फ़िरदौस ख़ान
गुर्दे की पथरी अब एक आम मर्ज़ हो गया है. पथरी की वजह से नाक़ाबिले बर्दाश्त दर्द होता है. पेशाब में जलन होती है. इसकी वजह से गुर्दों को नुक़सान हो सकता है. 
चिकित्सकों के मुताबिक़ पेशाब में कैल्शियम, ऑक्सालेट, यूरिक एसिड और सिस्टीन जैसे पदार्थ इकट्ठे होकर  क्रिस्टल बन जाते हैं. फिर ये क्रिस्टल गुर्दे से जुड़कर रफ़्ता-रफ़्ता पथरी का रूप इख़्तियार कर लेते हैं. इनमें 80 फ़ीसद पथरी कैल्शियम से बनी होती है और कुछ पथरी कैल्शियम ऑक्सालेट और कुछ कैल्शियम फ़ॉस्फ़ेट से बनी होती हैं. बाक़ी पथरी यूरिक एसिड, संक्रमण और सिस्टीन से बनी होती हैं.
पथरी के कई इलाज हैं. आज हम कुछ ऐसे इलाज के बारे में बता रहे हैं, जिनसे लोगों को पथरी से निजात मिली है. 
पथरी के मरीज़ को कितने दिन में इससे निजात मिलती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि गुर्दे में कितनी और किस आकार की पथरियां हैं. इसके साथ ही परहेज़ भी बहुत मायने रखता है. मसलन पथरी के मरीज़ को कैल्शियम और आयरन से बनी चीज़ें कम कर देनी चाहिए. इसके साथ ही पानी ज़्यादा से ज़्यादा पीना चाहिए. 
ज़ैतून, शहद और नींबू  
एक गिलास पानी में एक चम्मच ज़ैतून का तेल, एक चम्मच शहद और एक नींबू का रस मिलाकर रोज़ पीने से पथरी टूटकर पेशाब के साथ जिस्म से बाहर निकल जाती है.
खीरा 
देसी खीरा पथरी के मरीज़ के लिए बहुत फ़ायदेमंद है. छिलके समेत देसी खीरा ज़्यादा से ज़्यादा खाना चाहिए. इससे भी पथरी टूटकर पेशाब के साथ बाहर निकल जाती है.
मूली
मूली भी पथरी के मरीज़ के लिए बहुत फ़ायदेमंद है. सब्ज़ी या सलाद के रूप में ज़्यादा से ज़्यादा मूली खानी चाहिए. इससे भी पथरी टूटकर पेशाब के साथ बाहर निकल जाती है.
सोडा 
सोडा भी पथरी के मरीज़ के लिए बहुत ही फ़ायदेमंद है. लगातार सोडा पीने से पथरी टूटकर पेशाब के साथ बाहर निकल जाती है.
अब बात करते हैं होम्योपैथी दवा की. Berberis Vulgaris Mother Tincture Q की पांच-पांच बूंदें दिन में तीन बार लेने से पथरी टूटकर पेशाब के साथ जिस्म से बाहर निकल जाती है. 
ज़्यादा परेशानी होने पर चिकित्सक से परामर्श लें. 


फ़िरदौस ख़ान  
हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के दर्द से परेशान है. किसी के पूरे जिस्म में दर्द है, किसी की पीठ में दर्द है, किसी के घुटनों में दर्द है और किसी के हाथ-पैरों में दर्द है. हालांकि दर्द की कई वजहें होती हैं. इनमें से एक वजह यूरिक एसिड भी है.  

दरअसल, यूरिक एसिड एक अपशिष्ट पदार्थ है, जो खाद्य पदार्थों के पाचन से पैदा होता है और इसमें प्यूरिन होता है. जब प्यूरिन टूटता है, तो उससे यूरिक एसिड बनता है. किडनी यूरिक एसिड को फ़िल्टर करके इसे पेशाब के ज़रिये जिस्म से बाहर निकाल देती है. जब कोई व्यक्ति अपने खाने में ज़्यादा मात्रा में प्यूरिक का इस्तेमाल करता है, तो उसका जिस्म यूरिक एसिड को उस तेज़ी से जिस्म से बाहर नहीं निकाल पाता. इस वजह से जिस्म में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ने लगती है. ऐसी हालत में यूरिक एसिड ख़ून के ज़रिये पूरे जिस्म में फैलने लगता है और यूरिक एसिड के क्रिस्टल जोड़ों में जमा हो जाते हैं, जिससे जोड़ों में सूजन आ जाती है. इसकी वजह से गठिया भी हो जाता है. जिस्म में असहनीय दर्द होता है. इससे किडनी में पथरी भी हो जाती है. इसकी वजह से पेशाब संबंधी बीमारियां पैदा हो जाती हैं. मूत्राशय में असहनीय दर्द होता है और पेशाब में जलन होती है. पेशाब बार-बार आता है. यह यूरिक एसिड स्वस्थ व्यक्ति को बीमार कर देता है. 

यूरिक एसिड से बचने के लिए अपने खान-पान पर ख़ास तवज्जो दें. दाल पकाते वक़्त उसमें से झाग निकाल दें. कोशिश करें कि दाल कम इस्तेमाल करें. बिना छिलकों वाली दालों का इस्तेमाल करना बेहतर है. रात के वक़्त दाल, चावल और दही आदि खाने से परहेज़ करें. हो सके तो फ़ाइबर से भरपूर खाद्य पदार्थों का सेवन करें.  
जौ 
यूरिक एसिड से निजात पाने के लिए जौ का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करें. जौ की ख़ासियत है कि यह यूरिक एसिड को सोख लेता है और उसे जिस्म से बाहर करने में कारगर है. इसलिए जौ को अपने रोज़मर्रा के खाने में ज़रूर शामिल करें. गर्मियों के मौसम में जौ का सत्तू पी सकते हैं, जौ का दलिया बना सकते हैं, जौ के आटे की रोटी बनाई जा सकती है.
ज़ीरा
यूरिक एसिड के मरीज़ों के लिए ज़ीरा भी बहुत फ़ायदेमंद है. ज़ीरे में आयरन, कैल्शियम, ज़िंक और फ़ॉस्फ़ोरस पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं. इसके अलावा इसमें एंटीऑक्सीडेंट उच्च मात्रा में मौजूद होता है, जो यूरिक एसिड की वजह से होने वाले जोड़ों के दर्द और सूजन को कम करता है. यह टॉक्सिंस को जिस्म से बाहर करने में भी मददगार है.
नींबू
नींबू में मौजूद साइट्रिक एसिड शरीर में यूरिक एसिड के स्तर को बढ़ने से रोकता है.  
ज़्यादा परेशानी होने पर चिकित्सक से परामर्श लें. 
   

 

फ़िरदौस ख़ान
शुगर एक ऐसा मर्ज़ है, जिससे व्यक्ति की ज़िन्दगी बहुत बुरी तरह प्रभावित हो जाती है. वह अपनी पसंद की मिठाइयां, फल, आलू, अरबी और कई तरह की दूसरी चीज़ें नहीं खा पाता. इसके साथ ही उसे तरह-तरह की दवाएं भी खानी पड़ती हैं. दवा कोई भी नहीं खाना चाहता, जिसे मजबूरन खानी पड़ती हैं, इससे उसका ज़ायक़ा ख़राब हो जाता है. इससे व्यक्ति और ज़्यादा परेशान हो जाता है. पिछले कई दिनों से हम शुगर के रूहानी और घरेलू इलाज के बारे में अध्ययन कर रहे हैं. हमने शुगर के कई मरीज़ों से बात की. इनमें ऐसे लोग भी शामिल थे, जो महंगे से महंगा इलाज कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद उन्हें कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ. कई ऐसे लोग भी मिले, जिन्होंने घरेलू इलाज किया और बेहतर महसूस कर रहे हैं. शुगर के मरीज़ डॉक्टरों से दवा तो लेते ही हैं. लेकिन हम आपको ऐसे इलाज के बारे में बताएंगे, जिससे मरीज़ को दवा की ज़रूरत ही नहीं रहती.
पहला इलाज है जामुन
जी हां, जामुन शुगर का सबसे बेहतरीन इलाज है. अमूमन सभी पद्धतियों की शुगर की दवाएं जामुन से बनाई जाती हैं. बरसात के मौसम में जामुन ख़ूब आती हैं. इस मौसम में दरख़्त जामुन से लदे रहते हैं. जब तक मौसम रहे, शुगर के मरीज़ ज़्यादा से ज़्यादा जामुन खाएं. साथ ही जामुन की गुठलियों को धोकर, सुखाकर रख लें. क्योंकि जब जामुन का मौसम न रहे, तब इन गुठलियों को पीसकर सुबह ख़ाली पेट एक छोटा चम्मच इसका चूर्ण फांक लें. जामुन की चार-पांच पत्तियां सुबह और शाम खाने से भी शुगर कंट्रोल में रहती है. जामुन के पत्ते सालभर आसानी से मिल जाते हैं. जिन लोगों के घरों के आसपास जामुन के पेड़ न हों, तो वे जामुन के पत्ते मंगा कर उन्हें धोकर सुखा लें. फिर इन्हें पीस लें और इस्तेमाल करें. इसके अलावा मिट्टी के मटके में जामुन की छोटी-छोटी कुछ टहनियां डाल दें और उसका पानी पिएं. इससे भी फ़ायदा होगा.   
दूसरा इलाज है नीम
नीम की सात-आठ हरी मुलायम पत्तियां सुबह ख़ाली पेट चबाने से शुगर कंट्रोल में रहती है. ध्यान रहे कि नीम की पत्तियां खाने के दस-पंद्रह मिनट बाद नाश्ता ज़रूर कर लें. नीम की पत्तियां आसानी से मिल जाती हैं.
तीसरा इलाज है अमरूद 
 रात में अमरूद के दो-तीन पत्तों को धोकर कूट लें. फिर कांच या चीनी मिट्टी के बर्तन में भिगोकर रख दें. ध्यान रहे कि बर्तन धातु का न हो. सुबह ख़ाली पेट इसे पीने से शुगर कंट्रोल में रहती हैं.
ये तीनों इलाज ऐसे हैं, जो आसानी से मुहैया हैं. शुगर का कोई भी मरीज़ इन्हें अपनाकर राहत पा सकता है. इन तीनों में से कोई भी इलाज करने के एक माह के बाद शुगर का टेस्ट करा लेने से मालूम हो जाएगा कि इससे कितना फ़ायदा हुआ है.


फ़िरदौस ख़ान
हर भाषा की अपनी अहमियत होती है। फिर भी मातृभाषा हमें सबसे प्यारी होती है, क्योंकि उसी ज़ुबान में हम बोलना सीखते हैं। बच्चा सबसे पहले मां ही बोलता है। इसलिए भी मां बोली हमें सबसे अज़ीज़ होती है। लेकिन देखने में आता है कि कुछ लोग जिस भाषा के सहारे ज़िन्दगी बसर करते हैं, यानी जिस भाषा में लोगों से संवाद क़ायम करते हैं, उसी को 'तुच्छ' समझते हैं। बार-बार अपनी मातृभाषा का अपमान करते हुए अंग्रेजी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हैं। हिन्दी के साथ ऐसा सबसे ज़्यादा हो रहा है। वे लोग जिनके पुरखे अंग्रेजी का 'ए' नहीं जानते थे, वे भी हिन्दी को गरियाते हुए मिल जाएंगे। हक़ीक़त में ऐसे लोगों को न तो ठीक से हिन्दी आती है और न ही अंग्रेजी। दरअसल, वह तो हिन्दी को गरिया कर अपनी 'कुंठा' का 'सार्वजनिक प्रदर्शन' करते रहते हैं।

अंग्रेजी भी अच्छी भाषा है। इंसान को अंग्रेजी ही नहीं, दूसरी देसी-विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए। इल्म हासिल करना तो अच्छी बात है, लेकिन अपनी मातृभाषा की क़ुर्बानी देकर किसी दूसरी भाषा को अपनाए जाने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। यह अफ़सोस की बात है कि हमारे देश में हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की लगातार अनदेखी की जा रही है। हालत यह है कि अब तो गांव-देहात में भी अंग्रेज़ी का चलन बढ़ने लगा है। पढ़े-लिखे लोग अपनी मातृभाषा में बात करना पसंद नहीं करते, उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो गंवार कहलाएंगे। क्या अपनी संस्कृति की उपेक्षा करने को सभ्यता की निशानी माना जा सकता है, क़तई नहीं। हमें ये बात अच्छे से समझनी होगी कि जब तक हिन्दी भाषी लोग ख़ुद हिन्दी को सम्मान नहीं देंगे, तब तक हिन्दी को वो सम्मान नहीं मिल सकता, जो उसे मिलना चाहिए।

देश को आज़ाद हुए साढ़े सात दशक बीत चुके हैं। इसके बावजूद अभी तक हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा हासिल नहीं हो पाया है। यह बात अलग है कि हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस पर कार्यक्रमों का आयोजन कर रस्म अदायगी कर ली जाती है। हालत यह है कि कुछ लोग तो अंग्रेज़ी में भाषण देकर हिन्दी की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाने से भी नहीं चूकते।

हमारे देश भारत में बहुत सी भाषायें और बोलियां हैं। इसलिए यहां यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी। भारतीय संविधान में भारत की कोई राष्ट्र भाषा नहीं है। हालांकि केन्द्र सरकार ने 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया है। इसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार अपने राज्य के मुताबिक़ किसी भी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में चुन सकती है। केन्द्र सरकार ने अपने काम के लिए हिन्दी और रोमन भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह दी है। इसके अलावा राज्यों ने स्थानीय भाषा के मुताबिक़ आधिकारिक भाषाओं को चुना है। इन 22 आधिकारिक भाषाओं में असमी, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संतली, सिंधी, तमिल, तेलुगू, बोड़ो, डोगरी, बंगाली और गुजराती शामिल हैं।

ग़ौरतलब है कि संवैधानिक रूप से हिन्दी भारत की प्रथम राजभाषा है। यह देश की सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। स्टैटिस्टा के मुताबिक़ दुनियाभर में हिन्दी भाषा तेज़ी से बढ़ रही है। साल 1900 से 2021 के दौरान इसकी रफ़्तार 175.52 फ़ीसदी रही, जो अंग्रेज़ी की रफ़्तार 380.71 फ़ीसदी के बाद सबसे ज़्यादा है। अंग्रेज़ी और मंदारिन भाषा के बाद हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। साल 1961 में ही हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा बन गई। उस वक़्त दुनियाभर में 42.7 करोड़ लोग हिन्दी बोलते थे। साल 2021 में यह तादाद बढ़कर 117 करोड़ हो गई। इनमें से 53 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिन्दी है। हालत यह है कि हिन्दी अब शीर्ष 10 कारोबारी भाषाओं में शामिल है। इतना ही नहीं दुनियाभर के 10 सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अख़बारों में शीर्ष-6 हिन्दी के अख़बार हैं। भारत के अलावा 260 से ज़्यादा विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। विदेशों में 28 हज़ार से ज़्यादा शिक्षण संस्थान हिन्दी भाषा सिखा रहे हैं। हिन्दी का व्याकरण सर्वाधिक वैज्ञानिक माना जाता है। हिन्दी का श्ब्द भंडार भी बहुत विस्तृत है। अंग्रेज़ी में जहां 10 हज़ार शब्द हैं, वहीं हिन्दी में इसकी तादाद अढ़ाई लाख बताई जाती है। हिन्दी मुख्यतः देवनागरी में लिखी जाती है, लेकिन अब इसे रोमन में भी लिखा जाने लगा है। मोबाइल संदेश और इंटरनेट से हिन्दी को काफ़ी बढ़ावा मिल रहा है। सोशल मीडिया पर भी हिन्दी का ख़ूब चलन है। गूगल पर  हिन्दी के 10 लाख करोड़ से ज़्यादा पन्ने मौजूद हैं।

देश में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा होने के बाद भी हिन्दी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन पाई है। हिन्दी हमारी राजभाषा है। राष्ट्रीय और आधिकारिक भाषा में काफ़ी फ़र्क़ है। जो भाषा किसी देश की जनता, उसकी संस्कृति और इतिहास को बयान करती है, उसे राष्ट्रीय या राष्ट्रभाषा भाषा कहते हैं। मगर जो भाषा कार्यालयों में उपयोग में लाई जाती है, उसे आधिकारिक भाषा कहा जाता है। इसके अलावा अंग्रेज़ी को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है।

संविधान के अनुचछेद-17 में इस बात का ज़िक्र है कि आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा नहीं माना जा सकता है। भारत के संविधान के मुताबिक़ देश की कोई भी अधिकृत राष्ट्रीय भाषा नहीं है। यहां 23 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के तौर पर मंज़ूरी दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 344 (1) और 351 के मुताबिक़ भारत में अंग्रेज़ी सहित 23 भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें आसामी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। ख़ास बात यह भी है कि राष्ट्रीय भाषा तो आधिकारिक भाषा बन जाती है, लेकिन आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए क़ानूनी तौर पर मंज़ूरी लेना ज़रूरी है। संविधान में यह भी कहा गया है कि यह केंद्र का दायित्व है कि वह हिन्दी के विकास के लिए निरंतर प्रयास करे। विभिन्नताओं से भरे भारतीय परिवेश में हिन्दी को जनभावनाओं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया जाए।


भारतीय संविधान के मुताबिक़ कोई भी भाषा, जिसे देश के सभी राज्यों द्वारा आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया गया हो, उसे राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाता है। मगर हिन्दी इन मानकों को पूरा नहीं कर पा रही है, क्योंकि देश के सिर्फ़ 10 राज्यों ने ही इसे आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया है, जिनमें बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल है। इन राज्यों में उर्दू को सह-राजभाषा का दर्जा दिया गया है। उर्दू जम्मू-कश्मीर की राजभाषा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में हिन्दी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है। संविधान के लिए अनुच्छेद 351 के तहत हिन्दी के विकास के लिए विशेष प्रावधान किया गया है।

ग़ौरतलब है कि देश में 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ था। देश में हिन्दी और अंग्रेज़ी सहित 18 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है, जबकि यहां क़रीब 800 बोलियां बोली जाती हैं। दक्षिण भारत के राज्यों ने स्थानीय भाषाओं को ही अपनी आधिकारिक भाषा बनाया है। दक्षिण भारत के लोग अपनी भाषाओं के प्रति बेहद लगाव रखते हैं, इसके चलते वे हिन्दी का विरोध करने से भी नहीं चूकते। साल 1940-1950 के दौरान दक्षिण भारत में हिन्दी के ख़िलाफ़ कई अभियान शुरू किए गए थे। उनकी मांग थी कि हिन्दी को देश की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा न दिया जाए।

संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर, 1949 को सर्वसम्मति से हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया था। तब से केन्द्रीय सरकार के देश-विदेश स्थित समस्त कार्यालयों में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के मुताबिक़ भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपी देवनागरी होगी। साथ ही अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप यानी 1, 2, 3, 4 आदि होगा। संसद का काम हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में किया जा सकता है, मगर राज्यसभा या लोकसभा के अध्यक्ष विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। संविधान के अनुच्छोद 120 के तहत किन प्रयोजनों के लिए केवल हिन्दी का इस्तेमाल किया जाना है, किनके लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं का इस्तेमाल ज़रूरी है और किन कार्यों के लिए अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल किया जाना है। यह राजभाषा अधिनियम-1963, राजभाषा अधिनियम-1976 और उनके तहत समय-समय पर राजभाषा विभाग गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए दिशा-निर्देशों द्वारा निर्धारित किया गया है।

पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण अंग्रेज़ी भाषा हिन्दी पर हावी होती जा रही है। अंग्रेज़ी को स्टेट्स सिंबल के तौर पर अपना लिया गया है। लोग अंग्रेज़ी बोलना शान समझते हैं, जबकि हिन्दी भाषी व्यक्ति को पिछड़ा समझा जाने लगा है। हैरानी की बात तो यह भी है कि देश की लगभग सभी बड़ी प्रतियोगी परीक्षाएं अंग्रेज़ी में होती हैं। इससे हिन्दी भाषी योग्य प्रतिभागी इसमें पिछड़ जाते हैं। अगर सरकार हिन्दी भाषा के विकास के लिए गंभीर है, तो इस भाषा को रोज़गार की भाषा बनाना होगा। आज अंग्रेज़ी रोज़गार की भाषा बन चुकी है। अंग्रेज़ी बोलने वाले लोगों को नौकरी आसानी से मिल जाती है। इसलिए लोग अंग्रेज़ी के पीछे भाग रहे हैं। आज छोटे क़स्बों तक में अंग्रेज़ी सिखाने की 'दुकानें' खुल गई हैं। अंग्रेज़ी भाषा नौकरी की गारंटी और योग्यता का 'प्रमाण' बन चुकी है। अंग्रेज़ी शासनकाल में अंग्रेज़ों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अंग्रेज़ियत को बढ़ावा दिया था, मगर आज़ाद देश में मैकाले की शिक्षा पध्दति को क्यों ढोया जा रहा है, यह समझ से परे है।

हिन्दी के विकास में हिन्दी साहित्य के अलावा हिन्दी पत्रकारिता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसके अलावा हिन्दी सिनेमा ने भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा दिया है। मगर अब सिनेमा की भाषा भी 'हिन्गलिश' होती जा रही है। छोटे पर्दे पर आने वाले धारावाहिकों में ही बिना वजह अंग्रेज़ी के वाक्य ठूंस दिए जाते हैं। हिन्दी सिनेमा में काम करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाने वाले कलाकार भी हर जगह अंग्रेज़ी में ही बोलते नज़र आते हैं। आख़िर क्यों हिन्दी को इतनी हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।

अधिकारियों का दावा है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है, मगर देश में हिन्दी की जो हालत है, वो जगज़ाहिर है। साल में एक दिन को ‘हिन्दी दिवस’ के तौर पर मना लेने से हिन्दी का भला होने वाला नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए ज़मीनी स्तर पर ईमानदारी से काम किया जाए। 

रूस में अपनी मातृभाषा भूलना बहुत बड़ा शाप माना जाता है। एक महिला दूसरी महिला को कोसते हुए कहती है- अल्लाह, तुम्हारे बच्चों को उनकी मां की भाषा से वंचित कर दे। अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उनसे महरूम कर दे, जो उन्हें उनकी ज़ुबान सिखा सकता हों। नहीं, अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी ज़ुबान सिखा सकते हों। मगर पहा़डों में तो किसी तरह के शाप के बिना भी उस आदमी की कोई इज्ज़त नहीं रहती, जो अपनी ज़ुबान की इज्ज़त नहीं करता। पहाड़ी मां विकृत भाषा में लिखी अपने बेटे की कविताएं नहीं पढ़ेगी। रूस के प्रसिद्ध लेखक रसूल हमज़ातोव ने अपनी किताब मेरा दाग़िस्तान में ऐसे कई क़िस्सों का ज़िक्र किया है, जो मातृभाषा से जुड़े हैं। कैस्पियन सागर के पास काकेशियाई पर्वतों की ऊंचाइयों पर बसे दाग़िस्तान के एक छोटे से गांव त्सादा में जन्मे रसूल हमज़ातोव को अपने गांव, अपने प्रदेश, अपने देश और उसकी संस्कृति से बेहद लगाव रहा है। मातृभाषा की अहमियत का ज़िक्र करते हुए ‘मेरा दाग़िस्तान’ में वह लिखते हैं, मेरे लिए विभिन्न जातियों की भाषाएं आकाश के सितारों के समान हैं। मैं नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेने वाले अतिकाय सितारे में मिल जाएं। इसके लिए सूरज है, मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए। हर व्यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए। मैं अपने सितारे अपनी अवार मातृभाषा को प्यार करता हूं। मैं उन भूतत्वेत्ताओं पर विश्वास करता हूं, जो यह कहते हैं कि छोटे-से पहाड़ में भी बहुत-सा सोना हो सकता है।

एक बेहद दिलचस्प वाक़िये के बारे में वह लिखते हैं, किसी बड़े शहर मास्को या लेनिनग्राद में एक लाक घूम रहा था। अचानक उसे दाग़िस्तानी पोशाक पहने एक आदमी दिखाई दिया। उसे तो जैसे अपने वतन की हवा का झोंका-सा महसूस हुआ, बातचीत करने को मन ललक उठा। बस भागकर हमवतन के पास गया और लाक भाषा में उससे बात करने लगा। इस हमवतन ने उसकी बात नहीं समझी और सिर हिलाया। लाक ने कुमीक, फिर तात और लेज़गीन भाषा में बात करने की कोशिश की। लाक ने चाहे किसी भी ज़बान में बात करने की कोशिश क्यों न की, दाग़िस्तानी पोशाक में उसका हमवतन बातचीत को आगे न बढ़ा सका। चुनांचे रूसी भाषा का सहारा लेना पड़ा। तब पता चला कि लाक की अवार से मुलाक़ात हो गई थी। अवार अचानक ही सामने आ जाने वाले इस लाक को भला-बुरा कहने और शर्मिंदा करने लगा। तुम भी कैसे दाग़िस्तानी, कैसे हमवतन हो, अगर अवार भाषा ही नहीं जानते, तुम दाग़िस्तानी नहीं, मूर्ख ऊंट हो। इस मामले में मैं अपने अवार भाई के पक्ष में नहीं हूं। बेचारे लाक को भला-बुरा कहने का उसे कोई हक़ नहीं था। अवार भाषा की जानकारी हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। अहम बात यह है कि उसे अपनी मातृभाषा, लाक भाषा आनी चाहिए। वह तो दूसरी कई भाषाएं जानता था, जबकि अवार को वे भाषाएं नहीं आती थीं।

अबूतालिब एक बार मास्को में थे। सड़क पर उन्हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्यकता हुई। शायद यही कि मंडी कहां है? संयोग से कोई अंग़्रेज़ ही उनके सामने आ गया। इसमें हैरानी की तो कोई बात नहीं। मास्को की सड़कों पर तो विदेशियों की कोई कमी नहीं है।

अंग्रेज़ अबूतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेज़ी, फिर फ्रांसीसी, स्पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछताछ करने लगा। अबूतालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेज़गीन, दार्ग़िन और कुमीक भाषाओं में अपनी बात को समझाने की कोशिश की। आख़िर एक-दूसरे को समझे बिना वे दोनों अपनी-अपनी राह चले गए। एक बहुत ही सुसंस्कृत दाग़िस्तानी ने जो अंग्रेज़ी भाषा के ढाई शब्द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा-देखो संस्कृति का क्या महत्व है। अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्कृत होते तो अंग्रेज़ से बात कर पाते। समझे न? समझ रहा हूं। अबूतालिब ने जवाब दिया। मगर अंग्रेज़ को मुझसे अधिक सुसंस्कृत कैसे मान लिया जाए? वह भी तो उनमें से एक भी ज़ुबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की?

रसूल हमज़ातोव लिखते हैं, एक बार पेरिस में एक दाग़िस्तानी चित्रकार से मेरी भेंट हुई। क्रांति के कुछ ही समय बाद वह पढ़ने के लिए इटली गया था, वहीं एक इतावली लड़की से उसने शादी कर ली और अपने घर नहीं लौटा। पहाड़ों के नियमों के अभ्यस्त इस दाग़िस्तानी के लिए अपने को नई मातृभूमि के अनुरूप ढालना मुश्किल था। वह देश-देश में घूमता रहा, उसने दूर-दराज़ के अजनबी मुल्कों की राजधानियां देखीं, मगर जहां भी गया, सभी जगह घर की याद उसे सताती रही। मैंने यह देखना चाहा कि रंगों के रूप में यह याद कैसे व्यक्त हुई है। इसलिए मैंने चित्रकार से अपने चित्र दिखाने का अनुरोध किया। एक चित्र का नाम ही था मातृभूमि की याद। चित्र में इतावली औरत (उसकी पत्नी) पुरानी अवार पोशाक में दिखाई गई थी। वह होत्सातल के मशहूर कारीगरों की नक़्क़ाशी वाली चांदी की गागर लिए एक पहाड़ी चश्मे के पास खड़ी थी। पहाड़ी ढाल पर पत्थरों के घरों वाला उदास-सा अवार गांव दिखाया गया था और गांव के ऊपर पहाड़ी चोटियां कुहासे में लिपटी हुई थीं। पहाड़ों के आंसू ही कुहासा है-चित्रकार ने कहा, वह जब ढालों को ढंक देता है, तो चट्टानों की झुर्रियों पर उजली बूंदें बहने लगती हैं। मैं कुहासा ही हूं। दूसरे चित्र में मैंने कंटीली जंगली झाड़ी में बैठा हुआ एक पक्षी देखा। झाड़ी नंगे पत्थरों के बीच उगी हुई थी। पक्षियों को गाता हुआ दिखाया गया था और पहाड़ी घर की खिड़की से एक उदास पहाडिन उसकी तरफ़ देख रही थी। चित्र में मेरी दिलचस्पी देखकर चित्रकार ने स्पष्ट किया-यह चित्र पुरानी अवार की किंवदंती के आधार पर बनाया गया है।
किस किंवदंती के आधार पर?
एक पक्षी को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया। बंदी पक्षी दिन-रात एक ही रट लगाए रहता था-मातृभूमि, मेरी मातृभूमि, मातृभूमि… बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि इन तमाम सालों के दौरान मैं भी यह रटता रहा हूं। पक्षी के मालिक ने सोचा, जाने कैसी है उसकी मातृभूमि, कहां है? अवश्य ही वह कोई फलता-फूलता हुआ बहुत ही सुन्दर देश होगा, जिसमें स्वार्गिक वृक्ष और स्वार्गिक पक्षी होंगे। तो मैं इस परिन्दे को आज़ाद कर देता हूं, और फिर देखूंगा कि वह किधर उड़कर जाता है। इस तरह वह मुझे उस अद्भुत देश का रास्ता दिखा देगा। उसने पिंजरा खोल दिया और पक्षी बाहर उड़ गया। दस एक क़दम की दूरी पर वह नंगे पत्थरों के बीच उगी जंगली झाड़ी में जा बैठा। इस झाड़ी की शाख़ाओं पर उसका घोंसला था। अपनी मातृभूमि को मैं भी अपने पिंजरे की खिड़की से ही देखता हूं। चित्रकार ने अपनी बात ख़त्म की।

तो आप लौटना क्यों नहीं चाहते?
देर हो चुकी है। कभी मैं अपनी मातृभूमि से जवान और जोशीला दिल लेकर आया था। अब मैं उसे सिर्फ़ बूढ़ी हड्डियां कैसे लौटा सकता हूं?
रसूल हमज़ातोव ने अपनी कविताओं में भी अपनी मातृभाषा का गुणगान किया है। अपनी एक कविता में वह कहते हैं-
मैंने तो अपनी भाषा को सदा हृदय से प्यार किया है
हमें भी अपनी मातृ भाषा के प्रति अपने दिल में यही जज़्बा पैदा करना होगा।
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं)





अमृता प्रीतम
अंगूरी, मेरे पड़ोसियों के पड़ोसियों के पड़ोसियों के घर, उनके बड़े ही पुराने नौकर की बिल्कुल नई बीवी है। एक तो नई इस बात से कि वह अपने पति की दूसरी बीवी है, सो उसका पति ‘दुहाजू’ हुआ। जू का मतलब अगर ‘जून’ हो तो इसका मतलब निकला ‘दूसरी जून में पड़ा चुका आदमी’, यानी दूसरे विवाह की जून में, और अंगूरी क्योंकि अभी विवाह की पहली जून में ही है, यानी पहली विवाह की जून में, इसलिए नई हुई। और दूसरे वह इस बात से भी नई है कि उसका गौना आए अभी जितने महीने हुए हैं, वे सारे महीने मिलकर भी एक साल नहीं बनेंगे।
पाँच-छह साल हुए, प्रभाती जब अपने मालिकों से छुट्टी लेकर अपनी पहली पत्नी की ‘किरिया’ करने के लिए गाँव गया था, तो कहते हैं कि किरिया वाले दिन इस अंगूरी के बाप ने उसका अंगोछा निचोड़ दिया था। किसी भी मर्द का यह अँगोछा भले ही पत्नी की मौत पर आंसुओं से नहीं भीगा होता, चौथे दिन या किरिया के दिन नहाकर बदन पोंछने के बाद वह अँगोछा पानी से ही भीगा होता है, इस पर साधारण-सी गाँव की रस्म से किसी और लड़की का बाप उठकर जब यह अँगोछा निचोड़ देता है तो जैसे कह रहा होता है... ‘‘उस मरनेवाली की जगह मैं तुम्हें अपनी बेटी देता हूँ और अब तुम्हें रोने की ज़रूरत नहीं, मैंने तुम्हारा आँसुओं भीगा हुआ अँगोछा भी सुखा दिया है।’’
इस तरह प्रभाती का इस अंगूरी के साथ दूसरा विवाह हो गया था। पर एक तो अंगूरी अभी आयु की बहुत छोटी थी, और दूसरे अंगूरी की माँ गठिया के रोग से जुड़ी हुई थी इसलिए भी गौने की बात पाँच सालों पर जा पड़ी थी... फिर एक-एक कर पाँच साल भी निकल गए थे और इस साल जब प्रभाती अपने मालिकों से छु्ट्टी लेकर अपने गाँव गौना लेने गया था तो अपने मालिकों को पहले ही कह गया था कि या तो वह बहू को भी साथ लाएगा और शहर में अपने साथ रखेगा, या फिर वह भी गांव से नहीं लौटेगा। मालिक पहले तो दलील करने लगे थे कि एक प्रभाती की जगह अपनी रसोई में से वे दो जनों की रोटी नहीं देना चाहते थे। पर जब प्रभाती ने यह बात कही कि वह कोठरी के पीछे वाली कच्ची जगह को पोतकर अपना चूल्हा बनाएगी, अपना पकाएगी, अपना खाएगी तो उसके मालिक यह बात मान गये थे। सो अंगूरी शहर आ गयी थी। चाहे अंगूरी ने शहर आकर कुछ दिन मुहल्ले के मर्दों से तो क्या औरतों से भी घूँघट न उठाया था, पर फिर धीरे-धीरे उसका घूँघट झीना हो गया था। वह पैरों में चाँदी के झाँझरें पहनकर छनक-छनक करती मुहल्ले की रौनक बन गयी थी। एक झाँझर उसके पाँवों में पहनी होती, एक उसकी हँसी में। चाहे वह दिन के अधिकरतर हिस्सा अपनी कोठरी में ही रहती थी पर जब भी बाहर निकलती, एक रौनक़ उसके पाँवों के साथ-साथ चलती थी।
‘यह क्या पहना है, अंगूरी ?’’
‘‘यह तो मेरे पैरों की छैल चूड़ी है।’’
‘‘और यह उँगलियों में ?’’
‘‘यह तो बिछुआ है।’’
‘‘और यह बाहों में ?’’
‘‘यह तो पछेला है।’’
‘‘और माथे पर ?’’
‘आलीबन्द कहते हैं इसे।’’
‘‘आज तुमने कमर में कुछ नहीं पहना ?’’
‘‘तगड़ी बहुत भारी लगती है, कल को पहनूंगी। आज तो मैंने तौक भी नहीं पहना। उसका टाँका टूट गया है कल शहर में जाऊँगी, टाँका भी गढ़ाऊँगी और नाक कील भी लाऊँगी। मेरी नाक को नकसा भी था, इत्ता बड़ा, मेरी सास ने दिया नहीं।’’
इस तरह अंगूरी अपने चाँदी के गहने एक नख़रे से पहनती थी, एक नखरे से दिखाती थी।
पीछे जब मौसम फिरा था, अंगूरी का अपनी छोटी कोठरी में दम घुटने लगा था। वह बहुत बार मेरे घर के सामने आ बैठती थी। मेरे घर के आगे नीम के बड़े-बड़े पेड़ हैं, और इन पेड़ों के पास ज़रा ऊँची जगह पर एक पुराना कुआँ है। चाहे मुहल्ले का कोई भी आदमी इस कुएँ से पानी नहीं भरता, पर इसके पार एक सरकारी सड़क बन रही है और उस सड़क के मज़दूर कई बार इस कुएँ को चला लेते हैं जिससे कुएँ के गिर्द अकसर पानी गिरा होता है और यह जगह बड़ी ठण्डी रहती है।
‘‘क्या पढ़ती हो बीबीजी ?’’ एक दिन अंगूरी जब आयी, मैं नीम के पेड़ों के नीचे बैठकर एक किताब पढ़ रही थी।
‘तुम पढ़ोगी ?’’
‘‘मेरे को पढ़ना नहीं आता।’’
‘‘सीख लो।’’
‘‘ना।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘औरतों को पाप लगता है पढ़ने से।’’
‘‘औरतों को पाप लगता है, मर्द को नहीं लगता ?’’
‘‘ना, मर्द को नहीं लगता ?’’
‘‘यह तुम्हें किसने कहा है ?"
‘‘मैं जानती हूँ।’’
"फिर तो मैं पढ़ती हूँ मुझे पाप लगेगा?’’
‘‘सहर की औरत को पाप नहीं लगता, गांव की औरत को पाप लगता 
मैं भी हँस पड़ी और अंगूरी भी। अंगूरी ने जो कुछ सीखा-सुना हुआ था, उसमें कोई शंका नहीं थी, इसलिए मैंने उससे कुछ न कहा। वह अगर हँसती-खेलती अपनी जिन्दगी के दायरे में सुखी रह सकती थी, तो उसके लिए यही ठीक था। वैसे मैं अंगूरी के मुँह की ओर ध्यान लगाकर देखती रही। गहरे साँवले रंग में उसके बदन का मांस गुथा हुआ था। कहते हैं- औरत आटे की लोई होती है। पर कइयों के बदन का मांस उस ढीले आटे की तरह होता है जिसकी रोटी कभी भी गोल नहीं बनती, और कइयों के बदन का मांस बिलकुल ख़मीरे आटे जैसा, जिसे बेलने से फैलाया नहीं जा सकता। सिर्फ़ किसी-किसी के बदन का मांस इतना सख़्त गुँथा होता है कि रोटी तो क्या चाहे पूरियाँ बेल लो।... मैं अंगूरी के मुँह की ओर देखती रही, अंगूरी की छाती की ओर, अंगूरी की पिण्डलियों की ओर... वह इतने सख़्त मैदे की तरह गुथी हुई थी कि जिससे मठरियाँ तली जा सकती थीं और मैंने इस अंगूरी का प्रभाती भी देखा हुआ था, ठिगने क़द का, ढलके हुए मुँह का, कसोरे जैसा और फिर अंगूरी के रूप की ओर देखकर उसके ख़ाविन्द के बारे में एक अजीब तुलना सूझी कि प्रभाती असल में आटे की इस घनी गुथी लोई को पकाकर खाने का हक़दार नहीं- वह इस लोई को ढककर रखने वाला कठवत है। इस तुलना से मुझे खुद ही हंसी आ गई। पर मैंने अंगूरी को इस तुलना का आभास नहीं होने देना चाहती थी। इसलिए उससे मैं उसके गाँव की छोटी-छोटी बातें करने लगी।
माँ-बाप की, बहन-भाइयों की, और खेतों-खलिहानों की बातें करते हुए मैंने उससे पूछा, ‘‘अंगूरी, तुम्हारे गांव में शादी कैसे होती है ?’’
‘‘लड़की छोटी-सी होती है। पाँच-सात साल की, जब वह किसी के पाँव पूज लेती है।’’
‘‘कैसे पूजती है पाँव?’’
‘लड़की का बाप जाता है, फूलों की एक थाली ले जाता है, साथ में रुपये, और लड़के के आगे रख देता है।’’
‘‘यह तो एक तरह से बाप ने पाँव पूज लिये। लड़की ने कैसे पूजे ?’’
‘‘लड़की की तरफ़ से तो पूजे।’’
‘‘पर लड़की ने तो उसे देखा भी नहीं?’’
‘‘लड़कियाँ नहीं देखतीं।’’
‘‘लड़कियाँ अपने होने वाला ख़ाविन्द को नहीं देखतीं।’’
‘‘ना’’
‘‘कोई भी लड़की नहीं देखती?’’
‘‘ना’’
पहले तो अंगूरी ने ‘ना’ कर दी पर फिर कुछ सोच-सोचकर कहने लगी, ‘‘जो लड़कियाँ प्रेम करती हैं, वे देखती हैं।’’
‘‘तुम्हारे गाँव में लड़कियाँ प्रेम करती हैं?’’
‘‘कोई-कोई’’
‘‘जो प्रेम करती हैं, उनको पाप नहीं लगता?’’ मुझे असल में अंगूरी की वह बात स्मरण हो आयी थी कि औरत को पढ़ने से पाप लगता है। इसलिए मैंने सोचा कि उस हिसाब से प्रेम करने से भी पाप लगता होगा।
‘‘पाप लगता है, बड़ा पाप लगता है।’’ अंगूरी ने जल्दी से कहा।
‘‘अगर पाप लगता है तो फिर वे क्यों प्रेम करती हैं ?’’
‘‘जे तो...बात यह होती है कि कोई आदमी जब किसी की छोकरी को कुछ खिला देता है तो वह उससे प्रेम करने लग जाती है।’’
‘‘कोई क्या खिला देता है उसको?’’
‘‘एक जंगली बूटी होती है। बस वही पान में डालकर या मिठाई में डाल कर खिला देता है। छोकरी उससे प्रेम करने लग जाती है। फिर उसे वही अच्छा लगता है, दुनिया का और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘सच?’’
‘‘मैं जानती हूँ, मैंने अपनी आँखों से देखा है।’’
‘‘किसे देखा था ?’’
‘‘मेरी एक सखी थी। इत्ती बड़ी थी मेरे से।’
‘‘फिर?’’
‘‘फिर क्या? वह तो पागल हो गयी उसके पीछे। सहर चली गयी उसके साथ।’’
‘‘यह तुम्हें कैसे मालूम है कि तेरी सखी को उसने बूटी खिलाई थी ?’’
‘‘यह तुम्हें कैसे मालूम है कि तेरी सखी को उसने बूटी खिलाई थी ?’’
‘‘बरफी में डालकर खिलाई थी। और नहीं तो क्या, वह ऐसे ही अपने माँ-बाप को छोड़कर चली जाती? वह उसको बहुत चीज़ें लाकर देता था। सहर से धोती लाता था, चूड़ियाँ भी लाता था शीशे की, और मोतियों की माला भी।’’
‘‘ये तो चीज़ें हुईं न! पर यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि उसने जंगली बूटी खिलाई थी!’’
‘‘नहीं खिलाई थी तो फिर वह उसको प्रेम क्यों करने लग गयी?’’
‘‘प्रेम तो यों भी हो जाता है।’’
‘‘नहीं, ऐसे नहीं होता। जिससे माँ-बाप बुरा मान जाएँ, भला उससे प्रेम कैसे हो सकता है ?’’
‘‘तूने वह जंगली बूटी देखी है?’’
‘‘मैंने नहीं देखी। वो तो बड़ी दूर से लाते हैं। फिर छिपाकर मिठाई में डाल देते हैं, या पान में डाल देते हैं। मेरी माँ ने तो पहले ही बता दिया था कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खाना।’’
‘‘तूने बहुत अच्छा किया कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खाई। पर तेरी उस सखी ने कैसे खा ली?’’
‘‘अपना किया पाएगी’’
‘‘किया पाएगी’’ कहने को तो अंगूरी ने कह दिया पर फिर शायद उसे सहेली का स्नेह याद आ गया या तरस आ गया, दुखे मन से कहने लगी, ‘‘बावरी हो गई थी बेचारी! बालों में कंघी भी नहीं लगाती थी। रात को उठ-उठकर गाती थी।’’
‘‘क्या गाती थी?’’
‘‘पता नहीं, क्या गाती थी। जो कोई जड़ी बूटी खा लेती है, बहुत गाती है। रोती भी बहुत है।’’
बात गाने से रोने पर आ पहुँची थी। इसलिए मैंने अंगूरी से और कुछ न पूछा।
और अब थोड़े ही दिनों की बात है। एक दिन अंगूरी नीम के पेड़ के नीचे चुपचाप मेरे पास आ खड़ी हुई। पहले जब अंगूरी आया करती थी तो छन-छन करती, बीस गज़ दूर से ही उसके आने की आवाज़ सुनाई दे जाती थी, पर आज उसके पैरों की झाँझरें पता नहीं कहाँ खोयी हुई थीं। मैंने किताब से सिर उठाया और पूछा, ‘‘क्या बात है, अंगूरी ?’’
अंगूरी पहले कितनी ही देर मेरी ओर देखती रही और फिर धीरे से बोली "मुझे पढना सीखा दो बीबी जी"... और चुपचाप फिर मेरी आँखों में देखने लगी...
लगता है इसने भी जंगली बूटी खा ली...
"क्यूँ अब तुम्हे पाप नहीं लगेगा, अंगूरी"... यह दोपहर की बात थी शाम को जब मैं बाहर आई तो वह वहीं नीम के पेड़ के नीचे बैठी थी और उसके होंठो पर गीत था पर बिलकुल सिसकी जैसा...मेरी मुंदरी में लागो नगीन्वा, हो बैरी कैसे काटूँ जोबनावा ..अंगूरी ने मेरे पैरों की आहट सुन ली और चुप हो गयी...
"तुम तो बहुत मीठा गाती हो... आगे सुनाओ न गा कर"
अंगूरी ने आपने कांपते आंसू वही पलकों में रोक लिए और उदास लफ़्ज़ों में बोली "मुझे गाना नहीं आता है"
"आता तो है"
"यह तो मेरी सखी गाती थी उसी से सुना था"
"अच्छा मुझे भी सुनाओ पूरा"
"ऐसे ही गिनती है बरस की... चार महीने ठंडी होती है, चार महीने गर्मी और चार महीने बरखा"... और उसने बारह महीने का हिसाब ऐसे गिना दिया जैसे वह अपनी उँगलियों पर कुछ गिन रही हो...
"अंगूरी?"
और वह एक टक मेरे चेहरे की तरफ देखने लगी... मन मैं आया की पूछूँ की कहीं तुमने जंगली बूटी तो नहीं खा ली है... पर पूछा की "तुमने रोटी खाई?"
"अभी नहीं"
"सवेरे बनाई थी? चाय पी तुने?"
"चाय? आज तो दूध ही नहीं लिया"
"क्यों नहीं लिया दूध?"
"दूध तो वह रामतारा..."
वह हमारे मोहल्ले का चौकीदार था, पहले वह हमसे चाय ले कर पीता था पर जब से अंगूरी आई थी वह सवेरे कहीं से दूध ले आता था, अंगूरी के चूल्हे पर गर्म कर के चाय बनाता और अंगूरी, प्रभाती और रामतारा तीनो मिल कर चाय पीते... और तभी याद आया की रामतारा तो तीन दिन से अपने गांव गया हुआ है।
मुझे दुखी हुई हंसी आई और कहा कि क्या तूने तीन दिन से चाय नही पी है?
"ना"
"और रोटी भी नहीं खायी है न"
अंगूरी से कुछ बोला न गया... बस आँखों में उदासी भरे वही खड़ी रही...
मेरी आँखों के सामने रामतारे की आकृति घूम गयी... बड़े फुर्तीले हाथ पांव, अच्छा बोलने, पहनने का सलीका था।
"अंगूरी... कहीं जंगली बूटी तो नहीं खा ली तूने?"
अंगूरी के आंसू बह निकले और गीले अक्षरों से बोली मैंने तो सिर्फ चाय पी थी... कसम लगे न कभी उसके हाथ से पान खाया, न मिठाई... सिर्फ चाय... जाने उसने चाय में ही... और अंगूरी की बाकी आवाज़ आंसुओ में डूब गयी।

फ़िरदौस ख़ान
अमृता प्रीतम की रचनाओं को पढ़कर हमेशा सुकून मिलता है. शायद इसलिए कि उन्होंने भी वही लिखा जिसे उन्होंने जिया. अमृता प्रीतम ने ज़िंदगी के विभिन्न रंगों को अपने शब्दों में पिरोकर रचनाओं के रूप में दुनिया के सामने रखा. पंजाब के गुजरांवाला में 31 अगस्त, 1919 में जन्मी अमृता प्रीतम पंजाबी की लोकप्रिय लेखिका थीं. उन्हें पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है. उन्होंने तक़रीबन एक सौ किताबें लिखीं, जिनमें उनकी आत्मकथा रसीदी टिकट भी शामिल है. उनकी कई रचनाओं का अनेक देशी और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ. अमृता की पंजाबी कविता अज्ज आखां वारिस शाह नूं हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बहुत प्रसिद्ध हुई. इसमें उन्होंने वारिस शाह को संबोधित करते हुए उसके वक़्त के हालात बयां किए थे.
अज्ज आखां वारिस शाह नूं कित्थों क़बरां विच्चों बोल
ते अज्ज किताब-ए-इश्क़ दा कोई अगला वरक़ा फोल
इक रोई सी धी पंजाब दी, तू लिख-लिख मारे वैण
अज्ज लक्खां धीयां रोंदियां तैनू वारिस शाह नू कहिण

ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में उन्हें पद्म विभूषण से नवाज़ा गया. इससे पहले उन्हें 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. उन्हें 1958 में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत किया गया. अमृता को 1988 में अंतरराष्ट्रीय बल्गारिया वैरोव पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उन्हें 1982 में देश के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ से नवाज़ा गया. अमृता प्रीतम जनवरी 2002 में अपने ही घर में गिर पड़ी थीं और तब से बिस्तर से नहीं उठ पाईं. उनकी मौत 31 अक्टूबर, 2005 को नई दिल्ली में हुई.
अमृता प्रीतम ने रसीदी टिकट में अपनी ज़िंदगी के बारे में लिखा है, यूं तो मेरे भीतर की औरत सदा मेरे भीतर के लेखक से सदा दूसरे स्थान पर रही है. कई बार यहां तक कि मैं अपने भीतर की औरत का अपने आपको ध्यान दिलाती रही हूं. सिर्फ़ लेखक का रूप सदा इतना उजागर होता है कि मेरी अपनी आंखों को भी अपनी पहचान उसी में मिलती है. पर ज़िंदगी में तीन वक़्त ऐसे आए हैं, जब मैंने अपने अंदर की सिर्फ़ औरत को जी भर कर देखा है. उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अंदर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया. वहां उस वक़्त थोड़ी सी भी ख़ाली जगह नहीं थी, जो उसकी याद दिलाती. यह याद केवल अब कर सकती हूं, वर्षों की दूरी पर खड़ी होकर. पहला वक़्त तब देखा था जब मेरी उम्र पच्चीस वर्ष की थी. मेरे कोई बच्चा नहीं था और मुझे प्राय: एक बच्चे का स्वप्न आया करता था. जब मैं जाग जाती थी. मैं वैसी की वैसी ही होती थी, सूनी, वीरान और अकेली. एक सिर्फ़ औरत, जो अगर मां नहीं बन सकती थी तो जीना नहीं चाहती थी. और जब मैंने अपनी कोख से आए बच्चे को देख लिया तो मेरे भीतर की निरोल औरत उसे देखती रह गई.
दूसरी बार ऐसा ही समय मैंने तब देखा था, जब एक दिन साहिर आया था, उसे हल्का सा बुख़ार चढ़ा हुआ था. उसके गले में दर्द था, सांस खिंचा-खिंचा था. उस दिन उसके गले और छाती पर मैंने विक्स मली थी. कितनी ही देर मलती रही थी, और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खड़े-खड़े मैं पोरों से, उंगलियों से और हथेली से उसकी छाती को हौले-हौले मलते हुए सारी उम्र ग़ुजार सकती हूं. मेरे अंदर की सिर्फ़ औरत को उस समय दुनिया के किसी काग़ज़ क़लम की आवश्यकता नहीं थी.
और तीसरी बार यह सिर्फ़ औरत मैंने तब देखी थी, जब अपने स्टूडियो में बैठे हुए इमरोज़ ने अपना पतला सा ब्रश अपने काग़ज़ के ऊपर से उठाकर उसे एक बार लाल रंग में डुबोया था और फिर उठकर उस ब्रश से मेरे माथे पर बिंदी लगा दी थी. मेरे भीतर की इस सिर्फ़ औरत की सिर्फ़ लेखक से कोई अदावत नहीं. उसने आप ही उसके पीछे, उसकी ओट में खड़े होना स्वीकार कर लिया है. अपने बदन को अपनी आंखों से चुराते हुए, और शायद अपनी आंखों से भी, और जब तक तीन बार उसने अगली जगह पर आना चाहा था, मेरे भीतर के सिर्फ़ लेखक ने पीछे हटकर उसके लिए जगह ख़ाली कर दी थी.
मशहूर शायर साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम को लेकर कई क़िस्से हैं. अमृता प्रीतम ने भी बेबाकी से साहिर के प्रति अपने प्रेम को बयां किया है. वह लिखती हैं, मैंने ज़िंदगी में दो बार मुहब्बत की. एक बार साहिर से और दूसरी बार इमरोज़ से. अक्षरों के साये में जवाहर लाल नेहरू और एडविना पर लिखी एक किताब का हवाला देते हुए वह कहती हैं, मेरा और साहिर का रिश्ता भी कुछ इसी रोशनी में पहचाना जा सकता है, जिसके लंबे बरसों में कभी तन नहीं रहा था, सिर्फ़ मन था, जो नज़्मों में धड़कता रहा दोनों की.
लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिए आता था, तो जैसे मेरी ही ख़ामोशी से निकला हुआ ख़ामोशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था. वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था. और उसके जाने के बाद केवल सिगरेट के बड़े-छोटे टुकड़े कमरे में रह जाते थे. कभी, एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी, जो तय नहीं होती थी. तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था. उसके जाने के बाद, मैं उसके छोड़े हुए सिगरेट को संभाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकड़े को अकेले जलाती थी, और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो बैठकर लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूं. वह कहती हैं-
मेरे इस जिस्म में
तेरा सांस चलता रहा
धरती गवाही देगी
धुआं निकलता रहा
उम्र की सिगरेट जल गई
मेरे इश्क़ की महक
कुछ तेरी सांसों में
कुछ हवा में मिल गई

अमृता प्रीतम ने अपनी आत्मकथा में इमरोज़ के बारे में भी विस्तार से लिखा है. एक जगह वह लिखती हैं-
मुझ पर उसकी पहली मुलाक़ात का असर-मेरे शरीर के ताप के रूप में हुआ था. मन में कुछ घिर आया, और तेज़ बुख़ार चढ़ गया. उस दिन-उस शाम उसने पहली बार अपने हाथ से मेरा माथा छुआ था-बहुत बुख़ार है? इन शब्दों के बाद उसके मुंह से केवल एक ही वाक्य निकला था- आज एक दिन में मैं कई साल बड़ा हो गया हूं.
कभी हैरान हो जाती हूं. इमरोज़ ने मुझे कैसा अपनाया है, उस दर्द के समेत, जो उसकी अपनी ख़ुशी का मुख़ालिफ़ है. एक बार मैने हंसकर कहा था, ईमू! अगर मुझे साहिर मिल जाता, तो फिर तू न मिलता, और वह मुझे, मुझसे भी आगे, अपनाकर कहने लगा- मैं तो तुझे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज़ पढ़ते हुए ढूंढ लेता. सोचती हूं, क्या ख़ुदा इस जैसे इंसान से कहीं अलग होता है. अपनी एक कविता में वह अपने जज़्बात को कुछ इस तरह बयां करती हैं-
मैं और कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूं
कि वक़्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायनात के कण होते हैं
मैं उन कणों को चुनूंगी
मैं तुझे फिर मिलूंगी

एक बार जब अमृता प्रीतम से पूछा गया कि ज़िंदगी में उन्हें किस चीज़ ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया तो जवाब में उन्होंने एक क़िस्सा सुनाते हुए कहा था, 1961 में जब मैं पहली बार रूस गई थी तब ताजिकिस्तान में एक मर्द और एक औरत से मिली, जो एक नदी के किनारे लकड़ी की एक कुटिया बनाकर रहते थे. औरत की नीली और मर्द कि काली आंखों में क्षण-क्षण जिए हुए इश्क़ का जलाल था. पता चला अब कि साठ-सत्तर बरस की उम्र इश्क़ का एक दस्तावेज़ है. मर्द की उठती जवानी थी, जब वह किसी काम से कश्मीर से यहां आया था और उस नीली आंखों वाली सुंदरी की आंखों में खोकर यहीं का होकर रहा गया था और फिर कश्मीर नहीं लौटा. वह दो देशों की नदियों की तरह मिले और उनका पानी एक हो गया. वे यहीं एक कुटिया बनाकर रहने लगे. अब यह कुटिया उनके इश्क़ की दरगाह है औरत माथे पर स्कार्फ़ बांधकर और गले में एक चोग़ा पहनकर जंगल के पेड़ों की देखभाल करने लगी और मर्द अपनी पट्टी का कोट पहनकर आज तक उसके काम में हाथ बंटाता है. वहां मैंने हरी कुटिया के पास बैठकर उनके हाथों उस पहाड़ी नदी का पानी पीया और एक मुराद मांगी थी कि मुझे उनके जैसी ज़िंदगी नसीब हो. यह ख़ुदा के फ़ज़ल से कहूंगी कि मुझे वह मुराद मिली है.


फ़िरदौस ख़ान

तीज-त्यौहार हमारी तहज़ीब और रिवायतों को क़ायम रखे हुए हैं. ये ख़ुशियों के ख़ज़ाने हैं. ये हमें ख़ुशी के मौक़े फ़राहम करते हैं. हमें ख़ुश होने के बहाने देते हैं. ये हमारी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा हैं. इन तीज-त्यौहारों से किसी भी देश और समाज की संस्कृति व सभ्यता का पता चलता है. मगर बदलते वक़्त के साथ-साथ तीज-त्यौहार भी पीछे छूट रहे हैं या यह कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि ख़त्म होते जा रहे हैं. लेकिन आज भी ऐसे बहुत से लोग हैं, जो अपनी रिवायतों को क़ायम रखे हुए हैं. अगर मुस्लिम त्यौहारों की बात करें, तो सिर्फ़ दो ही त्यौहारों के नाम लिए जाते हैं. एक है ईद उल फ़ित्र, जो माहे रमज़ान के ख़त्म होने के बाद शव्वाल की पहली तारीख़ को मनाई आती है. इसे मीठी ईद भी कहा जाता है. और दूसरा त्यौहार है ईद उल अज़हा, जिसे बक़रीद के नाम से भी जाना जाता है. ये ईद हज की ख़ुशी में मनाई जाती है और तीन दिन तक लोग क़ुर्बानी करते हैं. अहले-हदीस चार दिन क़ुर्बानी करते हैं. इन त्यौहारों के अलावा भी कई त्यौहार हैं, जिन्हें कुछ लोग पूरी अक़ीदत के साथ मनाते हैं. ऐसा ही एक त्यौहार है आख़िरी चहशंबा या आख़िरी चहार शंबा.

आख़िरी चहशंबा क्या है 
हिजरी कैलेंडर के दूसरे महीने के आख़िरी बुध को आख़िरी चहशंबा मनाया जाता है. माना जाता है कि सफ़र के महीने में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तबीयत नासाज़ हो गई थी. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को बुख़ार हो गया था और सिर में भी दर्द था. इस माह के आख़िरी बुध को आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सेहतयाब हुए और ग़ुस्ल किया. फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने परवरदिगार की इबादत की, खाना खाया और सैर के लिए चले गए. इस दिन ख़ास नफ़िल नमाज़ें भी पढ़ी जाती हैं. माहे सफ़र के आख़िरी बुध को ‘सैर बुध’ के नाम से भी जाना जाता है.

इस रोज़ आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के चाहने वाले लोगों ने अपने काम बंद रखे. उन्होंने भी ग़ुस्ल किया और अच्छे-अच्छे कपड़े पहने. उनके घरों में लज़ीज़ खाने पकाये गए. मीठे पकवान भी पकाये गए. उन्होंने शीरनी तक़सीम की. वे लोग भी अपने घरवालों के साथ तफ़रीह के लिए गए. कहने का मतलब यह है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सेहतयाब होने की ख़ुशी में आपके चाहने वालों ने ख़ुशियां मनाई थीं और ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. 

क़ाबिले ग़ौर बात ये भी है कि इस त्यौहार की शुरुआत अरब की सरज़मीन में हुई थी, लेकिन अब वहां इस त्यौहार को मनाने के बारे में कोई जानकारी मुहैया नहीं है. लेकिन हिन्दुस्तान के बहुत से इलाक़ों में ये त्यौहार हर्षोल्लास से मनाया जाता है. ये इस देश की मिट्टी का असर है, यहां की आबोहवा का असर है कि यहां वह त्यौहार भी मनाए जाते हैं, जो अरब से लुप्त हो चुके हैं, ख़त्म हो चुके हैं. 

दरअसल भारत तीज-त्यौहारों का देश है. यहां अमूमन हर महीने कोई न कोई त्यौहार आता रहता है. बहुत से त्यौहारों का ताल्लुक़ मज़हब से है, तो बहुत से त्यौहारों का नाता लोक जीवन से है. आख़िरी चहशंबा का ताल्लुक़ भले ही मज़हब से न हो, लेकिन इसका नाता अक़ीदत से ज़रूर है. ये मुहब्बत का त्यौहार है. ये प्यारे आक़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहब्बत से वाबस्ता त्यौहार है. और महबूब से वाबस्ता हर चीज़ से मुहब्बत हुआ करती है. 

हिन्दुस्तान के अलावा ये त्यौहार पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी मनाया जाता है, क्योंकि ये दोनों देश भी कभी हिन्दुस्तान का ही हिस्सा हुआ करते थे. बांग्लादेश में इस दिन एक वैकल्पिक मुस्लिम अवकाश है. मुसलमान इस दिन छुट्टी लेते हैं और इस त्यौहार को ख़ुशी-ख़ुशी मनाते हैं. 


कुछ जगहों पर इस दिन शीशे की सफ़ेद प्लेटों पर ज़ाफ़रान से क़ुरआन करीम की आयतें लिखने की रिवायत है. इसे सात सलाम के नाम से जाना जाता है. फिर इस प्लेट में पानी डालते हैं. जब प्लेट पर लिखी सब आयतें पानी में घुल जाती हैं, तो इस पानी को तावीज़ की सूरत में पी लिया जाता है. बुज़ुर्ग बताते हैं कि मुग़ल बादशाहों के दौर में ये त्यौहार ख़ूब हर्षोल्लास से मनाया जाता था. 

इसके बरअक्स बहुत से लोग मानते हैं कि सफ़र के आख़िरी चहार शंबा को अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मर्ज़ का आग़ाज़ हुआ था और इस दिन आसमान से बहुत सी बलायें ज़मीन पर उतरती हैं.  
  
मशहूर मौरिख़ इब्ने साद फ़रमाते हैं कि चहार शंबा 28 सफ़र को रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मर्ज़ का आग़ाज़ हुआ था. 
(तबक़ात इब्ने साद 206) 

मुहम्मद इदरीस कंधालवी तहरीर फ़रमाते हैं कि माहे सफ़र के आख़िरी अशरा में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक बार रात में उठे और फ़रमाया कि मुझे हुक्म हुआ है कि अहले बक़ी यानी मदीना मुनव्वरा के क़ब्रिस्तान के लिए अस्तग़फ़ार करूं. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम वहां से वापस तशरीफ़ लाए तो मिज़ाज नासाज़ हो गए. सिर में दर्द और बुख़ार की शिद्दत पैदा हो गई. ये उम्म-उल-मोमिनीन हज़रत मैमूना रज़ियल्लाहु अन्हु की बारी का दिन था और बुध का रोज़ था. 
(सीरत अल मुस्तफ़ा 3/157 )

मुहम्मद शफ़ी तहरीर फ़रमाते हैं कि 28 सफ़र हिजरी चहार शंबा की रात में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम क़ब्रिस्तान बक़ी में तशरीफ़ ले गए और अहले क़बूर के लिए मग़फ़िरत की दुआ की. वहां से तशरीफ़ लाए, तो सिर में दर्द, फिर बुख़ार हो गया. ये बुख़ार सहीह रिवायत के मुताबिक़ 13 रोज़ तक मुसलसल रहा और इसी हालत में वफ़ात हो गई.
(सीरत-ए- ख़ातिमुल अम्बिया 141)      

बरेली मकतबा फ़िक्र के अहमद रज़ा ख़ान का फ़तवा है कि आख़िरी चहार शंबा की कोई असल नहीं है और न ही सेहतयाबी रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का कोई सबूत है, बल्कि मर्ज़ अक़दस जिसमें वफ़ात हुई, उसकी इब्तिदा इसी दिन से बताई जाती है.   
(अहकाम-ए-शरीअत 3/183)   

बरेली मकतबा फ़िक्र के आलमे-दीन मौलाना अमजद फ़रमाते हैं कि माहे सफ़र के आख़िरी चहार शंबा हिन्दुस्तान में बहुत मनाया जाता है. लोग अपने कारोबार बंद कर देते हैं और सैर व तफ़रीह को जाते हैं. पूरियां पकती हैं और नहाते- धोते हैं, ख़ुशियां मनाते हैं और कहते हैं कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस रोज़ ग़ुस्ले सेहत फ़रमाया था और बैरूने मदीने सैर के लिए तशरीफ़ ले गए थे. ये सब बातें बेअसल हैं, बल्कि उन दिनों में रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का मर्ज़ शिद्दत के साथ था. लोग जो बातें बताते हैं, वे सब ख़िलाफ़े-वाक़ा हैं.    
बहरहाल, मुसलमानों के मुख़्तलिफ़ फ़िरक़ों की मुख़्तलिफ़ बातें हैं और सब अपनी-अपनी अक़ीदत के हिसाब से ज़िन्दगी बसर करते हैं. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यहां बसने वाले बहुत से मुसलमानों के रीति-रिवाजों में हिन्दुस्तानी तहजीब की झलक मिलती है. उनके त्यौहारों पर भी इसका साफ़ असर देखा जा सकता है. शायद इसी को गंगा-जमुनी तहज़ीब कहा जाता है. 
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)
साभार आवाज़ 
तस्वीर गूगल 


डॉ. दीप्ति  गुप्ता   
छ: हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पे बर्फ़ीली पहाड़ियों की गोद में बसी गढ़वाल राइफ़ल्स की ख़ूबसूरत छावनी ‘लैन्सडाउन’ अपनी स्वच्छता, सहज सँवरेपन व अलौकिक प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए मशहूर थी। उसका नाम अँग्रेज़ अधिकारी ‘लॉर्ड लैन्सडाउन’  के नाम पर रखा गया था। उस शान्त और सुरम्य छावनी की ‘चेटपुट लाइन्स‘ में शहर से तीन किलोमीटर दूर, चीड़ और देवदार के  घने पेड़ों के बीच अनूठी शान ओढ़े एक खूबसूरत बंगला था, जो ‘एवटाबाद हाउस‘  के नाम से जाना जाता था। ब्रिटिश राज में म्युनिसिपल कमिश्नर उस बंगले में बड़े ठाट-बाट के साथ रहता था ! कहा जाता है कि उससे पहले  कोई गढ़वाली अफ़सर अपने परिवार सहित उस बंगले में रहता था,  जिसकी एक हादसे में मृत्यु हो गई थी। बरसों पुराने उस गिरनाऊ बंगले को तुड़वाकर अँग्रेज़ों ने, उसे कुशल आर्किटैक्ट से ख़ास ढंग से बनवाया था। सम्भवत: इसलिए ही उसमें कुछ तो ऐसा था जो उसे  उस  इलाके के अन्य बंगलों से अलग करता था। 

सन् 1947 में भारत के आज़ाद होने पर, लैन्सडाउन  के नामी डॉक्टर अमरनाथ शाह ने उस बंगले को अँग्रेज़ अधिकारी से ख़रीद लिया था। उसमें पाँच बड़े –बड़े कमरे,  एक पूरब सामना ड्रॉइंग रूम, जिसके साथ सर्दियों के लिए एक बहुत ही खूबसूरत ग्लेज़्ड सिटिंग रूम बना  हुआ था। कमरों  के साथ ही दो अटैच्ड बाथरूम थे। एक ओर पैन्ट्री  सहित बड़ी किचिन थी। बंगले के चारो ओर पत्थरों का एक सिरे से दूसरे को छूता हुआ गोलाकार बराम्दा था। बराम्दे से तीन सीढ़ी नीचे उतरने पर,चारों ओर खुली जगह में रंग-बिरंगे फूलों की  क्यारियाँ थी।वहाँ से सामने दूर पश्चिम में जयहरीखाल गाँव दिखाई देता था। इस गाँव के पार्श्व से  उत्तर  की ओर हिमालय की  बर्फीली  पहाडियाँ  पसरी हुई थी। सुब्ह-सवेरे,  उगते सूरज की सुनहरी किरणें उन पे बिखरती तो वे चन्द्रहार जैसी चकमकचकमक करती। नीलकंठ और चौखम्भा की चोटियाँ तो उस बर्फीली श्रंखला का गहना थी ! दांए-बांए लहराते-बलखाते सीढ़ीदार  खेत उस दृश्य की शोभा को द्विगुणित करते। उत्तर की ओर फलों के पेड़ थे, जो  मौसम में आड़ू और काफ़ल से लदे रहते थे। दूसरी ओर ऊँचे-ऊँचे भीमकाय बनस्पति से भरे दूर से नीले से दिखने वाले हरिताभ पहाड़ एक के ऊपर एक सटे मन में भय सा उपजाते। उन पर कोटद्वार, दुगड्डा और जयहरीखाल से आती जाती बसें  दूर से रेंगती खिलौने जैसी दिखती। यदा-कदा  बसों  की आवाजाही उस नीरव स्तब्धता में कुछ स्पन्दन का एहसास कराती। बंगले के दक्षिण में दूर लोहे का मेनगेट था, जिससे होकर पथरीला रास्ता बंगले के बराम्दे तक आता था। इस लम्बे रास्ते के दोनो ओर भी फूलों की क्यारियाँ और ‘रात की रानी’ की झाड़ियाँ थी, जो पथरीले रास्ते को राज मार्ग  की  सी भव्यता प्रदान करती। इस मुख्य रास्ते से लगा हुआ, हल्की सी ऊँचाई पर, यानी बंगले के दाहिनी ओर  मखमली लॉन था और दूसरा लॉन मेनगेट से अन्दर आते ही बाईं ओर पड़ता था। यह लॉन अपेक्षाकृत अधिक  फैला हुआ था। इससे लगा हुआ, दूर तक पसरा बुरांस, बेड़ू के पेड़ों और  रसभरी की झाड़ियों का घना जगंल था, जिसमें एक प्राकृतिक बटिया स्वत: बन गई थी। अक्सर गढ़वाली औरतें लकड़ी बीनतीं उस जंगल में आती जाती दिखती, तो कभी  साल में एक बार कॉरपोरेशन वाले उस जंगल की थोड़ी बहुत काट-छाँट  कर जाते। वरना वह जंगल बेरोक टोक फलता फूलता रहता और अपने में मस्त रहता। पूरे वर्ष चिड़ियों  की चहचहाहट और मधुमास में कोयल की कुह-कुह और पपीहे की पीहू-पीहू उसे  गुलज़ार रखती ! बंगले के नीचे, थोड़ी दूरी पर सर्वेन्ट क्वार्टर्स थे, जिनमें चौकीदार बलबहादुर, खानसामा शेरसिंह, सफाई कर्मचारी गोविन्दराम और उसका परिवार, दफ़्तरी बाबू, शमशेर बहादुर  आदि कुल मिलाकर  छह-सात   नौकर रहते थे ! शेष कमरे खाली पड़े थे !  

डॉक्टर शाह का अस्पताल उस बंगले से काफ़ी दूर पड़ता था, इसलिए उन्होंने उसे,  उन टीचर्स के रहने के लिए  दे दिया था, जो पहाडी इलाके से दूर, बाहरी शहरो की थी  और छात्राओं के सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ाती थी । प्रत्येक कमरे को ती-तीन टीचर्स शेयर करती थी और पिछले बड़े कमरे में प्रिसिपल मिस जंगपांगी अपनी छोटी  बहिन और  अपने प्यारे एलसेशियन  के साथ रहती थीं, जिसका नाम उन्होंने  ‘नवाब’ रखा था । आज के ज़माने के कोलाहल के विपरीत, लगभग पाँच दशक पहले का ज़माना, उस पर भी पहाड़ पर बसा, वह भोलाभाला सुशान्त शहर इतनी नीरवता ओढ़े था कि दूर की हल्की सी आहट भी बंगले तक तैर जाती थी। कभी कभार मेन गेट के पास से  हौले-हौले दौड कर आती, फ़ौजी सैनिकों की  टुकडी के भारी बूटों की आवाज़े, तो कभी आस पास के गाँवों से शहर जाने वाले लोग, उधर से गुज़रते तो उनकी गढ़वाली बोली के अस्फुट स्वर, उस स्तब्ध वातावरण को छेड़ते से, हवा के झोंके के साथ लहराते ‘एवटाबाद हाउस’ तक पहुँचते। उस  बंगले के सौन्दर्य  और नीरवता में एक अजीब सी रहस्यमयता थी, जिसका एहसास वहाँ रहने वाली उन भोली-भाली टीचर्स को अक्सर होता लेकिन वे कुछ समझ न पाती थी !

सभी टीचर्स हँसती, ढेर बातें करती, इकठ्ठी पैदल जाती और शार्टकट पकड़ती हुई  दो  किलोमीटर का रास्ता एक घंटे में तय करके स्कूल पहुँच जाती थी !  चार बजे छुट्टी होने पर, पाँच बजे तक बंगले पर पहुँचती। उसके बाद सब फ़्रैश होकर हवादार बराम्दे में इज़ी चेयर्स में, छोटी मूढ़ियों  और सीढ़ियों पे बैठी शेरसिंह की बनाई, अदरक और इलायची के एरोमा से भरपूर  गरमागरम चाय  और स्थानीय बेकरी के ताज़े बिस्कुटों का स्वाद लेती। शेरसिंह पौड़ी का रहने वाला था। भोला,निश्छल, सीधा  सा ख़ानसामा  बड़े समर्पित भाव से अपनी दीदी लोगों की सेवा में लगा रहता। उसे खाना  बनाते समय एक्सपैरीमैन्ट करने की बुरी आदत थी और इसके लिए वह कई बार डाँट भी खा चुका था। एक बार उसने मटर-आलू की सब्जी, ज़ीरे  के बजाय,   अजवाइन  से छौंक कर बनाई। जब सब खाने बैठी तो पहला कौर मुँह में डालते ही सबका मुँह  बन गया। तुरन्त शेरसिंह को आवाजें पड़ने लगीं। बेचारा दौड़ा दौड़ा आया और चेहरे पे लकीर सी खिंची आँखों को हैरत  से मिचमिचाता   बोला - 
“जी दीदी जी, क्या हुआ........? ”
“अरे ये अजवाइन क्यों डाली मटर  आलू   में.........? ”
मिसेज़ दुबे न आँखे तरेर कर उससे पूछा। वह घबराया सा सबका बिगड़ा मूड देख कर ईमानदारी से सच्ची बात बताते बोला – 
“दीदी जी आप लोगों को बढ़िया, नए ढंग सब्ज़ी बनाकर खिलाना माँगता था,  सो अजवाइन से छौंक कर “एक्सभैरीमैन्ट“ किया था। “ 
सब भूख से तिलमिलाई एक साथ बोली  - 
“ले जाओ अपने इस “एक्सभैरीमैन्ट“ को और तुम्ही खाओ।“
इसी तरह एक बार उस भोले भंडारी ने प्याज़ लहसुन का मसाला पीस कर बड़े जतन से दम आलू बनाए। इतवार का खुला धूप भरा दिन था। जब सब उस छुट्टी के दिन का स्पेशल लंच खाने बैठी, तो डोंगे में रखे दम आलू और उसके मसाले की खुशबू से सबकी भूख दुगुनी हो गई। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपनी-अपनी प्लेटो में, दम आलू रोटी के टुकड़े से तोड़ना चाहा तो लाख दम लगाने पर भी वो बेदर्द न टूटा, न फूटा और पत्थर सा प्लेटों में पड़ा सबको मुंह चिढ़ाता रहा। फिर से शेरसिंह पे चिल्ला=चिल्ली  मची ! बेचारा  अपने ‘’एक्सभैरीमैन्ट“ के फ़ेल होने से रुआंसा हुआ दम आलू का डोंगा उठाकर रसोई में भाग गया। उसके उस तरह के भयंकर “एक्सभैरीमैन्ट“ से दुखी टीचर्स ने तय किया कि हर छुट्टी के दिन शेरसिंह को एक नई डिश बनानी सिखाई जाएगी ! रविवार और अन्य छुट्टी के दिन कोई न कोई टीचर, उसे  नई  तरह-तरह की सब्जी बनाना  सिखाती और  देखते ही देखते, वह पाक-कला  में पारंगत  हो गया ! एक्सपर्ट कुक  बनने पर, उसकी चाल-ढाल में एक अकड सी आ गई ! सारी टीचर, उसकी उस  बदली  चाल को देखकर  हँसती  ! एक दिन जब मिसेज़ गुप्ता से रहा नहीं गया तो उन्होंने उसे प्यार से  समझाते हुए कहा – 
“अरे, शेरसिंह अपनी सीधी चाल चला कर, ये पहलवान की तरह अकड़ के क्यों चलता है।“ 
यह सुनते ही बेचारा झेंप गया और तुरंत झुका सा हो गया। इस तरह जाने-अंजाने, फ़ुर्सत में बनाया गया, वह ईश्वर का अनोखा नमूना सभी का मनोरंजन करता रहता था।

गोविन्दराम बंगले की सफ़ाई करता और उसकी पत्नी सबके कपड़े धोती। महीने में एक बार वह बेडशीट्स और कमरों के पर्दे भी धोती। जितनी देर वह बंगले पे काम कर रही होती, उसके बच्चे भी इधर से उधर किलकते खेलते रहते और उनका कलरव, उस 'एकान्तवासी बंगले'  की नीरवता को जैसे पी जाता। मिस उप्रेती के कमरे से अक्सर मधुर गीत के स्वर उभरते और सर्द हवा में विलीन हो जाते। सुरीला स्वर मिस उप्रेती को ईश्वर का वरदान था। उसे संगीत का बहुत चाव था। इसलिए एक उसी के कमरे में बैटरी वाला रेडियो था, जिस पर अक्सर सभी टीचर्स रात को रेडियो सीलोन से  फ़िल्मी गाने सुनतीं।बीच वाले कमरे में मिस शीलांग, मिसेज़ वर्मा और मिस जोशी रहती थी, वे अपने-अपने लिहाफ़ों में दुबकी देर रात तक गप्पें लगाती, तो बराम्दे के कोने में बने सिंगल रूम में एकान्त प्रिय मिस लोहानी अपनी दुनिया में रहना पसंद करती थीं। सबसे पहले कमरे में मिस सौलोमन, मिसेज़ गुप्ता और मिसेज़ दुबे की आपस में ख़ूब जमती  थी । पढ़ने की शौकीन गुप्ता सिराहने मेज़ पर चमचमाती चिमनी वाला मिट्टी के तेल का लैम्प जलाए रात के 2-3 बजे तक उपन्यास-कहानी पढ़ती रहती। सबको सुब्ह बर्फ़ीली सर्दी में अपना-अपना गुनगुना बिस्तर छोड़ना और नहाना बुरा लगता। नहाना तो अक्सर ही नलों में पानी जम जाने के कारण मुँह हाथ धोने तक सीमित होकर रह जाता। बिजली का तब तक पहाड़ पे नामोंनिशां नहीं था, सो शेरसिंह सुब्ह पाँच बजे से सबके लिए बड़े भगौने में कई बार पानी गर्म करता। वे कितने भी स्वेटर पे स्वेटर, कोट, शॉल, मफ़लर लपेटतीं, फिर भी सबके हाथ पैर ठिर-ठिर ठिठुरते और काँपते रहते। वे टीचर्स स्कूल में पढ़ाते समय एक हाथ कोट की जेब में और एक हाथ में किताब थामे,  क्लास में बामुश्किल पढ़ातीं और स्टाफ़ रूम में जाने की प्रतीक्षा करती, क्योंकि वहाँ लकड़ी के कोयलों की  अँगीठी दिन भर जलती रहती और खाली पीरियड में टीचर्स वहाँ अपने सर्द हाथ-पैरों में गर्माहट लाने में लगी रहती। बीच – बीच में गरम चाय के कप भी एक दूसरे को पकड़ाती रहती, फिर भी 'काटती सर्दी' सबको जकड़े रखती। एवटाबाद हाउस में हर काम के लिए नौकर होने के कारण टीचर्स को सर्दी अधिक नहीं खलती थी। ईश्वर की कृपा से सभी नौकर बड़े ईमानदार और ख़ूब काम करने वाले थे। अँग्रेज़ों  के ज़माने का एक रिटायर्ड जमादार सवेरे ठीक सात बजे बंगले के बराम्दे से लेकर  बाहर क्यारियों और  दोनों लॉन में झाड़ू लगाने आता। कोई जागे या न जागे, देखे या न देखे, वह अपने नियम से आता और काम करके चला जाता। टीचर्स को उसे तनख़्वाह भी नहीं देनी पड़ती थी क्योंकि इस सफ़ाई के लिए उसे  आर्मी हेड ऑफ़िस से तनख़्वाह  और अपनी पिछली 30 साल की फ़ौजी नौकरी के लिए पेंशन मिलती थी। रात में चौकीदार बलबहादुर लम्बे भारी कोट का लबादा पहने, पैरों में गमबूट, सिर पे फ़र वाली मंकी कैप, उस पे मफ़लर लपेटे, हाथ में लाठी और लालटेन लिए मुस्तैदी से बंगले के चारों ओर चक्कर काटता रखवाली करता और सभी टीचर्स बेफ़िक्र होकर सोती। मिसेज़ दुबे नम्बर पाँच कमरे की मिसेज़ शाह से अक्सर कहती कि “देखो यहाँ हम कितने ठाट से रहते हैं। जब छुट्टियों में अपने घर जाते हैं तो वहाँ तो हमें माँ का हाथ बटाने की वजह से झाड़ू  तक लगानी पड़ जाती है, पर यहाँ तो झाड़ू क्या झाड़न भी नहीं उठाना पड़ता।“

रविवार और तीज त्यौहार की छुट्टी के दिन एवटाबाद हाउस बातचीत, गीतों, कतार में सूखते कपड़ों, बैडमिन्टन खेलती, यहाँ तक कि कभी-कभी पाटिका खेलती टीचर्स की खिलखिलाहट से गुंजायमान रहता। छुट्टी का सारा दिन वे बंगले के बाहर धूप से तनिक भी न हटतीं। उस दिन नाश्ते के बाद से लॉन में कोई दरी बिछाकर, तो कोई  इज़ी चेयर में कोई बड़े- बड़े मूढ़ों में  बैठी,  नहा धोकर  बाल  सुखाती, तो कोई ट्रांज़िस्टर लगाए नाटक, गाने सुनती, तो कोई कॉपी जाँचती, मतलब कि सब अपना  कुछ न कुछ तामझाम लेकर वहाँ शाम तक के लिए जम जाती। इसी तरह बंगले की चाँदनी रातें भी रौनक से भरी होती। दिसम्बर और जनवरी को छोड़ कर शेष महीनों में, ख़ासतौर से फागुन के भावभीने, रुमानी महीने में टीचर्स 9-10 बजे तक चाँदनी रात में लॉन में बातें करती टहलती, कभी-कभी अन्त्याक्षरी का भी दौर चलता। रुपहली चाँदनी में बंगला कुछ ज़्यादा ही रमणीय और एक अजीब रहस्यमय सौन्दर्य से घिरा नज़र आता।   जून की हल्की गरम और ख़ुश्क रातों में बंगले के आसपास  कई किलोमीटर गहरी खाइयों में शेर की मांद थीं।  रात में अक्सर प्यासा शेर, मांद से निकलकर बंगले पर पानी की  तलाश में आता  और पानी न मिलने पर बंद कमरों के दरवाज़ों पे पंजे मारकर  दहाड़ता हुआ जैसे पानी मांगता, फिर थोड़ी देर में कहीं और चला जाता। पर दिन में वह कभी बाहर नहीं आता था।

खिले फूलों की   ख़ुशबुओं  से भरपूर मधुमास की सुहानी चाँदनी रात थी। रात के 2 बजे थे। मिस सौलोमन की नींद टूटी और वे पानी पीने के लिए उठी तो उन्हें मेज़ के पास कुर्सी पे 'कोई' सफेद कपड़ों में उजाले से भरपूर बैठा दिखा। उन्होंने आँखें मल कर फिर से देखा तो फिर उन्हें वही आकृति दिखी। उनके मुँह से सहसा निकाला – 
“कौन”…..?? 
और इसके बाद पलक झपकते ही वह आकृति ग़ायब हो गई। मिस सौलोमन घबरा गई । इसके बाद वे सो न सकीं और सारी रात करवट बदलते कटी। सुब्ह होने पर,  उन्होने किसी से कुछ न  बताना ही ठीक समझा। मिस सौलोमन अन्य टीचर्स से उम्र  में बड़ी  व गम्भीर, शान्त और मूक स्वभाव की थीं। उन्होंने सोचा कि यदि रात की घटना टीचर्स को बता दी, तो वे छोटी उम्र की लड़कियाँ ही तो हैं, डर जायेंगी और दुबे तो वैसे भी ज़रा-ज़रा सी बात में मूर्छित हो जाती है, मिसेज़ वर्मा का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है। इसलिए उन्होंने चुप रहना ही ठीक समझा।


उसी महीने 15 दिन बाद एक और रहस्यमयी घटना घटी। शाम का समय था, सूरज ढल रहा था। मन्द-मन्द हवा बह रही थी। मार्च के महीने में अपने आप जगह-जगह खिल पड़ने वाले बासन्ती रंग के फूल बंगले के चारों ओर लहलहा रहे थे। क्यारियों में गुलाब, पैन्ज़ी, पौपी, ग्लैडुला के रंग बिरंगे फूल ग़ज़ब का सौन्दर्य बिखेरे हुए थे। तभी दफ़्तरी बाबू बराम्दे में फूलों को निहारती बैठी  मिसेज़ गुप्ता के पास आकर बोले – 
“गुप्ता बहिन जी, क्या आप मुझे थोड़ी देर के लिए चाकू देगी, सब्ज़ी काटनी है और मेरा चाकू मिल नहीं रहा।“ 
गुप्ता ने कमरे से लाकर उन्हें चाकू पकड़ा दिया। दो  घंटे बाद खानसामा ‘शेर सिंह’ मिसेज़ गुप्ता के पास चाकू लेने और यह पूछने आया कि रात को क्या सब्ज़ी बनेगी। यह सुनकर मिसेज़ गुप्ता  ने सबसे पूछकर रात के लिए सब्ज़ी बताई और कहा        -
“चाकू दफ़्तरी बाबू  के पास है, दो घन्टे पहले वे माँगने आए थे, नीचे सर्वैन्ट्स  क्वार्टर  में उनसे  जाकर  ले आओ।“ 
शेरसिंह क्वार्टर  में जब दफ़्तरी बाबू  से चाकू माँगने गया,  तो वे बोले –
 “ मैं तो गुप्ता बहिन जी के पास चाकू लेने गया ही नहीं।“  
शेरसिंह फिर बोला – 
“वे कह रही थी कि आप दो घन्टे पहले उनसे सब्ज़ी काटने के लिए लेकर आए थे।“
 यह सुनते ही दफ़्तरी बाबू  सच का खुलासा करते बोले कि – 
“वह तो अभी - अभी बाज़ार से लौटे हैं, दो घन्टे पहले तो वे यहाँ थे भी नहीं।“ 
और उन्होंने ऊपर जाकर मिसेज़ गुप्ता से जब सारी बात बताई तो वे हैरान होती बोली –
 “तो फिर हूबहू इन्हीं कपड़ों में आप के जैसा कौन मेरे पास आया था, जो चाकू माँग कर ले गया ?”
 इस पहेली का जवाब किसी के भी पास न था। दफ़्तरी बाबू  सोच में डूबे नीचे क्वार्टर  में चले गए, मिसेज़ गुप्ता दिल में उथल पुथल लिए कमरे में चली गई और शेरसिंह मिस लोहानी से चाकू उधार लेकर शाम के खाने की तैयारी में लग गया।
                 
नवम्बर का सर्द महीना था। मिस शिलांग को तेज़ बुखार चढ़ा था। इसलिए उसने फ़िलहाल तीन  दिन की “सिक लीव” ली थी । बंगले से बाज़ार काफ़ी दूर था। उसने स्कूल जाने के लिए तैयार अपनी रूममेट मिस जोशी से शेरसिंह  को साथ ले जाकर, उसके हाथ दवा और कुछ फल भेजने के लिए कहा। नौ बजे तक सब टीचर्स चली गई। मिस शिलांग बुखार की तपिश  में लेटी न जाने कब सो गई। दो घन्टे बाद उठी तो, देखा कि साइड  में लगी टीक वुड की ड्रेसिंग टेबल  पर लाल-लाल सेब, अनार और रसीले अंगूर रखे थे। शिलांग को फल देखते ही स्फूर्ति महसूस हुई, स्वाद ख़राब  होने से कुछ भी खाने का मन नहीं था सिवाय के फलों के। सो उसने  एक सेब लेकर खाना शुरू किया, इतना मीठा सेब उसने आज तक नहीं खाया था, साथ ही कुछ अंगूर उसने एक छोटी प्लेट में बिस्तर के पास स्टूल पर रख लिए। सेब के साथ-साथ ज़ायका बदलने को वह बीच-बीच  में अंगूर  भी खाने लगी। अंगूर भी बड़े रसीले और शहद से मीठे थे। अच्छी चीज़ खाकर आधी बीमारी यूँ भी ठीक होती   लगने लगती है। कुछ ऐसा ही मिस शिलांग को लगा। उसने बेहतर महसूस किया। लिहाफ ओढ़कर लेटी रही और  न जाने कब फिर से नींद की आगोश में चली गई। कुछ समय बाद आँख खुली तो देखा एक बजा था। धीरे से उठी  और पैन्ट्री में जाकर शेरसिंह को आवाज़ दी। वह बंगले से दो कदम नीचे बनी रसोई से अपनी रोटियाँ सेंक रहा था। तुरंत  बाहर निकल कर बोला  - 
 “जी दीदी जी।“ 
शिलांग ने पूछा - “तुम दवा लाए ? “  
“जी लाया हूँ और जोशी दीदी ने केले भी  भेजे हैं, सेब की ताज़ी पेटियाँ दोपहर में खुलेगी, इसलिए वे सेब ख़ुद शाम को लेकर आएगीं। आप सोई थीं, मैंने आपका दरवाज़ा एक- दो बार खटखटाया था, जब नहीं खुला तो मैं समझ गया कि आप सोई होगी।”
 शिलांग को लगा कि शेरसिंह ने भांग तो नहीं खा ली कहीं, ये क्या कह रहा है कि केले लाया है, सेब जोशी शाम को लेकर आएगी, तो फिर मेरे कमरे में वे फल कौन रख गया ?  उसे कुछ समझ नहीं आया। कमज़ोरी के कारण उससे खड़ा  नहीं हुआ जा रहा था, इसलिए उसने शेरसिंह से दवा के साथ एक गिलास गुनगुना पानी लाने को भी कहा। वह जब कमरे में पानी और दवा लेकर आया तो शिलांग ने दवा खाकर फलों की ओर इशारा करते उससे पूछा –
 “ये फल ड्रेसिंग टेबल पे कहाँ से आए ?  मैं तो समझी तुम ही पैन्ट्री से आकर रख गए होगें।“  
“नहीं दीदी, पैन्ट्री का दरवाज़ा भी तो अंदर से बंद था। मैं अंदर आया ही नहीं।“ 
     कुछ डरा, सकुचाता, हैरान सा हुआ शेरसिंह बोला। मिस शिलांग बुखार के कारण सिर भारी होने के कारण दवा खाकर लेट गई।
 “दो बजे अदरक की चाय ले आना“ – मिस शिलांग ने कहा। 
वह सिर हिलाता चला गया। लेटते ही बुख़ार की गफ़लत में मिस शिलांग फिर से ऐसी सोई कि पांच बजे उसकी नींद खुली। उसने देखा कि उसकी साथिनें आ गई थीं। सब अपना-अपना काम करते बैठी थीं। मिस शिलांग को लगा कि उसके माथे पे बाम की चिपचिपाहट और खुशबू है, उसने समझा कि ये ज़रूर जोशी ने लगाया होगा। मिस शिलांग पास के बिस्तर पे बैठी कॉपियाँ जाँचती जोशी से बोली – 
“थैंक्स, अच्छा हुआ कि तुमने मेरे बाम लगा दिया। अब सिर का भारीपन काफ़ी ठीक है। बड़ा  हल्का महसूस कर रही हूँ।“ 
यह सुनकर जोशी बोली – “अरे, मैंने कब बाम लगाया तेरे शिलांग !! तूने सपने में देखा क्या मुझे बाम लगाते और वह हँसने लगी।“ 
मिस शिलांग आँख फैलाए जोशी को शक़ से देखती बोली– “देख बीमार से मज़ाक अच्छा नहीं, मेरे माथे पर इतना बाम क्या कोई भूत लगा गया फिर ? “  
जोशी इस बार गम्भीरता से उसे समझाती बोली – “ सच शिलांग, क़सम से,  तेरे बाम लगाना तो दूर, मैंने तुझे छुआ तक नहीं।“   
यह सुनकर शिलांग अनमनी सी हो गयी और मुँह ढक कर लेट गई। सोचने लगी, पहले फल, अब ये बाम..... ये क्या चक्कर है, या कोई जादू है,या ईश्वर धरती पे उतर आया है...!!!   
फिर  जोशी बोली –  “  सुन-सुन तेरे लिए सेब भी ले आई हूँ, पर ये  ड्रेसिंग टेबल पे इतने फल  कहाँ से आए ? “ 
 मिस शिलांग तो ख़ुद यह राज़ जानना चाहती थी, बोली -
“ मैं तो हैरान हूँ, जब ये फल न तुमने ख़रीदे, न शेरसिंह ने तो फिर ये यहाँ कैसे आए ? “  
उनकी बातें सुनकर पास वाले कमरे से मिसेज़ गुप्ता, मिसेज़   दुबे  और मिस सौलोमन भी आ गई। सबको कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि इसे किसी की शरारत कहें या इत्तेफ़ाक.....।
 सबने शिलांग से आराम करने के लिए कहा और ख़ुद भी काम में लग  गई। तीसरे दिन मिस शिलांग का बुखार उतर गया।  दो दिन और आराम करके, उसने भी सोमवार से स्कूल ज्वाइन कर लिया। स्कूल के ढेर कामों और नियमित व्यस्त दिनचर्या में धीरे-धीरे वह घटना सबके दिमाग से निकल गई, लेकिन अवचेतन  मन में ज़रूर सवालिया निशान बनकर चिपक गई।
जनवरी  की  कोहरे भरी ठंड, हर दूसरे दिन बर्फ़ गिरती। सारी प्रकृति बर्फ़ से ढकी हुई, पेड़, शाख़ें, पत्ते, क्यारियाँ सब पर  बर्फ़ जमी हुई थी। बंगले  की लाल टीन की छत, बर्फ़ की मोटी तह बिछ जाने से चाँदनी  की मानिन्द शफ़्फ़ाक  नज़र आ रही  थी। ऐसी कड़क सर्दी में सुब्ह झाड़ू लगाने वाला बूढ़ा जमादार  बीमार पड़ गया। एक हफ़्ते तक काम पर  न आ सका। लेकिन इस बात की किसी  को ख़बर न थी। इतवार के दिन  वह अपना फौजी लम्बा कोट पहने, कानों पे मफ़लर लपेटे  एवटाबाद हाउस में सबसे मिलने और सलाम करने आया और सबसे पहले लॉन में टीचर्स के साथ  इज़ी चेयर में लेटी, धूप सेकती, प्रिंसिपल मिस जंगपांगी के सामने हाथ जोड़कर बोला – 
 “ मेमसाब, मैं एक हफ़्ते से बीमार था, इसलिए सबेरे झाड़ू लगाने नहीं आ सका। कल से (सोमवार) मैं काम पर आना शुरु करुँगा।“  
यह सुनकर सब चकित होती एक साथ बोली – 
“ हमें तो पता ही नहीं चला कि तुम नहीं आ रहे हो क्योंकि हमें तो बराम्दे, लॉन, सब जगह झाड़ू लगी मिलती थी, कहीं भी कचरा, एक  भी पत्ता, तिनका पड़ा नहीं मिला और तुम बता रहे हो कि तुम बीमार होने के कारण आए नहीं, तो फिर रोज़ कौन सफ़ाई करके जाता था। तुमने किसी को भेजा था क्या सफ़ाई के लिए ? “ 
यह सुनकर जमादार बोला – “नहीं मेमसाब, मैंने किसी को नहीं भेजा।“
 मिस जंगपांगी ने अनुमान लगाते हुए कहा – 
“ कहीं गोविन्दराम या शेरसिंह ने तो अपने आप यह काम नहीं सम्भाल लिया, तुम्हारे न आ पाने से... ? “ 
यह सुनकर  जमादार भी ख़ामोश, निरुत्तर खड़ा रह गया। उसे भी कुछ समझ नहीं आया कि ऐसे कैसे हो सकता है कि उसके न आने पर  भी सफ़ाई होती रही... ?!! ख़ैर, वह अंजाने ही सबको सोचने का एक अटपटा सा विषय दे गया जिसका दूर-दूर तक कोई ऐसा छोर नहीं मिल पा रहा था कि जिससे गुत्थी सुलझती। मिस जंगपांगी ने कुछ देर बाद शेरसिंह को बुलाकर  बंगले की  सफ़ाई के बारे में पूछा तो उसने इंकार किया। फिर वे बोली – 
“जाओ, सर्वैन्ट क्वार्टर्स  में जाकर सबसे पता करके आओ कि 4-5 दिन तक सुब्ह बाहर की सफ़ाई किसने की ? “ 
शेरसिंह सिर हिलाता क्वार्टर्स में गया और पता करके आया  कि किसी ने भी सफ़ाई नहीं की। अब तो यह रहस्य एक अनबूझ पहेली बन गया – टीचर्स से लेकर सभी नौकरों  तक के लिए।
रात के  दस  बजे थे। शेरसिंह पानी का जग लेकर  दीदी लोगों के कमरे में रखने जा रहा था, जैसे ही वह रसोई से निकला, उसे फूलों की क्यारियों के पास सफेद कपड़ों में एक ऊँचे क़द का आदमी नज़र आया। सहसा वह डर के चीखा – 
“भूत.........भूत..... भूत ..............“
तभी नीचे क्वार्टर से रात की ड्यूटी के लिए ऊपर आता चौकीदार शेरसिंह की डरी चीख़ सुनकर रसोई की ओर तेज़ी  से लपका और बोला – 
“अरे, क्या हुआ, कहाँ है भूत.......? “
 शेरसिंह के चेहरे पर हवाईयाँ उड़  रही  थी, वह झाड़ी की तरफ़ इशारा करता घिघयाए  गले से बोला – 
“वो देखो, उधर.........“ 
पर  वहाँ कोई नहीं था। चौकीदार  उसे शेरसिंह का वहम समझ कर हँसता हुआ बोला –
 “चल डरपोक कहीं का। आ, मैं चलता हूँ तेरे साथ कमरे तक।“ 
कमरे में शेरसिंह के साथ चौकीदार को आया देख मिसेज़ गुप्ता ने पूछा – 
“शेरसिंह के साथ तुम इस समय कैसे चौकीदार।“ 
  इस पर चौकीदार  फिर से हँसता हुआ बोला -
 “इस डरपोक को झाड़ी के पास भूत दिखा, तो मैं इसके साथ आया हूँ।“ 
 यह सुनकर गुप्ता ही नहीं और टीचरों के भी कान खड़े हो गए। उन्हें, शेरसिंह को इस तरह भूत का दिखना, कोई वहम नहीं बल्कि सच लगा। सबको लगा कि एवटाबाद हाउस में जो रहस्यमय ढंग से कुछ-कुछ, जब-तब  घटता रहता है, उसके पीछे हो न हो, भूत ही है। पर सब खौफ़ से भरी चुप रहीं और अपने-अपने बिस्तरों में ऐसे  दुबक  के लेटी  कि जैसे भूत  से छुप  रही हों। 
कुछ दिन बाद सभी ने मिस जंगपांगी  से गम्भीरतापूर्वक इस बारे में बात की और डॉ.शाह को एक दिन बंगले पे बुलाकर इस विषय में विस्तार से बताकर कोई निदान निकालने का निवेदन किया। अगले रविवार को डॉ. शाह लंच पर आए। उन्होने टीचर्स की सब बातें बड़े धैर्य से सुनकर उस राज़ का खुलासा किया जिसका ज़िक्र वे बेबात ही किसी से करना ठीक नहीं समझते थे। लेकिन जब प्रगट रूप से एवटाबाद में रहस्यमय घटनाएँ घट ही रही थीं तो उन्होने भी बताना उचित समझा। वे सबको शान्ति से समझाते बोले – 
“देखिए, घबराने की या डरने की कोई बात नहीं। यह बंगला अँग्रेज़ों से पहले एक गढ़वाली अफ़सर का था। वही इसका मालिक था। सुना गया है कि एक बार  परिवार के साथ पिकनिक पर गए हुए उस अफ़सर की एकाएक पहाड़ी से पैर फिसल जाने के कारण असमय दर्दनाक मृत्यु हो गई थी। ज़ाहिर है, उसे अपने इस बंगले से बड़ा लगाव रहा होगा, ऊपर से अचानक असमय मौत, तो ऐसे में कई बार इंसान की आत्मा भटकती है, उसकी मुक्ति नहीं होती। लैन्सडाउन में रहने वाले पुश्तैनी लोगों का कहना है कि आज भी उस अफ़सर की आत्मा अपने प्यारे घर के आसपास रहती है।वह इस बंगले और इसमें रहने वालों को कभी नुक़सान नहीं पहुँचाता, वरन उनका भला ही करता  है, मदद करता है। जैसे जब मैं अपने परिवार सहित यहाँ रहता था तो एक बार  रात 9  बजे के लगभग मुझे एक इमरजैन्सी केस देखने शहर जाना पड़ा। लौटने में देर हो गई। रात के यही कोई 11 बजे होगें। मैं पैदल बड़ी टॉर्च की रौशनी दूर तक फेंकता तेज़ कदमों से बंगले  की ओर चलता चला आ रहा था कि तभी पीछे से एक छोटी कार मेरे पास आकर रुकी और  उसमें बैठे सज्जन ने मुझे यह कहकर लिफ़्ट दी कि वह भी चेटपुट लाइन्स जा रहा है अगर मुझे भी उधर ही कहीं जाना है तो वह छोड़ सकता है। थका हुआ तो मैं था ही, तो मैं उसकी इस उदारता का शुक्रिया अदा करता  कार में बैठ गया। रास्ते में हमारे बीच कोई ख़ास बातचीत नहीं हुई। मैं अपने परिवार के पास पहुँचने की जल्दी में था। गेट पर कार के पहुँचते ही, मैं धन्यवाद देता कार से उतरा और गेट के अन्दर आते ही, जैसे  ही शिष्टाचारवश मैं उस व्यक्ति को ' बॉय बॉय' कह कर हाथ हिलाने को मुड़ा तो पाया कि उस एक क्षण के अन्दर वह कार सहित ग़ायब हो चुका था। दूर तक कार कहीं भी दिखाई नहीं दे रही थी। मैं ठगा सा खड़ा रह गया।“ 
इसी तरह एक बार वह भूत मेरी बेटी जया के हाथ में फ़्रैक्चर होने पर,  मेरे घर के नौकर प्रेमसिंह के रूप में मेरे अस्पताल के कमरे में आया और जया के फ़्रैक्चर के बारे में बता कर ग़ायब हो गया। मैंने  तुरंत अस्पताल से चार कर्मचारियों को स्ट्रैचर  लेकर कंपाउडर सहित इस बंगले पर भेजा और इस तरह उचित समय पर जया के प्लास्टर वगैरा चढ़ गया। शाम को घर लौटने पर मैंने जब अपनी पत्नी से कहा  कि ये तुमने अच्छा किया कि प्रेमसिंह से जया के फ़्रैक्चर की मुझे सूचना अस्पताल में भिजवा दी, वरना इसके हाथ में बहुत सूजन आ जाती, तो  वह अचरज से भरी मेरी ओर देखती बोली – 
“मैंने कब प्रेम सिंह को भेजा, उल्टे मैं ही आप से पूछने वाली थी कि आपको 3 कि.मी. दूर अस्पताल में किससे सूचना मिली कि आपने कर्मचारियों को स्ट्रैचर लेकर कंपाउडर सहित यहाँ बंगले पर भेजा।“ 
पत्नी से यह सुनते ही डॉ. शाह को समझते देर नहीं लगी कि प्रेम सिंह के  रूप में उन्हें सूचना देने वाला कोई और नहीं, बल्कि 'उपकारी भूत' ही था, जो एवटाबाद  में रहने वालों का शुभचिन्तक और निस्वार्थ मददगार था। सो आप लोगों को मेरी नेक़ राय है कि आप निश्चिन्त होकर यहाँ रहिए और ज़रा भी उस भली आत्मा से डरने की ज़रूरत नहीं। आपको तो बिन माँगे एक  अदृश्य शक्तिशाली रक्षक मिला हुआ है। आपको तो सुरक्षित महसूस करना चाहिए। आप अपना काम कीजिए, उस उपकारी को अपना काम करने दीजिए। इसमें परेशानी क्या है। साल भर के अदंर आप लोगों की सरकारी स्कूल बिल्डिंग बनने वाली है और साथ में 15 कमरों का टीचर्स हॉस्टल भी, तो  वैसे भी स्थायी रूप से आपको इस बंगले में रहना नहीं है। कुछ देर बाद डॉ.शाह चले गए। सब टीचर्स भी कमरों में लौट आई। डॉ.शाह से बात करके वे  काफ़ी आशस्वत हुई, फिर भी भूत शब्द ही ऐसा है जो अच्छे-अच्छे हिम्मत वालों के पसीने छुटा दे, तो फिर उन कम उम्र युवतियों का भय स्वभाविक था। लेकिन अब वे अपने भय को दूर के लिए दिल से कोशिश में थी। 

इधर छ: महीने से बंगले में कोई भी रहस्यमय घटना नहीं घटी थी। जबकि अब सभी टीचर्स उस बंगले के असली भूतपूर्व मालिक  उपकारी भूत के एक बार दर्शन करने को मन ही मन इच्छुक रहती थी क्योंकि डॉ.शाह के द्वारा उसके गुणगान सुनकर, वह उन्हें अपना दोस्त लगने लगा था। सभी महीने में एक दो बार उसका ज़िक्र करके याद करती, पर वह जैसे बंगले पर आना भूल गया हो, उन्हें ऐसा लगता। तभी 25 जुलाई को, मिस सौलोमन के जन्म दिन पर  उसने बहुत दिनों बाद अपनी उपस्थिति का भान कराया। उस दिन सुब्ह उठते ही सभी टीचर्स ने बारी-बारी  से सबकी चहेती मिस सौलोमन को “मैनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ़ द डे” कहा  और ढेर शुभकामनाएँ दी। शाम को बर्थ डे केक, समोसे, मिठाईयाँ, गरम-गरम पकौड़ी और स्पेशल चाय वाली छोटी सी पार्टी बंगले पर रखी गई। प्रिंसिपल को भी मिस सौलोमन के कमरे में स्कूल के बाद आने का निमंत्रण दे दिया गया। शाम को जब टीचर्स स्कूल से लौटी तो, देखा कि मिस सौलोमन के कमरे में मेज़ पर बेहद ख़ूबसूरत फूलों का बड़ा सा गुलदस्ता रखा हुआ था । कमरा फूलों की ख़ुशबू से महक रहा था। सभी ने उस गुलदस्ते का राज़ तो भांप लिया था,  फिर भी अपने अनुमान को पक्का करने के लिए शेर सिंह से पूछा -
 “कोई पीछे आया तो नहीं था ?”  
शेरसिंह ने बताया –  “कोई भी नहीं ” 
 इससे  सब जान गए कि ये उस भले भूत की तरफ़ से मिस सौलोमन को बर्थ डे का तोहफ़ा था। मिस सौलोमन  ने उसे एक बड़े फ़्लावर वाज़  में पानी भर कर  बड़े प्यार और सम्मान से लगाया और उसके आगे हाथ जोड़कर विनम्रता से “थैंक्स” कहा। इस तरह हर दूसरे तीसरे महीने छोटी-बड़ी मदद उसकी ओर से होती रहती। सबको अब उसकी मदद भली लगती  और सब उसे खामोशी से शुक्रिया देती। 
इस  तरह , उन सबका उस अदृश्य दोस्त से एक आत्मिक रिश्ता क़ायम हो गया था। वे तो अब नए हॉस्टल में जाने को भी पहले जैसी उतावली नहीं थी। ये भी जानती थी कि एक दिन तो उस एवटाबाद हाउस से उन्हें विदा लेनी ही है, लेकिन कोई भी उस बंगले से विदा  नहीं लेना चाहती थीं। एवटाबाद हाउस और उसका “केयर टेकर” वह ख़ामोश उपकारी भूत उन सबको अपने प्रति उत्सुकता से भर चुका था ।


फ़िरदौस ख़ान
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी यानी जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है. जन्म स्थान या अपने देश को मातृभूमि कहा जाता है. भारत और नेपाल में भूमि को मां के रूप में माना जाता है. यूरोपीय देशों में मातृभूमि को पितृ भूमि कहते हैं. दुनिया के कई देशों में मातृ भूमि को गृह भूमि भी कहा जाता है. इंसान ही नहीं, पशु-पक्षियों और पशुओं को भी अपनी जगह से प्यार होता है, फिर इंसान की तो बात ही क्या है. हम ख़ुशनसीब हैं कि आज हम आज़ाद देश में रह रहे हैं. देश को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने के लिए हमारे पूर्वजों ने बहुत क़ुर्बानियां दी हैं. उस वक़्त देश प्रेम के गीतों ने लोगों में जोश भरने का काम किया. बच्चों से लेकर नौजवानों, महिलाओं और बुज़ुर्गों तक की ज़ुबान पर देश प्रेम के जज़्बे से सराबोर गीत किसी मंत्र की तरह रहते थे. क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल की नज़्म ने तो अवाम में फ़िरंगियों की बंदूक़ों और तोपों का सामने करने की हिम्मत पैदा कर दी थी.
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है
वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है...

देश प्रेम के गीतों का ज़िक्र मोहम्मद अल्लामा इक़बाल के बिना अधूरा है. उनके गीत सारे जहां से अच्छा के बग़ैर हमारा कोई भी राष्ट्रीय पर्व पूरा नहीं होता. हर मौक़े पर यह गीत गाया और बजाया जाता है. देश प्रेम के जज़्बे से सराबोर यह गीत दिलों में जोश भर देता है.
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्तां हमारा
यूनान, मिस्र, रोमा, सब मिट गए जहां से
अब तक मगर है बाक़ी, नामो-निशां हमारा...

जयशंकर प्रसाद का गीत यह अरुण देश हमारा, भारत के नैसर्गिक सौंदर्य का बहुत ही मनोहरी तरीक़े से चित्रण करता है.
अरुण यह मधुमय देश हमारा
जा पहुंच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा...

हिन्दी फ़िल्मों में भी देश प्रेम के गीतों ने लोगों में राष्ट्र प्रेम की गंगा प्रवाहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. आज़ादी से पहले इन गीतों ने हिन्दुस्तानियों में ग़ुलामी की जंज़ीरों को तोड़कर मुल्क को आज़ाद कराने का जज़्बा पैदा किया और आज़ादी के बाद देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय एकता की भावना का संचार करने में अहम किरदार अदा किया है. फ़िल्मों का ज़िक्र किया जाए तो देश प्रेम के गीत रचने में कवि प्रदीप आगे रहे. उन्होंने 1962 की भारत-चीन जंग के शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए ‘ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी’ गीत लिखा. लता मंगेशकर द्वारा गाये इस गीत का तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में 26 जनवरी, 1963 को दिल्ली के रामलीला मैदान में सीधा प्रसारण किया गया था. गीत सुनकर जवाहरलाल नेहरू की आंखें भर आई थीं. साल 1943 बनी फिल्म क़िस्मत के गीत ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है’ ने उन्हें अमर कर दिया. इस गीत से ग़ुस्साई तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ़्तारी के आदेश दिए थे, जिसकी वजह से प्रदीप को भूमिगत होना पड़ा था. उनके लिखे फ़िल्म जागृति (1954) के गीत ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तानकी’ और ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ आज भी लोग गुनगुना उठते हैं. शकील बदायूंनी का लिखा फ़िल्म सन ऑफ़ इंडिया का गीत ‘नन्हा मुन्ना राही हूं देश का सिपाही हूं’ बच्चों में बेहद लोकप्रिय है. कैफ़ी आज़मी के लिखे और मोहम्मद रफ़ी के गाये फ़िल्म हक़ीक़त के गीत ‘कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’ को सुनकर आंखें नम हो जाती हैं और शहीदों के लिए दिल श्रद्धा से भर जाता है. फ़िल्म लीडर का शकील बदायूंनी का लिखा और मोहम्मद रफ़ी का गाया और नौशाद के संगीत से सजा गीत ‘अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं, सर कटा सकते हैं, लेकिन सर झुका सकते नहीं’ बेहद लोकप्रिय हुआ. प्रेम धवन द्वारा रचित फ़िल्म हम हिन्दुस्तानी का गीत ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी, नये दौर में लिखेंगे, मिलकर नई कहानी’ आज भी इतना ही मीठा लगता है. उनका फ़िल्म क़ाबुली वाला का गीत भी रोम-रोम में देश प्रेम का जज़्बा भर देता है.
ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल क़ुर्बान
तू ही मेरी आरज़ू, तू ही मेरी आबरू, तू ही मेरी जान...

राजेंद्र कृष्ण द्वारा रचित फ़िल्म सिकंदर-ए-आज़म का गीत भारत देश के गौरवशाली इतिहास का मनोहारी बखान करता है.
जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा
वो भारत देश है मेरा, वो भारत देश है मेरा
जहां सत्य अहिंसा और धर्म का पग-पग लगता डेरा
वो भारत देश है मेरा, वो भारत देश है मेरा...

इसी तरह गुलशन बावरा द्वारा रचित फ़िल्म उपकार का गीत देश के प्राकृतिक खनिजों के भंडारों और खेतीबाड़ी और जनमानस से जुड़ी भावनाओं को बख़ूबी प्रदर्शित करता है.
मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती
मेरी देश की धरती
बैलों के गले में जब घुंघरू
जीवन का राग सुनाते हैं
ग़म कोसों दूर हो जाता है
जब ख़ुशियों के कमल मुस्काते हैं...

इसके अलावा फ़िल्म अब दिल्ली दूर नहीं, अमन, अमर शहीद, अपना घर, अपना देश, अनोखा, आंखें, आदमी और इंसान, आंदोलन, आर्मी, इंसानियत, ऊंची हवेली, एक ही रास्ता, क्लर्क, क्रांति, कुंदन, गोल्ड मेडल, गंगा जमुना, गंगा तेरा पानी अमृत, गंगा मान रही बलिदान, गंवार, चंद्रशेखर आज़ाद, चलो सिपाही चलो, चार दिल चार रास्ते, छोटे बाबू, जय चित्तौ़ड, जय भारत, जल परी, जियो और जीने दो, जिस देश में गंगा बहती है, जीवन संग्राम, जुर्म और सज़ा, जौहर इन कश्मीर, जौहर महमूद इन गोवा, ठाकुर दिलेर सिंह, डाकू और महात्मा, तलाक़, तूफ़ान और दीया, दीदी, दीप जलता रहे, देशप्रेमी, धर्मपुत्र, धरती की गोद में, धूल का फूल, नई इमारत, नई मां, नवरंग, नया दौर, नया संसार, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, प्यासा, परदेस, पूरब और पश्चिम, प्रेम पुजारी, पैग़ाम, फ़रिश्ता और क़ातिल, अंगारे, फ़ौजी, बड़ा भाई, बंदिनी, बाज़ार, बालक, बापू की अमर कहानी, बैजू बावरा, भारत के शहीद, मदर इंडिया, माटी मेरे देश की, मां बाप, मासूम, मेरा देश मेरा धर्म, जीने दो, रानी रूपमति, लंबे हाथ, शहीद, आबरू, वीर छत्रसाल, दुर्गादास, शहीदे-आज़म भगत सिंह, समाज को बदल डालो, सम्राट पृथ्वीराज चौहान, हम एक हैं, कर्मा, हिमालय से ऊंचा, नाम और बॉर्डर आदि फ़िल्मों के देश प्रेम के गीत भी लोगों में जोश भरते हैं. मगर अफ़सोस कि अमूमन ये गीत स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या फिर गांधी जयंती जैसे मौक़ों पर ही सुनने को मिलते हैं, ख़ासकर ऑल इंडिया रेडियो पर.

बहरहाल, यह हमारे देश की ख़ासियत है कि जब राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवय या इसी तरह के अन्य दिवस आते हैं तो रेडियो पर देश प्रेम के गीत सुनाई देने लगते हैं. बाक़ी दिनों में इन गीतों को सहेजकर रख दिया जाता है. शहीदों की याद और देश प्रेम को कुछ विशेष दिनों तक ही सीमित करके रख दिया गया है. इन्हीं ख़ास दिनों में शहीदों को याद करके उनके प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है. कवि जगदम्बा प्रसाद मिश्र हितैषी के शब्दों में यही कहा जा सकता है-
शहीदों की चिताओं लगेंगे हर बरस मेले
वतन पे मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा… 


सरफ़राज़ ख़ान
देश को स्वतंत्र हुए छह देशक से भी ज्यादा का समय हो गया है. हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री द्वारा लाल क़िले पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फ़हराया जाता है. मगर क्या कभी किसी ने यह सोचा है कि 15 अगस्त, 1947 की रात को जब देश आज़ाद हुआ था, उस वक़्त भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने लाल किले पर जो तिरंगा लहराया फहराया था, वह कहां है?
इसकी सही जानकारी किसी को नहीं है. राष्ट्रीय ध्वज पूरे राष्ट्र के लिए एक ऐसा प्रतीक चिन्ह होता है जो पूरे देश की अस्मिता से जुड़ा होता है. यूं तो आज़ादी के बाद से हर बरस लाल क़िले पर फहरया जाने वाला तिरंगा देश की धरोहर है, लेकिन 15 अगस्त 1947 को लाल किले पर फहराये राष्ट्रीय ध्वज का अपना अलग ही एक महत्व है.
कुछ लोगों का कहना है कि 15 अगस्त 1947 को लाल किले पर लहराया गया तिरंगा नेहरू स्मारक में रखा गया है, जबकि स्मारक के अधिकारी इस बात से इंकार करते हैं. हैरत की बात तो यह भी है कि यह विशेष तिरंगा राष्ट्रीय अभिलेखागार में भी मौजूद नहीं है. इस अभिलेखागार में 1946 में नौसेना विद्रोह के दौरान बाग़ी सैनिकों द्वारा फहराया गया ध्वज रखा हुआ है. बंबई में 1946 में नौसेना विद्रोह के वक्त तीन ध्वज फहराये गए थे. इनमें कांग्रेस का ध्वज, मुस्लिम लीग का ध्वज और कम्युनिस्ट पार्टी का ध्वज शामिल थे. इनमें से कांग्रेस का ध्वज अभिलेखागार में मौजूद है.

प्रथम स्वतंत्रता दिवस पर फहराया गया ध्वज राष्ट्रीय संग्रहालय में भी नहीं है. राष्ट्रीय संग्रहालय के एक पूर्व अधिकारी के मुताबिक़ आम तौर पर ऐतिहासिक महत्व की ऐसी धरोहर राष्ट्रीय संग्रहालय में रखने की बात हुई थी, लेकिन बाद में इसे भारतीय सेना को सौंप दिया गया था. इसके बाद इसे स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस के प्रबंध की देखरेख करने वाले केंद्रीय लोक निर्माण विभाग को सौंप दिया गा, लेकिन केंद्रीय लोक निर्माण विभाग तथा सर्च द फ्लैग मिशन के पास उस तिरंगे के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध है.

15 अगस्त 1947 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ऑल इंडिया रेडियो पर देश के नाम संदेश देने दिया था और शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां ने अपनी स्वर लहरियों से आज़ादी का स्वागत किया था.



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