मिट्टी के दिये
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बचपन से ही दिवाली का त्यौहार मन को बहुत भाता है. दादी जान दिवाली की रात में
मिट्टी के दीये जलाया करती थीं. घर का कोई कोना ऐसा नहीं होता था, जहां दियों
की...
ये कहानी है दिल्ली के ’शहज़ादे’ और हिसार की ’शहज़ादी’ की. उनकी मुहब्बत की... गूजरी महल की तामीर का तसव्वुर सुलतान फ़िरोज़शाह तुगलक़ ने अपनी महबूबा के रहने के लिए किया था...यह किसी भी महबूब का अपनी महबूबा को परिस्तान में बसाने का ख़्वाब ही हो सकता था और जब गूजरी महल की तामीर की गई होगी...तब इसकी बनावट, इसकी नक्क़ाशी और इसकी ख़ूबसूरती को देखकर ख़ुद वह भी इस पर मोहित हुए बिना न रह सका होगा...
हरियाणा के हिसार क़िले में स्थित गूजरी महल आज भी सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की अमर प्रेमकथा की गवाही दे रहा है. गूजरी महल भले ही आगरा के ताजमहल जैसी भव्य इमारत न हो, लेकिन दोनों की पृष्ठभूमि प्रेम पर आधारित है. ताजमहल मुग़ल बादशाह शाहजहां ने अपनी पत्नी मुमताज़ की याद में 1631 में बनवाना शुरू किया था, जो 22 साल बाद बनकर तैयार हो सका. हिसार का गूजरी महल 1354 में फ़िरोज़शाह तुग़लक ने अपनी प्रेमिका गूजरी के प्रेम में बनवाना शुरू किया, जो महज़ दो साल में बनकर तैयार हो गया. गूजरी महल में काला पत्थर इस्तेमाल किया गया है, जबकि ताजमहल बेशक़ीमती सफ़ेद संगमरमर से बनाया गया है. इन दोनों ऐतिहासिक इमारतों में एक और बड़ी असमानता यह है कि ताजमहल शाहजहां ने मुमताज़ की याद में बनवाया था. ताज एक मक़बरा है, जबकि गूजरी महल फिरोज़शाह तुग़लक ने गूजरी के रहने के लिए बनवाया था, जो महल ही है.
गूजरी महल की स्थापना के लिए बादशाह फ़िरोज़शाह तुग़लक ने क़िला बनवाया. यमुना नदी से हिसार तक नहर लाया और एक नगर बसाया. क़िले में आज भी दीवान-ए-आम, बारादरी और गूजरी महल मौजूद हैं. दीवान-ए-आम के पूर्वी हिस्से में स्थित कोठी फ़िरोज़शाह तुग़लक का महल बताई जाती है. इस इमारत का निचला हिस्सा अब भी महल-सा दिखता है. फ़िरोज़शाह तुग़लक के महल की बंगल में लाट की मस्जिद है. अस्सी फ़ीट लंबे और 29 फ़ीट चौड़े इस दीवान-ए-आम में सुल्तान कचहरी लगाता था. गूजरी महल के खंडहर इस बात की निशानदेही करते हैं कि कभी यह विशाल और भव्य इमारत रही होगी.
सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की प्रेमगाथा बड़ी रोचक है. हिसार जनपद के ग्रामीण इस प्रेमकथा को इकतारे पर सुनते नहीं थकते. यह प्रेम कहानी लोकगीतों में मुखरित हुई है. फ़िरोज़शाह तुग़लक दिल्ली का सम्राट बनने से पहले शहज़ादा फ़िरोज़ मलिक के नाम से जाने जाते थे. शहज़ादा अकसर हिसार इलाक़े के जंगल में शिकार खेलने आते थे. उस वक़्त यहां गूजर जाति के लोग रहते थे. दुधारू पशु पालन ही उनका मुख्य व्यवसाय था. उस काल में हिसार क्षेत्र की भूमि रेतीली और ऊबड़-खाबड़ थी. चारों तरफ़ घना जंगल था. गूजरों की कच्ची बस्ती के समीप पीर का डेरा था. आने-जाने वाले यात्री और भूले-भटके मुसाफ़िरों की यह शरणस्थली थी. इस डेरे पर एक गूजरी दूध देने आती थी. डेरे के कुएं से ही आबादी के लोग पानी लेते थे. डेरा इस आबादी का सांस्कृतिक केंद्र था.
एक दिन शहज़ादा फ़िरोज़ शिकार खेलते-खेलते अपने घोड़े के साथ यहां आ पहुंचा. उसने गूजर कन्या को डेरे से बाहर निकलते देखा, तो उस पर मोहित हो गया. गूजर कन्या भी शहज़ादा फ़िरोज़ से प्रभावित हुए बिना न रह सकी. अब तो फ़िरोज़ का शिकार के बहाने डेरे पर आना एक सिलसिला बन गया. फ़िरोज़ ने गूजरी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा, तो उस गूजर कन्या ने विवाह की मंज़ूरी तो दे दी, लेकिन दिल्ली जाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह अपने बूढ़े माता-पिता को छोड़कर नहीं जा सकती. फ़िरोज़ ने गूजरी को यह कहकर मना लिया कि वह उसे दिल्ली नहीं ले जाएगा.
1309 में दयालपुल में जन्मा फ़िरोज़ 23 मार्च 1351 को दिल्ली का सम्राट बना. फ़िरोज़ की मां हिन्दू थी और पिता तुर्क मुसलमान था. सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक ने इस देश पर साढ़े 37 साल शासन किया. उसने लगभग पूरे उत्तर भारत में कलात्मक भवनों, क़िलों, शहरों और नहरों का जाल बिछाने में ख्याति हासिल की. उसने लोगों के लिए अनेक कल्याणकारी काम किए. उसके दरबार में साहित्यकार, कलाकार और विद्वान सम्मान पाते थे.
दिल्ली का सम्राट बनते ही फ़िरोज़शाह तुग़लक ने महल हिसार इलाक़े में महल बनवाने की योजना बनाई. महल क़िले में होना चाहिए, जहां सुविधा के सब सामान मौजूद हों. यह सोचकर उसने क़िला बनवाने का फ़ैसला किया. बादशाह ने ख़ुद ही करनाल में यमुना नदी से हिसार के क़िले तक नहरी मार्ग की घोड़े पर चढ़कर निशानदेही की थी. दूसरी नहर सतलुज नदी से हिमालय की उपत्यका से क़िले में लाई गई थी. तब जाकर कहीं अमीर उमराओं ने हिसार में बसना शुरू किया था.
किवदंती है कि गूजरी दिल्ली आई थी, लेकिन कुछ दिनों बाद अपने घर लौट आई. दिल्ली के कोटला फ़िरोज़शाह में गाईड एक भूल-भूलैया के पास गूजरी रानी के ठिकाने का भी ज़िक्र करते हैं. तभी हिसार के गूजरी महल में अद्भुत भूल-भूलैया आज भी देखी जा सकती है.
क़ाबिले-ग़ौर है कि हिसार को फ़िरोज़शाह तुग़लक के वक़्त से हिसार कहा जाने लगा, क्योंकि उसने यहां हिसार-ए-फ़िरोज़ा नामक क़िला बनवाया था. 'हिसार' फ़ारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'क़िला'. इससे पहले इस जगह को 'इसुयार' कहा जाता था. अब गूजरी महल खंडहर हो चुका है. इसके बारे में अब शायद यही कहा जा सकता है-
हरियाणा के हिसार क़िले में स्थित गूजरी महल आज भी सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की अमर प्रेमकथा की गवाही दे रहा है. गूजरी महल भले ही आगरा के ताजमहल जैसी भव्य इमारत न हो, लेकिन दोनों की पृष्ठभूमि प्रेम पर आधारित है. ताजमहल मुग़ल बादशाह शाहजहां ने अपनी पत्नी मुमताज़ की याद में 1631 में बनवाना शुरू किया था, जो 22 साल बाद बनकर तैयार हो सका. हिसार का गूजरी महल 1354 में फ़िरोज़शाह तुग़लक ने अपनी प्रेमिका गूजरी के प्रेम में बनवाना शुरू किया, जो महज़ दो साल में बनकर तैयार हो गया. गूजरी महल में काला पत्थर इस्तेमाल किया गया है, जबकि ताजमहल बेशक़ीमती सफ़ेद संगमरमर से बनाया गया है. इन दोनों ऐतिहासिक इमारतों में एक और बड़ी असमानता यह है कि ताजमहल शाहजहां ने मुमताज़ की याद में बनवाया था. ताज एक मक़बरा है, जबकि गूजरी महल फिरोज़शाह तुग़लक ने गूजरी के रहने के लिए बनवाया था, जो महल ही है.
गूजरी महल की स्थापना के लिए बादशाह फ़िरोज़शाह तुग़लक ने क़िला बनवाया. यमुना नदी से हिसार तक नहर लाया और एक नगर बसाया. क़िले में आज भी दीवान-ए-आम, बारादरी और गूजरी महल मौजूद हैं. दीवान-ए-आम के पूर्वी हिस्से में स्थित कोठी फ़िरोज़शाह तुग़लक का महल बताई जाती है. इस इमारत का निचला हिस्सा अब भी महल-सा दिखता है. फ़िरोज़शाह तुग़लक के महल की बंगल में लाट की मस्जिद है. अस्सी फ़ीट लंबे और 29 फ़ीट चौड़े इस दीवान-ए-आम में सुल्तान कचहरी लगाता था. गूजरी महल के खंडहर इस बात की निशानदेही करते हैं कि कभी यह विशाल और भव्य इमारत रही होगी.
सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की प्रेमगाथा बड़ी रोचक है. हिसार जनपद के ग्रामीण इस प्रेमकथा को इकतारे पर सुनते नहीं थकते. यह प्रेम कहानी लोकगीतों में मुखरित हुई है. फ़िरोज़शाह तुग़लक दिल्ली का सम्राट बनने से पहले शहज़ादा फ़िरोज़ मलिक के नाम से जाने जाते थे. शहज़ादा अकसर हिसार इलाक़े के जंगल में शिकार खेलने आते थे. उस वक़्त यहां गूजर जाति के लोग रहते थे. दुधारू पशु पालन ही उनका मुख्य व्यवसाय था. उस काल में हिसार क्षेत्र की भूमि रेतीली और ऊबड़-खाबड़ थी. चारों तरफ़ घना जंगल था. गूजरों की कच्ची बस्ती के समीप पीर का डेरा था. आने-जाने वाले यात्री और भूले-भटके मुसाफ़िरों की यह शरणस्थली थी. इस डेरे पर एक गूजरी दूध देने आती थी. डेरे के कुएं से ही आबादी के लोग पानी लेते थे. डेरा इस आबादी का सांस्कृतिक केंद्र था.
एक दिन शहज़ादा फ़िरोज़ शिकार खेलते-खेलते अपने घोड़े के साथ यहां आ पहुंचा. उसने गूजर कन्या को डेरे से बाहर निकलते देखा, तो उस पर मोहित हो गया. गूजर कन्या भी शहज़ादा फ़िरोज़ से प्रभावित हुए बिना न रह सकी. अब तो फ़िरोज़ का शिकार के बहाने डेरे पर आना एक सिलसिला बन गया. फ़िरोज़ ने गूजरी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा, तो उस गूजर कन्या ने विवाह की मंज़ूरी तो दे दी, लेकिन दिल्ली जाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह अपने बूढ़े माता-पिता को छोड़कर नहीं जा सकती. फ़िरोज़ ने गूजरी को यह कहकर मना लिया कि वह उसे दिल्ली नहीं ले जाएगा.
1309 में दयालपुल में जन्मा फ़िरोज़ 23 मार्च 1351 को दिल्ली का सम्राट बना. फ़िरोज़ की मां हिन्दू थी और पिता तुर्क मुसलमान था. सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक ने इस देश पर साढ़े 37 साल शासन किया. उसने लगभग पूरे उत्तर भारत में कलात्मक भवनों, क़िलों, शहरों और नहरों का जाल बिछाने में ख्याति हासिल की. उसने लोगों के लिए अनेक कल्याणकारी काम किए. उसके दरबार में साहित्यकार, कलाकार और विद्वान सम्मान पाते थे.
दिल्ली का सम्राट बनते ही फ़िरोज़शाह तुग़लक ने महल हिसार इलाक़े में महल बनवाने की योजना बनाई. महल क़िले में होना चाहिए, जहां सुविधा के सब सामान मौजूद हों. यह सोचकर उसने क़िला बनवाने का फ़ैसला किया. बादशाह ने ख़ुद ही करनाल में यमुना नदी से हिसार के क़िले तक नहरी मार्ग की घोड़े पर चढ़कर निशानदेही की थी. दूसरी नहर सतलुज नदी से हिमालय की उपत्यका से क़िले में लाई गई थी. तब जाकर कहीं अमीर उमराओं ने हिसार में बसना शुरू किया था.
किवदंती है कि गूजरी दिल्ली आई थी, लेकिन कुछ दिनों बाद अपने घर लौट आई. दिल्ली के कोटला फ़िरोज़शाह में गाईड एक भूल-भूलैया के पास गूजरी रानी के ठिकाने का भी ज़िक्र करते हैं. तभी हिसार के गूजरी महल में अद्भुत भूल-भूलैया आज भी देखी जा सकती है.
क़ाबिले-ग़ौर है कि हिसार को फ़िरोज़शाह तुग़लक के वक़्त से हिसार कहा जाने लगा, क्योंकि उसने यहां हिसार-ए-फ़िरोज़ा नामक क़िला बनवाया था. 'हिसार' फ़ारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'क़िला'. इससे पहले इस जगह को 'इसुयार' कहा जाता था. अब गूजरी महल खंडहर हो चुका है. इसके बारे में अब शायद यही कहा जा सकता है-
सुनने की फुर्सत हो तो आवाज़ है पत्थरों में
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियां बोलती हैं...
इस्लाम विश्व भाईचारे का धर्म है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इस्लाम अपने क्षेत्र में किसी भी सांप्रदायिक विभाजन को स्वीकार नहीं करता है। सिद्धांततः यह मनुष्य-मनुष्य के बीच, जाति या नस्ल, रंग या पद में कोई भेद नहीं मानता। व्यवहार में भी, यह किसी भी अन्य धर्म के लिए अज्ञात हद तक लोगों के भाईचारे को मान्यता देता है।
इनके बावजूद हम इस्लाम में विभाजन पाते हैं, जिन्हें कई लेखकों ने अलग-अलग संप्रदायों के रूप में वर्णित किया है। जिस अर्थ में 'संप्रदाय' शब्द का उपयोग अन्य धर्मों में किया जाता है, वह शायद इस्लाम पर लागू नहीं होता है। इसलिए, हम उचित अभिव्यक्ति के लिए अभिव्यक्ति के हल्के अर्थ पर विचार करते हुए "विचारधारा" शब्द का उपयोग करेंगे। विभाजन का निहितार्थ। हम कई कारणों से हल्की अभिव्यक्ति का उपयोग कर रहे हैं। सबसे
पहले, इस्लाम किसी भी अन्य धर्म के लिए अज्ञात भाईचारे का पालन करता है।
दूसरे, इस्लाम में विभाजन बहुत अधिक बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित नहीं हैं। सख्त बुनियादी सिद्धांतों में लोगों के बीच अलग-अलग विभाजन हैं मुसलमान असहमत नहीं हैं। तीसरा, इस्लाम में विभाजन के कारण अन्य धर्मों से बहुत अलग हैं। अन्य धर्मों में संप्रदायों की उत्पत्ति व्यवस्था की अपूर्णता और मानवीय आवश्यकताओं के साथ इसकी असंगति के कारण हुई, जो मानव के गलत दृष्टिकोण से उत्पन्न हुई प्रकृति। लेकिन इस्लाम में विभाजन राजनीतिक विचारों और विदेशी प्रभावों के कारण उत्पन्न हुए।
अपने दृष्टिकोण के समर्थन में हम यहां कुछ महान प्राच्यविदों के लेखन को उद्धृत कर सकते हैं।
ए अली के शब्दों को उद्धृत करने के लिए, "ईसाई धर्म में जिन बुराइयों की हम निंदा करते हैं, वे व्यवस्था की अपूर्णता को जन्म देती हैं। और मानव आवश्यकताओं के साथ इसकी असंगति में, इस्लाम में, जिन बुराइयों का हमें वर्णन करना होगा, वे लालच से उत्पन्न हुई हैं।" सांसारिक उन्नति, और
व्यक्तियों और वर्गों की क्रांतिकारी प्रवृत्ति नैतिक कानून और व्यवस्था के प्रति असंतुलित है।" कुछ गैर-मुस्लिम आधुनिक लेखक भी इस तर्क का समर्थन करते हैं।
एच.ए.आर. गिब कहते हैं, "किसी भी महान धार्मिक समुदाय के पास कभी भी पूरी तरह से कैथोलिक भावना नहीं थी या वह इससे अधिक तैयार नहीं था। अपने सदस्यों को व्यापक स्वतंत्रता की अनुमति देने के लिए, केवल यह कि वे कम से कम बाहरी रूप से, विश्वास के न्यूनतम दायित्वों को स्वीकार करते हैं। यह कहना कठोर सत्य की सीमा से बहुत आगे जाना नहीं होगा, वास्तव में धार्मिक संप्रदायों के किसी भी समूह को रूढ़िवादी इस्लामी समुदाय से कभी भी बाहर नहीं रखा गया है, लेकिन जो लोग इस तरह के बहिष्कार की इच्छा रखते थे और जैसा कि यह था, उन्हें स्वयं बाहर रखा गया था। मौड रॉयडेन का कहना है: "मोहम्मद के धर्म ने मनुष्य के दिमाग में कल्पना किए गए पहले वास्तविक लोकतंत्र की घोषणा की। उनका ईश्वर इतनी उत्कृष्ट महानता वाला था कि उसके सामने सभी सांसारिक मतभेद शून्य थे और यहां तक कि रंग की गहरी और क्रूर दरार भी समाप्त हो गई थी। अन्य जगहों की तरह मुसलमानों में भी सामाजिक स्तर हैं, बुनियादी तौर पर (अर्थात, आध्यात्मिक रूप से) सभी आस्तिक समान हैं: और यह मौलिक आध्यात्मिक समानता कोई कल्पना नहीं है जैसा कि ईसाइयों के बीच है; यह स्वीकृत है और वास्तविक है। यह बहुत हद तक फ़ॉस का कारण बनता है
इस्लाम की आत्मा', पृष्ठ 290, 2. "मुहम्मदवाद" पृष्ठ 119
इनके बावजूद हम इस्लाम में विभाजन पाते हैं, जिन्हें कई लेखकों ने अलग-अलग संप्रदायों के रूप में वर्णित किया है। जिस अर्थ में 'संप्रदाय' शब्द का उपयोग अन्य धर्मों में किया जाता है, वह शायद इस्लाम पर लागू नहीं होता है। इसलिए, हम उचित अभिव्यक्ति के लिए अभिव्यक्ति के हल्के अर्थ पर विचार करते हुए "विचारधारा" शब्द का उपयोग करेंगे। विभाजन का निहितार्थ। हम कई कारणों से हल्की अभिव्यक्ति का उपयोग कर रहे हैं। सबसे
पहले, इस्लाम किसी भी अन्य धर्म के लिए अज्ञात भाईचारे का पालन करता है।
दूसरे, इस्लाम में विभाजन बहुत अधिक बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित नहीं हैं। सख्त बुनियादी सिद्धांतों में लोगों के बीच अलग-अलग विभाजन हैं मुसलमान असहमत नहीं हैं। तीसरा, इस्लाम में विभाजन के कारण अन्य धर्मों से बहुत अलग हैं। अन्य धर्मों में संप्रदायों की उत्पत्ति व्यवस्था की अपूर्णता और मानवीय आवश्यकताओं के साथ इसकी असंगति के कारण हुई, जो मानव के गलत दृष्टिकोण से उत्पन्न हुई प्रकृति। लेकिन इस्लाम में विभाजन राजनीतिक विचारों और विदेशी प्रभावों के कारण उत्पन्न हुए।
अपने दृष्टिकोण के समर्थन में हम यहां कुछ महान प्राच्यविदों के लेखन को उद्धृत कर सकते हैं।
ए अली के शब्दों को उद्धृत करने के लिए, "ईसाई धर्म में जिन बुराइयों की हम निंदा करते हैं, वे व्यवस्था की अपूर्णता को जन्म देती हैं। और मानव आवश्यकताओं के साथ इसकी असंगति में, इस्लाम में, जिन बुराइयों का हमें वर्णन करना होगा, वे लालच से उत्पन्न हुई हैं।" सांसारिक उन्नति, और
व्यक्तियों और वर्गों की क्रांतिकारी प्रवृत्ति नैतिक कानून और व्यवस्था के प्रति असंतुलित है।" कुछ गैर-मुस्लिम आधुनिक लेखक भी इस तर्क का समर्थन करते हैं।
एच.ए.आर. गिब कहते हैं, "किसी भी महान धार्मिक समुदाय के पास कभी भी पूरी तरह से कैथोलिक भावना नहीं थी या वह इससे अधिक तैयार नहीं था। अपने सदस्यों को व्यापक स्वतंत्रता की अनुमति देने के लिए, केवल यह कि वे कम से कम बाहरी रूप से, विश्वास के न्यूनतम दायित्वों को स्वीकार करते हैं। यह कहना कठोर सत्य की सीमा से बहुत आगे जाना नहीं होगा, वास्तव में धार्मिक संप्रदायों के किसी भी समूह को रूढ़िवादी इस्लामी समुदाय से कभी भी बाहर नहीं रखा गया है, लेकिन जो लोग इस तरह के बहिष्कार की इच्छा रखते थे और जैसा कि यह था, उन्हें स्वयं बाहर रखा गया था। मौड रॉयडेन का कहना है: "मोहम्मद के धर्म ने मनुष्य के दिमाग में कल्पना किए गए पहले वास्तविक लोकतंत्र की घोषणा की। उनका ईश्वर इतनी उत्कृष्ट महानता वाला था कि उसके सामने सभी सांसारिक मतभेद शून्य थे और यहां तक कि रंग की गहरी और क्रूर दरार भी समाप्त हो गई थी। अन्य जगहों की तरह मुसलमानों में भी सामाजिक स्तर हैं, बुनियादी तौर पर (अर्थात, आध्यात्मिक रूप से) सभी आस्तिक समान हैं: और यह मौलिक आध्यात्मिक समानता कोई कल्पना नहीं है जैसा कि ईसाइयों के बीच है; यह स्वीकृत है और वास्तविक है। यह बहुत हद तक फ़ॉस का कारण बनता है
इस्लाम की आत्मा', पृष्ठ 290, 2. "मुहम्मदवाद" पृष्ठ 119
यह असाधारण रूप से विभिन्न लोगों के बीच तेजी से फैल रहा है... मुस्लिम, चाहे काला भूरा हो या सफेद, खुद को अपने रंग के अनुसार नहीं बल्कि अपने धर्म के अनुसार भाई के रूप में स्वीकार किया जाता है,
2. विभिन्न विचारधाराओं के उदय के कारण
जैसा कि पहले ही संकेत दिया जा चुका है, इस्लाम में विभिन्न विचारधाराओं का उदय मुख्यतः राजनीतिक विचारों और विदेशी प्रभावों के कारण हुआ। लेकिन सभी अलग-अलग स्कूलों का उदय एक ही कारण से नहीं हुआ। किसी में एक कारण प्रमुख था तो किसी में दूसरा। मामले को स्पष्ट रूप से समझने के लिए कारणों को नीचे अलग से गिनाया गया है:
(जे) नेतृत्व के लिए प्रतिद्वंद्विता या विभिन्न समूह
इस्लाम में कुछ विचारधाराओं के उदय का श्रेय राजनीतिक कारणों से दिया जा सकता है। इसका मुख्य कारण नेतृत्व के लिए विभिन्न समूहों की प्रतिद्वंद्विता थी। अरब के पुराने जनजातीय झगड़े, विशेष रूप से उमैयद और हाशिम के झगड़े, जो उमैया और हाशिम के समय से हैं, ने इस कारक को बहुत बढ़ा दिया है।
पैगंबर ने स्पष्ट रूप से अपने उत्तराधिकारी को नामित नहीं किया। उन्होंने कोई पुरुष मुद्दा नहीं छोड़ा. उनकी एकमात्र जीवित संतान उनकी सबसे छोटी बेटी बीबी फातिमा थी, जिसका विवाह उनके चचेरे भाई और पालक पुत्र हज़रत अली से हुआ था। ऐसे अवसर थे जिनसे संकेत मिलता था कि पैगंबर चाहते थे कि 'अली' उनके उत्तराधिकारी बनें। वहीं दूसरी ओर। उनकी आखिरी बीमारी के दौरान अबू बक्र को उनकी ओर से प्रार्थना का नेतृत्व करने के लिए कहा गया था। इसके अलावा, पैगंबर की शिक्षाओं ने मुसलमानों में लोकतंत्र और पुरुषों के समान अधिकारों की भावना का संचार किया। इस प्रकार मुसलमानों ने एक नेता का चयन करने के लिए चुनाव के सिद्धांत को अपनाया और अबू बक्र को खलीफा (उत्तराधिकारी) के रूप में चुना गया। इस पद्धति ने मामले को स्थायी रूप से निपटाने के बजाय बढ़ावा दिया
1. फ़िलिस्तीन की समस्या पृ. 37.
विभिन्न दलों का विकास हुआ और इस प्रकार चुनाव की प्रक्रिया पर विभिन्न सिद्धांत विकसित हुए। जैसा कि हमेशा होता है, जब कोई गंभीर प्रश्न लोकप्रिय निर्णय के लिए खुला रखा जाता है, तो मुहम्मद की मृत्यु के बाद कई परस्पर विरोधी दल उभरे, साहसपूर्वक हम मुसलमानों के बीच चार अलग-अलग समूहों को देखते हैं: मुहाजिर, अंतर, उमय्यद और शयनकक्ष. महाजिर (खनन प्रवासी, अरबी बहुवचन अफुबजिरन) उन शुरुआती विश्वासियों के लिए थे जो मक्का से मदीना चले गए थे, वे इस्लाम स्वीकार करने वाले पहले व्यक्ति थे, हाशिमिड्स, यानी। ई... वह परिवार जिसमें पैगंबर का जन्म हुआ था, और कुरैश जनजाति के अन्य परिवारों के कुछ सदस्य उस समूह के थे। अंतर (समर्थकों) ने मदीना मुसलमानों के समूह का गठन किया, जिन्होंने पैगंबर को मदीना बुलाया जब उनके मक्का में बुरे दिन थे। मुहाजिरों और अंसार को एक ही नाम सहाबा (साथी) से जाना जाता था। मुहाजिरों में एलिड्स या लेजिटिमिस्ट भी थे। वैकल्पिक सिद्धांतों के विपरीत, शासन करने का दैवीय अधिकार माना जाता है। उमय्यद, जिनके पास इस्लाम-पूर्व दिनों में सत्ता और धन की बागडोर थी, ने बाद में उत्तराधिकार पर अपना अधिकार जमा लिया। इन समूहों के अलावा, रेगिस्तान के बेडौइन भी थे। जिन्होंने बाद में समग्र रूप से क़ुरैशों के ख़िलाफ़ अपना दावा पेश किया।
जैसा कि पहले ही हाशिमिड्स और के बीच प्रतिद्वंद्विता का संकेत दिया गया है
उमय्यद के बीच लंबी खींचतान थी। का मूल कारण
प्रतिद्वंद्विता का वर्णन एस. अंसार अली ने पांचवें में इस प्रकार किया है
फ़िहर के वंशज सेंचुरी रॉसे ने स्वयं को स्वामी बना लिया
मेक का, और धीरे-धीरे पूरा हिजाज़... कोसे की मृत्यु लगभग 480 ए.सी. में हुई और उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र अबल 1, हिटी पी.के. "अरबों का इतिहास पृष्ठ 139-140
उद-दार. अब्द उद-दार की मृत्यु के बाद मक्का के शासन की सफलता को लेकर उनके पोते और उनके भाई अब्द मनाफ के बेटों के बीच विवाद छिड़ गया। इस विवाद को अधिकार के विभाजन द्वारा सुलझाया गया था, मेसेस की जल आपूर्ति का प्रशासन और करों को बढ़ाने का काम अब्द मनाफ के पुत्र अब्द उश-शम्स को सौंपा गया था; जबकि किआब्स, परिषद-कक्ष और सैन्य मानक की संरक्षकता अब्द-उद-दार के पोते को दी गई थी।
अब्द उश-शम्स ने अधिकार अपने भाई हाशिम को हस्तांतरित कर दिया, जो मेकोस का एक प्रमुख गुर्गा और पुत्रवत व्यक्ति था, जो अजनबियों के प्रति अपनी उदारता के लिए विख्यात था। हिशिम की मृत्यु लगभग 510 ई.पू. में हुई और उसके बाद उसका भाई मुत्तलिब आया, जिसका उपनाम हिशिम का उदार पुत्र था।
इस बीच अब्द उद-दार के पोते अमीर हो रहे थे। जनता के बीच हाशिम के परिवार की स्थिति से ईर्ष्या करते हुए, वे पूरी सत्ता पर कब्ज़ा करने और खुद को मक्का का शासक बनाने की कोशिश कर रहे थे। उनके पक्ष में अब्द उश-शम्स का महत्वाकांक्षी पुत्र ओम्नेया था। लेकिन इसके बावजूद, अब्दुल मुत्तलिब के उच्च चरित्र और सभी कोराई लोगों द्वारा उनके प्रति सम्मान ने उन्हें लगभग उनतालीस वर्षों तक मक्का पर शासन करने में सक्षम बनाया। उन्हें सरकार में बुजुर्गों द्वारा सहायता प्रदान की गई, जो दस प्रमुख परिवारों के मुखिया थे।" (2) कुरान की व्याख्या में मतभेद।
कुरान और हदीस की व्याख्या में मतभेद के कारण कुछ अलग-अलग विचारधाराएँ उत्पन्न हुईं। पैगंबर की मृत्यु के बाद. वहाँ व्याख्या की आवश्यकता उत्पन्न होती है। जरूरत पड़ी सबसे पहले धर्म को विभिन्न पक्षों से समझने की और दूसरी उसे नई परिस्थितियों के साथ ढालने की-
1. सार्केन्स का एक संक्षिप्त इतिहास। पृष्ठ 5-7
नृत्य और जीवन की नई आवश्यकताएँ। इन व्याख्याओं की प्रक्रिया में मतभेद उत्पन्न हुए और इनसे विभिन्न विचारधाराओं का जन्म हुआ। इस्लाम के शुरुआती दौर में मुसलमान अलग-अलग जगहों पर अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने में विशेष रूप से व्यस्त थे। इसके अलावा, जब पैगंबर जीवित थे तो उन्हें अपने मन में उठने वाली समस्याओं का तुरंत समाधान मिल जाता था। इसलिए पैगम्बर की मृत्यु के बाद उन्हें जीवन की नई समस्याओं को समझाने में बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ा। इसके अलावा अन्य धर्मों के साथ उनके संपर्क ने स्थिति को और अधिक गंभीर बना दिया। अधिकांश नए जीते गए स्थानों में इस्लाम को लंबे समय से स्थापित धार्मिक विचारों का विरोध करना पड़ा। इस प्रकार दूसरों से अपनी श्रेष्ठता को उचित ठहराने के लिए विभिन्न पक्षों से धर्म के अधीन खड़े होने की आवश्यकता उत्पन्न हुई। फिर, विभिन्न देशों में इस्लाम के विस्तार के साथ और समय बीतने के साथ नई परिस्थितियाँ और नई आवश्यकताएँ आईं। ऐसे में नई-नई व्याख्याओं की आवश्यकता बढ़ती गई।
(3) ज्ञान के विभिन्न स्रोतों पर विशेष जोर कुछ विचारधाराओं का उदय ज्ञान के विभिन्न स्रोतों पर दिए गए विशेष तनाव के कारण हुआ। अल-कुरान में ज्ञान के तीन स्रोतों का उल्लेख है-एजी (कारण), नागल (परंपरा) और कश्फ अंतर्ज्ञान)। इस्लाम के व्यापक दर्शन को तीन सूत्रों को एक साथ लेकर ही खड़ा किया जा सकता है। लेकिन लाइम के दौरान कुछ लोगों ने एक स्रोत पर जोर दिया और दूसरों की उपेक्षा की। इस प्रकार हम पाते हैं कि सोम: पैट ने 'अग्ल' और सोम: नग्ल पर विशेष जोर दिया, जबकि अन्य लोगों ने कशफ को ज्ञान का एकमात्र वास्तविक स्रोत माना।
4) धर्म को तर्कसंगत बनाने के प्रयास धर्म को तर्कसंगत बनाने और एक बौद्धिक प्रणाली के निर्माण के प्रयासों के कारण कुछ विचारधाराएँ उत्पन्न हुईं
जिस पर उसे खड़ा किया जा सके। इस्लाम के शुरुआती दिनों में, मुसलमान विभिन्न देशों में अपने विश्वास के प्रचार-प्रसार में विशेष रूप से व्यस्त थे। ऐसे में उनके पास आस्था के बारे में गहराई से सोचने का व्यावहारिक रूप से कोई समय नहीं था। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, उन्होंने आस्था के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया और एक बौद्धिक प्रणाली बनाने की कोशिश की। इसमें यूनानी दर्शन का प्रभाव प्रबल रूप से महसूस किया गया: (5) विदेशी विचारों का परिचय
इस्लाम में कुछ विभिन्न विद्यालयों के उदय का श्रेय विदेशी धार्मिक विचारों और अन्य विचारों को दिया जा सकता है। इस्लाम का इतिहास दर्शाता है कि खिलाफत की शुरुआत से ही इसने इस धर्म को स्वीकार करने वाले विभिन्न देशों में प्रचलित रीति-रिवाजों के प्रति सहिष्णुता के साथ काम किया। इस सहिष्णु रवैये ने मुसलमानों को विदेशी शिष्टाचार, रीति-रिवाजों और धार्मिक विचारों को अपनाने में बहुत मदद की। पैगंबर की मृत्यु के बाद बहुत ही कम समय में मुसलमानों ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया-इस्लाम पूरे अरब, एशिया, उत्तरी अफ्रीका और फारस के पास फैल गया। इस्लाम को विभिन्न लोगों द्वारा स्वीकार किया गया जिनमें बहुत कम या कुछ भी समानता नहीं थी। प्रत्येक वेश्या को लंबे समय से स्थापित धर्मों का सामना करना पड़ा और इस तरह कई विदेशी धार्मिक विचारों को आत्मसात करना पड़ा जिसने मुस्लिम जीवन को सभी पहलुओं में प्रभावित किया। इनका आकार दो तरह से हुआ - मुसलमानों के बीच मतभेद, अमूर्त विषयों तक सीमित और विदेशी लोगों द्वारा इस्लाम में अपने धार्मिक विचारों को पढ़ने के प्रयासों में। (6) कुछ मुस्लिम पंडितों की विशिष्टता
रूढ़िवादी लोगों (अर्थात्, जो हदीस को मजबूती से मानते थे) के बीच विभिन्न विचारधाराओं के उदय का मुख्य कारण था
1. सी.एफ. शिबली नुमानी, 'इल्मु एल-कलाम। पृष्ठ 14-15.
मुस्लिम सिवंतों की विशिष्टता के लिए। सोम: मुस्लिम विद्वान हदीस की खोज और परीक्षण में इतने व्यस्त थे कि उनके पास दूसरों के साथ समस्याओं पर चर्चा करने के लिए व्यावहारिक रूप से समय नहीं था। इनमें से अधिकांश विद्वान विशेष स्थानों से प्राप्त हदीसों पर विशेष जोर देते थे और उन्हें अंतिम मानते थे। आगे। इनमें से प्रत्येक विद्वान के आसपास छात्रों का एक समूह था और इन छात्रों ने श्रीमान के शब्दों को सत्य के अंतिम शब्द के रूप में लिया। इस प्रकार कुछ विभिन्न विचारधाराओं का उदय हुआ
3. विभिन्न विद्यालयों का वर्गीकरण
चूंकि इस्लाम में विभिन्न विचारधाराओं के बीच कोई सख्त विभाजन नहीं है, इसलिए किसी भी प्रकार के विभाजन में कुछ अंतर विभाजन शामिल होगा। शाहरस्तानी, इस विषय पर शुरुआती लेखकों में से एक। विभिन्न विद्यालयों को कई सिद्धांतों के अनुसार वर्गीकृत करता है। इसमें बहुत अधिक क्रॉस-विभाजन शामिल है। क्रॉस-डिवीजन को कम करने के लिए, हम डिवीजनों को दूसरे तरीके से वर्गीकृत कर सकते हैं।
सबसे पहले इस्लाम में विभिन्न विचारधाराओं को तीन समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है - राजनीतिक। धार्मिक और दार्शनिक. निःसंदेह, इन विभाजनों को मजबूत नहीं कहा जा सकता। जो विद्यालय प्रारंभ में केवल राजनीतिक था, उसने बाद में परिस्थितियों के अनुसार अपना एक धर्मशास्त्र और अपना विशिष्ट दर्शन भी तैयार किया। वह स्कूल जो शुरू में केवल धार्मिक प्रतीत हो सकता है, अगर जांच की जाए तो नीचे राजनीतिक कारण दिखाई दे सकता है। दार्शनिक विद्यालयों के अपने धार्मिक विचार और राजनीतिक झुकाव भी थे। तो विभिन्न विद्यालयों का हमारा वर्गीकरण राजनीतिक, धर्मशास्त्रीय और में है
दार्शनिक बल्कि मनमाना है। मुख्य राजनीतिक स्कूल सुन्नी, शिया और हैं। सुन्नियों को मुक़ल्लिद और ग़ैर में विभाजित किया जा सकता है
मुक़ल्लिद. मुक़ल्लिड्स को चार प्रमुख स्कूलों हिनाउ, शफी', मिलिकी और हनबली में विभाजित किया गया है, इन्हें कभी-कभी ऑर्थोडॉक्स स्कूल के रूप में जाना जाता है। सुनाइयों को परंपरावादी कहा जा सकता है। लेकिन ऐसे उत्कृष्ट परंपरावादी भी हैं, जो स्वयं को अहल-ए-हदीस या सलाफ़ी कहते हैं।
धार्मिक विद्यालय मुरजी, कादरिया, जबरिया और सिफतिया हैं। ये स्कूल पहली शताब्दी के अंतिम भाग और दूसरी शताब्दी हिजरी के पहले भाग के दौरान उभरे। कादरिया और जबरिया ने इच्छा की स्वतंत्रता के प्रश्न पर चर्चा की। मुर्जिया ने आस्था के स्वरूप पर चर्चा की। सिफतिया ने ईश्वरीय गुणों की प्रकृति पर चर्चा की।
दार्शनिक विद्यालय मुताज़िला, मुताकल्लिम, सूफ़ी और हुकमी या फ़लासिफ़ा हैं, मुर्तज़िलवाद पहली शताब्दी ए, एच के अंतिम भाग में शुरू हुआ था और मुताकल्लिम आंदोलन 300 ए.एच. में अल- द्वारा शुरू किया गया था। अशरी। सूफीवाद व्यावहारिक रूप से इस्लाम जितना ही पुराना है, फिर भी इसे यह विशिष्ट नाम दूसरी शताब्दी हिजरी के अंत तक मिला। बगदाद में अब्बासिड्स और स्पेन में मुवाहिदों के स्वर्ण युग के दौरान फलासिफा फला-फूला।
4. शबरातानी का विभिन्न विद्यालयों का वर्गीकरण
अपनी प्रसिद्ध पुस्तक किताबु एल-मिलाल वा'एन-निहाल शाहरस्तानी में मुसलमानों के बीच विभिन्न स्कूलों को चार मुख्य सिद्धांतों और कुछ उप-सिद्धांतों के अनुसार वर्गीकृत किया गया है। ये हैं
1) अल्लाह के धत (तौहीद) और सिफत के विषय में 2) क़दर (फ़रमान) और अदल (न्याय) के विषय में
3) वा'द (वादा) और हुक्म (निर्णय) के संबंध में
4) सैम (परंपरा) और 'एक्यूएल कारण' के संबंध में
हम शाहरस्तानी के लेखन से नीचे उद्धृत करते हैं: "पहला सिद्धांत गुणों (सिफ़ात) से संबंधित है
एकता (तौहीद). इसमें शाश्वत गुण का प्रश्न शामिल है
संबंध (सिफ़तु एल-अज़ल्ल), कुछ लोगों द्वारा पुष्टि की गई और दूसरों द्वारा अस्वीकार की गई और सार के गुणों (रिफतु ध-दिहान) और कार्रवाई के गुणों (रिफ़तुर फ़ि'') की व्याख्या की गई। इसमें यह प्रश्न भी शामिल है कि परमपिता परमेश्वर में क्या आवश्यक है और उसके लिए क्या संभव है और क्या असंभव है। इसमें अशरिया, कार्कमिया, मुजस्सिमस/एंथ्रोपोमोर्फिस्ट) और मुर्तज़िला के बीच केंद्रशासितता शामिल है।
दूसरा सिद्धांत कॉनकारस डिक्री (क़दर) और न्याय ('एडीटी) यह नियति (क़द्ज़ा) और डिक्री (क़दर, बल (जबर) और अधिग्रहण (कुस्ब), अच्छाई और बुराई की इच्छा, और के प्रश्न को गले लगाता है। आदेशित और ज्ञात, कुछ लोगों द्वारा पुष्टि की गई और दूसरों द्वारा खंडन किया गया। इसमें कादरिया, नज्जरिया, जबरिया, अशरिया और कर्रिमिया के बीच विवाद शामिल हैं।
तीसरा सिद्धांत वादा (डब्ल्यू) और निर्णय (हुक्म) से संबंधित है। इसमें विश्वास (ईमान) और पश्चाताप (फौबा), धमकी (वाल्ड) और स्थगित करना (एफआरजेए") के सवाल को शामिल किया गया है, चे को अविश्वासी घोषित किया गया है (तकफिर) और एक भटके हुए व्यक्ति (तदालिल) का नेतृत्व किया गया है, जिसका दूसरों द्वारा अपमान किया गया है और दूसरों द्वारा इनकार किया गया है। इसमें शामिल है मुर्जिया, वारिदियिस, मुताज़िला, अशरिया और कररामियेस के बीच विवाद।
चौथा सिद्धांत परंपरा (सैम) और कारण (एजी), और भविष्यवाणी मिशन (रिसेल) और नेतृत्व (इमामत) पर विचार करता है। इसमें किसी कार्य को अच्छे (तहसीन) या बुरे (तकबिक) के रूप में निर्धारित करने, फ़ायदेमंद होने (फ़ेकफ़) के निर्धारण, पैगम्बर को पाप (इस्मा) से बचाने के प्रश्नों को शामिल किया गया है। इसमें कुछ के अनुसार क़ानून (मास) द्वारा और कुछ के अनुसार समझौते (एमए) द्वारा इमामत की स्थिति के प्रश्न को भी शामिल किया गया है
दूसरों के लिए, और यह उन लोगों के दृष्टिकोण में कैसे स्थानांतरित होता है जो कहते हैं कि यह क़ानून द्वारा है, और यह उन लोगों के दृष्टिकोण में कैसे तय होता है जो कहते हैं कि यह समझौते के द्वारा है। इसमें शियाओं, खरिजियों, मुताज़िलों, कर्रमिया और अशरियाओं के बीच के विवाद शामिल हैं।"
2. विभिन्न विचारधाराओं के उदय के कारण
जैसा कि पहले ही संकेत दिया जा चुका है, इस्लाम में विभिन्न विचारधाराओं का उदय मुख्यतः राजनीतिक विचारों और विदेशी प्रभावों के कारण हुआ। लेकिन सभी अलग-अलग स्कूलों का उदय एक ही कारण से नहीं हुआ। किसी में एक कारण प्रमुख था तो किसी में दूसरा। मामले को स्पष्ट रूप से समझने के लिए कारणों को नीचे अलग से गिनाया गया है:
(जे) नेतृत्व के लिए प्रतिद्वंद्विता या विभिन्न समूह
इस्लाम में कुछ विचारधाराओं के उदय का श्रेय राजनीतिक कारणों से दिया जा सकता है। इसका मुख्य कारण नेतृत्व के लिए विभिन्न समूहों की प्रतिद्वंद्विता थी। अरब के पुराने जनजातीय झगड़े, विशेष रूप से उमैयद और हाशिम के झगड़े, जो उमैया और हाशिम के समय से हैं, ने इस कारक को बहुत बढ़ा दिया है।
पैगंबर ने स्पष्ट रूप से अपने उत्तराधिकारी को नामित नहीं किया। उन्होंने कोई पुरुष मुद्दा नहीं छोड़ा. उनकी एकमात्र जीवित संतान उनकी सबसे छोटी बेटी बीबी फातिमा थी, जिसका विवाह उनके चचेरे भाई और पालक पुत्र हज़रत अली से हुआ था। ऐसे अवसर थे जिनसे संकेत मिलता था कि पैगंबर चाहते थे कि 'अली' उनके उत्तराधिकारी बनें। वहीं दूसरी ओर। उनकी आखिरी बीमारी के दौरान अबू बक्र को उनकी ओर से प्रार्थना का नेतृत्व करने के लिए कहा गया था। इसके अलावा, पैगंबर की शिक्षाओं ने मुसलमानों में लोकतंत्र और पुरुषों के समान अधिकारों की भावना का संचार किया। इस प्रकार मुसलमानों ने एक नेता का चयन करने के लिए चुनाव के सिद्धांत को अपनाया और अबू बक्र को खलीफा (उत्तराधिकारी) के रूप में चुना गया। इस पद्धति ने मामले को स्थायी रूप से निपटाने के बजाय बढ़ावा दिया
1. फ़िलिस्तीन की समस्या पृ. 37.
विभिन्न दलों का विकास हुआ और इस प्रकार चुनाव की प्रक्रिया पर विभिन्न सिद्धांत विकसित हुए। जैसा कि हमेशा होता है, जब कोई गंभीर प्रश्न लोकप्रिय निर्णय के लिए खुला रखा जाता है, तो मुहम्मद की मृत्यु के बाद कई परस्पर विरोधी दल उभरे, साहसपूर्वक हम मुसलमानों के बीच चार अलग-अलग समूहों को देखते हैं: मुहाजिर, अंतर, उमय्यद और शयनकक्ष. महाजिर (खनन प्रवासी, अरबी बहुवचन अफुबजिरन) उन शुरुआती विश्वासियों के लिए थे जो मक्का से मदीना चले गए थे, वे इस्लाम स्वीकार करने वाले पहले व्यक्ति थे, हाशिमिड्स, यानी। ई... वह परिवार जिसमें पैगंबर का जन्म हुआ था, और कुरैश जनजाति के अन्य परिवारों के कुछ सदस्य उस समूह के थे। अंतर (समर्थकों) ने मदीना मुसलमानों के समूह का गठन किया, जिन्होंने पैगंबर को मदीना बुलाया जब उनके मक्का में बुरे दिन थे। मुहाजिरों और अंसार को एक ही नाम सहाबा (साथी) से जाना जाता था। मुहाजिरों में एलिड्स या लेजिटिमिस्ट भी थे। वैकल्पिक सिद्धांतों के विपरीत, शासन करने का दैवीय अधिकार माना जाता है। उमय्यद, जिनके पास इस्लाम-पूर्व दिनों में सत्ता और धन की बागडोर थी, ने बाद में उत्तराधिकार पर अपना अधिकार जमा लिया। इन समूहों के अलावा, रेगिस्तान के बेडौइन भी थे। जिन्होंने बाद में समग्र रूप से क़ुरैशों के ख़िलाफ़ अपना दावा पेश किया।
जैसा कि पहले ही हाशिमिड्स और के बीच प्रतिद्वंद्विता का संकेत दिया गया है
उमय्यद के बीच लंबी खींचतान थी। का मूल कारण
प्रतिद्वंद्विता का वर्णन एस. अंसार अली ने पांचवें में इस प्रकार किया है
फ़िहर के वंशज सेंचुरी रॉसे ने स्वयं को स्वामी बना लिया
मेक का, और धीरे-धीरे पूरा हिजाज़... कोसे की मृत्यु लगभग 480 ए.सी. में हुई और उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र अबल 1, हिटी पी.के. "अरबों का इतिहास पृष्ठ 139-140
उद-दार. अब्द उद-दार की मृत्यु के बाद मक्का के शासन की सफलता को लेकर उनके पोते और उनके भाई अब्द मनाफ के बेटों के बीच विवाद छिड़ गया। इस विवाद को अधिकार के विभाजन द्वारा सुलझाया गया था, मेसेस की जल आपूर्ति का प्रशासन और करों को बढ़ाने का काम अब्द मनाफ के पुत्र अब्द उश-शम्स को सौंपा गया था; जबकि किआब्स, परिषद-कक्ष और सैन्य मानक की संरक्षकता अब्द-उद-दार के पोते को दी गई थी।
अब्द उश-शम्स ने अधिकार अपने भाई हाशिम को हस्तांतरित कर दिया, जो मेकोस का एक प्रमुख गुर्गा और पुत्रवत व्यक्ति था, जो अजनबियों के प्रति अपनी उदारता के लिए विख्यात था। हिशिम की मृत्यु लगभग 510 ई.पू. में हुई और उसके बाद उसका भाई मुत्तलिब आया, जिसका उपनाम हिशिम का उदार पुत्र था।
इस बीच अब्द उद-दार के पोते अमीर हो रहे थे। जनता के बीच हाशिम के परिवार की स्थिति से ईर्ष्या करते हुए, वे पूरी सत्ता पर कब्ज़ा करने और खुद को मक्का का शासक बनाने की कोशिश कर रहे थे। उनके पक्ष में अब्द उश-शम्स का महत्वाकांक्षी पुत्र ओम्नेया था। लेकिन इसके बावजूद, अब्दुल मुत्तलिब के उच्च चरित्र और सभी कोराई लोगों द्वारा उनके प्रति सम्मान ने उन्हें लगभग उनतालीस वर्षों तक मक्का पर शासन करने में सक्षम बनाया। उन्हें सरकार में बुजुर्गों द्वारा सहायता प्रदान की गई, जो दस प्रमुख परिवारों के मुखिया थे।" (2) कुरान की व्याख्या में मतभेद।
कुरान और हदीस की व्याख्या में मतभेद के कारण कुछ अलग-अलग विचारधाराएँ उत्पन्न हुईं। पैगंबर की मृत्यु के बाद. वहाँ व्याख्या की आवश्यकता उत्पन्न होती है। जरूरत पड़ी सबसे पहले धर्म को विभिन्न पक्षों से समझने की और दूसरी उसे नई परिस्थितियों के साथ ढालने की-
1. सार्केन्स का एक संक्षिप्त इतिहास। पृष्ठ 5-7
नृत्य और जीवन की नई आवश्यकताएँ। इन व्याख्याओं की प्रक्रिया में मतभेद उत्पन्न हुए और इनसे विभिन्न विचारधाराओं का जन्म हुआ। इस्लाम के शुरुआती दौर में मुसलमान अलग-अलग जगहों पर अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने में विशेष रूप से व्यस्त थे। इसके अलावा, जब पैगंबर जीवित थे तो उन्हें अपने मन में उठने वाली समस्याओं का तुरंत समाधान मिल जाता था। इसलिए पैगम्बर की मृत्यु के बाद उन्हें जीवन की नई समस्याओं को समझाने में बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ा। इसके अलावा अन्य धर्मों के साथ उनके संपर्क ने स्थिति को और अधिक गंभीर बना दिया। अधिकांश नए जीते गए स्थानों में इस्लाम को लंबे समय से स्थापित धार्मिक विचारों का विरोध करना पड़ा। इस प्रकार दूसरों से अपनी श्रेष्ठता को उचित ठहराने के लिए विभिन्न पक्षों से धर्म के अधीन खड़े होने की आवश्यकता उत्पन्न हुई। फिर, विभिन्न देशों में इस्लाम के विस्तार के साथ और समय बीतने के साथ नई परिस्थितियाँ और नई आवश्यकताएँ आईं। ऐसे में नई-नई व्याख्याओं की आवश्यकता बढ़ती गई।
(3) ज्ञान के विभिन्न स्रोतों पर विशेष जोर कुछ विचारधाराओं का उदय ज्ञान के विभिन्न स्रोतों पर दिए गए विशेष तनाव के कारण हुआ। अल-कुरान में ज्ञान के तीन स्रोतों का उल्लेख है-एजी (कारण), नागल (परंपरा) और कश्फ अंतर्ज्ञान)। इस्लाम के व्यापक दर्शन को तीन सूत्रों को एक साथ लेकर ही खड़ा किया जा सकता है। लेकिन लाइम के दौरान कुछ लोगों ने एक स्रोत पर जोर दिया और दूसरों की उपेक्षा की। इस प्रकार हम पाते हैं कि सोम: पैट ने 'अग्ल' और सोम: नग्ल पर विशेष जोर दिया, जबकि अन्य लोगों ने कशफ को ज्ञान का एकमात्र वास्तविक स्रोत माना।
4) धर्म को तर्कसंगत बनाने के प्रयास धर्म को तर्कसंगत बनाने और एक बौद्धिक प्रणाली के निर्माण के प्रयासों के कारण कुछ विचारधाराएँ उत्पन्न हुईं
जिस पर उसे खड़ा किया जा सके। इस्लाम के शुरुआती दिनों में, मुसलमान विभिन्न देशों में अपने विश्वास के प्रचार-प्रसार में विशेष रूप से व्यस्त थे। ऐसे में उनके पास आस्था के बारे में गहराई से सोचने का व्यावहारिक रूप से कोई समय नहीं था। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, उन्होंने आस्था के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया और एक बौद्धिक प्रणाली बनाने की कोशिश की। इसमें यूनानी दर्शन का प्रभाव प्रबल रूप से महसूस किया गया: (5) विदेशी विचारों का परिचय
इस्लाम में कुछ विभिन्न विद्यालयों के उदय का श्रेय विदेशी धार्मिक विचारों और अन्य विचारों को दिया जा सकता है। इस्लाम का इतिहास दर्शाता है कि खिलाफत की शुरुआत से ही इसने इस धर्म को स्वीकार करने वाले विभिन्न देशों में प्रचलित रीति-रिवाजों के प्रति सहिष्णुता के साथ काम किया। इस सहिष्णु रवैये ने मुसलमानों को विदेशी शिष्टाचार, रीति-रिवाजों और धार्मिक विचारों को अपनाने में बहुत मदद की। पैगंबर की मृत्यु के बाद बहुत ही कम समय में मुसलमानों ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया-इस्लाम पूरे अरब, एशिया, उत्तरी अफ्रीका और फारस के पास फैल गया। इस्लाम को विभिन्न लोगों द्वारा स्वीकार किया गया जिनमें बहुत कम या कुछ भी समानता नहीं थी। प्रत्येक वेश्या को लंबे समय से स्थापित धर्मों का सामना करना पड़ा और इस तरह कई विदेशी धार्मिक विचारों को आत्मसात करना पड़ा जिसने मुस्लिम जीवन को सभी पहलुओं में प्रभावित किया। इनका आकार दो तरह से हुआ - मुसलमानों के बीच मतभेद, अमूर्त विषयों तक सीमित और विदेशी लोगों द्वारा इस्लाम में अपने धार्मिक विचारों को पढ़ने के प्रयासों में। (6) कुछ मुस्लिम पंडितों की विशिष्टता
रूढ़िवादी लोगों (अर्थात्, जो हदीस को मजबूती से मानते थे) के बीच विभिन्न विचारधाराओं के उदय का मुख्य कारण था
1. सी.एफ. शिबली नुमानी, 'इल्मु एल-कलाम। पृष्ठ 14-15.
मुस्लिम सिवंतों की विशिष्टता के लिए। सोम: मुस्लिम विद्वान हदीस की खोज और परीक्षण में इतने व्यस्त थे कि उनके पास दूसरों के साथ समस्याओं पर चर्चा करने के लिए व्यावहारिक रूप से समय नहीं था। इनमें से अधिकांश विद्वान विशेष स्थानों से प्राप्त हदीसों पर विशेष जोर देते थे और उन्हें अंतिम मानते थे। आगे। इनमें से प्रत्येक विद्वान के आसपास छात्रों का एक समूह था और इन छात्रों ने श्रीमान के शब्दों को सत्य के अंतिम शब्द के रूप में लिया। इस प्रकार कुछ विभिन्न विचारधाराओं का उदय हुआ
3. विभिन्न विद्यालयों का वर्गीकरण
चूंकि इस्लाम में विभिन्न विचारधाराओं के बीच कोई सख्त विभाजन नहीं है, इसलिए किसी भी प्रकार के विभाजन में कुछ अंतर विभाजन शामिल होगा। शाहरस्तानी, इस विषय पर शुरुआती लेखकों में से एक। विभिन्न विद्यालयों को कई सिद्धांतों के अनुसार वर्गीकृत करता है। इसमें बहुत अधिक क्रॉस-विभाजन शामिल है। क्रॉस-डिवीजन को कम करने के लिए, हम डिवीजनों को दूसरे तरीके से वर्गीकृत कर सकते हैं।
सबसे पहले इस्लाम में विभिन्न विचारधाराओं को तीन समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है - राजनीतिक। धार्मिक और दार्शनिक. निःसंदेह, इन विभाजनों को मजबूत नहीं कहा जा सकता। जो विद्यालय प्रारंभ में केवल राजनीतिक था, उसने बाद में परिस्थितियों के अनुसार अपना एक धर्मशास्त्र और अपना विशिष्ट दर्शन भी तैयार किया। वह स्कूल जो शुरू में केवल धार्मिक प्रतीत हो सकता है, अगर जांच की जाए तो नीचे राजनीतिक कारण दिखाई दे सकता है। दार्शनिक विद्यालयों के अपने धार्मिक विचार और राजनीतिक झुकाव भी थे। तो विभिन्न विद्यालयों का हमारा वर्गीकरण राजनीतिक, धर्मशास्त्रीय और में है
दार्शनिक बल्कि मनमाना है। मुख्य राजनीतिक स्कूल सुन्नी, शिया और हैं। सुन्नियों को मुक़ल्लिद और ग़ैर में विभाजित किया जा सकता है
मुक़ल्लिद. मुक़ल्लिड्स को चार प्रमुख स्कूलों हिनाउ, शफी', मिलिकी और हनबली में विभाजित किया गया है, इन्हें कभी-कभी ऑर्थोडॉक्स स्कूल के रूप में जाना जाता है। सुनाइयों को परंपरावादी कहा जा सकता है। लेकिन ऐसे उत्कृष्ट परंपरावादी भी हैं, जो स्वयं को अहल-ए-हदीस या सलाफ़ी कहते हैं।
धार्मिक विद्यालय मुरजी, कादरिया, जबरिया और सिफतिया हैं। ये स्कूल पहली शताब्दी के अंतिम भाग और दूसरी शताब्दी हिजरी के पहले भाग के दौरान उभरे। कादरिया और जबरिया ने इच्छा की स्वतंत्रता के प्रश्न पर चर्चा की। मुर्जिया ने आस्था के स्वरूप पर चर्चा की। सिफतिया ने ईश्वरीय गुणों की प्रकृति पर चर्चा की।
दार्शनिक विद्यालय मुताज़िला, मुताकल्लिम, सूफ़ी और हुकमी या फ़लासिफ़ा हैं, मुर्तज़िलवाद पहली शताब्दी ए, एच के अंतिम भाग में शुरू हुआ था और मुताकल्लिम आंदोलन 300 ए.एच. में अल- द्वारा शुरू किया गया था। अशरी। सूफीवाद व्यावहारिक रूप से इस्लाम जितना ही पुराना है, फिर भी इसे यह विशिष्ट नाम दूसरी शताब्दी हिजरी के अंत तक मिला। बगदाद में अब्बासिड्स और स्पेन में मुवाहिदों के स्वर्ण युग के दौरान फलासिफा फला-फूला।
4. शबरातानी का विभिन्न विद्यालयों का वर्गीकरण
अपनी प्रसिद्ध पुस्तक किताबु एल-मिलाल वा'एन-निहाल शाहरस्तानी में मुसलमानों के बीच विभिन्न स्कूलों को चार मुख्य सिद्धांतों और कुछ उप-सिद्धांतों के अनुसार वर्गीकृत किया गया है। ये हैं
1) अल्लाह के धत (तौहीद) और सिफत के विषय में 2) क़दर (फ़रमान) और अदल (न्याय) के विषय में
3) वा'द (वादा) और हुक्म (निर्णय) के संबंध में
4) सैम (परंपरा) और 'एक्यूएल कारण' के संबंध में
हम शाहरस्तानी के लेखन से नीचे उद्धृत करते हैं: "पहला सिद्धांत गुणों (सिफ़ात) से संबंधित है
एकता (तौहीद). इसमें शाश्वत गुण का प्रश्न शामिल है
संबंध (सिफ़तु एल-अज़ल्ल), कुछ लोगों द्वारा पुष्टि की गई और दूसरों द्वारा अस्वीकार की गई और सार के गुणों (रिफतु ध-दिहान) और कार्रवाई के गुणों (रिफ़तुर फ़ि'') की व्याख्या की गई। इसमें यह प्रश्न भी शामिल है कि परमपिता परमेश्वर में क्या आवश्यक है और उसके लिए क्या संभव है और क्या असंभव है। इसमें अशरिया, कार्कमिया, मुजस्सिमस/एंथ्रोपोमोर्फिस्ट) और मुर्तज़िला के बीच केंद्रशासितता शामिल है।
दूसरा सिद्धांत कॉनकारस डिक्री (क़दर) और न्याय ('एडीटी) यह नियति (क़द्ज़ा) और डिक्री (क़दर, बल (जबर) और अधिग्रहण (कुस्ब), अच्छाई और बुराई की इच्छा, और के प्रश्न को गले लगाता है। आदेशित और ज्ञात, कुछ लोगों द्वारा पुष्टि की गई और दूसरों द्वारा खंडन किया गया। इसमें कादरिया, नज्जरिया, जबरिया, अशरिया और कर्रिमिया के बीच विवाद शामिल हैं।
तीसरा सिद्धांत वादा (डब्ल्यू) और निर्णय (हुक्म) से संबंधित है। इसमें विश्वास (ईमान) और पश्चाताप (फौबा), धमकी (वाल्ड) और स्थगित करना (एफआरजेए") के सवाल को शामिल किया गया है, चे को अविश्वासी घोषित किया गया है (तकफिर) और एक भटके हुए व्यक्ति (तदालिल) का नेतृत्व किया गया है, जिसका दूसरों द्वारा अपमान किया गया है और दूसरों द्वारा इनकार किया गया है। इसमें शामिल है मुर्जिया, वारिदियिस, मुताज़िला, अशरिया और कररामियेस के बीच विवाद।
चौथा सिद्धांत परंपरा (सैम) और कारण (एजी), और भविष्यवाणी मिशन (रिसेल) और नेतृत्व (इमामत) पर विचार करता है। इसमें किसी कार्य को अच्छे (तहसीन) या बुरे (तकबिक) के रूप में निर्धारित करने, फ़ायदेमंद होने (फ़ेकफ़) के निर्धारण, पैगम्बर को पाप (इस्मा) से बचाने के प्रश्नों को शामिल किया गया है। इसमें कुछ के अनुसार क़ानून (मास) द्वारा और कुछ के अनुसार समझौते (एमए) द्वारा इमामत की स्थिति के प्रश्न को भी शामिल किया गया है
दूसरों के लिए, और यह उन लोगों के दृष्टिकोण में कैसे स्थानांतरित होता है जो कहते हैं कि यह क़ानून द्वारा है, और यह उन लोगों के दृष्टिकोण में कैसे तय होता है जो कहते हैं कि यह समझौते के द्वारा है। इसमें शियाओं, खरिजियों, मुताज़िलों, कर्रमिया और अशरियाओं के बीच के विवाद शामिल हैं।"
-शोएब अख़्तर
फ़िरदौस ख़ान
त्यौहारों के दिनों मे बाज़ार में नक़ली मावे और पनीर से बनी मिठाइयों का कारोबार ज़ोर पकड़ लेता है. आए-दिन छापामारी की ख़बरें सुनने को मिलती हैं कि फ़लां जगह इतना नक़ली या मिलावटी मावा पकड़ा गया, फ़लां जगह इतना. इन मामलों में केस भी दर्ज होते हैं, गिरफ़्तारियां भी होती हैं और दोषियों को सज़ा भी होती है. इस सबके बावजूद मिलावटख़ोर कोई सबक़ हासिल नहीं करते और मिलावटख़ोरी का धंधा बदस्तूर जारी रहता है. त्यौहारी सीज़न में कई मिठाई विक्रेता, होटल और रेस्टोरेंट संचालक मिलावटी और नक़ली मावे से बनी मिठाइयां बेचकर मोटा मुनाफ़ा कमाते हैं.
ज़्यादातर मिठाइयां मावे और पनीर से बनाई जाती हैं. दूध दिनोदिन महंगा होता जा रहा है. ऐसे में असली दूध से बना मावा और पनीर बहुत महंगा बैठता है. फिर इनसे मिठाइयां बनाने पर ख़र्च और ज़्यादा बढ़ जाता है, यानी मिठाई की क़ीमत बहुत ज़्यादा हो जाती है. इतनी महंगाई में लोग ज़्यादा महंगी मिठाइयां ख़रीदना नहीं चाहते. ऐसे में दुकानदारों की बिक्री पर असर पड़ता है. इसलिए बहुत से हलवाई मिठाइयां बनाने के लिए नक़ली या मिलावटी मावे और पनीर का इस्तेमाल करते हैं. नक़ली और मिलावटी में फ़र्क़ ये है कि नक़ली मावा शकरकंद, सिंघाड़े, मैदे, आटे, वनस्पति घी, आलू और अरारोट आदि चीज़ों को मिलाकर बनाया जाता है. इसी तरह पनीर बनाने के लिए सिंथेटिक दूध का इस्तेमाल किया जाता है. मिलावटी मावे उसे कहा जाता है, जिसमें असली मावे में नक़ली मावे की मिलावट की जाती है.मिलावट इस तरह की जाती है कि असली और नक़ली का फ़र्क़ नज़र नहीं आता. इसी तरह सिंथेटिक दूध यूरिया, कास्टिक सोडा, डिटर्जेन्ट आदि का इस्तेमाल किया जाता है. सामान्य दूध जैसी वसा उत्पन्न करने के लिए सिंथेटिक दूध में तेल मिलाया जाता है, जो घटिया क़िस्म का होता है. झाग के लिए यूरिया और कास्टिक सोडा और गाढ़ेपन के लिए डिटर्जेंट मिलाया जाता है.
खाद्य विशेषज्ञों के मुताबिक़ थोड़ी-सी मिठाई या मावे पर टिंचर आयोडीन की पांच-छह बूंदें डालें. ऊपर से इतने ही दाने चीनी के डाल दें. फिर इसे गर्म करें. अगर मिठाई या मावे का रंग नीला हो जाए, तो समझें उसमें मिलावट है. इसके अलावा, मिठाई या मावे पर हाइड्रोक्लोरिक एसिड यानी नमक के तेज़ाब की पां-छह बूंदें डालें. अगर इसमें मिलावट होगी, तो मिठाई या मावे का रंग लाल या हल्का गुलाबी हो जाएगा. मावा चखने पर थोड़ा कड़वा और रवेदार महसूस हो, तो समझ लें कि इसमें वनस्पति घी की मिलावट है. मावे को उंगलियों पर मसल कर भी देख सकते हैं अगर वह दानेदार है, तो यह मिलावटी मावा हो सकता है.
इतना ही नहीं, रंग-बिरंगी मिठाइयों में इस्तेमाल होने वाले सस्ते घटिया रंगों से भी सेहत पर बुरा असर पड़ता है. अमूमन मिठाइयों में कृत्रिम रंग मिलाए जाते हैं. जलेबी में कृत्रिम पीला रंग मिलाया जाता है, जो नुक़सानदेह है. मिठाइयों को आकर्षक दिखाने वाले चांदी के वरक़ की जगह एल्यूमीनियम फ़ॉइल से बने वर्क़ इस्तेमाल लिए जाते हैं. इसी तरह केसर की जगह भुट्टे के रंगे रेशों से मिठाइयों को सजाया जाता है.
दिवाली पर सूखे मेवे और चॉकलेट देने का चलन भी तेज़ी से बढ़ा है. चॉकलेट की लगातार बढ़ती मांग की वजह से बाज़ार में घटिया क़िस्म के चॉकलेट की भी भरमार है. मिलावटी और बड़े ब्रांड के नाम पर नक़ली चॉकलेट भी बाज़ार में ख़ूब बिक रही हैं. इसी तरह जमाख़ोर रखे हुए सूखे मेवों को एसिड में डुबोकर बेच रहे हैं. इसे भी घर पर जांचा जा सकता है. सूखे मेवे काजू या बादाम पर पानी की तीन-चार बूंदें डालें, फिर इसके ऊपर ब्लू लिटमस पेपर रख दें. अगर लिटमस पेपर का रंग लाल हो जाता है, तो इस पर एसिड है.
चिकित्सकों का कहना है कि मिलावटी मिठाइयां सेहत के लिए बेहद नुक़सानदेह हैं. इनसे पेट संबंधी बीमारियां हो सकती हैं. फ़ूड प्वाइज़निंग का ख़तरा भी बना रहता है. लंबे अरसे तक खाये जाने पर किडनी और लीवर पर बुरा असर पड़ सकता है. आंखों की रौशनी पर भी बुरा असर पड़ सकता है. बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास अवरुद्ध हो सकता है. घटिया सिल्वर फ़ॉइल में एल्यूमीनियम की मात्रा ज़्यादा होती है, जिससे शरीर के महत्वपूर्ण अंगों के ऊतकों और कोशिकाओं को नुक़सान हो सकता है. दिमाग़ पर भी असर पड़ता है. ये हड्डियों तक की कोशिकाओं को डैमेज कर सकता है. मिठाइयों को पकाने के लिए घटिया क़िस्म के तेल का इस्तेमाल किया जाता है, जो सेहत के लिए ठीक नहीं है. सिंथेटिक दूध में शामिल यूरिया, कास्टिक सोडा और डिटर्जेंट आहार नलिका में अल्सर पैदा करते हैं और किडनी को नुक़सान पहुंचाते हैं. मिलावटी मिठाइयों में फ़ॉर्मेलिन, कृत्रिम रंगों और घटिया सिल्वर फ़ॉइल से लीवर, किडनी, कैंसर, अस्थमैटिक अटैक, हृदय रोग जैसी कई बीमारियां हो सकती हैं. इनका सबसे ज़्यादा असर बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर पड़ता है. सूखे मेवों पर लगा एसिड भी सेहत के लिए बहुत ही ख़तरनाक है. इससे कैंसर जैसी बीमारी हो सकती है और लीवर, किडनी पर बुरा असर पड़ सकता है.
हालांकि देश में खाद्य पदार्थों में मिलावट रोकने के लिए कई क़ानून बनाए गए, लेकिन मिलावटख़ोरी में कमी नहीं आई. खाद्य पदार्थो में मिलावटखोरी को रोकने और उनकी गुणवत्ता को स्तरीय बनाए रखने के लिए खाद्य संरक्षा और मानक क़ानून-2006 लागू किया गया है. लोकसभा और राज्यसभा से पारित होने के बाद 23 अगस्त 2006 को राष्ट्रपति ने इस क़ानून पर अपनी मंज़ूरी दी. फिर 5 अगस्त 2011 को इसे अमल में लाया गया, यानी इसे लागू होने में पांच साल लग गए. इसका मक़सद खाद्य पदार्थों से जुड़े नियमों को एक जगह लाना और इनका उल्लंघन करने वालों को सख़्त सज़ा देकर मिलावटख़ोरी को ख़त्म करना है. भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण की स्थापना खाद्य सुरक्षा और मानक विधेयक 2006 के तहत खाद्य पदार्थों के विज्ञान आधारित मानक निर्धारित करने एवं निर्माताओं को नियंत्रित करने के लिए 5 सितंबर 2008 को की गई. यह प्राधिकरण अंतरराष्ट्रीय तकनीकी मानकों और घरेलू खाद्य मानकों के बीच मध्य सामंजस्य को बढ़ावा देने के साथ घरेलू सुरक्षा स्तर में कोई कमी न होना सुनिश्चित करता है. इसके प्रावधानों के तहत पहले काम कर रहे कई नियम-क़ानूनों (1-फ्रूट प्रोडक्ट्स ऑर्डर-1955 सेक्शन 2,-मीट फूड प्रोडक्ट्स ऑर्डर-1973 सेक्शन 3, मिल्क एंड मिल्क प्रोडक्ट्स ऑर्डर-1992 सेक्शन 4, सालवेंट एक्सट्रैक्टेड ऑयल, डी-ऑयल्ड मील एंड एडिबल फ़्लोर (कंट्रोल) ऑर्डर-1967 सेक्शन 5, वेजिटेबल्स ऑयल प्रोडक्ट्स (रेगुलेशन) ऑर्डर-1998 सेक्शन 6, एडिबल ऑयल्स पैकेजिंग (रेगुलेशन) ऑर्डर-1998 सेक्शन 7, खाद्य अपमिश्रण निवारण क़ानून-1954) के प्रशासनिक नियंत्रण को इसमें शामिल किया है.
इस क़ानून में खाद्य पदार्थों से जुड़े अपराधों को श्रेणियों में बांटा गया है और इन्हीं श्रेणियों के हिसाब से सज़ा भी तय की गई है. पहली श्रेणी में जुर्माने का प्रावधान है. निम्न स्तर, मिलावटी, नक़ली माल की बिक्री, भ्रामक विज्ञापन के मामले में संबंधित प्राधिकारी 10 लाख रुपये तक जुर्माना लगा सकते हैं. इसके लिए अदालत में मामला ले जाने की ज़रूरत नहीं है. दूसरी श्रेणी में जुर्माने और क़ैद का प्रावधान है. इन मामलों का फ़ैसला अदालत में होगा. मिलावटी खाद्य पदार्थो के सेवन से अगर किसी की मौत हो जाती है, तो उम्रक़ैद और 10 लाख रुपये तक जुर्माना भी हो सकता है. पंजीकरण या लाइसेंस नहीं लेने पर भी जुर्माने का प्रावधान है. छोटे निर्माता, रिटेलर, हॉकर, वेंडर, खाद्य पदार्थो के छोटे व्यापारी जिनका सालाना टर्नओवर 12 लाख रुपये से कम है, उन्हें पंजीकरण कराना ज़रूरी है. इसके उल्लंघन पर उन पर 25 हज़ार रुपये तक जुर्माना हो सकता है. 12 लाख रुपये सालाना से ज़्यादा टर्नओवर वाले व्यापारी को लाइसेंस लेना ज़रूरी है. ऐसा न करने पर पांच लाख रुपये तक जुर्माना और छह महीने तक की सज़ा हो सकती है. अप्राकृतिक और ख़राब गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थों की बिक्री पर दो लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है. इसी तरह घटिया खाद्य पदार्थों की बिक्री पर पांच लाख रुपये, ग़लत ब्रांड खाद्य पदार्थों की बिक्री पर तीन लाख, भ्रामक विज्ञापन करने पर 10 लाख रुपये और खाद्य पदार्थ में अन्य चीज़ों की मिलावट करने पर एक लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है.
दिवाली पर मिठाई की मांग ज़्यादा होती है और इसके मुक़ाबले आपूर्ति कम होती है. मिलावटख़ोर मांग और आपूर्ति के इस फ़र्क़ का फ़ायदा उठाते हुए बाज़ार में मिलावटी सामग्री से बनी मिठाइयां बेचने लगते हैं. इससे उन्हें तो ख़ासी आमदनी होती है, लेकिन ख़ामियाज़ा उपभोक्ताओं को भुगतना पड़ता है. हालांकि स्वास्थ्य विभाग द्वारा छापेमारी कर और नमूने लेकर ख़ानापूर्ति कर ली जाती है. फिर कुछ दिन बाद मामला रफ़ा-दफ़ा हो जाता है. दरअसल मिलावटख़ोरी पर रोक लगाने के लिए इतनी सख़्ती नहीं बरती जाती जितनी बरती जानी चाहिए. इसलिए यही बेहतर है कि मिठाई, चॊकलेट और सूखे मेवे ख़रीदते वक़्त एहतियात बरतनी चाहिए. साथ ही इनके ख़राब होने पर इसकी शिकायत ज़रूर करनी चाहिए, ताकि मिलावटख़ोरों पर दबाव बने. जागरूक बने और सुखी रहें.
पारम्परिक चीज़ें रोज़गार से जुड़ी होती हैं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ी होती हैं. इसलिए दिवाली पर अपने घर-आंगन को रौशन करने के लिए मिट्टी के दिये ज़रूर ख़रीदें, ताकि दूसरों के घरों के चूल्हे जलते रहें.
अगर आपको लगता है कि सरसों का तेल बहुत महंगा हो गया है, तो बिजली भी कोई सस्ती नहीं है.
जो ख़ुशी चन्द दिये रौशन करने से मिलती है, वह बिजली की झालरों में लगे हज़ारों बल्बों से भी नहीं मिल पाती. हम भी मिट्टी के दिये ख़रीदते हैं, ताकि ये परम्परा क़ायम रहे और रोज़गार का ज़रिया बना रहे.
अगर आपको लगता है कि सरसों का तेल बहुत महंगा हो गया है, तो बिजली भी कोई सस्ती नहीं है.
जो ख़ुशी चन्द दिये रौशन करने से मिलती है, वह बिजली की झालरों में लगे हज़ारों बल्बों से भी नहीं मिल पाती. हम भी मिट्टी के दिये ख़रीदते हैं, ताकि ये परम्परा क़ायम रहे और रोज़गार का ज़रिया बना रहे.
फ़िरदौस ख़ान
गुर्दे की पथरी अब एक आम मर्ज़ हो गया है. पथरी की वजह से नाक़ाबिले बर्दाश्त दर्द होता है. पेशाब में जलन होती है. इसकी वजह से गुर्दों को नुक़सान हो सकता है.
चिकित्सकों के मुताबिक़ पेशाब में कैल्शियम, ऑक्सालेट, यूरिक एसिड और सिस्टीन जैसे पदार्थ इकट्ठे होकर क्रिस्टल बन जाते हैं. फिर ये क्रिस्टल गुर्दे से जुड़कर रफ़्ता-रफ़्ता पथरी का रूप इख़्तियार कर लेते हैं. इनमें 80 फ़ीसद पथरी कैल्शियम से बनी होती है और कुछ पथरी कैल्शियम ऑक्सालेट और कुछ कैल्शियम फ़ॉस्फ़ेट से बनी होती हैं. बाक़ी पथरी यूरिक एसिड, संक्रमण और सिस्टीन से बनी होती हैं.
पथरी के कई इलाज हैं. आज हम कुछ ऐसे इलाज के बारे में बता रहे हैं, जिनसे लोगों को पथरी से निजात मिली है.
पथरी के मरीज़ को कितने दिन में इससे निजात मिलती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि गुर्दे में कितनी और किस आकार की पथरियां हैं. इसके साथ ही परहेज़ भी बहुत मायने रखता है. मसलन पथरी के मरीज़ को कैल्शियम और आयरन से बनी चीज़ें कम कर देनी चाहिए. इसके साथ ही पानी ज़्यादा से ज़्यादा पीना चाहिए.
ज़ैतून, शहद और नींबू
एक गिलास पानी में एक चम्मच ज़ैतून का तेल, एक चम्मच शहद और एक नींबू का रस मिलाकर रोज़ पीने से पथरी टूटकर पेशाब के साथ जिस्म से बाहर निकल जाती है.
खीरा
देसी खीरा पथरी के मरीज़ के लिए बहुत फ़ायदेमंद है. छिलके समेत देसी खीरा ज़्यादा से ज़्यादा खाना चाहिए. इससे भी पथरी टूटकर पेशाब के साथ बाहर निकल जाती है.
मूली
मूली भी पथरी के मरीज़ के लिए बहुत फ़ायदेमंद है. सब्ज़ी या सलाद के रूप में ज़्यादा से ज़्यादा मूली खानी चाहिए. इससे भी पथरी टूटकर पेशाब के साथ बाहर निकल जाती है.
सोडा
सोडा भी पथरी के मरीज़ के लिए बहुत ही फ़ायदेमंद है. लगातार सोडा पीने से पथरी टूटकर पेशाब के साथ बाहर निकल जाती है.
अब बात करते हैं होम्योपैथी दवा की. Berberis Vulgaris Mother Tincture Q की पांच-पांच बूंदें दिन में तीन बार लेने से पथरी टूटकर पेशाब के साथ जिस्म से बाहर निकल जाती है.
ज़्यादा परेशानी होने पर चिकित्सक से परामर्श लें.
हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के दर्द से परेशान है. किसी के पूरे जिस्म में दर्द है, किसी की पीठ में दर्द है, किसी के घुटनों में दर्द है और किसी के हाथ-पैरों में दर्द है. हालांकि दर्द की कई वजहें होती हैं. इनमें से एक वजह यूरिक एसिड भी है.
दरअसल, यूरिक एसिड एक अपशिष्ट पदार्थ है, जो खाद्य पदार्थों के पाचन से पैदा होता है और इसमें प्यूरिन होता है. जब प्यूरिन टूटता है, तो उससे यूरिक एसिड बनता है. किडनी यूरिक एसिड को फ़िल्टर करके इसे पेशाब के ज़रिये जिस्म से बाहर निकाल देती है. जब कोई व्यक्ति अपने खाने में ज़्यादा मात्रा में प्यूरिक का इस्तेमाल करता है, तो उसका जिस्म यूरिक एसिड को उस तेज़ी से जिस्म से बाहर नहीं निकाल पाता. इस वजह से जिस्म में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ने लगती है. ऐसी हालत में यूरिक एसिड ख़ून के ज़रिये पूरे जिस्म में फैलने लगता है और यूरिक एसिड के क्रिस्टल जोड़ों में जमा हो जाते हैं, जिससे जोड़ों में सूजन आ जाती है. इसकी वजह से गठिया भी हो जाता है. जिस्म में असहनीय दर्द होता है. इससे किडनी में पथरी भी हो जाती है. इसकी वजह से पेशाब संबंधी बीमारियां पैदा हो जाती हैं. मूत्राशय में असहनीय दर्द होता है और पेशाब में जलन होती है. पेशाब बार-बार आता है. यह यूरिक एसिड स्वस्थ व्यक्ति को बीमार कर देता है.
यूरिक एसिड से बचने के लिए अपने खान-पान पर ख़ास तवज्जो दें. दाल पकाते वक़्त उसमें से झाग निकाल दें. कोशिश करें कि दाल कम इस्तेमाल करें. बिना छिलकों वाली दालों का इस्तेमाल करना बेहतर है. रात के वक़्त दाल, चावल और दही आदि खाने से परहेज़ करें. हो सके तो फ़ाइबर से भरपूर खाद्य पदार्थों का सेवन करें.
जौ
यूरिक एसिड से निजात पाने के लिए जौ का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करें. जौ की ख़ासियत है कि यह यूरिक एसिड को सोख लेता है और उसे जिस्म से बाहर करने में कारगर है. इसलिए जौ को अपने रोज़मर्रा के खाने में ज़रूर शामिल करें. गर्मियों के मौसम में जौ का सत्तू पी सकते हैं, जौ का दलिया बना सकते हैं, जौ के आटे की रोटी बनाई जा सकती है.
ज़ीरा
यूरिक एसिड के मरीज़ों के लिए ज़ीरा भी बहुत फ़ायदेमंद है. ज़ीरे में आयरन, कैल्शियम, ज़िंक और फ़ॉस्फ़ोरस पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं. इसके अलावा इसमें एंटीऑक्सीडेंट उच्च मात्रा में मौजूद होता है, जो यूरिक एसिड की वजह से होने वाले जोड़ों के दर्द और सूजन को कम करता है. यह टॉक्सिंस को जिस्म से बाहर करने में भी मददगार है.
नींबू
नींबू में मौजूद साइट्रिक एसिड शरीर में यूरिक एसिड के स्तर को बढ़ने से रोकता है.
ज़्यादा परेशानी होने पर चिकित्सक से परामर्श लें.
फ़िरदौस ख़ान
शुगर एक ऐसा मर्ज़ है, जिससे व्यक्ति की ज़िन्दगी बहुत बुरी तरह प्रभावित हो जाती है. वह अपनी पसंद की मिठाइयां, फल, आलू, अरबी और कई तरह की दूसरी चीज़ें नहीं खा पाता. इसके साथ ही उसे तरह-तरह की दवाएं भी खानी पड़ती हैं. दवा कोई भी नहीं खाना चाहता, जिसे मजबूरन खानी पड़ती हैं, इससे उसका ज़ायक़ा ख़राब हो जाता है. इससे व्यक्ति और ज़्यादा परेशान हो जाता है. पिछले कई दिनों से हम शुगर के रूहानी और घरेलू इलाज के बारे में अध्ययन कर रहे हैं. हमने शुगर के कई मरीज़ों से बात की. इनमें ऐसे लोग भी शामिल थे, जो महंगे से महंगा इलाज कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद उन्हें कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ. कई ऐसे लोग भी मिले, जिन्होंने घरेलू इलाज किया और बेहतर महसूस कर रहे हैं. शुगर के मरीज़ डॉक्टरों से दवा तो लेते ही हैं. लेकिन हम आपको ऐसे इलाज के बारे में बताएंगे, जिससे मरीज़ को दवा की ज़रूरत ही नहीं रहती.
पहला इलाज है जामुन
जी हां, जामुन शुगर का सबसे बेहतरीन इलाज है. अमूमन सभी पद्धतियों की शुगर की दवाएं जामुन से बनाई जाती हैं. बरसात के मौसम में जामुन ख़ूब आती हैं. इस मौसम में दरख़्त जामुन से लदे रहते हैं. जब तक मौसम रहे, शुगर के मरीज़ ज़्यादा से ज़्यादा जामुन खाएं. साथ ही जामुन की गुठलियों को धोकर, सुखाकर रख लें. क्योंकि जब जामुन का मौसम न रहे, तब इन गुठलियों को पीसकर सुबह ख़ाली पेट एक छोटा चम्मच इसका चूर्ण फांक लें. जामुन की चार-पांच पत्तियां सुबह और शाम खाने से भी शुगर कंट्रोल में रहती है. जामुन के पत्ते सालभर आसानी से मिल जाते हैं. जिन लोगों के घरों के आसपास जामुन के पेड़ न हों, तो वे जामुन के पत्ते मंगा कर उन्हें धोकर सुखा लें. फिर इन्हें पीस लें और इस्तेमाल करें. इसके अलावा मिट्टी के मटके में जामुन की छोटी-छोटी कुछ टहनियां डाल दें और उसका पानी पिएं. इससे भी फ़ायदा होगा.
दूसरा इलाज है नीम
नीम की सात-आठ हरी मुलायम पत्तियां सुबह ख़ाली पेट चबाने से शुगर कंट्रोल में रहती है. ध्यान रहे कि नीम की पत्तियां खाने के दस-पंद्रह मिनट बाद नाश्ता ज़रूर कर लें. नीम की पत्तियां आसानी से मिल जाती हैं.
तीसरा इलाज है अमरूद
रात में अमरूद के दो-तीन पत्तों को धोकर कूट लें. फिर कांच या चीनी मिट्टी के बर्तन में भिगोकर रख दें. ध्यान रहे कि बर्तन धातु का न हो. सुबह ख़ाली पेट इसे पीने से शुगर कंट्रोल में रहती हैं.
ये तीनों इलाज ऐसे हैं, जो आसानी से मुहैया हैं. शुगर का कोई भी मरीज़ इन्हें अपनाकर राहत पा सकता है. इन तीनों में से कोई भी इलाज करने के एक माह के बाद शुगर का टेस्ट करा लेने से मालूम हो जाएगा कि इससे कितना फ़ायदा हुआ है.
फ़िरदौस ख़ान
हर भाषा की अपनी अहमियत होती है। फिर भी मातृभाषा हमें सबसे प्यारी होती है, क्योंकि उसी ज़ुबान में हम बोलना सीखते हैं। बच्चा सबसे पहले मां ही बोलता है। इसलिए भी मां बोली हमें सबसे अज़ीज़ होती है। लेकिन देखने में आता है कि कुछ लोग जिस भाषा के सहारे ज़िन्दगी बसर करते हैं, यानी जिस भाषा में लोगों से संवाद क़ायम करते हैं, उसी को 'तुच्छ' समझते हैं। बार-बार अपनी मातृभाषा का अपमान करते हुए अंग्रेजी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हैं। हिन्दी के साथ ऐसा सबसे ज़्यादा हो रहा है। वे लोग जिनके पुरखे अंग्रेजी का 'ए' नहीं जानते थे, वे भी हिन्दी को गरियाते हुए मिल जाएंगे। हक़ीक़त में ऐसे लोगों को न तो ठीक से हिन्दी आती है और न ही अंग्रेजी। दरअसल, वह तो हिन्दी को गरिया कर अपनी 'कुंठा' का 'सार्वजनिक प्रदर्शन' करते रहते हैं।
अंग्रेजी भी अच्छी भाषा है। इंसान को अंग्रेजी ही नहीं, दूसरी देसी-विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए। इल्म हासिल करना तो अच्छी बात है, लेकिन अपनी मातृभाषा की क़ुर्बानी देकर किसी दूसरी भाषा को अपनाए जाने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। यह अफ़सोस की बात है कि हमारे देश में हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की लगातार अनदेखी की जा रही है। हालत यह है कि अब तो गांव-देहात में भी अंग्रेज़ी का चलन बढ़ने लगा है। पढ़े-लिखे लोग अपनी मातृभाषा में बात करना पसंद नहीं करते, उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो गंवार कहलाएंगे। क्या अपनी संस्कृति की उपेक्षा करने को सभ्यता की निशानी माना जा सकता है, क़तई नहीं। हमें ये बात अच्छे से समझनी होगी कि जब तक हिन्दी भाषी लोग ख़ुद हिन्दी को सम्मान नहीं देंगे, तब तक हिन्दी को वो सम्मान नहीं मिल सकता, जो उसे मिलना चाहिए।
देश को आज़ाद हुए साढ़े सात दशक बीत चुके हैं। इसके बावजूद अभी तक हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा हासिल नहीं हो पाया है। यह बात अलग है कि हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस पर कार्यक्रमों का आयोजन कर रस्म अदायगी कर ली जाती है। हालत यह है कि कुछ लोग तो अंग्रेज़ी में भाषण देकर हिन्दी की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाने से भी नहीं चूकते।
हमारे देश भारत में बहुत सी भाषायें और बोलियां हैं। इसलिए यहां यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी। भारतीय संविधान में भारत की कोई राष्ट्र भाषा नहीं है। हालांकि केन्द्र सरकार ने 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया है। इसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार अपने राज्य के मुताबिक़ किसी भी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में चुन सकती है। केन्द्र सरकार ने अपने काम के लिए हिन्दी और रोमन भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह दी है। इसके अलावा राज्यों ने स्थानीय भाषा के मुताबिक़ आधिकारिक भाषाओं को चुना है। इन 22 आधिकारिक भाषाओं में असमी, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संतली, सिंधी, तमिल, तेलुगू, बोड़ो, डोगरी, बंगाली और गुजराती शामिल हैं।
ग़ौरतलब है कि संवैधानिक रूप से हिन्दी भारत की प्रथम राजभाषा है। यह देश की सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। स्टैटिस्टा के मुताबिक़ दुनियाभर में हिन्दी भाषा तेज़ी से बढ़ रही है। साल 1900 से 2021 के दौरान इसकी रफ़्तार 175.52 फ़ीसदी रही, जो अंग्रेज़ी की रफ़्तार 380.71 फ़ीसदी के बाद सबसे ज़्यादा है। अंग्रेज़ी और मंदारिन भाषा के बाद हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। साल 1961 में ही हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा बन गई। उस वक़्त दुनियाभर में 42.7 करोड़ लोग हिन्दी बोलते थे। साल 2021 में यह तादाद बढ़कर 117 करोड़ हो गई। इनमें से 53 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिन्दी है। हालत यह है कि हिन्दी अब शीर्ष 10 कारोबारी भाषाओं में शामिल है। इतना ही नहीं दुनियाभर के 10 सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अख़बारों में शीर्ष-6 हिन्दी के अख़बार हैं। भारत के अलावा 260 से ज़्यादा विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। विदेशों में 28 हज़ार से ज़्यादा शिक्षण संस्थान हिन्दी भाषा सिखा रहे हैं। हिन्दी का व्याकरण सर्वाधिक वैज्ञानिक माना जाता है। हिन्दी का श्ब्द भंडार भी बहुत विस्तृत है। अंग्रेज़ी में जहां 10 हज़ार शब्द हैं, वहीं हिन्दी में इसकी तादाद अढ़ाई लाख बताई जाती है। हिन्दी मुख्यतः देवनागरी में लिखी जाती है, लेकिन अब इसे रोमन में भी लिखा जाने लगा है। मोबाइल संदेश और इंटरनेट से हिन्दी को काफ़ी बढ़ावा मिल रहा है। सोशल मीडिया पर भी हिन्दी का ख़ूब चलन है। गूगल पर हिन्दी के 10 लाख करोड़ से ज़्यादा पन्ने मौजूद हैं।
देश में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा होने के बाद भी हिन्दी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन पाई है। हिन्दी हमारी राजभाषा है। राष्ट्रीय और आधिकारिक भाषा में काफ़ी फ़र्क़ है। जो भाषा किसी देश की जनता, उसकी संस्कृति और इतिहास को बयान करती है, उसे राष्ट्रीय या राष्ट्रभाषा भाषा कहते हैं। मगर जो भाषा कार्यालयों में उपयोग में लाई जाती है, उसे आधिकारिक भाषा कहा जाता है। इसके अलावा अंग्रेज़ी को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है।
संविधान के अनुचछेद-17 में इस बात का ज़िक्र है कि आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा नहीं माना जा सकता है। भारत के संविधान के मुताबिक़ देश की कोई भी अधिकृत राष्ट्रीय भाषा नहीं है। यहां 23 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के तौर पर मंज़ूरी दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 344 (1) और 351 के मुताबिक़ भारत में अंग्रेज़ी सहित 23 भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें आसामी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। ख़ास बात यह भी है कि राष्ट्रीय भाषा तो आधिकारिक भाषा बन जाती है, लेकिन आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए क़ानूनी तौर पर मंज़ूरी लेना ज़रूरी है। संविधान में यह भी कहा गया है कि यह केंद्र का दायित्व है कि वह हिन्दी के विकास के लिए निरंतर प्रयास करे। विभिन्नताओं से भरे भारतीय परिवेश में हिन्दी को जनभावनाओं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया जाए।
भारतीय संविधान के मुताबिक़ कोई भी भाषा, जिसे देश के सभी राज्यों द्वारा आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया गया हो, उसे राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाता है। मगर हिन्दी इन मानकों को पूरा नहीं कर पा रही है, क्योंकि देश के सिर्फ़ 10 राज्यों ने ही इसे आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया है, जिनमें बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल है। इन राज्यों में उर्दू को सह-राजभाषा का दर्जा दिया गया है। उर्दू जम्मू-कश्मीर की राजभाषा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में हिन्दी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है। संविधान के लिए अनुच्छेद 351 के तहत हिन्दी के विकास के लिए विशेष प्रावधान किया गया है।
ग़ौरतलब है कि देश में 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ था। देश में हिन्दी और अंग्रेज़ी सहित 18 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है, जबकि यहां क़रीब 800 बोलियां बोली जाती हैं। दक्षिण भारत के राज्यों ने स्थानीय भाषाओं को ही अपनी आधिकारिक भाषा बनाया है। दक्षिण भारत के लोग अपनी भाषाओं के प्रति बेहद लगाव रखते हैं, इसके चलते वे हिन्दी का विरोध करने से भी नहीं चूकते। साल 1940-1950 के दौरान दक्षिण भारत में हिन्दी के ख़िलाफ़ कई अभियान शुरू किए गए थे। उनकी मांग थी कि हिन्दी को देश की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा न दिया जाए।
संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर, 1949 को सर्वसम्मति से हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया था। तब से केन्द्रीय सरकार के देश-विदेश स्थित समस्त कार्यालयों में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के मुताबिक़ भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपी देवनागरी होगी। साथ ही अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप यानी 1, 2, 3, 4 आदि होगा। संसद का काम हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में किया जा सकता है, मगर राज्यसभा या लोकसभा के अध्यक्ष विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। संविधान के अनुच्छोद 120 के तहत किन प्रयोजनों के लिए केवल हिन्दी का इस्तेमाल किया जाना है, किनके लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं का इस्तेमाल ज़रूरी है और किन कार्यों के लिए अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल किया जाना है। यह राजभाषा अधिनियम-1963, राजभाषा अधिनियम-1976 और उनके तहत समय-समय पर राजभाषा विभाग गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए दिशा-निर्देशों द्वारा निर्धारित किया गया है।
पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण अंग्रेज़ी भाषा हिन्दी पर हावी होती जा रही है। अंग्रेज़ी को स्टेट्स सिंबल के तौर पर अपना लिया गया है। लोग अंग्रेज़ी बोलना शान समझते हैं, जबकि हिन्दी भाषी व्यक्ति को पिछड़ा समझा जाने लगा है। हैरानी की बात तो यह भी है कि देश की लगभग सभी बड़ी प्रतियोगी परीक्षाएं अंग्रेज़ी में होती हैं। इससे हिन्दी भाषी योग्य प्रतिभागी इसमें पिछड़ जाते हैं। अगर सरकार हिन्दी भाषा के विकास के लिए गंभीर है, तो इस भाषा को रोज़गार की भाषा बनाना होगा। आज अंग्रेज़ी रोज़गार की भाषा बन चुकी है। अंग्रेज़ी बोलने वाले लोगों को नौकरी आसानी से मिल जाती है। इसलिए लोग अंग्रेज़ी के पीछे भाग रहे हैं। आज छोटे क़स्बों तक में अंग्रेज़ी सिखाने की 'दुकानें' खुल गई हैं। अंग्रेज़ी भाषा नौकरी की गारंटी और योग्यता का 'प्रमाण' बन चुकी है। अंग्रेज़ी शासनकाल में अंग्रेज़ों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अंग्रेज़ियत को बढ़ावा दिया था, मगर आज़ाद देश में मैकाले की शिक्षा पध्दति को क्यों ढोया जा रहा है, यह समझ से परे है।
हिन्दी के विकास में हिन्दी साहित्य के अलावा हिन्दी पत्रकारिता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसके अलावा हिन्दी सिनेमा ने भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा दिया है। मगर अब सिनेमा की भाषा भी 'हिन्गलिश' होती जा रही है। छोटे पर्दे पर आने वाले धारावाहिकों में ही बिना वजह अंग्रेज़ी के वाक्य ठूंस दिए जाते हैं। हिन्दी सिनेमा में काम करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाने वाले कलाकार भी हर जगह अंग्रेज़ी में ही बोलते नज़र आते हैं। आख़िर क्यों हिन्दी को इतनी हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।
अधिकारियों का दावा है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है, मगर देश में हिन्दी की जो हालत है, वो जगज़ाहिर है। साल में एक दिन को ‘हिन्दी दिवस’ के तौर पर मना लेने से हिन्दी का भला होने वाला नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए ज़मीनी स्तर पर ईमानदारी से काम किया जाए।
रूस में अपनी मातृभाषा भूलना बहुत बड़ा शाप माना जाता है। एक महिला दूसरी महिला को कोसते हुए कहती है- अल्लाह, तुम्हारे बच्चों को उनकी मां की भाषा से वंचित कर दे। अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उनसे महरूम कर दे, जो उन्हें उनकी ज़ुबान सिखा सकता हों। नहीं, अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी ज़ुबान सिखा सकते हों। मगर पहा़डों में तो किसी तरह के शाप के बिना भी उस आदमी की कोई इज्ज़त नहीं रहती, जो अपनी ज़ुबान की इज्ज़त नहीं करता। पहाड़ी मां विकृत भाषा में लिखी अपने बेटे की कविताएं नहीं पढ़ेगी। रूस के प्रसिद्ध लेखक रसूल हमज़ातोव ने अपनी किताब मेरा दाग़िस्तान में ऐसे कई क़िस्सों का ज़िक्र किया है, जो मातृभाषा से जुड़े हैं। कैस्पियन सागर के पास काकेशियाई पर्वतों की ऊंचाइयों पर बसे दाग़िस्तान के एक छोटे से गांव त्सादा में जन्मे रसूल हमज़ातोव को अपने गांव, अपने प्रदेश, अपने देश और उसकी संस्कृति से बेहद लगाव रहा है। मातृभाषा की अहमियत का ज़िक्र करते हुए ‘मेरा दाग़िस्तान’ में वह लिखते हैं, मेरे लिए विभिन्न जातियों की भाषाएं आकाश के सितारों के समान हैं। मैं नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेने वाले अतिकाय सितारे में मिल जाएं। इसके लिए सूरज है, मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए। हर व्यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए। मैं अपने सितारे अपनी अवार मातृभाषा को प्यार करता हूं। मैं उन भूतत्वेत्ताओं पर विश्वास करता हूं, जो यह कहते हैं कि छोटे-से पहाड़ में भी बहुत-सा सोना हो सकता है।
एक बेहद दिलचस्प वाक़िये के बारे में वह लिखते हैं, किसी बड़े शहर मास्को या लेनिनग्राद में एक लाक घूम रहा था। अचानक उसे दाग़िस्तानी पोशाक पहने एक आदमी दिखाई दिया। उसे तो जैसे अपने वतन की हवा का झोंका-सा महसूस हुआ, बातचीत करने को मन ललक उठा। बस भागकर हमवतन के पास गया और लाक भाषा में उससे बात करने लगा। इस हमवतन ने उसकी बात नहीं समझी और सिर हिलाया। लाक ने कुमीक, फिर तात और लेज़गीन भाषा में बात करने की कोशिश की। लाक ने चाहे किसी भी ज़बान में बात करने की कोशिश क्यों न की, दाग़िस्तानी पोशाक में उसका हमवतन बातचीत को आगे न बढ़ा सका। चुनांचे रूसी भाषा का सहारा लेना पड़ा। तब पता चला कि लाक की अवार से मुलाक़ात हो गई थी। अवार अचानक ही सामने आ जाने वाले इस लाक को भला-बुरा कहने और शर्मिंदा करने लगा। तुम भी कैसे दाग़िस्तानी, कैसे हमवतन हो, अगर अवार भाषा ही नहीं जानते, तुम दाग़िस्तानी नहीं, मूर्ख ऊंट हो। इस मामले में मैं अपने अवार भाई के पक्ष में नहीं हूं। बेचारे लाक को भला-बुरा कहने का उसे कोई हक़ नहीं था। अवार भाषा की जानकारी हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। अहम बात यह है कि उसे अपनी मातृभाषा, लाक भाषा आनी चाहिए। वह तो दूसरी कई भाषाएं जानता था, जबकि अवार को वे भाषाएं नहीं आती थीं।
अबूतालिब एक बार मास्को में थे। सड़क पर उन्हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्यकता हुई। शायद यही कि मंडी कहां है? संयोग से कोई अंग़्रेज़ ही उनके सामने आ गया। इसमें हैरानी की तो कोई बात नहीं। मास्को की सड़कों पर तो विदेशियों की कोई कमी नहीं है।
अंग्रेज़ अबूतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेज़ी, फिर फ्रांसीसी, स्पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछताछ करने लगा। अबूतालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेज़गीन, दार्ग़िन और कुमीक भाषाओं में अपनी बात को समझाने की कोशिश की। आख़िर एक-दूसरे को समझे बिना वे दोनों अपनी-अपनी राह चले गए। एक बहुत ही सुसंस्कृत दाग़िस्तानी ने जो अंग्रेज़ी भाषा के ढाई शब्द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा-देखो संस्कृति का क्या महत्व है। अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्कृत होते तो अंग्रेज़ से बात कर पाते। समझे न? समझ रहा हूं। अबूतालिब ने जवाब दिया। मगर अंग्रेज़ को मुझसे अधिक सुसंस्कृत कैसे मान लिया जाए? वह भी तो उनमें से एक भी ज़ुबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की?
रसूल हमज़ातोव लिखते हैं, एक बार पेरिस में एक दाग़िस्तानी चित्रकार से मेरी भेंट हुई। क्रांति के कुछ ही समय बाद वह पढ़ने के लिए इटली गया था, वहीं एक इतावली लड़की से उसने शादी कर ली और अपने घर नहीं लौटा। पहाड़ों के नियमों के अभ्यस्त इस दाग़िस्तानी के लिए अपने को नई मातृभूमि के अनुरूप ढालना मुश्किल था। वह देश-देश में घूमता रहा, उसने दूर-दराज़ के अजनबी मुल्कों की राजधानियां देखीं, मगर जहां भी गया, सभी जगह घर की याद उसे सताती रही। मैंने यह देखना चाहा कि रंगों के रूप में यह याद कैसे व्यक्त हुई है। इसलिए मैंने चित्रकार से अपने चित्र दिखाने का अनुरोध किया। एक चित्र का नाम ही था मातृभूमि की याद। चित्र में इतावली औरत (उसकी पत्नी) पुरानी अवार पोशाक में दिखाई गई थी। वह होत्सातल के मशहूर कारीगरों की नक़्क़ाशी वाली चांदी की गागर लिए एक पहाड़ी चश्मे के पास खड़ी थी। पहाड़ी ढाल पर पत्थरों के घरों वाला उदास-सा अवार गांव दिखाया गया था और गांव के ऊपर पहाड़ी चोटियां कुहासे में लिपटी हुई थीं। पहाड़ों के आंसू ही कुहासा है-चित्रकार ने कहा, वह जब ढालों को ढंक देता है, तो चट्टानों की झुर्रियों पर उजली बूंदें बहने लगती हैं। मैं कुहासा ही हूं। दूसरे चित्र में मैंने कंटीली जंगली झाड़ी में बैठा हुआ एक पक्षी देखा। झाड़ी नंगे पत्थरों के बीच उगी हुई थी। पक्षियों को गाता हुआ दिखाया गया था और पहाड़ी घर की खिड़की से एक उदास पहाडिन उसकी तरफ़ देख रही थी। चित्र में मेरी दिलचस्पी देखकर चित्रकार ने स्पष्ट किया-यह चित्र पुरानी अवार की किंवदंती के आधार पर बनाया गया है।
किस किंवदंती के आधार पर?
एक पक्षी को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया। बंदी पक्षी दिन-रात एक ही रट लगाए रहता था-मातृभूमि, मेरी मातृभूमि, मातृभूमि… बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि इन तमाम सालों के दौरान मैं भी यह रटता रहा हूं। पक्षी के मालिक ने सोचा, जाने कैसी है उसकी मातृभूमि, कहां है? अवश्य ही वह कोई फलता-फूलता हुआ बहुत ही सुन्दर देश होगा, जिसमें स्वार्गिक वृक्ष और स्वार्गिक पक्षी होंगे। तो मैं इस परिन्दे को आज़ाद कर देता हूं, और फिर देखूंगा कि वह किधर उड़कर जाता है। इस तरह वह मुझे उस अद्भुत देश का रास्ता दिखा देगा। उसने पिंजरा खोल दिया और पक्षी बाहर उड़ गया। दस एक क़दम की दूरी पर वह नंगे पत्थरों के बीच उगी जंगली झाड़ी में जा बैठा। इस झाड़ी की शाख़ाओं पर उसका घोंसला था। अपनी मातृभूमि को मैं भी अपने पिंजरे की खिड़की से ही देखता हूं। चित्रकार ने अपनी बात ख़त्म की।
तो आप लौटना क्यों नहीं चाहते?
देर हो चुकी है। कभी मैं अपनी मातृभूमि से जवान और जोशीला दिल लेकर आया था। अब मैं उसे सिर्फ़ बूढ़ी हड्डियां कैसे लौटा सकता हूं?
रसूल हमज़ातोव ने अपनी कविताओं में भी अपनी मातृभाषा का गुणगान किया है। अपनी एक कविता में वह कहते हैं-
मैंने तो अपनी भाषा को सदा हृदय से प्यार किया है
हमें भी अपनी मातृ भाषा के प्रति अपने दिल में यही जज़्बा पैदा करना होगा।
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं)
अमृता प्रीतम
अंगूरी, मेरे पड़ोसियों के पड़ोसियों के पड़ोसियों के घर, उनके बड़े ही पुराने नौकर की बिल्कुल नई बीवी है। एक तो नई इस बात से कि वह अपने पति की दूसरी बीवी है, सो उसका पति ‘दुहाजू’ हुआ। जू का मतलब अगर ‘जून’ हो तो इसका मतलब निकला ‘दूसरी जून में पड़ा चुका आदमी’, यानी दूसरे विवाह की जून में, और अंगूरी क्योंकि अभी विवाह की पहली जून में ही है, यानी पहली विवाह की जून में, इसलिए नई हुई। और दूसरे वह इस बात से भी नई है कि उसका गौना आए अभी जितने महीने हुए हैं, वे सारे महीने मिलकर भी एक साल नहीं बनेंगे।
पाँच-छह साल हुए, प्रभाती जब अपने मालिकों से छुट्टी लेकर अपनी पहली पत्नी की ‘किरिया’ करने के लिए गाँव गया था, तो कहते हैं कि किरिया वाले दिन इस अंगूरी के बाप ने उसका अंगोछा निचोड़ दिया था। किसी भी मर्द का यह अँगोछा भले ही पत्नी की मौत पर आंसुओं से नहीं भीगा होता, चौथे दिन या किरिया के दिन नहाकर बदन पोंछने के बाद वह अँगोछा पानी से ही भीगा होता है, इस पर साधारण-सी गाँव की रस्म से किसी और लड़की का बाप उठकर जब यह अँगोछा निचोड़ देता है तो जैसे कह रहा होता है... ‘‘उस मरनेवाली की जगह मैं तुम्हें अपनी बेटी देता हूँ और अब तुम्हें रोने की ज़रूरत नहीं, मैंने तुम्हारा आँसुओं भीगा हुआ अँगोछा भी सुखा दिया है।’’
इस तरह प्रभाती का इस अंगूरी के साथ दूसरा विवाह हो गया था। पर एक तो अंगूरी अभी आयु की बहुत छोटी थी, और दूसरे अंगूरी की माँ गठिया के रोग से जुड़ी हुई थी इसलिए भी गौने की बात पाँच सालों पर जा पड़ी थी... फिर एक-एक कर पाँच साल भी निकल गए थे और इस साल जब प्रभाती अपने मालिकों से छु्ट्टी लेकर अपने गाँव गौना लेने गया था तो अपने मालिकों को पहले ही कह गया था कि या तो वह बहू को भी साथ लाएगा और शहर में अपने साथ रखेगा, या फिर वह भी गांव से नहीं लौटेगा। मालिक पहले तो दलील करने लगे थे कि एक प्रभाती की जगह अपनी रसोई में से वे दो जनों की रोटी नहीं देना चाहते थे। पर जब प्रभाती ने यह बात कही कि वह कोठरी के पीछे वाली कच्ची जगह को पोतकर अपना चूल्हा बनाएगी, अपना पकाएगी, अपना खाएगी तो उसके मालिक यह बात मान गये थे। सो अंगूरी शहर आ गयी थी। चाहे अंगूरी ने शहर आकर कुछ दिन मुहल्ले के मर्दों से तो क्या औरतों से भी घूँघट न उठाया था, पर फिर धीरे-धीरे उसका घूँघट झीना हो गया था। वह पैरों में चाँदी के झाँझरें पहनकर छनक-छनक करती मुहल्ले की रौनक बन गयी थी। एक झाँझर उसके पाँवों में पहनी होती, एक उसकी हँसी में। चाहे वह दिन के अधिकरतर हिस्सा अपनी कोठरी में ही रहती थी पर जब भी बाहर निकलती, एक रौनक़ उसके पाँवों के साथ-साथ चलती थी।
‘यह क्या पहना है, अंगूरी ?’’
‘‘यह तो मेरे पैरों की छैल चूड़ी है।’’
‘‘और यह उँगलियों में ?’’
‘‘यह तो बिछुआ है।’’
‘‘और यह बाहों में ?’’
‘‘यह तो पछेला है।’’
‘‘और माथे पर ?’’
‘आलीबन्द कहते हैं इसे।’’
‘‘आज तुमने कमर में कुछ नहीं पहना ?’’
‘‘तगड़ी बहुत भारी लगती है, कल को पहनूंगी। आज तो मैंने तौक भी नहीं पहना। उसका टाँका टूट गया है कल शहर में जाऊँगी, टाँका भी गढ़ाऊँगी और नाक कील भी लाऊँगी। मेरी नाक को नकसा भी था, इत्ता बड़ा, मेरी सास ने दिया नहीं।’’
इस तरह अंगूरी अपने चाँदी के गहने एक नख़रे से पहनती थी, एक नखरे से दिखाती थी।
पीछे जब मौसम फिरा था, अंगूरी का अपनी छोटी कोठरी में दम घुटने लगा था। वह बहुत बार मेरे घर के सामने आ बैठती थी। मेरे घर के आगे नीम के बड़े-बड़े पेड़ हैं, और इन पेड़ों के पास ज़रा ऊँची जगह पर एक पुराना कुआँ है। चाहे मुहल्ले का कोई भी आदमी इस कुएँ से पानी नहीं भरता, पर इसके पार एक सरकारी सड़क बन रही है और उस सड़क के मज़दूर कई बार इस कुएँ को चला लेते हैं जिससे कुएँ के गिर्द अकसर पानी गिरा होता है और यह जगह बड़ी ठण्डी रहती है।
‘‘क्या पढ़ती हो बीबीजी ?’’ एक दिन अंगूरी जब आयी, मैं नीम के पेड़ों के नीचे बैठकर एक किताब पढ़ रही थी।
‘तुम पढ़ोगी ?’’
‘‘मेरे को पढ़ना नहीं आता।’’
‘‘सीख लो।’’
‘‘ना।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘औरतों को पाप लगता है पढ़ने से।’’
‘‘औरतों को पाप लगता है, मर्द को नहीं लगता ?’’
‘‘ना, मर्द को नहीं लगता ?’’
‘‘यह तुम्हें किसने कहा है ?"
‘‘मैं जानती हूँ।’’
"फिर तो मैं पढ़ती हूँ मुझे पाप लगेगा?’’
‘‘सहर की औरत को पाप नहीं लगता, गांव की औरत को पाप लगता
मैं भी हँस पड़ी और अंगूरी भी। अंगूरी ने जो कुछ सीखा-सुना हुआ था, उसमें कोई शंका नहीं थी, इसलिए मैंने उससे कुछ न कहा। वह अगर हँसती-खेलती अपनी जिन्दगी के दायरे में सुखी रह सकती थी, तो उसके लिए यही ठीक था। वैसे मैं अंगूरी के मुँह की ओर ध्यान लगाकर देखती रही। गहरे साँवले रंग में उसके बदन का मांस गुथा हुआ था। कहते हैं- औरत आटे की लोई होती है। पर कइयों के बदन का मांस उस ढीले आटे की तरह होता है जिसकी रोटी कभी भी गोल नहीं बनती, और कइयों के बदन का मांस बिलकुल ख़मीरे आटे जैसा, जिसे बेलने से फैलाया नहीं जा सकता। सिर्फ़ किसी-किसी के बदन का मांस इतना सख़्त गुँथा होता है कि रोटी तो क्या चाहे पूरियाँ बेल लो।... मैं अंगूरी के मुँह की ओर देखती रही, अंगूरी की छाती की ओर, अंगूरी की पिण्डलियों की ओर... वह इतने सख़्त मैदे की तरह गुथी हुई थी कि जिससे मठरियाँ तली जा सकती थीं और मैंने इस अंगूरी का प्रभाती भी देखा हुआ था, ठिगने क़द का, ढलके हुए मुँह का, कसोरे जैसा और फिर अंगूरी के रूप की ओर देखकर उसके ख़ाविन्द के बारे में एक अजीब तुलना सूझी कि प्रभाती असल में आटे की इस घनी गुथी लोई को पकाकर खाने का हक़दार नहीं- वह इस लोई को ढककर रखने वाला कठवत है। इस तुलना से मुझे खुद ही हंसी आ गई। पर मैंने अंगूरी को इस तुलना का आभास नहीं होने देना चाहती थी। इसलिए उससे मैं उसके गाँव की छोटी-छोटी बातें करने लगी।
माँ-बाप की, बहन-भाइयों की, और खेतों-खलिहानों की बातें करते हुए मैंने उससे पूछा, ‘‘अंगूरी, तुम्हारे गांव में शादी कैसे होती है ?’’
‘‘लड़की छोटी-सी होती है। पाँच-सात साल की, जब वह किसी के पाँव पूज लेती है।’’
‘‘कैसे पूजती है पाँव?’’
‘लड़की का बाप जाता है, फूलों की एक थाली ले जाता है, साथ में रुपये, और लड़के के आगे रख देता है।’’
‘‘यह तो एक तरह से बाप ने पाँव पूज लिये। लड़की ने कैसे पूजे ?’’
‘‘लड़की की तरफ़ से तो पूजे।’’
‘‘पर लड़की ने तो उसे देखा भी नहीं?’’
‘‘लड़कियाँ नहीं देखतीं।’’
‘‘लड़कियाँ अपने होने वाला ख़ाविन्द को नहीं देखतीं।’’
‘‘ना’’
‘‘कोई भी लड़की नहीं देखती?’’
‘‘ना’’
पहले तो अंगूरी ने ‘ना’ कर दी पर फिर कुछ सोच-सोचकर कहने लगी, ‘‘जो लड़कियाँ प्रेम करती हैं, वे देखती हैं।’’
‘‘तुम्हारे गाँव में लड़कियाँ प्रेम करती हैं?’’
‘‘कोई-कोई’’
‘‘जो प्रेम करती हैं, उनको पाप नहीं लगता?’’ मुझे असल में अंगूरी की वह बात स्मरण हो आयी थी कि औरत को पढ़ने से पाप लगता है। इसलिए मैंने सोचा कि उस हिसाब से प्रेम करने से भी पाप लगता होगा।
‘‘पाप लगता है, बड़ा पाप लगता है।’’ अंगूरी ने जल्दी से कहा।
‘‘अगर पाप लगता है तो फिर वे क्यों प्रेम करती हैं ?’’
‘‘जे तो...बात यह होती है कि कोई आदमी जब किसी की छोकरी को कुछ खिला देता है तो वह उससे प्रेम करने लग जाती है।’’
‘‘कोई क्या खिला देता है उसको?’’
‘‘एक जंगली बूटी होती है। बस वही पान में डालकर या मिठाई में डाल कर खिला देता है। छोकरी उससे प्रेम करने लग जाती है। फिर उसे वही अच्छा लगता है, दुनिया का और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘सच?’’
‘‘मैं जानती हूँ, मैंने अपनी आँखों से देखा है।’’
‘‘किसे देखा था ?’’
‘‘मेरी एक सखी थी। इत्ती बड़ी थी मेरे से।’
‘‘फिर?’’
‘‘फिर क्या? वह तो पागल हो गयी उसके पीछे। सहर चली गयी उसके साथ।’’
‘‘यह तुम्हें कैसे मालूम है कि तेरी सखी को उसने बूटी खिलाई थी ?’’
‘‘यह तुम्हें कैसे मालूम है कि तेरी सखी को उसने बूटी खिलाई थी ?’’
‘‘बरफी में डालकर खिलाई थी। और नहीं तो क्या, वह ऐसे ही अपने माँ-बाप को छोड़कर चली जाती? वह उसको बहुत चीज़ें लाकर देता था। सहर से धोती लाता था, चूड़ियाँ भी लाता था शीशे की, और मोतियों की माला भी।’’
‘‘ये तो चीज़ें हुईं न! पर यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि उसने जंगली बूटी खिलाई थी!’’
‘‘नहीं खिलाई थी तो फिर वह उसको प्रेम क्यों करने लग गयी?’’
‘‘प्रेम तो यों भी हो जाता है।’’
‘‘नहीं, ऐसे नहीं होता। जिससे माँ-बाप बुरा मान जाएँ, भला उससे प्रेम कैसे हो सकता है ?’’
‘‘तूने वह जंगली बूटी देखी है?’’
‘‘मैंने नहीं देखी। वो तो बड़ी दूर से लाते हैं। फिर छिपाकर मिठाई में डाल देते हैं, या पान में डाल देते हैं। मेरी माँ ने तो पहले ही बता दिया था कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खाना।’’
‘‘तूने बहुत अच्छा किया कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खाई। पर तेरी उस सखी ने कैसे खा ली?’’
‘‘अपना किया पाएगी’’
‘‘किया पाएगी’’ कहने को तो अंगूरी ने कह दिया पर फिर शायद उसे सहेली का स्नेह याद आ गया या तरस आ गया, दुखे मन से कहने लगी, ‘‘बावरी हो गई थी बेचारी! बालों में कंघी भी नहीं लगाती थी। रात को उठ-उठकर गाती थी।’’
‘‘क्या गाती थी?’’
‘‘पता नहीं, क्या गाती थी। जो कोई जड़ी बूटी खा लेती है, बहुत गाती है। रोती भी बहुत है।’’
बात गाने से रोने पर आ पहुँची थी। इसलिए मैंने अंगूरी से और कुछ न पूछा।
और अब थोड़े ही दिनों की बात है। एक दिन अंगूरी नीम के पेड़ के नीचे चुपचाप मेरे पास आ खड़ी हुई। पहले जब अंगूरी आया करती थी तो छन-छन करती, बीस गज़ दूर से ही उसके आने की आवाज़ सुनाई दे जाती थी, पर आज उसके पैरों की झाँझरें पता नहीं कहाँ खोयी हुई थीं। मैंने किताब से सिर उठाया और पूछा, ‘‘क्या बात है, अंगूरी ?’’
अंगूरी पहले कितनी ही देर मेरी ओर देखती रही और फिर धीरे से बोली "मुझे पढना सीखा दो बीबी जी"... और चुपचाप फिर मेरी आँखों में देखने लगी...
लगता है इसने भी जंगली बूटी खा ली...
"क्यूँ अब तुम्हे पाप नहीं लगेगा, अंगूरी"... यह दोपहर की बात थी शाम को जब मैं बाहर आई तो वह वहीं नीम के पेड़ के नीचे बैठी थी और उसके होंठो पर गीत था पर बिलकुल सिसकी जैसा...मेरी मुंदरी में लागो नगीन्वा, हो बैरी कैसे काटूँ जोबनावा ..अंगूरी ने मेरे पैरों की आहट सुन ली और चुप हो गयी...
"तुम तो बहुत मीठा गाती हो... आगे सुनाओ न गा कर"
अंगूरी ने आपने कांपते आंसू वही पलकों में रोक लिए और उदास लफ़्ज़ों में बोली "मुझे गाना नहीं आता है"
"आता तो है"
"यह तो मेरी सखी गाती थी उसी से सुना था"
"अच्छा मुझे भी सुनाओ पूरा"
"ऐसे ही गिनती है बरस की... चार महीने ठंडी होती है, चार महीने गर्मी और चार महीने बरखा"... और उसने बारह महीने का हिसाब ऐसे गिना दिया जैसे वह अपनी उँगलियों पर कुछ गिन रही हो...
"अंगूरी?"
और वह एक टक मेरे चेहरे की तरफ देखने लगी... मन मैं आया की पूछूँ की कहीं तुमने जंगली बूटी तो नहीं खा ली है... पर पूछा की "तुमने रोटी खाई?"
"अभी नहीं"
"सवेरे बनाई थी? चाय पी तुने?"
"चाय? आज तो दूध ही नहीं लिया"
"क्यों नहीं लिया दूध?"
"दूध तो वह रामतारा..."
वह हमारे मोहल्ले का चौकीदार था, पहले वह हमसे चाय ले कर पीता था पर जब से अंगूरी आई थी वह सवेरे कहीं से दूध ले आता था, अंगूरी के चूल्हे पर गर्म कर के चाय बनाता और अंगूरी, प्रभाती और रामतारा तीनो मिल कर चाय पीते... और तभी याद आया की रामतारा तो तीन दिन से अपने गांव गया हुआ है।
मुझे दुखी हुई हंसी आई और कहा कि क्या तूने तीन दिन से चाय नही पी है?
"ना"
"और रोटी भी नहीं खायी है न"
अंगूरी से कुछ बोला न गया... बस आँखों में उदासी भरे वही खड़ी रही...
मेरी आँखों के सामने रामतारे की आकृति घूम गयी... बड़े फुर्तीले हाथ पांव, अच्छा बोलने, पहनने का सलीका था।
"अंगूरी... कहीं जंगली बूटी तो नहीं खा ली तूने?"
अंगूरी के आंसू बह निकले और गीले अक्षरों से बोली मैंने तो सिर्फ चाय पी थी... कसम लगे न कभी उसके हाथ से पान खाया, न मिठाई... सिर्फ चाय... जाने उसने चाय में ही... और अंगूरी की बाकी आवाज़ आंसुओ में डूब गयी।