टूट गया। कहते हैं कि अधूरी मोहब्बत से वो इस कदर आहत हुईं कि उन्होंने कभी शादी न करने का फैसला ले लिया। उन्होंने साफ कह दिया था कि अब वो कभी शादी नहीं करेंगी और अपनी इस बात पर वो आजीवन कायम भी रहीं।
चर्चा ऐसी रही थी कि संजीव कुमार का दिल पहले ही हेमा मालिनी के लिए धड़क रहा था। कहते हैं कि उनका वो प्यार अधूरा रह गया था और वो भी अपने उस दर्द से कभी बाहर नहीं आ पाए थे। माना जाता है कि इसी वजह से उन्होंने भी शादी न करने का फैसला लिया था। सुलक्षणा के लिए सम्मान होने के बावजूद उन्होंने ना कह दिया था। वहीं कहते हैं कि संजीव कुमार के मन में शबाना आजमी के लिए भी भावनाएं थीं। हालांकि यह रिश्ता कभी आगे नहीं बढ़ पाया क्योंकि संजीव की मां ने मुस्लिम बहू के विचार का विरोध किया था और इन दबावों ने उन्हें अलग रखा। वहीं सुलक्षणा पंडित के साथ उनका बंधन एक ऐसी महिला का रहा जिन्होंने उन्हें ऐसे समर्पण से प्यार किया जो कभी कम नहीं हुआ।
एक्ट्रेस सुलक्षणा पंडित लंबे समय से बीमार चल रही थीं। कहते हैं कि उनकी हालत इतनी खराब थी कि वे किसी को पहचान तक नहीं पाती थीं। कहते हैं कि उनकी ये हालत संजीव कुमार के प्यार में पड़ जाने की वजह से हुई। सुलक्षणा की छोटी बहन एक्ट्रेस विजयेता पंडित ने अपने एक पुराने इंटरव्यू में कहा था कि दीदी की हालत को देखकर 2006 में वे उन्हें अपने घर ले आईं थीं। उन्होंने बताया था कि वो एक कमरे में रहती थीं और किसी से मिलती-जुलती भी नहीं थीं। वहीं एक बार बाथरूम में गिर जाने की वजह से उनकी हिप बोन टूट गई थी और चार बार सर्जरी होने के बावजूद वो ठीक से चल भी नहीं पाती थीं।
चर्चा रही है कि अपना प्यार न मिल पाने के कारण सुलक्षणा धीरे-धीरे डिप्रेशन में चली गईं। वो इससे इस तरह बिखर चुकी थीं कि उन्होंने खुदकुशी की कोशिश भी की थी। इसका खुलासा सुलक्षणा ने खुद एक बार 1999 में दिए एक इंटरव्यू में किया था। उन्होंने अपने इस इंटरव्यू में कहा था, 'संजीव जी के चले जाने के बाद मैं डिप्रेशन में चली गई। मैंने लगभग खुद को खत्म ही कर लिया था लेकिन भगवान की मर्जी थी कि मैं बच गई और आज भी मैं अपनी जिंदगी जी रही हूं। हालांकि मैं अभी भी उस सदमे से उबरी नहीं हूं'।
6 नवंबर को संजीव कुमार की डेथ एनिवर्सरी पर ही उनका निधन
लेकिन ये संयोग भी किसी हैरानी से कम नहीं कि आज 6 नवंबर को संजीव कुमार की डेथ एनिवर्सरी के दिन ही सुलक्षणा ने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया। ये एक ऐसी अधूरी प्रेम कहानी बन गई जो मरते-मरते अमर हो गई।


त्रिभुवन 
सुलक्षणा पंडित नहीं रहीं। 6 नवम्बर 2025 की शाम मुंबई में समय ने एक ऐसे स्वर को निगल लिया, जिसकी प्रतिध्वनि अब केवल कमज़ोर रेडियो तरंगों और स्मृति के भटके हुए गलियारों में सुनी जाएगी। 
"तू ही सागर है तू ही किनारा” जैसा गीत उन्होंने गाया, जो "संकल्प"  फ़िल्म से था। संगीत खय्याम का था। पचास साल पहले। उस समय शायद वह 21 साल की एक सुकुमार लड़की थी। सुकंठी। उसकी सिग्नेचर प्रार्थना-धुन। नर्म, गहरी और आध्यात्मिक। 
और "संकोच" (1976) फ़िल्म का “बाँधी रे काहे प्रीत” खाँटी राग आधारित भावगान था। यहाँ उनका शास्त्रीय प्रशिक्षण सीधा ध्वनित होता है। 
आज प्यारे प्यारे से लगते हैं आप, मैं न बताऊँगी, कजरे की बाती, परदेसीया तेरे देश में, सोमवार को हम मिले, खाली प्याला धुँधला दर्पन, मौसम मौसम लवली मौसम, अपनी बाहों का हार दे, जैसे गीत गाने वाली सुलक्षणा मृदु स्वर, सिल्की टोन, हल्के नैज़ल, लेकिन बहुत नियंत्रित तरीके से गाती थीं। कभी हार्श नहीं होतीं। हमेशा सुरीली और सुसंस्कृत। 
वे मेवाती घराने से थीं। इस घराने की ख़ूबियाँ आलाप, मींड, सुर की शुद्धता तक सब उनकी फिल्मी मेलोडी के भीतर भी साफ़ दिखते हैं। उनकी आवाज़ का भावनात्मक मार्दव आकर्षित करता था। सच कहा जाए तो वे गायिका थीं,  नायिका नहीं। 
उनकी आवाज़ में एक ख़ास तरह के इन्नोसेंस और एक़् का मिश्रण है, जो नायिका की संकोची गरिमा, हल्की उदासी और भीतरी मर्यादा को आवाज़ के माध्यम से जीवंत करता है। 
उनके डुएट ग़ज़ब थे। किशोर, रफ़ी, येशुदास जैसे दिग्गजों के साथ गाते हुए भी उनकी आवाज़ क़ाबिल-ए-शिनाख़्त रहती है। ये उनके सुर और व्यक्तित्व की ताक़त है।
नानावटी अस्पताल के एक कमरे में गुरुवार की रात आठ बजे के आसपास इस कोमल दिल और हृदयहारी कंठ ने अंतिम बार अपनी ज़िद छोड़ी। एहसास नहीं होता कि सुलक्षणा पंडित नाम की यह तारिका फिल्मों के परदे पर मुस्कान, रिकार्डों पर तैरती आवाज़ और अपने भीतर ख़ामोशी का विशाल महाद्वीप लिए विदा हो गईं हैं।
वे मशहूर संगीतकार जतिन ललित की बहन थीं और पंडित जसराज की भतीजी। यह परिवार हरियाणा के हिसार के निकट फतेहाबाद जिले के पीली मंडोरी गांव से था। 
सुलक्षणा पंडित सत्तर और अस्सी के उस दशक की विशिष्ट रोशनी थीं, जिसमें सिनेमा रंगीन हो चुका था। वह समय था जब चेहरों पर एक भूली हुई शराफ़त टिकी रहती थी। उसी से सुलक्षणा पंडित उभरीं। 
1975 में ‘उलझन’ की नायिका में बहुत से युवा उलझे थे। संजीव कुमार के साथ उनकी वह पहली उपस्थिति थी। मानो किसी नए सुर का ट्रायल हो। यह आगे चलकर ‘संकोच’, ‘हेराफेरी’, ‘अपनापन’, ‘खानदान’, ‘धरम कांटा’, ‘चेहरे पे चेहरा’ और ‘वक़्त की दीवार’ जैसी फ़िल्मों में आईं और लोगों ने उन्हें पसंद किया। 
उन्होंने संजीव कुमार, जितेन्द्र, राजेश खन्ना, शशि कपूर, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नायकों के साथ काम किया; पर नायकों की चमक के समानांतर उनकी अपनी एक नर्म, नीली सी रौशनी थी, जो शोर नहीं करती, बस उपस्थित रहती।
गायिका के रूप में उनकी कहानी और पहले शुरू होती है: 1967, फ़िल्म ‘तक़दीर’ में लता मंगेशकर के साथ बाल स्वर में। मानो किसी महान नदी के किनारे एक छोटी जलधारा अचानक साथ बहने लगे। 
आगे चलकर उन्होंने किशोर कुमार, मोहम्मद रफ़ी, येशुदास, महेंद्र कपूर, उदित नारायण जैसे स्वरों के बीच अपनी आवाज़ का महीन, पर पहचानने योग्य धागा पिरोया। हिन्दी के साथ बंगाली, ओड़िया, गुजराती, मराठी भाषाएँ बदलती रहीं, गायक बदलते रहे, संगीतकार बदलते रहे, पर सुलक्षणा की टोन में एक स्थायी उदासी और संकोची गरिमा बनी रही; जैसे हर गीत के पीछे कोई निजी कथा हो, जिसे वह श्रोताओं के सामने कभी पूरी तरह रख नहीं सकीं।
उनका अंतिम संस्कार मुंबई में,  आज दोपहर हो रहा है। पर असली विदाई वहाँ होगी, जहाँ कोई पुराने कैसेट प्लेयर में अचानक “कहीं और चल बसेंगे हम” या “तुम्हें दिल्लगी भूल जानी पड़ेगी” के दौर की कोई धुन लगाकर ठिठक जाएगा और देर तक सोचेगा कि पर्दे के पीछे की यह स्त्री, जो उद्योग की अफ़वाहों और अकेलेपन की कथाओं में घिरी रही। दरअसल सुलक्षणा पंडित हमारे सांस्कृतिक अवचेतन की एक शांत, आहत और सुरीली पंक्ति थी, जो आज हमसे दूर हो गई है।
सुलक्षणा पंडित चली गईं; पर हर बार जब कोई पुराना गीत अपनी पूरी विनम्रता के साथ कमरे में भर उठेगा, हमें याद दिलाएगा कि कभी किसी युग ने नायिका को भी गाने दिया था और वह गा भी गई थी, बिना किसी शोर, बिना किसी नारे, केवल कला के पक्ष में।


Durga Jasraj
Sulakshna Pandit our Sulakshana jiji was the one of the strongest pillars of our family ... 
While the 3 brothers Sangeet Mahamohpadhyay Pandit Maniram ji , Sanget Acharya Pandit Pratap Narayan ji (Sulakshana jiji’s father) and Sangeet Martand Pandit Jasraj ji dedicated their lives to Hindustani Classical Music, Sulakshana jiji dedicated her entire life towards bringing the family to the forefront with her limitless talent... She sang, acted, performed explored every aspect of her personality and became the 1st Star in our Pandit family!
Sulakshana jiji made her debut in film called “Uljhan” opposite legendary Sanjeev Kumar , the film went on to become box office super-duper hit!
Best is even when she got big films with big heros she never ever gave up on her 1st love i.e. singing ... 
Thank you Sulakshana jiji for doing what you did for the family ... You are the original Stree Shakti in the family... 
It is only after you set the precedent all the girls got inspired to persue their respective dreams ... ❤️🙏
We owe a lot to you for leading by example... 
Love you, adore you and pray for your sadgati ... Om Shanti 


अल इश्क़ो नारून, युहर्री को मा सवीयिल महबूब...
यानी इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है...

इश्क़ वो आग है, जिससे दोज़ख भी पनाह मांगती है... कहते हैं, इश्क़ की एक चिंगारी से ही दोज़ख़ की आग दहकायी गई है... जिसके सीने में पहले ही इश्क़ की आग दहकती हो उसे  दोज़ख़ की आग का क्या ख़ौफ़...

जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है... इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना... क्योंकि इश्क़ तो 'उससे' हुआ है...उसकी ज़ात (अस्तित्व) से हुआ है... उस 'महबूब' से जो सिर्फ़ 'जिस्म' नहीं है... वो तो ख़ुदा के नूर का वो क़तरा जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है... इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है... इश्क़ में रूहानियत होती है... इश्क़, बस इश्क़ होता है... किसी इंसान से हो या ख़ुदा से...

हज़रत राबिया बसरी कहती हैं- इश्क़ का दरिया अज़ल से अबद तक गुज़रा, मगर ऐसा कोई न मिला जो उसका एक घूंट भी पीता. आख़िर इश्क़ विसाले-हक़ हुआ...

बुजुर्गों से सुना है कि शायरों की बख़्शीश नहीं होती...वजह, वो अपने महबूब को ख़ुदा बना देते हैं...और इस्लाम में अल्लाह के बराबर किसी को रखना...शिर्क यानी ऐसा गुनाह माना जाता है, जिसकी मुआफ़ी तक नहीं है...कहने का मतलब यह है कि शायर जन्नत के हक़दार नहीं होते...उन्हें  दोज़ख़ (जहन्नुम) में फेंका जाएगा... अगर वाक़ई ऐसा है तो मुझे  दोज़ख़ भी क़ुबूल है...आख़िर वो भी तो उसी अल्लाह की तामीर की हुई है...जब हम अपने महबूब (चाहे वो काल्पनिक ही क्यूं न हो) से इतनी मुहब्बत करते हैं कि उसके सिवा किसी और का तसव्वुर करना भी कुफ़्र महसूस होता है... उसके हर सितम को उसकी अदा मानकर दिल से लगाते हैं... फिर जिस ख़ुदा की हम उम्रभर इबादत करते हैं तो उसकी  दोज़ख़ को ख़ुशी से क़ुबूल क्यूं नहीं कर सकते...?

बंदे को तो अपने महबूब (ख़ुदा) की  दोज़ख़ भी उतनी ही अज़ीज़ होती है, जितनी जन्नत... जिसे इश्क़ की दौलत मिली हो, फिर उसे कायनात की किसी और शय की ज़रूरत ही कहां रह जाती है, भले ही वो जन्नत ही क्यों न हो...

जब इश्क़े-मजाज़ी (इंसान से इश्क़) हद से गुज़र जाए, तो वो ख़ुद ब ख़ुद इश्क़े-हक़ीक़ी (ख़ुदा से इश्क़) हो जाता है... इश्क़ एक ख़ामोश इबादत है... जिसकी मंज़िल जन्नत नहीं, दीदारे-महबूब है...

किसी ने क्या ख़ूब कहा है-
मुकम्मल दो ही दानों पर
ये तस्बीह-ए-मुहब्बत है
जो आए तीसरा दाना
ये डोर टूट जाती है

मुक़र्रर वक़्त होता है
मुहब्बत की नमाज़ों का
अदा जिनकी निकल जाए
क़ज़ा भी छूट जाती है

मोहब्बत की नमाज़ों में
इमामत एक को सौंपो
इसे तकने उसे तकने से
नीयत टूट जाती है

मुहब्बत दिल का सजदा है
जो है तैहीद पर क़ायम
नज़र के शिर्क वालों से
मुहब्बत रूठ जाती है



सुरमई शाम पे बिखरा था अभी रंगे शफ़क
ज़ेहन से महव थे कितने ही परेशान सवाल
पुरसुकूँ वक़्त में धुन्धला सी गई  थी दहशत
गुम हुए जाते थे दिल तोड़ते लम्हों के ख़्याल।
सामने धीमे से उतरी है सियह रात अभी
इक घने पेड़ के पीछे हुआ रौशन महताब।
हर नए पल में बदलते हुए कुछ मनज़र हैं
चाँद है या कि खुली है कहीं जादूई किताब।
चौदहवीं रात का शफ़्फ़ाफ़ चमकता हुआ चाँद
आसमाँ ता बा ज़मीं नूर का बहता दरिया।
जैसे चुपके से हरेक शय पे कोई 'इस्म' पढ़े
और कुछ देर में हो जाए सुनहरी दुनिया।
-शमीम ज़हरा




ایک اسم
سرمئی شام پے بکھرا تھا ابھی رنگ شفق
ذہن سے محو تھے کتنے ہی پریشان سوال
پرسکوں وقت میں دھندلا سی گئی تھی دہشت
گم ہوئے جاتے تھے دل توڑتے لمحوں کے خیال
سامنے دھیمے سے اتری تھی سیاہ رات ابھی
اک گھنے پیڑ کے پیچھے ہوا روشن مہتاب
ہر نئے پل میں بدلتے ہوئے کچھ منظر ہیں
چاند ہے یا کہ کھلی ہے کوئی جادوئی کتاب
چودہویں رات کا شفاف چمکتا ہوا چاند 
آسماں تا بہ زمیں نور کا بہتا دریا
جیسے چپکے سے ہر اک شئے پے کوئی اسم پڑھے
اور کچھ دیر میں ہو جائے سنہری دنیا
شمیم زہرا



  ثمر خانہ بدوش کا شمار ان شعرائے کرام میں ہوتا ہے کہ جو بیک وقت ہندی اردو عربی فارسی اور انگریزی پر دسترس رکھتے ہیں۔ظاہر ہے کہ کوئی شخص اگر multiple languages کا علم رکھتا ہے تو اس کا دائرہ فکر بہت وسیع ہوگا۔یہی نہیں ، بلکہ میں بارہا عرض کر چکا ہوں کہ ایک فطری شاعر یعنی ایک آمد کا شاعر اپنے مضامین اپنے تخیل اور اپنے طرز بیان میں بڑی حد تک آورد کے شاعر سے مختلف ہوتا ہے۔
ثمر صاحب کو میں لمبے عرصے سے ملٹی میڈیا کی وساطت سے جانتا ہوں اور آپ کے کلام
سے متعارف ہوں۔ ایک بار فیس بک پر ایک غزل پڑھی تھی جس کے چند شعر آج بھی یاد ہیں 
خانہ بدوش ہیں ضرور ایسا نہیں کہ گھر نہیں 
تھوڑے سے دربدر تو ہیں اتنے بھی در بدر نہیں 
اے خضر راہ ! یہ بتا کتنا چلے گا اور ابھی 
جسموں ہی کا سفر تو ہے روحوں کا یہ سفر نہیں
بہکے ضرور تھے کبھی ہم منزلوں کی چاہ میں 
لیکن حضور عشق اب کیا اپنی راہ پر نہیں 
اس غزل نے اور خصوصا اس مطلع نے مجھے اپنے سحر میں لے لیا تھا پھر میں لگاتار خانہ بدوش صاحب کے کلام کی جستجو میں لگا رہا،حت الوسع پڑھتا رہا، اور یہ پاتا رہا کہ اس شاعر کے یہاں کچھ بات تو بہت خاص ہے جو پڑھنے والے کے دل پر سیدھی اثر انداز ہوتی ہے۔
خانہ بدوش صاحب نے اپنے مجموعہ کلام میں کچھ غزلیں اس انداز کی رکھی ہیں کہ جن کو پڑھتے ہوئے ہندوستان کی پرانی تہذیب اور تمدن اپنی پوری آب و تاب کے ساتھ جگمگانے لگتی ہے 
اندر جالی ،منتر پھوکا عقل کے ظلمت خانوں پر 
اور صوامت گھول کے مارے دل کے روشندانوں پر 
عشق کے ہم آسیب زدہ ہیں اور ایسے آسیب زدہ 
عامل، بابا چھوڑ نہ پائے کوئی اثر دیوانوں پر 
عشق میں ہم بس کانھا جی کو اپنا مرشد پاتے ہیں 
اپنا اک اک چند ہے بھاری قیس کے سب افسانوں پر 
خانہ بدوش صاحب کے ہاں دو چیزیں بڑی شدومد کے ساتھ محسوس کی جا سکتی ہیں ایک عشق اپنی تمام تر وسعتوں کے ساتھ  اور معنوی سمتوں ساتھ جلوہ گر ہے دوسرے شاعر نے جن مضامین کو شعر کے پیکر میں ڈھالا ہے وہ گویا رقص کرتے ہوئے نظر آتے ہیں۔
میری زندگی کا اکثر حصہ مختلف کوہستانی سلسلوں پر بسر ہوا ہے اور میں نے وہاں کی تہذیب،وہاں کا سکوت،وہاں کے  موسم، وہاں کی سادہ لوحی اور وہاں ٹھاٹے مارتے دریا اپنی روح میں جذب ہوتے دیکھے ہیں۔  اگر ان تمام مناظر سے عرق کشید کیا جائے اور اس سے خانہ بدوش صاحب کی شاعری کو علامتی طور پر دھو دیا جائے تو وہ مضامین پیدا ہوں گے جس کا ذکر میں نے سطور بالا میں کیا ہے۔
ثمر صاحب کے یہاں احساس ہے مگر اپنی حتمی آب و تاب کے ساتھ ، نغمگی ہے،الفاظ کی نشست و برخاست  اور تخیل کی ہمہ گیری نے ایک وجدان پیدا کر دیا ہے جو ہر پڑھنے والا یا ان کو سننے والا بہت آسانی سے محسوس کر سکتا ہے۔ یہ وجدان دیر پا اثر چھوڑنے والی کیفیت ہے کوئی مختصر واقعہ نہیں۔ 
خانہ بدوش صاحب کے کلام سے گزرتے ہوئے آپ محسوس کریں گے کہ اپ ایسی پرکشش وادی سے ہو کے گزر رہے ہیں جہاں ہوائیں اور فضائیں رقصاں ہیں اور جہاں دریا گویا اپنی دھن میں بانسری بجاتا ہوا ساکت و جامد کھڑا ہے۔خانہ بدوش صاحب کے کلام سے گزرتے ہوئے آپ کو محسوس ہوگا کہ  یہ اشعار بڑے حسین ہیں بڑے دلکش مضامین بنانے والے، کسی بڑے کینوس پر آفاقی تصویریں ابھارنے والے۔ یہ وہ روایتی غزلیں نہیں ہیں کہ جن سے اکثر مجموعہ ہائے کلام بھرے پڑے ہیں بلکہ ان غزلوں کو،ان شعروں کو ٹھہر ٹھہر کے،رک رک کے پڑھنا پڑتا ہے ہے۔ ان میں جہاں ایک طرف احساس کی شدت ہے ،تو وہیں تخیل کی ندرت ہے۔ساتھ ہی ساتھ ان اشعار کو کہنے کا جو ڈھنگ ہے یا جو ڈھب ہے وہ بھی بڑا نادر ہے ،بہت پر کیف ،بہت پراثر۔
یوں ہی ممکن نہیں اک جاپہ بسیرا میرا 
خانہ بردوش ہوں بستی نہ قبیلہ میرا 
شہر سے دور درندوں میں بسوں گا جا کر 
کوئی کھائے گا تو ہم جنس نہ ہوگا میرا 
اے میری خانہ بدوشی مجھے تنہا نہ یوں چھوڑ 
تیری سانسوں سے ہے آباد یہ صحرا میرا
مندر میں جب رات کو گھنٹی بجتی ہے 
بوڑھی اماں اٹھ کے تہجد پڑھتی ہے 
پن گھٹ پر اک رام دلاری عصر کے وقت 
سن کے اذانیں سر پہ مٹکا رکھتی ہے 
سر نگوں ہے شرم سے انسانیت 
کھا گیا انسان کو انسان دیکھ 
ملی اجداد سے میرے یہی میراث ہے مجھ کو 
میں ایک مزدور کا بیٹا ہوں محنت کر کے کھاتا ہوں 
میرے بچے مجھے جب شام کوآتا  ہوا دیکھی
خوشی سے مسکراتے ہیں میں غم میں ڈوب جاتا ہوں 
دیوانو! چلے آؤ کہ جو بن پہ ہے موسم 
بدمست عناصر کو تہ خاک کریں گے 
خاموش کیوں ہو میاں بولنا ضروری ہے 
برو تیغ فشاں بولنا ضروری ہے 
یہی ہے مقصد تشکیل منبر و محراب 
یہی ہے سر اذاں بولنا ضروری ہے 
ٹمر خانہ بدوش کے یہاں انسانی قدروں کی پامالی بے گھری کا درد، بے سد و سامانی کے اصل معنی، گنگا جمنی تہذیب کے احیائے نو کی فکر اور سماج کی بے راہ روی پر اظہار افسوس بھی بڑے سلیقے سے ملتا ہے۔سلیقے سے میں اس لیے کہہ رہا ہوں کہ بعض جگہ یہی مضامین اپنی خام شکلوں میں کچھ اس طرح پڑھنے کو ملتے ہیں گویا کسی صحافی نے کسی اخبار کا اداریہ لکھا ہو۔مگر خانہ بدوش نے اس کو احساس و جذبات کی آنچ پر بلکہ دھیمی آنچ پر خوب پکا کر شعر کے قالب میں ڈھالا ہے۔
آپ کا کلام روایتی کلام سے بڑی حد تک ممتاز ہے، مگر انفرادیت کی فکر میں اپ نے کلاسیکی روایتوں کے بدن پر پاؤں نہیں رکھا ہے یعنی اس ان قدروں کو پامال نہیں کیا ہے۔ 
قصہ محرومی دل کیسے سناؤ گے مجھے 
جاؤ بس رہنے دو کیا اور رلاؤ گے مجھے 
چین سے اس دنیا میں تب ہی جی پاتے ہم خانہ بدوش
ارماں زیر پا ہونے تھے خواہش زیر سناں ہونی تھی 
خانہ بدوش کے ہاں جو کرب ہے وہ  دل کے بکھر جانے،انسان کی بے اعتنائی، بے جان رشتوں کو ڈھونے اور کسی غم شناس کی فہم کے خام ہونے کا بھی بہت ہے۔
ایجوکیشنل پبلشنگ ہاؤس دہلی نے انتہائی خوبصورتی کے ساتھ اس مجموعے کی طباعت کو انجام دیا ہے۔424 صفحات پر مشتمل یہ مجموعہ اہل سخن اور شائقان فن کے لیے سامان تازہ کاری فراہم کرے گا۔بہت دعاؤں کے ساتھ 
سہیل آزاد


डॉ. फ़िरदौस ख़ान
एक ज़माने से देश के कोने-कोने से युवा हिन्दी सिनेमा में छा जाने का ख़्वाब लिए मुंबई आते रहे हैं. इनमें से कई खु़शक़िस्मत तो सिनेमा के आसमान पर रौशन सितारा बनकर चमकने लगते हैं, तो कई नाकामी के अंधेरे में खो जाते हैं. लेकिन युवाओं के मुंबई आने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है. एक ऐसे ही युवा थे संजीव कुमार, जो फ़िल्मों में नायक बनने का ख़्वाब देखा करते थे. और इसी ख़्वाब को पूरा करने के लिए वह चल पड़े एक ऐसी राह पर, जहां उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना था. मगर अपने ख़्वाब को पूरा करने के लिए वह मुश्किल से मुश्किल इम्तिहान देने को तैयार थे. उनकी इसी लगन और मेहनत ने उन्हें हिन्दी  सिनेमा का ऐसा अभिनेता बना दिया, जो ख़ुद ही अपनी मिसाल है.

संजीव कुमार का जन्म 9 जुलाई, 1938 को मुंबई में हुआ था. उनका असली नाम हरि भाई ज़रीवाला था. उनका पैतृक निवास सूरत में था. बाद में उनका परिवार मुंबई आ गया. उन्हें बचपन से फ़िल्मों का काफ़ी शौक़ था. वह फ़िल्मों में नायक बनना चाहते थे. अपने इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने रंगमंच का सहारा लिया. इसके बाद उन्होंने फ़िल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाख़िला ले लिया और यहां उन्होंने अभिनय की बारीकियां सीखीं. उनकी क़िस्मत अच्छी थी कि उन्हें 1960 में फ़िल्मालय बैनर की फ़िल्म हम हिंदुस्तानी में काम करने क मौक़ा मिल गया. फ़िल्म में उनका किरदार तो छोटा-सा था, वह भी सिर्फ़ दो मिनट का, लेकिन इसने उन्हें अभिनेता बनने की राह दे दी.

1965 में बनी फ़िल्म निशान में उन्हें बतौर मुख्य अभिनेता काम करने का सुनहरा मौक़ा मिला. यह उनकी ख़ासियत थी कि उन्होंने कभी किसी भूमिका को छोटा नहीं समझा. उन्हें जो किरदार मिलता, उसे वह ख़ुशी से क़ुबूल कर लेते. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म शिकार में उन्हें पुलिस अफ़सर की भूमिका मिली. इस फ़िल्म में मुख्य अभिनेता धर्मेंद्र थे, लेकिन संजीव कुमार ने शानदार अभिनय से आलोचकों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. इस फ़िल्म के लिए उन्हें सहायक अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर अवॊर्ड मिला. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म संघर्ष में छोटी भूमिका होने के बावजूद वह छा गए. इस फ़िल्म में उनके सामने महान अभिनेता दिलीप कुमार भी थे, जो उनकी अभिनय प्रतिभा के क़ायल हो गए थे. उन्होंने फ़िल आशीर्वाद, राजा और रंक और अनोखी रात जैसी फ़िल्मों में अपने दमदार अभिनय की छाप छोड़ी. 1970 में प्रदर्शित फ़िल्म खिलौना भी बेहद कामयाब रही. इस फ़िल्म ने संजीव कुमार को बतौर अभिनेता स्थापित कर दिया. इसी साल प्रदर्शित फ़िल्म दस्तक में सशक्त अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़े गए. फिर 1972 में प्रदर्शित फ़िल्म कोशिश में उन्होंने गूंगे बहरे का किरदार निभाकर यह साबित कर दिया कि वह किसी भी तरह की भूमिका में जान डाल सकते हैं. इस फ़िल्म को संजीव कुमार की महत्वपूर्ण फ़िल्मों में शुमार किया जाता है. फ़िल्म शोले में ठाकुर के चरित्र को उन्होंने अमर बना दिया.

उन्होंने 1974 में प्रदर्शित फ़िल्म नया दिन नई रात में नौ किरदार निभाए. इसमें उन्होंने विकलांग, नेत्रहीन, बूढ़े, बीमार, कोढ़ी, हिजड़े, डाकू, जवान और प्रोफ़ेसर का किरदार निभाकर अभिनय और विविधता के नए आयाम पेश किए. उन्होंने फ़िल्म आंधी में होटल कारोबारी का किरदार निभाया, जिसकी पत्नी राजनीति के लिए पति का घर छोड़कर अपने पिता के पास चली जाती है. इसमें उनकी पत्नी की भूमिका सुचित्रा सेन ने निभाई थी. इस फ़िल्म के लिए संजीव कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अगले ही साल 1977 में उन्हें फ़िल्म अर्जुन पंडित के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला.

उनकी अन्य फ़िल्मों में पति पत्नी, स्मगलर, बादल, हुस्न और इश्क़, साथी, संघर्ष, गौरी, सत्यकाम, सच्चाई, ज्योति, जीने की राह, इंसाफ़ का मंदिर, ग़ुस्ताख़ी माफ़, धरती कहे पुकार के, चंदा और बिजली, बंधन, प्रिया, मां का आंचल, इंसान और शैतान, गुनाह और क़ानून, देवी, दस्तक, बचपन, पारस, मन मंदिर, कंगन, एक पहेली, अनुभव, सुबह और शाम, सीता और गीता, सबसे बड़ा सुख, रिवाज, परिचय, सूरज और चंदा, मनचली, दूर नहीं मंज़िल, अनामिका, अग्नि रेखा, अनहोनी, शानदार, ईमान, दावत, चौकीदार, अर्चना, मनोरंजन, हवलदार, आपकी क़सम, कुंआरा बाप, उलझन, आनंद, धोती लोटा और चौपाटी, अपने रंग हज़ार, अपने दुश्मन, आक्रमण, फ़रार, मौसम, दो लड़कियां, ज़िंदगी, विश्वासघात, पापी, दिल और पत्थर, धूप छांव, अपनापन, अंगारे, आलाप, ईमान धर्म, यही है ज़िंदगी, शतरंज के खिलाड़ी, मुक्ति, तुम्हारे लिए, तृष्णा डॊक्टर, स्वर्ग नर्क, सावन के गीत, पति पत्नी और वो, मुक़द्दर, देवता, त्रिशूल, मान अपमान, जानी दुश्मन, घर की लाज, बॊम्बे एट नाइट, हमारे तुम्हारे, गृह प्रवेश, काला पत्थर, टक्कर, स्वयंवर, पत्थर से टक्कर, बेरहम, अब्दुल्ला, ज्योति बने जवाला, हम पांच कृष्ण, सिलसिला, वक़्त की दीवार, लेडीज़ टेलर, चेहरे पे चेहरा, बीवी ओ बीवी, इतनी सी बात, दासी, विधाता, सिंदूर बने ज्वाला, श्रीमान श्रीमती, नमकीन, लोग क्या कहेंगे, खु़द्दार, अय्याश, हथकड़ी, सुराग़, सवाल, अंगूर, हीरो और यादगार शामिल हैं. उन्होंने पंजाबी फ़िल्म फ़ौजी चाचा में भी काम किया. कई फ़िल्में उनकी मौत के बाद प्रदर्शित हुईं, जिनमें बद और बदनाम, पाखंडी, मेरा दोस्त मेरा दुश्मन, लाखों की बात, ज़बरदस्त, राम तेरे कितने नाम, बात बन जाए, हाथों की लकीरें, लव एंड गॊड, कांच की दीवर, क़त्ल, प्रोफ़ेसर की पड़ौसन और राही शामिल हैं. संजीव कुमार के दौर में हिंदी सिनेमा में दिलीप कुमार, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और शम्मी कपूर जैसे अभिनेताओं का बोलबाला था. इन अभिनेताओं के बीच संजीव कुमार ने अपनी अलग पहचान क़ायम की. उन्होंने अभिनेता और सहायक अभिनेता के तौर पर कई यादगार भूमिकाएं कीं.

वह आजीवन अविवाहित रहे. हालांकि कई अभिनेत्रियों के साथ उनके प्रसंग सुर्ख़ियों में रहे. कहा जाता है कि पहले उनका रुझान सुलक्षणा पंडित की तरफ़ हुआ, लेकिन प्यार परवान नहीं चढ़ पाया. इसके बाद उन्होंने हेमा मालिनी से विवाह करना चाहा, लेकिन वह अभिनेता धर्मेंद्र को पसंद करती थीं, इसलिए यहां भी बात नहीं बन पाई. हेमा मालिनी ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर पहले से शादीशुदा धर्मेंद्र से शादी कर ली. धर्मेंद्र ने भी इस विवाह के लिए इस्लाम क़ुबूल किया था. यह कहना ग़लत न होगा कि ज़िंदगी में प्यार क़िस्मत से ही मिलता है. अपना अकेलापन दूर करने के लिए संजीव कुमार ने अपने भतीजे को गोद ले लिया. संजीव कुमार के परिवाए में कहा जाता था कि उनके परिवार में बड़े बेटे के दस साल का होने पर पिता की मौत हो जाती है, क्योंकि उनके दादा, पिता और भाई के साथ ऐसा हो चुका था. उनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. जैसे ही उनका भतीजा दस साल का हुआ 6 नवंबर, 1985 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई. यह महज़ इत्तेफ़ाक़ था या कुछ और. ज़िंदगी के कुछ रहस्य ऐसे होते हैं, जो कभी सामने नहीं आ पाते.

बहरहाल, अपने अभिनय के ज़रिये संजीव कुमार खु़द को अमर कर गए. जब भी हिन्दी सिनेमा और दमदार अभिनय की बात छिड़ेगी, उनका नाम ज़रूर लिया जाएगा. 
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं)
साभार : आवाज़ 


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