अल इश्क़ो नारून, युहर्री को मा सवीयिल महबूब...
यानी इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है...
इश्क़ वो आग है, जिससे दोज़ख भी पनाह मांगती है... कहते हैं, इश्क़ की एक चिंगारी से ही दोज़ख़ की आग दहकायी गई है... जिसके सीने में पहले ही इश्क़ की आग दहकती हो उसे दोज़ख़ की आग का क्या ख़ौफ़...
जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है... इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना... क्योंकि इश्क़ तो 'उससे' हुआ है...उसकी ज़ात (अस्तित्व) से हुआ है... उस 'महबूब' से जो सिर्फ़ 'जिस्म' नहीं है... वो तो ख़ुदा के नूर का वो क़तरा जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है... इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है... इश्क़ में रूहानियत होती है... इश्क़, बस इश्क़ होता है... किसी इंसान से हो या ख़ुदा से...
हज़रत राबिया बसरी कहती हैं- इश्क़ का दरिया अज़ल से अबद तक गुज़रा, मगर ऐसा कोई न मिला जो उसका एक घूंट भी पीता. आख़िर इश्क़ विसाले-हक़ हुआ...
बुजुर्गों से सुना है कि शायरों की बख़्शीश नहीं होती...वजह, वो अपने महबूब को ख़ुदा बना देते हैं...और इस्लाम में अल्लाह के बराबर किसी को रखना...शिर्क यानी ऐसा गुनाह माना जाता है, जिसकी मुआफ़ी तक नहीं है...कहने का मतलब यह है कि शायर जन्नत के हक़दार नहीं होते...उन्हें दोज़ख़ (जहन्नुम) में फेंका जाएगा... अगर वाक़ई ऐसा है तो मुझे दोज़ख़ भी क़ुबूल है...आख़िर वो भी तो उसी अल्लाह की तामीर की हुई है...जब हम अपने महबूब (चाहे वो काल्पनिक ही क्यूं न हो) से इतनी मुहब्बत करते हैं कि उसके सिवा किसी और का तसव्वुर करना भी कुफ़्र महसूस होता है... उसके हर सितम को उसकी अदा मानकर दिल से लगाते हैं... फिर जिस ख़ुदा की हम उम्रभर इबादत करते हैं तो उसकी दोज़ख़ को ख़ुशी से क़ुबूल क्यूं नहीं कर सकते...?
बंदे को तो अपने महबूब (ख़ुदा) की दोज़ख़ भी उतनी ही अज़ीज़ होती है, जितनी जन्नत... जिसे इश्क़ की दौलत मिली हो, फिर उसे कायनात की किसी और शय की ज़रूरत ही कहां रह जाती है, भले ही वो जन्नत ही क्यों न हो...
जब इश्क़े-मजाज़ी (इंसान से इश्क़) हद से गुज़र जाए, तो वो ख़ुद ब ख़ुद इश्क़े-हक़ीक़ी (ख़ुदा से इश्क़) हो जाता है... इश्क़ एक ख़ामोश इबादत है... जिसकी मंज़िल जन्नत नहीं, दीदारे-महबूब है...
किसी ने क्या ख़ूब कहा है-
मुकम्मल दो ही दानों पर
ये तस्बीह-ए-मुहब्बत है
जो आए तीसरा दाना
ये डोर टूट जाती है
मुक़र्रर वक़्त होता है
मुहब्बत की नमाज़ों का
अदा जिनकी निकल जाए
क़ज़ा भी छूट जाती है
मोहब्बत की नमाज़ों में
इमामत एक को सौंपो
इसे तकने उसे तकने से
नीयत टूट जाती है
मुहब्बत दिल का सजदा है
जो है तैहीद पर क़ायम
नज़र के शिर्क वालों से
मुहब्बत रूठ जाती है
जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
मुसलमानों में एक नया 'बुद्धिजीवी' वर्ग पैदा हो गया है जिसे मुसलमानों की हर मकामी रवायत 'जहालत' लगती है। इनकी खुद की कुल तालीम बस इतनी है कि इन्होंने इर्तगुल गाज़ी के सारे सीज़न देखे हैं और मोहल्ले के लड़कों के साथ गश्त लगाई है। इन्हें लगता है कि ताज़िये के साथ निकलती भीड़, अलम उठाते हुए नौजवान, अशरे पर होने वाले मातम, मज़ारों पर होने वाली कव्वाली, मोहल्लों में होने वाली करतबबाज़ी - ये सब जहालत है। बस ये एक बड़े तालीमयाफ़्ता हैं, बाकी सब जाहिल।
असल बात ये है कि इन्हें मालूम ही नहीं कि ये मज़हब नहीं मआशरी अमल हैं। एक खित्ते का स्थानीयता का रंग है, लोकल हिस्ट्री का कनेक्शन है जो बाप दादा सदियों से करते आए हैं। उसका एक कॉनटेक्स्ट है। हिंदुस्तान सैकड़ों तहज़ीबों से मिलकर बना एक मुल्क है। यहां हर चार कोस पर मज़हब के साथ नई तरह की आंचलिकता जुड़ी है। आप एक ही रंग की तहज़ीब हर जगह नहीं पा सकते। अगर आप के लिहाज़ से सफेद कुर्ता पायजामे पर काली सदरी पहनकर मस्जिद तक जाना और लौट आने के अलावा सब कुछ 'जहालत' है तो जाहिल आप हैं। जिसे नहीं पता मज़हब और माशरत के बीच का फर्क। ये वो मुल्क है जहां समाज और मज़हब इतने गुंधे हुए हैं कि हर कल्चर एक दूसरे के थोड़े थोड़े रंग सजाए है। मुसलमानों की शादियों में दुल्हन हिंदू संस्कृति में शुभ माने जाने वाला लाल जोड़ा पहनती है और हिंदुओं की शादी में दूल्हा मुसलमानों के बीच मोहज़्ज़ब मानी जाने वाली शेरवानी। इसी देश में में उन ब्रह्मणों के वंशज मौजूद हैं जो कर्बला में इमाम हुसैन के साथ जंग लड़े और इसी देश में वो सूफी भी हैं जिन्होंने खुदा को अपना महबूब कह दिया और आज उनकी मज़ारों की लोग ज़ियारत करते हैं।
लखनऊ में किन्नरों का समाज भी अपना ताज़िया निकालता है। सफेद कपड़ों में किन्नर कर्बला की जंग को याद करते हुए गाते-बजाते निकलते हैं बीसियों साल से। छोट छोटे मुहल्लों के चौराहों पर लोग कर्बला में इमाम हुसैन को मिले दर्द को याद करते हुए करतबबाज़ी करते हैं, इन स्टंट के ज़रिये वो अपनी जान जोखिम में डालते हैं उस डर को महसूस करते हैं जो यज़ीद की भारी-भरकम फौज का सामना करने पहले एक बार लश्कर के दिल में आया होगा। ये उस ज़मीन की तहज़ीब हैं जिसने मज़हब को सिर्फ़ किताब से नहीं, हज़ारों सालों की तहज़ीब के रंग में जिया है।लेकिन अफ़सोस ये है कि आज तारिक मसूद को सुनकर नौजवान हुआ मुसलमान इसे फितना कहकर न सिर्फ खारिज करता है, उन्हें मिटाने पर भी आमादा है। इन्हें लगता है कि मज़हब महज़ एक क्लीन कट, मिनिमलिस्ट आइडिया है जिसमें लोकल कल्चर की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इनकी समझ में धर्म का रिश्ता ज़मीन से नहीं, सिर्फ़ स्क्रीन से है। इनके इस्लाम का मरकज़ किताबें नहीं, क्लिपिंग्सौ हैं। ये सोचते हैं कि अगर कोई मज़ार पर चादर चढ़ा रहा है, या कोई बच्चा अलम को माथा टेक रहा है, तो वह जाहिल है।
हक़ीक़त ये है कि ये रस्में, ये रवायतें, ये लोक-तहज़ीब — ये सब मिलकर ही तो हिंदुस्तानी इस्लाम को मुकम्मल बनाती हैं। सिर्फ़ अरबी पहनावा, या टीवी वाले तुर्की किरदार देखकर किसी तहज़ीब को “शुद्ध” नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इस मुल्क में इस्लाम सिर्फ़ मदीना से नहीं आया — वो यहां के खेतों, खलिहानों, बाज़ारों, फकीरों, दरवेशों, दस्तकारों और बाप-दादाओं की नसीहतों के ज़रिए फैला है।
जो लोग इन रवायतों को जहालत कहते हैं, उन्हें दरअसल अपने वजूद की जड़ों से डर लगता है। उन्हें हर वो चीज़ खटकती है जो इस्लाम को इस ज़मीन का बनाती है। ये दरअसल ‘सांस्कृतिक हीनभावना’ है — जो अपने भीतर की परंपराओं से भागती है, और बाहर की चमक को असली मान लेती है।
इसलिए याद रखिए मज़हब और माशरत का रिश्ता गहरा है। इसे अपनी पीढ़ियों और शिजरों की रौशनी में समझिये। ये हमारा लोकल कल्चर है जो हर दस मील पर बदलता है, इसका रंग, ज़ंबान अंदाज़ और तरीका सब बदलता है। ये अच्छी बुरी जैसी भी हैं हमारी जड़े हैं और जो इसे जहालत कहे वो खुद जाहिल है।
फ़िरदौस ख़ान
एक ज़माने से देश के कोने-कोने से युवा हिन्दी सिनेमा में छा जाने का ख़्वाब लिए मुंबई आते रहे हैं. इनमें से कई खु़शक़िस्मत तो सिनेमा के आसमान पर रौशन सितारा बनकर चमकने लगते हैं, तो कई नाकामी के अंधेरे में खो जाते हैं. लेकिन युवाओं के मुंबई आने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है. एक ऐसे ही युवा थे संजीव कुमार, जो फ़िल्मों में नायक बनने का ख़्वाब देखा करते थे. और इसी ख़्वाब को पूरा करने के लिए वह चल पड़े एक ऐसी राह पर, जहां उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना था. मगर अपने ख़्वाब को पूरा करने के लिए वह मुश्किल से मुश्किल इम्तिहान देने को तैयार थे. उनकी इसी लगन और मेहनत ने उन्हें हिन्दी सिनेमा का ऐसा अभिनेता बना दिया, जो ख़ुद ही अपनी मिसाल है.
संजीव कुमार का जन्म 9 जुलाई, 1938 को मुंबई में हुआ था. उनका असली नाम हरि भाई ज़रीवाला था. उनका पैतृक निवास सूरत में था. बाद में उनका परिवार मुंबई आ गया. उन्हें बचपन से फ़िल्मों का काफ़ी शौक़ था. वह फ़िल्मों में नायक बनना चाहते थे. अपने इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने रंगमंच का सहारा लिया. इसके बाद उन्होंने फ़िल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाख़िला ले लिया और यहां उन्होंने अभिनय की बारीकियां सीखीं. उनकी क़िस्मत अच्छी थी कि उन्हें 1960 में फ़िल्मालय बैनर की फ़िल्म हम हिंदुस्तानी में काम करने क मौक़ा मिल गया. फ़िल्म में उनका किरदार तो छोटा-सा था, वह भी सिर्फ़ दो मिनट का, लेकिन इसने उन्हें अभिनेता बनने की राह दे दी.
1965 में बनी फ़िल्म निशान में उन्हें बतौर मुख्य अभिनेता काम करने का सुनहरा मौक़ा मिला. यह उनकी ख़ासियत थी कि उन्होंने कभी किसी भूमिका को छोटा नहीं समझा. उन्हें जो किरदार मिलता, उसे वह ख़ुशी से क़ुबूल कर लेते. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म शिकार में उन्हें पुलिस अफ़सर की भूमिका मिली. इस फ़िल्म में मुख्य अभिनेता धर्मेंद्र थे, लेकिन संजीव कुमार ने शानदार अभिनय से आलोचकों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. इस फ़िल्म के लिए उन्हें सहायक अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर अवॊर्ड मिला. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म संघर्ष में छोटी भूमिका होने के बावजूद वह छा गए. इस फ़िल्म में उनके सामने महान अभिनेता दिलीप कुमार भी थे, जो उनकी अभिनय प्रतिभा के क़ायल हो गए थे. उन्होंने फ़िल आशीर्वाद, राजा और रंक और अनोखी रात जैसी फ़िल्मों में अपने दमदार अभिनय की छाप छोड़ी. 1970 में प्रदर्शित फ़िल्म खिलौना भी बेहद कामयाब रही. इस फ़िल्म ने संजीव कुमार को बतौर अभिनेता स्थापित कर दिया. इसी साल प्रदर्शित फ़िल्म दस्तक में सशक्त अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़े गए. फिर 1972 में प्रदर्शित फ़िल्म कोशिश में उन्होंने गूंगे बहरे का किरदार निभाकर यह साबित कर दिया कि वह किसी भी तरह की भूमिका में जान डाल सकते हैं. इस फ़िल्म को संजीव कुमार की महत्वपूर्ण फ़िल्मों में शुमार किया जाता है. फ़िल्म शोले में ठाकुर के चरित्र को उन्होंने अमर बना दिया.
उन्होंने 1974 में प्रदर्शित फ़िल्म नया दिन नई रात में नौ किरदार निभाए. इसमें उन्होंने विकलांग, नेत्रहीन, बूढ़े, बीमार, कोढ़ी, हिजड़े, डाकू, जवान और प्रोफ़ेसर का किरदार निभाकर अभिनय और विविधता के नए आयाम पेश किए. उन्होंने फ़िल्म आंधी में होटल कारोबारी का किरदार निभाया, जिसकी पत्नी राजनीति के लिए पति का घर छोड़कर अपने पिता के पास चली जाती है. इसमें उनकी पत्नी की भूमिका सुचित्रा सेन ने निभाई थी. इस फ़िल्म के लिए संजीव कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अगले ही साल 1977 में उन्हें फ़िल्म अर्जुन पंडित के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला.
उनकी अन्य फ़िल्मों में पति पत्नी, स्मगलर, बादल, हुस्न और इश्क़, साथी, संघर्ष, गौरी, सत्यकाम, सच्चाई, ज्योति, जीने की राह, इंसाफ़ का मंदिर, ग़ुस्ताख़ी माफ़, धरती कहे पुकार के, चंदा और बिजली, बंधन, प्रिया, मां का आंचल, इंसान और शैतान, गुनाह और क़ानून, देवी, दस्तक, बचपन, पारस, मन मंदिर, कंगन, एक पहेली, अनुभव, सुबह और शाम, सीता और गीता, सबसे बड़ा सुख, रिवाज, परिचय, सूरज और चंदा, मनचली, दूर नहीं मंज़िल, अनामिका, अग्नि रेखा, अनहोनी, शानदार, ईमान, दावत, चौकीदार, अर्चना, मनोरंजन, हवलदार, आपकी क़सम, कुंआरा बाप, उलझन, आनंद, धोती लोटा और चौपाटी, अपने रंग हज़ार, अपने दुश्मन, आक्रमण, फ़रार, मौसम, दो लड़कियां, ज़िंदगी, विश्वासघात, पापी, दिल और पत्थर, धूप छांव, अपनापन, अंगारे, आलाप, ईमान धर्म, यही है ज़िंदगी, शतरंज के खिलाड़ी, मुक्ति, तुम्हारे लिए, तृष्णा डॊक्टर, स्वर्ग नर्क, सावन के गीत, पति पत्नी और वो, मुक़द्दर, देवता, त्रिशूल, मान अपमान, जानी दुश्मन, घर की लाज, बॊम्बे एट नाइट, हमारे तुम्हारे, गृह प्रवेश, काला पत्थर, टक्कर, स्वयंवर, पत्थर से टक्कर, बेरहम, अब्दुल्ला, ज्योति बने जवाला, हम पांच कृष्ण, सिलसिला, वक़्त की दीवार, लेडीज़ टेलर, चेहरे पे चेहरा, बीवी ओ बीवी, इतनी सी बात, दासी, विधाता, सिंदूर बने ज्वाला, श्रीमान श्रीमती, नमकीन, लोग क्या कहेंगे, खु़द्दार, अय्याश, हथकड़ी, सुराग़, सवाल, अंगूर, हीरो और यादगार शामिल हैं. उन्होंने पंजाबी फ़िल्म फ़ौजी चाचा में भी काम किया. कई फ़िल्में उनकी मौत के बाद प्रदर्शित हुईं, जिनमें बद और बदनाम, पाखंडी, मेरा दोस्त मेरा दुश्मन, लाखों की बात, ज़बरदस्त, राम तेरे कितने नाम, बात बन जाए, हाथों की लकीरें, लव एंड गॊड, कांच की दीवर, क़त्ल, प्रोफ़ेसर की पड़ौसन और राही शामिल हैं. संजीव कुमार के दौर में हिंदी सिनेमा में दिलीप कुमार, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और शम्मी कपूर जैसे अभिनेताओं का बोलबाला था. इन अभिनेताओं के बीच संजीव कुमार ने अपनी अलग पहचान क़ायम की. उन्होंने अभिनेता और सहायक अभिनेता के तौर पर कई यादगार भूमिकाएं कीं.
वह आजीवन अविवाहित रहे. हालांकि कई अभिनेत्रियों के साथ उनके प्रसंग सुर्ख़ियों में रहे. कहा जाता है कि पहले उनका रुझान सुलक्षणा पंडित की तरफ़ हुआ, लेकिन प्यार परवान नहीं चढ़ पाया. इसके बाद उन्होंने हेमा मालिनी से विवाह करना चाहा, लेकिन वह अभिनेता धर्मेंद्र को पसंद करती थीं, इसलिए यहां भी बात नहीं बन पाई. हेमा मालिनी ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर पहले से शादीशुदा धर्मेंद्र से शादी कर ली. धर्मेंद्र ने भी इस विवाह के लिए इस्लाम क़ुबूल किया था. यह कहना ग़लत न होगा कि ज़िंदगी में प्यार क़िस्मत से ही मिलता है. अपना अकेलापन दूर करने के लिए संजीव कुमार ने अपने भतीजे को गोद ले लिया. संजीव कुमार के परिवाए में कहा जाता था कि उनके परिवार में बड़े बेटे के दस साल का होने पर पिता की मौत हो जाती है, क्योंकि उनके दादा, पिता और भाई के साथ ऐसा हो चुका था. उनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. जैसे ही उनका भतीजा दस साल का हुआ 6 नवंबर, 1985 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई. यह महज़ इत्तेफ़ाक़ था या कुछ और. ज़िंदगी के कुछ रहस्य ऐसे होते हैं, जो कभी सामने नहीं आ पाते.
बहरहाल, अपने अभिनय के ज़रिये संजीव कुमार खु़द को अमर कर गए. जब भी हिन्दी सिनेमा और दमदार अभिनय की बात छिड़ेगी, उनका नाम ज़रूर लिया जाएगा.
फ़िरदौस ख़ान
ख़ूबसूरत और मिलनसार प्रिया राजवंश की ज़िंदगी की कहानी किसी परी कथा से कम नहीं है. पहाड़ों की ख़ूबसूरती के बीच पली-बढ़ी एक लड़की कैसे लंदन पहुंचती है और फिर वापस हिंदुस्तान आकर फ़िल्मों में नायिका बन जाती है. एक ऐसी नायिका जिसने फ़िल्में तो बहुत कम कीं, इतनी कम कि उन्हें अंगुलियों पर गिना जा सकता है, लेकिन अपने ख़ूबसूरत अंदाज़ और दिलकश आवाज़ से उसने सबका दिल जीत लिया.
प्रिया राजवंश का जन्म 1937 में नैसर्गिक सौंदर्य के शहर शिमला में हुआ था. उनका बचपन का नाम वीरा था. उनके पिता सुंदर सिंह वन विभाग में कंजरवेटर थे. प्रिया राजवंश ने शिमला में ही पढ़ाई की. इसी दौरान उन्होंने कई अंग्रेज़ी नाटकों में हिस्सा लिया. जब उनके पिता संयुक्त राष्ट्र संघ की तरफ़ से ब्रिटेन गए, तो प्रिया राजवंश ने लंदन की प्रतिष्ठित संस्था रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स में दाख़िला ले लिया. सौभाग्य से उन्हें फ़िल्मों में भी काम करने का मौक़ा मिल गया. हुआ यूं कि लंदन के एक फोटोग्राफर ने उनकी तस्वीर खींची. चेतन आनंद ने अपने एक दोस्त के घर यह तस्वीर देखी तो वह प्रिया राजवंश की ख़ूबसूरती के क़ायल हो गए. उन दिनों चेतन आनंद को अपनी फ़िल्म के लिए नए चेहरे की तलाश थी. 20 अक्टूबर, 1962 को चीन ने देश पर हमला कर दिया था. हिंदुस्तानी फ़ौज को भारी नुक़सान हुआ था और फ़ौज को पीछे हटना पड़ा. इस थीम पर चेतन आनंद हक़ीक़त नाम से फ़िल्म बनाना चाहते थे. उन्होंने प्रिया राजवंश से संपर्क किया और उन्हें फ़िल्म की नायिका के लिए चुन लिया गया. 1964 में बनी इस फ़िल्म के निर्माण के दौरान प्रिया राजवंश ने चेतन आनंद की हर स्तर पर मदद की. संवाद लेखन से लेकर पटकथा लेखन, निर्देशन, अभिनय और संपादन तक में उनका दख़ल रहा. चेतन आनंद उन दिनों अपनी पत्नी उमा से अलग हो चुके थे. इसी दौरान प्रिया राजवंश और चेतन आनंद एक दूसरे के क़रीब आ गए और फिर ज़िंदगी भर साथ रहे. प्रिया राजवंश उम्र में चेतन आनंद से तक़रीबन 22 साल छोटी थीं, लेकिन उम्र का फ़ासला उनके बीच कभी नहीं आया.
प्रिया राजवंश ने बहुत कम फ़िल्मों में काम किया. फ़िल्म हक़ीक़त के बाद 1970 में उनकी फ़िल्म हीर रांझा आई. 1973 में हिंदुस्तान की क़सम और हंसते ज़ख्म, 1977 में साहेब बहादुर, 1981 में क़ुदरत और 1985 में हाथों की लकीरें आई. प्रिया राजवंश ने सिर्फ़ चेतन आनंद की फ़िल्मों में ही काम किया और चेतन ने भी हक़ीक़त के बाद प्रिया राजवंश को ही अपनी हर फ़िल्म में नायिका बनाया. उन्हें फ़िल्मों के बहुत से प्रस्ताव मिलते थे, लेकिन वह इंकार कर देती थीं. उनकी खुशी तो सिर्फ़ और सिर्फ़ चेतन आनंद के साथ थी. हालांकि दोनों ने विवाह नहीं किया था, लेकिन फ़िल्मी दुनिया में उन्हें पति-पत्नी ही माना जाता था. चेतन आनंद के साथ अपनी छोटी सी दुनिया में वह बहुत सुखी थीं. कहा जाता है कि हीर रांझा प्रिया राजवंश को केंद्र में रखकर ही बनाई गई थी. इस फ़िल्म की ख़ासियत यह है कि इसके सारे संवाद पद्य यानी काव्य रूप में हैं, जिन्हें कैफ़ी आज़मी ने लिखा था. इसे काव्य फ़िल्म कहना ग़लत न होगा. इसके गीत भी कैफ़ी आज़मी ने ही लिखे थे. प्रिया राजवंश पर फ़िल्माया गया गीत-मिलो न तुम तो, हम घबराएं, मिलो तो आंख चुराएं, हमें क्या हो गया है…बहुत मशहूर हुआ. इसी तरह फ़िल्म हंसते जख्म का कैफ़ी आज़मी का लिखा और मदन मोहन के संगीत से सजा गीत-बेताब दिल की तमन्ना यही है…आज भी लोग गुनगुना उठते हैं.
अंग्रेज़ी के लेखक आरके नारायण के उपन्यास गाइड पर आधारित फ़िल्म गाइड बनाने के वक़्त पहला विवाद नायिका को लेकर ही हुआ था. देव आनंद माला सिन्हा को नायिका रोज़ी की भूमिका के लिए लेना चाहते थे, लेकिन चेतन की पसंद प्रिया राजवंश थीं. विजय आनंद का मानना था कि रोज़ी की भूमिका वहीदा रहमान से बेहतर कोई और अभिनेत्री नहीं निभा सकती, लेकिन वहीदा रहमान राज खोसला के साथ काम नहीं करती थीं. दरअसल, हुआ यह था कि देव आनंद गाइड के निर्देशन के लिए पहले ही राज खोसला से बात कर चुके थे. अब उन्हें राज खोसला और वहीदा रहमान में से किसी एक को चुनना था. चेतन आनंद और विजय आनंद ने वहीदा का समर्थन किया और फिर चेतन आनंद की सलाह पर निर्देशन की ज़िम्मेदारी विजय आनंद को सौंप दी गई. वहीदा रहमान ने कमाल का अभिनय किया और फ़िल्म मील का पत्थर साबित हुई.
प्रिया राजवंश की ज़िंदगी में अकेलापन और परेशानियां उस वक़्त आईं, जब 6 फ़रवरी, 1997 को चेतन आनंद का देहांत हो गया. प्रिया राजवंश अकेली रह गईं. वह जिस बंगले में रहती थीं, उसकी क़ीमत दिनोदिन बढ़ती जा रही थी. चेतन के बेटे केतन आनंद और विवेक आनंद प्रिया राजवंश को इस बंगले से निकाल देना चाहते थे, लेकिन जब वे इसमें कामयाब नहीं हो पाए तो उन्होंने नौकरानी माला चौधरी और अशोक स्वामी के साथ मिलकर 27 मार्च, 2000 को प्रिया राजवंश का बेहरहमी से क़त्ल कर दिया. मुंबई की एक अदालत ने प्रिया राजवंश हत्याकांड में 31 जुलाई, 2002 को केतन आनंद और विवेक आनंद तथा उनके सहयोगियों नौकरानी माला चौधरी और अशोक स्वामी को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई.
कुछ अरसा पहले चेतन आनंद की ज़िंदगी पर आधारित उनकी पत्नी उमा और बेटे केतन आनंद की एक किताब आई थी. इस किताब में ज़िंदगीभर चेतन आनंद के साथ रहने वाली प्रिया राजवंश का ज़िक्र नहीं के बराबर है. दरअसल, चेतन आनंद ने अपने लिए अलग एक बंगला बनवाया था, जिसमें वह प्रिया राजवंश के साथ रहा करते थे. यही बंगला बाद में प्रिया राजवंश की मौत की वजह बना यानी एक बंगले के लालच ने प्रिया राजवंश से उनकी ज़िंदगी छीन ली. वह अपने घर में मृत पाई गई थीं. उनके हत्यारों को तो अदालत ने सज़ा दे दी, लेकिन उनके प्रशंसक शायद ही उनके क़ातिलों को कभी मा़फ़ कर पाएं. अपनी फ़िल्मों की बदौलत वह हमेशा हमारे बीच रहेंगी, मुस्कराती और चहकती हुई.
फ़िरदौस ख़ान
बीसवीं सदी के मशहूर शायरों में जां निसार अख्तर को शुमार किया जाता है. उनका जन्म 14 फ़रवरी, 1914 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में एक सुन्नी मुस्लिम परिवार में हुआ. उनके पिता मुज़्तर खैराबादी मशहूर शायर थे. उनके दादा फज़ले-हक़ खैराबादी मशहूर इस्लामी विद्वान थे. जां निसार अख्तर ने ग्वालियर के विक्टोरिया हाई स्कूल से दसवीं पास की. इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वह अलीगढ़ चले गए, जहां उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री हासिल की. इसके बाद वह वापस अपने शहर ग्वालियर लौट आए और विक्टोरिया कॉलेज में उर्दू के प्राध्यापक के तौर पर नियुक्त हो गए. उन्होंने 1943 में सफ़िया सिराज उल हक़ से निकाह किया. सफ़िया मशहूर शायर मज़ाज लखनवी की बहन थीं और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उन्हीं के साथ पढ़ती थीं. यहीं से उनकी दोस्ती सफ़िया से हो गई थी, जो बाद में मुहब्बत और फिर शादी तक जा पहुंची. उनके दो बेटे हुए जावेद और सलमान. जावेद अख्तर प्रसिद्ध फ़िल्म गीतकार हैं. बाद में जां निसार अख्तर भोपाल आ गए और हमीदिया कॉलेज में उर्दू और फ़ारसी विभाग के अध्यक्ष के तौर पर काम करने लगे. बाद में सफ़िया ने भी इसी कॉलेज में काम किया. वह प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे, बाद में वह इसके अध्यक्ष भी बने.
उन्होंने 1949 में इस्तीफ़ा दे दिया और मुंबई चले आए. यहां वह प्रगतिशील लेखकों मुल्क राज आनंद, कृष्ण चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी और इस्मत चुग़ताई के संपर्क में आए. इन लेखकों की यह जमात बॉम्बे लेखक समूह के नाम से जानी जाती थी. अकसर इनकी मुलाक़ातें मुंबई के सिल्वर फिश रेस्तरां में होतीं. जां निसार अख्तर को फ़िल्मों में काम मिलना शुरू हो गया. उन्होंने सी रामचंद्रा, ओपी नैयर, एन दत्ता और खय्याम के लिए तक़रीबन 151 यादगार गीत लिखे. इनमें फ़िल्म यासमीन (1955), सीआईडी (1956), रुस्तम सोहराब (1963), प्रेम पर्वत (1974), नूरी (1979), शंकर हुसैन (1977) और कमाल अमरोही की फिल्म रज़िया सुल्तान (1983) शामिल है. उन्होंने 1967 में बहु बेगम फ़िल्म बनाई. इसकी कहानी भी उन्होंने ख़ुद लिखी थी. फ़िल्म में मीना कुमारी और प्रमोद कुमार ने काम किया था. यह फ़िल्म हिट रही.
मगर जां निसार अख्तर को कामयाबी मिलने से पहले ही ज़िंदगी के हर मुश्किल सफ़र में उनका साथ निभाने वाली उनकी पत्नी सफ़िया की 17 जनवरी, 1953 में कैंसर से मौत हो गई. कुछ वक़्त बाद 17 सितंबर, 1956 को उन्होंने ख़दीजा तलत से निकाह कर लिया. सफ़िया के पत्रों का संग्रह 1955 में तुम्हारे नाम शीर्षक से प्रकाशित हुआ. इसके हर्फ़-ए-आशना और ज़ेर-ए-लब नामक दो खंडों में 1 अक्टूबर, 1943 से 29 दिसंबर 1953 तक सफ़िया द्वारा जां निसार अख्तर को लिखे गए ख़त शामिल हैं. जां निसार अख्तर की शायरी के कई संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें नज़र-ए-बुतां, सलासिल, जावेदां, पिछले पहर, घर-आंगन और ख़ाक-ए-दिल आदि शामिल हैं. जां निसार अख्तर को 1976 में उर्दू साहित्य अकादमी अवॉर्ड से नवाज़ा गया.
जां निसार अख्तर की शायरी में रूमानियत के रेशमी जज़्बात हैं, तो तसव्वुरात के ख़ूबसूरत लम्हे भी हैं. आज भी मुहब्बत करने वाले अपने ख़तों में उनके शेअर लिखा करते हैं.
अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेअर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
आंखों में जो भर लोगे तो कांटो से चुभेंगे
ये ख्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
देखूं तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ
मंदिर में फ़क़्त दीप जलाने के लिए हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं
ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख्स की यादों को भुलाने के लिए हैं
उनके कलाम में मुहब्बत के कई रंग शामिल हैं. इसमें मिलन का रंग है, तो नाराज़गी और बिछड़ने का रंग भी शामिल है.
सौ चांद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी
तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी
उनसे यही कह आए कि हम अब न मिलेंगे
आख़िर कोई तक़रीब-ए-मुलाक़ात बनेगी
ये हमसे न होगा कि किसी एक को चाहें
ऐ इश्क़! हमारी न तेरे साथ बनेगी
हैरत कदा-ए-हुस्न कहां है अभी दुनिया
कुछ और निखर ले तो तिलिस्मात बनेगी
उनकी शायरी में मुहब्बत का वह अहसास है, जिसे महबूब के होने या न होने से कोई फर्क़ नहीं प़डता. मुहब्बत तो बस मुहब्बत है. महबूब क़रीब हो या दूर, पर मुहब्बत का अहसास हमेशा बरक़रार रहता है.
कौन कहता है तुझे मैंने भुला रखा है
तेरी यादों को कलेजे से लगा रखा है
लब पे आहें भी नहीं आंख में आंसू भी नहीं
दिल ने हर राज़ मुहब्बत का छुपा रखा है
तूने जो दिल के अंधेरे में जलाया था कभी
वो दिया आज भी सीने में जला रखा है
देख जा आके महकते हुए ज़ख्मों की बहार
मैंने अब तक तेरे गुलशन को सजा रखा है
उन्होंने सामाजिक असमानता, शोषण और ग़रीबी जैसे मुद्दों को भी अपनी शायरी में बख़ूबी उठाया है.
मौजे-गुल, मौजे-सबा, मौजे-सहर लगती है
सर से पा तक वो समां है कि नज़र लगती है
हमने हर गाम पे सजदों के जलाए हैं चिराग़
अब तेरी राहगुज़र, राहगुज़र लगती है
लम्हे-लम्हे में बसी है तेरी यादों की महक
आज की रात तो खुशबू का सफ़र लगती है
जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं
देखना ये है कि अब आग किधर लगती है
सारी दुनिया में ग़रीबों का लहू बहता है
हर ज़मीं मुझको मिरे खूऩ से तर लगती है
कोई आसूदा नहीं अहले-सियासत के सिवा
ये सदी दुश्मन-ए-अरबाब-ए-हुनर लगती है
वाक़िया शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ
ये तो अख़बार के दफ्तर की ख़बर लगती है
लखनऊ! क्या तिरी गलियों का मुक़द्दर था यही
हर गली आज तिरी ख़ाक-बसर लगती है
वह प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े थे. इसका असर भी उनके कलाम में दिखाई देता है.
लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फा है मुझसे
तेरी आंखों ने तो कुछ और कहा मुझसे
हाय! इस व़क्त को कोसूं कि दुंआ दूं यारो
जिसने हर दर्द मेरा छीन लिया मुझसे
दिल का ये हाल धड़के ही चला जाता है
ऐसा लगता है कोई जुर्म हुआ है मुझसे
खो गया आज कहां रिज़्क का देने वाला
कोई रोटी जो खड़ा मांग रहा है मुझसे
अब मेरे क़त्ल की तदबीर तो करनी होगी
कौन-सा राज़ है तेरा जो छुपा है मुझसे
मुंबई में 19 अगस्त, 1976 को 62 साल की उम्र में उनकी मौत हो गई, लेकिन अपनी शायरी की वजह से वह हमेशा लोगों के दिलों में रहेंगे. उनके मदहोश कर देने वाले गीत आज भी लोग गुनगुना उठते हैं. शायरी उनके खून में थी. लिहाज़ा, अब उनके बेटे जावेद अख्तर भी अपने कलाम से अदब की महफ़िल में चार चांद लगाए हुए हैं.
لعن الله من قتل الإمام الحسين علیہ السلام وأصحابه في كربلاء، ولعن الله كل لاعن من بغض و العداوت لی الإمام الحسين علیہ السلام وأهل بيت النبي صلی اللہ علیہ وسلم .
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ترجمہ :- خدا ان پر لعنت کرے ان پر، جنہوں نے کربلا میں امام حسین علیہ السلام اور ان کے ساتھیوں کو قتل کیا، اور خدا کی لعنت ہو ان پر اور تمام لعنت کرنے والوں کی لعنت، جو لوگ امام حسین علیہ السلام اور آل اے پاک اے رسول صلی اللہ علیہ وسلم کے لیے دل میں بغض اور عداوت رکھتے ہیں اور ان کی مخالفت کرتے ہیں۔
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तर्जुमा : अल्लाह की लानत हो उन पर, जिन्होंने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों को कर्बला में क़त्ल किया था. और अल्लाह की लानत हो उन पर, और तमाम लानत करने वालों की लानत हो उन पर, जो लोग हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और तमाम आले पाक-ए-रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से बुग़्ज़ रखते हैं और उनकी मुख़ालिेफ़त करते हैं.
फ़िरदौस ख़ान
मुहर्रम का महीना शुरू हो चुका है. इस महीने के साथ ही हिजरी कैलेंडर के नये साल 1445 का भी आग़ाज़ हो गया है. मुहर्रम का महीना कर्बला का वाक़िया याद दिलाता है. मुहर्रम की दस तारीख़ को ताज़िये निकाले जाते हैं. हिन्दुस्तान में ताज़िये निकालने की बहुत पुरानी रिवायत है. यहां ताज़ियादारी किसने और कब शुरू की, इस बारे में पुख़्ता जानकारी नहीं मिलती. शिया समुदाय के बहुत से लोगों का मानना है कि हिन्दुस्तान में मुग़ल बादशाह बाबर ने ताज़ियादारी शुरू की थी.
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रंजन ज़ैदी का कहना है कि हिन्दुस्तान में ताज़िये निकालने की शुरुआत मुग़ल बादशाह बाबर ने की थी. कहा जाता है कि बाबर की बीवी माहम बेगम बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. कर्बला के शहीदों के लिए उनके दिल में बहुत ही अक़ीदत थी. वे हर साल मुहर्रम के महीने में कर्बला जाया करती थीं. एक बार वे बहुत बीमार हो गईं. बीमारी की वजह से वे इतनी कमज़ोर हो गईं कि उनके लिए सफ़र करना मुनासिब नहीं था. मुहर्रम का महीना आने वाला था. अब सवाल यह था कि वे कर्बला कैसे जाएं. उस वक़्त आज की तरह यातायात के सुगम साधन नहीं थे. ऊंटों और घोड़ों पर लोग सफ़र करते थे. उस दौर में तांगे और बैल गाड़ियां होती थीं. कहने का मतलब यह है कि सफ़र में बहुत ही मुश्किलों का सामना करना पड़ता था. ऐसी हालत में किसी बीमार के लिए लम्बा सफ़र करना किसी भी सूरत में आसान नहीं था.
बादशाह बाबर ने माहम बेगम की हालत देखी, तो उन्होंने सोचा कि क्यों न कर्बला को यहीं लाया जाए. ऐसा करना नामुमकिन था. बादशाह ने अपने वज़ीरों से सलाह मशविरा किया. फिर कारीगरों को हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रोज़े जैसा ताज़िया बनाने का हुक्म दिया गया. बादशाह के हुक्म पर ताज़िया बनकर तैयार हो गया. फिर मुहर्रम में स्याह लिबास पहना गया, मजलिसें हुईं, नोहे पढ़े गए और तबर्रुक तक़सीम किया गया. मुहर्रम की दस तारीख़ को जुलूस के साथ ताज़िया निकाला गया और फिर उसे दफ़न कर दिया गया. इसके बाद हर साल ऐसा ही होने लगा. चूंकि यह रिवायत मुग़ल बादशाह बाबर ने शुरू की थी, इसलिए अवाम भी इसमें शिरकत करती थी. एक बार यह सिलसिला शुरू हुआ, तो फिर बदस्तूर जारी रहा.
जब शेर ख़ां यानी शेरशाह से जंग हारने के बाद हुमायूं हिन्दुस्तान से चले गए और कई बरसों तक ख़ानाबदोश जैसी ज़िन्दगी बसर की. फिर जब वे ईरान के बादशाह की मदद मिलने के बाद वापस हिन्दुस्तान आए, तो उनके साथ वहां से बहुत से शिया भी आए. हुमायूं के क़रीबी बैरम ख़ां भी शिया थे. हुमायूं के दौर में भी ताज़िया निकालने का सिलसिला जारी रहा है. बादशाह अकबर के ज़माने में भी मुहर्रम में ताज़िये निकाले जाते थे. फिर बादशाह जहांगीर का दौर आया. जहांगीर की बेगम मेहरुन्निसा यानी नूरजहां शिया थीं. उनके पिता मिर्ज़ा ग़ियास बेग और मां अस्मत बेगम हुमायूं के साथ ही हिन्दुस्तान आए थे. उनके वक़्त में भी कर्बला के शहीदों की याद में मजलिसें होती थीं और ताज़िये निकाले जाते थे. यह रिवायत आज भी जारी है.
प्रख्यात विद्वान व इतिहासकार प्रोफ़ेसर जाफ़र रज़ा अपनी किताब ‘इस्लाम के धार्मिक आयाम हुसैनी क्रान्ति के परिपक्ष्य में’ लिखते हैं- “यह निश्चित है कि हज़रत अली के ख़िलाफ़त काल (656-661 ईस्वी) में विशेषकर सिन्धी जाठों में ‘शीआने-ग़ुलात’ ने भारत में पैग़म्बर के परिवारजनों के अनुरूप वातावरण बना रखा था. यहां तक कि कहा जाता है कि सिन्ध के दत्त, जो अरब में निवास करते थे, कर्बला के संग्राम में इमाम हुसैन का सहयोग करते हुए शहीद भी हुए. बाद में बनी उमैया के शासन काल में दत्त जाति के बचे-खुचे लोगों को अरब से ईरान में ढकेल दिया गया. यदि हज़रत अली के दास वंशज गौरी शासकों ने उमैया वंशज ख़लीफ़ाओं के अत्याचार से बचते हुए इस्लामी पैग़म्बर के परिवारजनों के प्रेम को अपने सीने में लगाए रखा था. इस तथ्य के ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं कि सिन्धी मुस्लिम उलेमा पैग़म्बर के परिवारजनों के इमामों विशेषकर इमाम मुहम्मद बाक़िर और इमाम जाफ़र सादिक़ की सेवा में होने का गौरव रखते थे तो यह किस प्रकार संभव है कि वे इमाम हुसैन की अज़ादारी में सम्मिलित न हुए हों. इसी प्रकार सिन्ध तथा पंजाब के क्षेत्रों में शीआ सम्प्रदाय की नई बस्तियों का बसना, सिन्ध के प्रशासक का बनी फ़ातमा की हुकूमत क़ायम करने में अपनी जानों का क़ुर्बान करना, पंजाब और सिन्धवासियों की नई बस्तियों के प्रतिष्ठित लोगों का फ़ातिमी वंशज मिस्री शासकों से प्रत्यक्ष रूप में संबंध स्थापित करना, वह भी इस सीमा तक कि अपने सभी कार्यों में फ़ातिमीन ख़लीफ़ाओं की अनुमति प्राप्त करते थे. मिस्र के फ़ातिमीन ख़लीफ़ा अन्य शीओं के समान अज़ादारी के प्रति असाधारण अभिरुचि रखते थे. फिर इस्माईलियों के धर्म प्रचार संबंधी गतिविधियां जो मुहर्रम के दस दिनों में अपने सत्संगों में इमाम हुसैन और उनके संबंधियों के त्याग एवं बलिदान की घटनाएं निश्चित रूप से वर्णन करते होंगे. खेद है कि इन तथ्यों की ओर हमारे इतिहासकारों ने ध्यान नहीं दिया, जिनसे भारत में अज़ादारी के प्रारम्भिक चिह्न धुंधला गए. भारत-आर्य संयुक्त संस्कृति एवं सभ्यता के इन परम महत्वपूर्ण पृष्ठों पर समय की धूल की मोटी परत चढ़ गई. वरना जन प्रियता के कारण कुछेक प्रारम्भिक चिह्न बिखरे हुए मिलते हैं, जिनके आधार पर इमाम हुसैन की याद मनाने के विषय में जानकारी प्राप्त होती है.”
लोकगीतों में भी कर्बला के वाक़िये का ज़िक्र मिलता है. लोकगीत रचने वालों और लोक गायकों ने भी ऐतिहासिक घटनाओं को ज़िन्दा रखने में अपना अहम किरदार अदा किया है. जाफ़र रज़ा लिखते हैं- “भारत में इमाम हुसैन की याद मनाने के प्रारम्भिक चिह्न सरायकी भाषा के मरसियो के रूप में सुरक्षित हैं, जिनको सिन्धी और सरायकी क्षेत्रों में चारण जाति के लोग गाकर सुनने वालों से पुरस्कार प्राप्त करते हैं. भारत में इमाम हुसैन की अद्वितीय शहीदी बयान करने वालों में पहला नाम मिन्हाज सिराज जुज़जानी है, जो अपने बारे में लिखता है कि वह मई 1231 को ग्वालियर पहुंचा, जहां सुल्तान शम्सउद्दीन अल्तुतमिश (मृ. 1236 ईस्वी) घेरा डाले हुए था. यह घेरा बढ़ता ही गया. सुल्तान ने जुज़जानी को सैनिकों की धार्मिक दीक्षा के कार्य पर नियुक्त किया, जिसका दायित्व उसने सात माह तक निर्धारित किया. रमज़ान के पूरे महीने में, हफ़्ते में तीन बार, ज़िलहिज्जा माह के प्रारम्भिक दस दिनों तक और पहली मुहर्रम से दसवीं मुहर्रम तक. जुज़जानी इन धर्म प्रचार वक्तव्यों को ‘तज़कीर’ कहता है. स्पष्ट है कि रमज़ान में तज़कीर का विषय आत्म संयम और ऋषत्व रहा होगा. ज़िलहिज्जा में हज़रत इब्राहीम की क़ुर्बानी बयान की गई होगी, जिस पर मुसलमान त्यौहार मनाते हैं परन्तु पहली मुहर्रम से दस मुहर्रम तक उसके वक्तव्यों का विषय इमाम हुसैन की अद्वितीय शहादत के अलावा कोई और कुछ नहीं हो सकता. यह विषय सैनिकों में त्याग एवं बलिदान की भावना जाग्रत करने के लिए सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हुआ होगा. “
हिन्दुस्तान में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की याद मनाने में सूफ़ियों का भी अहम किरदार रहा है. सूफ़ियों की ख़ानकाहों में आज भी कर्बला के शहीदों को याद किया जाता है. जाफ़र रज़ा लिखते हैं- “उत्तरी भारत में इमाम हुसैन की याद मनाने का क्रम प्रसिद्ध सूफ़ी संत ख़्वाजा सैयद मुहम्मद अशरफ़ जहांगीर शमनानी द्वारा अलम निकालने से प्रारम्भ होता है. उन्होंने मुहर्रम के मौक़े पर इमाम हुसैन का अलम निकाला और उसकी छाया में बैठे. उनका दस्तूर था कि सब्ज़वार (ईरान) के समान अलम तैयार कराते थे. एक थैली के साथ उस अलम को पास-पड़ौस के उत्कृष्ट सैयदों और धर्मभीरू जनों के पास भेजते थे. अधिकांश यह दायित्व अपने उत्तराधिकारी शाह सैयद अली क़लन्दर के माध्यम से सम्पन्न कराते थे. सूफ़ी संत शाह समनानी 1380 ईस्वी में भारत पधारे थे. इस प्रकार अलम निकालने का क्रम उसी के आसपास प्रारम्भ हुआ होगा. उनके वक्तव्यों में लिखित है कि मुहर्रम के दस दिनों में अच्छा वस्त्र धारण नहीं करते थे. किसी आनन्दमय आयोजन में भाग नहीं लेते थे. आठवीं तथा दसवीं मुहर्रम के बीच की तिथियों में विश्राम करना त्याग देते थे. तीस वर्षों तक चाहे यात्रा में हों या कहीं भी हों, इमाम हुसैन का ग़म मनाना कभी नहीं भूलते थे.”
सूफ़ियों के दिलों में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अहले बैत के लिए बेहद अक़ीदत रही है. वे इस बेपनाह मुहब्बत को ईमान की अलामत मानते हैं. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को ख़िराजे-अक़ीदत पेश करते हुए ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती फ़रमाते हैं-
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
दीन अस्त हुसैन, दीने-पनाह हुसैन
सर दाद न दाद दस्त, दर दस्ते-यज़ीद
हक़्क़ा कि बिना-ए-लाइलाह अस्त हुसैन
यानी
शाह भी हुसैन हैं और बादशाह भी हुसैन हैं
दीन भी हुसैन हैं और दीने पनाह भी हुसैन हैं
सर दे दिया, पर यज़ीद के हाथ में अपना हाथ नहीं दिया
हक़ीक़त यही है कि लाइलाहा की बुनियाद हुसैन हैं.
बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां ने भी अज़ादारी को ख़ूब तरग़ीब दी. जाफ़र रज़ा लिखते हैं- “मलका नूरजहां (मौत 1665 ईस्वी) जो जहांगीर के पर्दे में शहनशाहे-ज़मन थीं, ने वहां इमाम हुसैन की अज़ादारी को प्रोत्साहित करने हेतु एक शाही फ़रमान जारी किया था, जिसमें अज़ादारी और ताज़ियादारी की विशेष चर्चा है तथा उसने कई गांव बतौर माफ़ी ख़्वाजा अजमेरी की दरगाह से सम्बद्ध किए थे, ताकि वहां अज़ादारी और ताज़ियादारी अधिक सुचारू रूप से विकसित हो सके.
ख़्वाजा अजमेरी की सूफ़ी-पीठ के ही प्रख्यात संत ख़्वाजा बन्दा नवाज़ गेसूदराज़ (मौत 1442 ईस्वी) के ‘समाअ’ में इमाम हुसैन का ग़म मनाने की चर्चा मिलती है. यह घटना 10 मुहर्रम 803 हिजरी (31 अगस्त, 1400 ईस्वी) की है अर्थात उस समय तक वे देहली में ही निवास करते थे, दकन नहीं पधारे थे. घटना यूं बताई जाती है कि 10 मुहर्रम को उनके जमअतख़ाने पर श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या एकत्र हुई, क़व्वाल आए तथा सितार के तारों को छेड़ना प्रारम्भ किया, कुछ श्रद्धालु संगीत का आनन्द ले रहे थे कि ख़्वाजा ने सम्बोधित किया- आज प्रत्येक व्यक्ति को दस मुहर्रम की याद मनानी है. आज की समाअ इमाम हुसैन की स्मृति में होगी तथा लोगों को उनके दुखमय वृत्तांत को सुनकर रुदन करना होगा. उन्होंने पुन: कहा कि दुख के अवसरों पर सूफ़ी समाअ की सभाएं करते हैं, श्रद्धालुओं को अपने धर्मगुरुओं का ही अनुसरण करना चाहिए.”
उसी दौर से चिश्तिया सिलसिले व अन्य सूफ़ियों की ख़ानकाहों में मुहर्रम के दिनों में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के दीगर शहीदों का ग़म मनाया जाता है. इस दौरान मर्सिया पढ़ा जाता है और तबर्रुक तक़सीम किया जाता है. मुरीद अपने घरों से खाने पकवाकर लाते हैं और नियाज़ के बाद इसे तक़सीम करते हैं. इस दौरान शिया लोग अलम निकालते हैं.
फ़िरदौस ख़ान
देशभर के शिया बहुल शहरों में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के दीगर शहीदों की याद में मातमी जुलूस निकाला जाता है. अज़ादारी का यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा है.
अमूमन सभी जगह ईद उल ज़ुहा के फ़ौरन बाद से ही मुहर्रम के मातमी जुलूस की तैयारियां शुरू हो जाती हैं. अलम बनाए जाते है, ताज़िये बनाए जाते हैं, तुर्बतें बनाई जाती हैं, मेहंदी की चौकी बनाई जाती है. इमामबाड़ों की साफ़-सफ़ाई का काम शुरू हो जाता है. उन पर रंग-रोग़न किया जाता है. अज़ाख़ाने तैयार किए जाते हैं. इन पर स्याह परचम फहराये जाते हैं, जो ग़म की अलामत हैं. मुहर्रम का चांद नज़र आते ही इमामबाड़ों में नौबत बजाई जाती है और मुहर्रम की अज़ादारी का ऐलान कर दिया जाता है. इसके बाद मुहर्रम के दस दिनों तक लोग सिर्फ़ स्याह लिबास ही पहननते हैं.
कश्मीर में मुहर्रम पर श्रीनगर और बड़गाम समेत घाटी के कई इलाक़ों में मातमी जुलूस निकाले जाते हैं. इस दौरान श्रीनगर की डल झील में नौका पर मातमी जुलूस निकाला जाता है. जुलूस में शामिल शिया मर्सिया और नौहा पढ़ते हुए हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के अन्य शहीदों की याद में मातम करते हैं. लोगों के हाथ में परचम होते हैं. यह जुलूस इमामबाड़े में जाकर ख़त्म होता है.
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का मातमी जुलूस विश्व प्रसिद्ध है. यहां मुहर्रम की पहली तारीख़ से मातमी जुलूस निकाला जाता है. सुबह से ही जुलूस के रूट की साफ़-सफ़ाई हो जाती है. सड़कों के दोनों तरफ़ चूने से क़तारें बना दी जाती हैं. इस मातमी जुलूस में अलम निकलते हैं और एक सजा हुआ घोड़ा भी होता है. इस दौरान जंगी धुन बजाई जाती है और लोग मर्सिया और नौहा पढ़ते हैं. वे अपने सीनों पर ज़ोर-ज़ोर से हाथ मारते हुए ‘या हुसैन-या हुसैन’ की आवाज़ बुलंद करते हुए चलते हैं. ऐसा लगता है कि वक़्त ठहर गया है. सब कुछ बदला-बदला महसूस होता है. आंखों के सामने कर्बला का मंज़र आ जाता है. रूह कांप उठती है. दिल भर आता है और आंखों से आंसू बहने लगते हैं. दुनिया फ़ानी लगने लगती है. दिल कहता है कि बस आख़िरत ही सच है, बाक़ी सब पानी का एक बुलबुला है.
मातमी जुलूस शहर के बहुत से मुहल्लों से होकर गुज़रता है. इस दौरान शहर के सभी इमामबाड़ों में हाज़िरी दी जाती है. जुलूस जहां से भी गुज़रता हैं, वहां के लोग भी इसमें शामिल होते जाते हैं. जुलूस को देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है. घरों की छतों पर औरतें खड़ी होती हैं. जिन घरों से जुलूस नज़र आता है, उन घरों में न जाने कहां-कहां से औरतें आती हैं. लोग उन्हें अपने घरों की छतों से जुलूस देखने की इजाज़त दे देते हैं. इस दौरान प्रशासन द्वारा सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम किए जाते हैं. जुलूस के रूट पर जगह-जगह पुलिसकर्मी तैनात रहते हैं.
मुहर्रम में रात में इमामबाड़ों में मजलिसें होती हैं. अज़ाख़ानों में मिम्बर पर बैठे शियागुरु कर्बला का वाक़िया बयान करते हैं. इस दौरान मर्सिये और नौहे पढ़े जाते हैं. लोग ज़ारो-क़तार रोते हैं. इसके बाद तबर्रुक तक़सीम किया जाता है, जिसमें ज़र्दा, बिरयानी, मीठी रोटी, जलेबियां, लड्डू, बिस्किट वग़ैरह होते हैं.
मुहर्रम की आठ तारीख़ का मातमी जुलूस बहुत बड़ा होता है. इसमें ऊंट और घोड़े भी शामिल होते हैं. इसमें बहुत से अलम और अज़ादारी की चीज़ें होती हैं. इस दिन लोग छुरियों, तलवारों और ज़ंजीरों से मातम करते हैं. वे ख़ुद को इतना ज़ख़्मी कर लेते हैं कि अपने ही ख़ून में सराबोर हो जाते हैं. बड़े तो बड़े बच्चे भी इस मामले में पीछे नहीं रहते. बहुत से लोग इतने ज़ख़्मी हो जाते हैं कि वे ग़श खाकर गिर पड़ते हैं. उन्हें अपना होश तक नहीं रहता. इस नज़ारे को देखकर दिल दहल जाता है.
इस दिन के जुलूस में एक अम्मारी होता है, जो कर्बला की जंग के वक़्त मौजूद औरतों की याद में निकाला जाता है. मुहर्रम के मातमी जुलूस में मेहंदी भी निकलती है. हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के बेटे क़ासिम की एक दिन पहले ही शादी हुई थी. इसलिए उनकी याद में एक चौकी पर सजाकर मेहंदी निकाली जाती है. गया की मेहंदी बहुत मशहूर है. पटना के मातमी जुलूस में चलने वाला दुलदुल बहुत प्रसिद्ध है. इसे ख़ूब सजाया जाता है.
मातमी जुलूस में मश्क भी निकाली जाती है. कहा जाता है कि हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की प्यारी बेटी सुकैना प्यास से तड़प रही थीं, तो हज़रत अब्बास उनके लिए पानी लेने गए. इस दौरान यज़ीद के सिपाहियों ने उन्हें शहीद कर दिया. मातमी जुलूस में एक गहवारा भी होता है, जो हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के छह माह के मासूम बेटे अली असग़र की याद दिलाता है. भूखे-प्यासे मासूम बच्चे को तीन नोक वाला तीर मारकर शहीद कर दिया गया था.
नौ तारीख़ के मातमी जुलूस में भी बहुत ज़्यादा अलम होते हैं. इस दिन मातमी जुलूस में लोग मर्सिये और नौहे पढ़ते हुए बहुत रोते हैं. हालत यह होती है कि बहुत से लोग बेहोश हो जाते हैं. दस तारीख़ के जुलूस में ताज़िया और तुर्बतें निकाली जाती हैं, जो कर्बला के शहीदों की याद दिलाती हैं. ताज़िया हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रोज़े का प्रतीक है. ताज़िये में दो तुर्बतें होती हैं. सब्ज़ रंग की तुर्बत हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की याद में रखी जाती है, जबकि सुर्ख़ रंग की तुर्बत हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की याद में रखी जाती है. इस दिन खाने ख़ासकर हलीम, बिरयानी, ज़र्दा और शर्बत की सबीलें लगाई जाती हैं. खाने में वेज बिरयानी भी शामिल होती है.
हैदराबाद में भी मुहर्रम में मातमी जुलूस निकाला जाता है. लखनऊ और हैदराबाद में नवाबों ने मातमी जुलूस को तरग़ीब दी. अमरोहा की बात करें तो यहां तक़रीबन 490 साल से मातमी जुलूस निकाला जा रहा है. हैदराबाद और लखनऊ के बाद अमरोहा ही देश का ऐसा शहर है, जहां मातमी जुलूस में सबसे ज़्यादा लोग शिरकत करते हैं. मातमी जुलूस में शामिल होने के लिए विदेशों से भी लोग आते हैं. दरअसल अमरोहा में शियाओं की अच्छी ख़ासी आबादी है. ज़्यादातर शिया पढ़े-लिखे और साहिबे हैसियत हैं. यहां के बहुत से शिया विदेशों में बस गए हैं, जिनमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, रूस, ब्रिटेन, कनाडा, अफ़्रीका, नाइजीरिया, डेनमार्क, न्यूज़ीलैंड, संयुक्त राज्य अमीरात और अरब आदि देश शामिल हैं. विदेशों में बसने वाले शिया मुहर्रम में अमरोहा आ जाते हैं. इसी तरह देश-विदेश के शिया मुहर्रम में अपने-अपने क़स्बों और शहरों में लौट आते हैं.
मन्नतें
मुहर्रम की आठ और नौ तारीख़ की रात में औरतें इमामबाड़ों में जाती हैं और वहां रखे अलम को छूकर अल्लाह तआला से हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के शहीदों के सदक़े में दुआएं मांगती हैं. जिन औरतों के बच्चे नहीं होते हैं, वे गोद भर जाने पर चांदी की ज़ंजीर या चांदी का कड़ा अलम को छुआकर अपने बच्चों को पहना देती हैं. जिनके बच्चे बीमार रहते हैं, वे भी मन्नतें मांगती हैं. वे जितने साल की मन्नत मांगती हैं, उतने बरस तक वे इमामबाड़े में अपने बच्चों को लेकर आती हैं और तबर्रुक भी तक़सीम करती हैं.
क़ाबिले ग़ौर यह भी है कि शियाओं के अलावा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से मुहब्बत करने वाले सुन्नी भी मुहर्रम में दस दिनों का एहतराम करते हैं. वे नियाज़ नज़र करते हैं. सूफ़ियों की ख़ानकाहों में भी मर्सिये और नौहे पढ़े जाते हैं.
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)
देशभर के शिया बहुल शहरों में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के दीगर शहीदों की याद में मातमी जुलूस निकाला जाता है. यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा है.
उत्तर प्रदेश के अमरोहा की बात करें तो यहां तक़रीबन 490 साल से मातमी जुलूस निकाला जा रहा है. हैदराबाद और लखनऊ के बाद अमरोहा ही देश का ऐसा शहर है, जहां मातमी जुलूस में सबसे ज़्यादा लोग शिरकत करते हैं. मातमी जुलूस में शामिल होने के लिए विदेशों से भी लोग आते हैं. दरअसल अमरोहा में शियाओं की अच्छी ख़ासी आबादी है. ज़्यादातर शिया पढ़े-लिखे और साहिबे हैसियत हैं. यहां के बहुत से शिया विदेशों में बस गए हैं, जिनमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, रूस, ब्रिटेन, कनाडा, अफ़्रीका, नाइजीरिया, डेनमार्क, न्यूज़ीलैंड, संयुक्त राज्य अमीरात और अरब आदि देश शामिल हैं. विदेशों में बसने वाले शिया मुहर्रम में अमरोहा आ जाते हैं. इसके अलावा अमरोहा के जो शिया देश के अन्य शहरों में रहते हैं, वे भी मुहर्रम में अपने घरों को लौट आते हैं.
ईद उल ज़ुहा के फ़ौरन बाद से ही मुहर्रम के मातमी जुलूस की तैयारियां शुरू हो जाती हैं. अलम बनाए जाते है, ताज़िये बनाए जाते हैं, तुर्बतें बनाई जाती हैं, मेहंदी की चौकी बनाई जाती है. इमामबाड़ों की साफ़-सफ़ाई का काम शुरू हो जाता है. उन पर रंग-रोग़न किया जाता है. अज़ाख़ाने तैयार किए जाते हैं. इन पर स्याह परचम फहराये जाते हैं, जो ग़म की अलामत हैं. मुहर्रम का चांद नज़र आते ही इमामबाड़ों में नौबत बजाई जाती है और मुहर्रम की अज़ादारी का ऐलान कर दिया जाता है. इसके बाद मुहर्रम के दस दिनों तक लोग सिर्फ़ स्याह लिबास ही पहननते हैं.
अमरोहा में मुहर्रम की तीन तारीख़ से मातमी जुलूस निकलना शुरू होता है. इसलिए सुबह से ही जुलूस के रूट की साफ़-सफ़ाई हो जाती है. सड़कों के दोनों तरफ़ चूने से क़तारें बना दी जाती हैं. इस मातमी जुलूस में अलम निकलते हैं और एक सजा हुआ घोड़ा भी होता है. इस दौरान जंगी धुन बजाई जाती है और लोग मर्सिया और नौहा पढ़ते हैं. वे अपने सीनों पर ज़ोर-ज़ोर से हाथ मारते हुए ‘या हुसैन-या हुसैन’ की आवाज़ बुलंद करते हुए चलते हैं. ऐसा लगता है कि वक़्त ठहर गया है. सब कुछ बदला-बदला महसूस होता है. आंखों के सामने कर्बला का मंज़र आ जाता है. रूह कांप उठती है. दिल भर आता है और आंखों से आंसू बहने लगते हैं. दुनिया फ़ानी लगने लगती है. दिल कहता है कि बस आख़िरत ही सच है, बाक़ी सब पानी का एक बुलबुला है.
मातमी जुलूस शहर के बहुत से मुहल्लों से होकर गुज़रता है. इस दौरान शहर के सभी इमामबाड़ों में हाज़िरी दी जाती है. जुलूस जहां से भी गुज़रता हैं, वहां के लोग भी इसमें शामिल होते जाते हैं. जुलूस को देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है. घरों की छतों पर औरतें खड़ी होती हैं. जिन घरों से जुलूस नज़र आता है, उन घरों में न जाने कहां-कहां से औरतें आती हैं. लोग उन्हें अपने घरों की छतों से जुलूस देखने की इजाज़त दे देते हैं. इस दौरान प्रशासन द्वारा सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम किए जाते हैं. जुलूस के रूट पर जगह-जगह पुलिसकर्मी तैनात रहते हैं.
मुहर्रम में रात में इमामबाड़ों में मजलिसें होती हैं. अज़ाख़ानों में मिम्बर पर बैठे शियागुरु कर्बला का वाक़िया बयान करते हैं. इस दौरान मर्सिये और नौहे पढ़े जाते हैं. लोग ज़ारो-क़तार रोते हैं. इसके बाद तबर्रुक तक़सीम किया जाता है, जिसमें ज़र्दा, बिरयानी, मीठी रोटी, जलेबियां, लड्डू, बिस्किट वग़ैरह होते हैं.
मुहर्रम की आठ तारीख़ का मातमी जुलूस बहुत बड़ा होता है. इसमें ऊंट और घोड़े भी शामिल होते हैं. इसमें बहुत से अलम और अज़ादारी की चीज़ें होती हैं. इस दिन लोग छुरियों, तलवारों और ज़ंजीरों से मातम करते हैं. वे ख़ुद को इतना ज़ख़्मी कर लेते हैं कि अपने ही ख़ून में सराबोर हो जाते हैं. बड़े तो बड़े बच्चे भी इस मामले में पीछे नहीं रहते. बहुत से लोग इतने ज़ख़्मी हो जाते हैं कि वे ग़श खाकर गिर पड़ते हैं. उन्हें अपना होश तक नहीं रहता. इस नज़ारे को देखकर दिल दहल जाता है.
इस दिन के जुलूस में एक घुड़सवार होता है, जो कर्बला की जंग के वक़्त मौजूद औरतों की याद में निकाला जाता है. मुहर्रम के मातमी जुलूस में मेहंदी भी निकलती है. हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के बेटे क़ासिम की एक दिन पहले ही शादी हुई थी. इसलिए उनकी याद में एक चौकी पर सजाकर मेहंदी निकाली जाती है. इसके अलावा मश्क भी निकाली जाती है. कहा जाता है कि हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की प्यारी बेटी सुकैना प्यास से तड़प रही थीं, तो हज़रत अब्बास उनके लिए पानी लेने गए. इस दौरान यज़ीद के सिपाहियों ने उन्हें शहीद कर दिया. मातमी जुलूस में एक गहवारा भी होता है, जो हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के छह माह के मासूम बेटे अली असग़र की याद दिलाता है. भूखे-प्यासे मासूम बच्चे को तीन नोक वाला तीर मारकर शहीद कर दिया गया था.
नौ तारीख़ के मातमी जुलूस में भी बहुत ज़्यादा अलम होते हैं. इस दिन मातमी जुलूस में लोग मर्सिये और नौहे पढ़ते हुए बहुत रोते हैं. हालत यह होती है कि बहुत से लोग बेहोश हो जाते हैं. दस तारीख़ के जुलूस में ताज़िया और तुर्बतें निकाली जाती हैं, जो कर्बला के शहीदों की याद दिलाती हैं. ताज़िया हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रोज़े का प्रतीक है. ताज़िये में दो तुर्बतें होती हैं. सब्ज़ रंग की तुर्बत हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की याद में रखी जाती है, जबकि सुर्ख़ रंग की तुर्बत हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की याद में रखी जाती है. इस दिन खाने ख़ासकर हलीम, बिरयानी, ज़र्दा और शर्बत की सबीलें लगाई जाती हैं. खाने में वेज बिरयानी भी शामिल होती है.
मन्नतें
मुहर्रम की आठ और नौ तारीख़ की रात में औरतें इमामबाड़ों में जाती हैं और वहां रखे अलम को छूकर अल्लाह तआला से हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के शहीदों के सदक़े में दुआएं मांगती हैं. जिन औरतों के बच्चे नहीं होते हैं, वे गोद भर जाने पर चांदी की ज़ंजीर या चांदी का कड़ा अलम को छुआकर अपने बच्चों को पहना देती हैं. जिनके बच्चे बीमार रहते हैं, वे भी मन्नतें मांगती हैं. वे जितने साल की मन्नत मांगती हैं, उतने बरस तक वे इमामबाड़े में अपने बच्चों को लेकर आती हैं और तबर्रुक भी तक़सीम करती हैं.
अमरोहा की शाहीन बताती हैं कि शादी के कई बरस तक उनके यहां औलाद नहीं हुई तो उन्होंने मन्नत मानी थी. जब उनकी गोद भर गई तो वे यहां आने लगीं. चांदनी ने भी अपने बच्चों की सेहतयाबी की मन्नत मांगकर उन्हें चांदी की ज़ंजीरें पहनाई थीं.
क़ाबिले ग़ौर यह भी है कि शियाओं के अलावा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से मुहब्बत करने वाले सुन्नी भी मुहर्रम में दस दिनों का एहतराम करते हैं. वे नियाज़ नज़र करते हैं. सूफ़ियों की ख़ानकाहों में भी मर्सिये और नौहे पढ़े जाते हैं.
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)
फ़िरदौस ख़ान
भारत एक ऐसा देश है, जो अपनी संस्कृति के लिए विश्व विख्यात है. यहां विभिन्न सम्प्रदायों और पंथों के लोग निवास करते हैं. पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक फैले इसके विशाल भूभाग पर जितनी प्राकृतिक और सांस्कृतिक विविधताएं मिलती हैं, उतनी शायद ही दुनिया के किसी और देश में देखने को मिलती हों. भले ही लोगों के मज़हब अलग हों, उनकी अक़ीदत अलग हो, लेकिन उनमें कोई न कोई समानता देखने को मिल ही जाती है. अब मुहर्रम के जुलूस को ही लें. इसमें यहां के विभिन्न त्यौहारों पर निकलने वाली शोभा यात्राओं की झलक साफ़ नज़र आती है.
मुहर्रम के महीने में शिया अल्लाह के आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम व कर्बला के दीगर शहीदों का ग़म मनाते हैं. वे कर्बला के वाक़िये की याद में जुलूस निकालते हैं. इस दौरान वे स्याह लिबास पहनते हैं. जुलूस में अलम भी होते हैं. अलम परचम को कहा जाता है. इसे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के उस परचम की याद में बनाया जाता है, जो कर्बला में उनकी फ़ौज का निशान था. जुलूस में जो परचम होता है, उस पर पंजे का निशान होता है. इस निशान का ताल्लुक़ पंजतन पाक से है यानी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, हज़रत अली अलैहिस्सलाम, हज़रत बीबी फ़ातिमा ज़हरा सलाम उल्लाह अलैहा, हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम.
अलम बांस से बनाया जाता है. कई अलम बहुत बड़े होते हैं, जिसे कई लोग पकड़ते हैं. बहुत से अलम छोटे भी होते हैं, जिन्हें एक व्यक्ति आसानी से पकड़ लेता है. बड़ा अलम थामे लोग जुलूस में आगे चलते हैं.
जुलूस में घोड़ा भी होता है. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के घोड़े का नाम ज़ुलजनाह था. इसलिए जुलूस के लिए बहुत ही अच्छे घोड़े का इंतख़ाब किया जाता है. घोड़े को सजाते हैं और उसकी पीठ पर एक साफ़ा रखा जाता है. चूंकि यह हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का घोड़ा माना जाता है, इसलिए इसका बहुत ही अच्छी तरह ख़्याल रखा जाता है. उसे दूध जलेबी भी खिलाई जाती है. मुहर्रम के दौरान किसी को इस पर सवारी करने की इजाज़त नहीं होती.
जुलूस में तुर्बतें भी होती हैं. तुर्बत का मतलब है क़ब्र. कर्बला के शहीदों की याद में तुर्बतें बनाई जाती हैं. ताज़िये में दो तुर्बतें रखी जाती हैं. एक तुर्बत हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की याद में होती है. इसका रंग सब्ज़ होता है, क्योंकि उन्हें ज़हर देकर शहीद किया गया था. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की तुर्बत सुर्ख़ रंग की होती है, क्योंकि उन्हें सजदे की हालत में शहीद किया गया था और उनका जिस्म ख़ून से सुर्ख़ हो गया था. जुलूस में एक गहवारा भी होता है. गहवारा पालने को कहा जाता है. यह हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के छह माह के बेटे अली असग़र की शहादत की याद में होता है, जिन्हें तीर मार कर शहीद कर दिया गया था.
मुहर्रम में मेहंदी भी निकाली जाती है. कहा जाता है कि हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के बेटे क़ासिम का एक दिन पहले ही निकाह हुआ था. इसकी याद में एक चौकी पर सजाकर मेहंदी निकाली जाती है. हज़रत अब्बास हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की लाडली बेटी सुकैना के लिए पानी लेने गए थे, तब उन्हें शहीद कर दिया गया था. इस शहादत की याद में मश्क निकाली जाती है.
जुलूस में एक अम्मारी होता है. एक पहरेदार सवारी को अम्मारी कहा जाता है. यह कर्बला की जंग के वक़्त मौजूद महिलाओं की याद में मुहर्रम की आठ तारीख़ को निकाली जाती है.
इसी तारीख़ को जुलूसे अज़ा निकाला जाता है. अज़ा का मतलब है तकलीफ़. इसमें अज़ादारी से वाबस्ता चीज़ें होती हैं. लोग इन चीज़ों को देख- देखकर रोते हैं. इनके सामने मरसिये और नौहे पढ़े जाते हैं. इस दौरान लोग अपने हाथों को सीने पर मारकर मातम करते हैं. बहुत से लोग ज़ंजीरों और तलवारों से ख़ुद को ज़ख़्मी करते हैं और ‘या हुसैन, या हुसैन’ कहते जाते हैं. बहुत जगहों पर लोग दहकते हुए अंगारों पर चलते हैं. ख़ास बात यह है कि उनके पैर ज़र्रा बराबर भी आग में नहीं झुलसते. ऐसा लगता है कि वह फ़र्श पर चल रहे हैं. कुछ लोग दहकते अंगारों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज़ भी अदा करते हैं. मजाल है कि मुसल्ले का एक भी धागा आग में जल जाए. मातम में ख़ुद को ज़ख़्मी करने वाले लोग कर्बला की मिट्टी अपने ज़ख़्मों पर लगा लेते हैं और ठीक हो जाते हैं.
मुहर्रम की दस तारीख़ को ताज़िया निकाला जाता है. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रोज़े के प्रतीक को ताज़िया कहा जाता है. यह लकड़ी, अबरक और रंग-बिरंगे काग़ज़ से बनाया जाता है. इसका कोई एक आकार नहीं होता. कारीगर अपनी-अपनी कल्पना के हिसाब से इसे बनाते हैं. ज़्यादातर ताज़ियों में गुम्बद बनाया जाता है.
दरअसल भारत में प्राचीन काल से ही अपने मृतजनों को स्मरण किए जाने की परम्परा है. श्राद्ध एक ऐसा कर्म है, जिसके माध्यम से पितरों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त की जाती है. मान्यता है कि जिन पूर्वजों की वजह से हमारा अस्तित्व है, हम उनके ऋणी हैं. इसीलिए श्राद्ध के दिनों में लोग अपने पूर्वजों की आत्मा की तृप्ति के लिए दान-पुण्य करते हैं. इस दौरान कोई शुभ एवं मंगल कार्य नहीं किया जाता. इसी तरह शिया और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बेपनाह मुहब्बत करने वाले दीगर मुसलमान भी मुहर्रम से चेहलुम तक कोई शादी-ब्याह जैसे ख़ुशी के काम नहीं करते. मुहर्रम के दस दिनों तक लोग नये कपड़े, ज़ेवर और ऐसी ही दूसरी चीज़ों की ख़रीददारी भी नहीं करते. बस रोज़मर्रा की ज़रूरत का सामान ही ख़रीदते हैं.
भारत में देवी-देवताओं की शोभा यात्रा निकालने की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है. उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी की यात्रा विश्व प्रसिद्ध है. इसी तरह विजय दशमी पर देवी दुर्गा की शोभा यात्रा निकाली जाती है. राम, लक्ष्मण और सीता की शोभा यात्रा निकाली जाती है. जन्माष्टमी पर कृष्ण की शोभा यात्रा निकाली जाती है. शिवरात्रि पर शिव की शोभा यात्रा निकाली जाती है. गणेश चतुर्थी पर गणेश की शोभा यात्रा निकाली जाती है. इसके अलावा अन्य देवी-देवताओं की शोभा यात्राएं भी निकाली जाती हैं.
फ़र्क़ इतना है कि मुहर्रम का जुलूस ग़म में निकाला जाता है और शोभा यात्राएं हर्षोल्लास से निकाली जाती हैं. मुहर्रम पर ताज़िये ज़मीन में दफ़न कर दिए जाते हैं, जबकि देवी दुर्गा और गणेश की प्रतिमाओं का पानी में विसर्जन किया जाता है.
मुहर्रम के जुलूस में हिन्दू भी शामिल होते हैं. मुहर्रम में तक़सीम होने वाले तबर्रुक को हिन्दू भी बहुत ही श्रद्धा से ग्रहण करते हैं. उत्तर प्रदेश के शिकारपुर की ताहिरा बताती हैं कि हिन्दू औरतें ख़ुद कहती हैं कि उन्हें तबर्रुक चाहिए. जब उनसे पूछा गया कि वे इसका क्या करती हैं, तो उन्होंने बताया कि वे तबर्रुक के चावलों को सुखाकर रख लेती हैं. जब उनका कोई बच्चा बीमार होता है, तो वे चावल के कुछ दाने उसे खिला देती हैं. इससे बच्चा ठीक हो जाता है. इसी को तो अक़ीदत कहा जाता है.
वाक़ई अक़ीदत के मामले में भारत का कोई सानी नहीं है. यह वह देश है, जहां धरती को भी माता कहकर पुकारा जाता है. एक दूसरे के मज़हब और रीति-रिवाजों को मान-सम्मान देना ही तो इस देश की माटी की ख़ासियत है. इसे ही गंगा-जमुनी तहज़ीब कहा जाता है.