डॉ. रामस्नेहीलाल शर्मा 'यायावर'   
कल पितृ विसर्जनी अमावस्या है। पितृलोक से पृथ्वी पर पधारे हुए हमारे पितृ गण अपने लोक को विदा हो जाएंगे। यह 15 दिन हम पितृपक्ष के रूप में स्वीकार करते हैं और पूरे पखवाड़े अतीतजीवी होकर अपने पूर्वजों का स्मरण करते, उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करते, उनके लिए श्राद्ध करते और उनकी स्मृतियों को पुनः स्मरण करते हुए विताते हैं ।कई अधकचरे आधुनिकतावादी अपनी श्रेष्ठतम सनातन सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति वितृष्णा  उपेक्षा और घृणा का भाव रखने वाले लोगों को पितृपक्ष की आलोचना करते हुए देखा गया है। वे सनातन धर्म की किसी भी उदात्त परंपरा को व्यर्थ की रूढ़ि और अंधविश्वास बताने  में एक क्षण का भी संकोच नहीं करते। मैं पितृपक्ष की व्यवहारिक महत्ता को सरल ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास करता हूं। पितृपक्ष के पूरे 15 दिन पितरों की दिशा दक्षिण की ओर मुख करके ताम्रपत्र में काले तिल या जौ पड़े जल से पितरों का तर्पण किया जाता है। तर्पण करते समय हम अपने पूर्ववर्ती सात पीढियों को- नाम जानते हैं तो नाम लेकरऔर  नाम न जानने पर जाने अनजाने -कहकर आवाहन करते हैं। पितरों का स्मरण करके उनको कहा जाता है हमारे अर्पित किए जल को स्वीकार कर  परिवार के लिए आशीर्वाद प्रदान करें।  स्मरण रखें हम जो कुछ भी हैं वह अपने वंश की परंपरा के कारण ही हैं। इसलिए पितृ ऋण को चुकाने के लिए श्राद्ध अनिवार्य है। संस्कृत में एक धातु है तनु, तनु का अर्थ होता है लंबा करना संतान  संबंधी जितने भी शब्द हैं वे सब इसी तनु धातु से बनते हैं जैसे तनय, तनया, तनुज तनुजा आदि तो जब हम पितरों को जल देते हैं या  उनका श्राद्ध करते हैं तो हम उनकी परंपरा, उनके शुभ कर्म ,उनके धर्म ,उनके इतिहास,उनकी संस्कृति और उनके दिये हुए ज्ञान की परंपरा को लंबा कर रहे होते हैं ।इसीलिए अगर कोई गलत काम करें तो कहा जाता है कि अमुक ने तो अपने वंश के नाम को डुबा  दिया। जिस दिन किसी पूर्वज का श्राद्ध किया जाता है ।उस पूरे दिन उन पूर्वजों की चर्चा होती है। दुर्भाग्य से मैंने अपने तीनों बाबाओं और दादियों को नहीं देखा।  
व्यवहारिकता की दृष्टि से दो वस्तुओं पर ध्यान दें 1-दाब औषधीय घास हैऔर काले तिल  औषधीय अन्न है।बहुत सारी बीमारियों में आयुर्वेदिक चिकित्सक दूब और दाव के रस और शहद में दवा खाने को देते हैं। इसी तरह बहुमूत्र और सर्दी से होने वाली बीमारियों की श्रेष्ठतम औषधि काले तिल हैं ।सही अर्थों में तिल से निकलने वाला तेल ही वास्तविक तेल होता है। इसलिए चर्म रोगों में आयुर्वेदिक डॉक्टर तिल के तेल में कपूर मिलाकर शरीर पर लगाने की सलाह देते हैं।नवरात में माता दुर्गा की अखण्ड ज्योति भी तिल के तेल में ही जलाई जाती है। अगर पितृपक्ष में दोनों का उपयोग किया जाएगा ,तो व्यावहारिक दृष्टि से इनका उत्पादन भी होगा ही। व्यावहारिकता का दूसरा पक्ष है,2- जिस दिन किसी पूर्वज का श्राद्ध किया जाता है हम पूरे दिन उनका स्मरण करते हैं उदाहरण के लिए मेरे घर में जब पूर्णिमा के दिन माता जी और पिताजी का श्राद्ध हुआ तो बहन और बहनोई भी यही थे उन्हें भी बुला लिया गया और पूज्य पिताश्री के  भानजे और उनकी पत्नी को श्रद्धा सहित निमंत्रण देकर बुलाकर भोजन करवा कर उन्हें यथा योग्य दान- दक्षिणा के साथ विदा किया गया ।फिर शेष पूरे दिन हम भाई-बहन,बहनोई' पुत्र और पौत्र मिलकर पिताजी और माताजी की स्मृतियां के सागर में डूबते- उतराते रहे। हमने याद किया की पिताजी किसान के पुत्र होते हुए बहुत छोटी आयु में स्वतंत्रता सेनानी बन गए थे इसीलिए आधे उत्तर प्रदेश के सारे स्वतंत्रता सेनानी उन्हें लला के आत्मीय सम्बोधन से सम्बोधित    करते थे। 86 वर्ष की आयु में जब वे गोलोकवासी हुए तब भी सारे सेनानी उन्हें लला के आत्मीय संबोधन से ही स्मरण कर रहे थे। वह प्रारंभ में भजन गायक थे और भजन गाकर जन-जन को अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन करने के लिए प्रेरित करते थे।बाद में ब्रजप्रदेशीय ढोला के अप्रतिम गायक बन गए 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्हें आगरा कमिश्नरी का डिक्टेटर बनाया गया था क्योंकि कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता जेल चले गए थे उनके ऊपर यह जिम्मेदारी दी गई थी कि वह आंदोलन का नेतृत्व  करते हुए उसे सतत जारी रखें ।वे 14 वर्ष की अवस्था में जेल गए थे।  14 वर्ष पूरी तरह घर से बाहर रह कर प्राणपण से भारतीय आज़ादी के लिए जूझते रहे।परिणाम स्वरूप हमारे परिवार में चाची पहले आई और माताजी काफी समय बाद ।क्योंकि भला ऐसे युवक का विवाह कौन पिता अपनी पुत्री से करता जिसका एक पाँव हर समय जेल में रहता हो और अक्सर वारंट कटा रहता हो।कुर्की की तलवार सिर पर लटकी रहती हो।

हमारी पूज्या  माताजी बेहद सफाई पसंद और पवित्रता का ध्यान रखने वाली थी ।जब  तक चौका पूरी तरह पवित्र न हो जाए बर्तन सोने की तरह चमक न जाएं तब तक वह भोजन नहीं बनाती थीं ।इस चक्कर में हम कभी-कभी स्कूल में देर से पहुंचते थे। किसी का भी अनुरोध उन्हें इस पवित्रता से हटा नहीं सकताथा। इसलिए कभी-कभी पिताजी हमें डांट कर भूखा ही स्कूल भेज देते थे ।उनका कहना था भूख से नहीं मारोगे परंतु शिक्षा ग्रहण नहीं की तो जीवन बर्बाद हो जाएगा। परंतु फिर वही मां पूरे गांव में  भटकती थी और पता करती थी कि 3 किलो मीटर दूर  पचवान की प्राइमरी पाठशाला और 5 किलोमीटर दूर जूनियर हाई स्कूल असन तक जाने वाला कोई व्यक्ति मिल जाए तो उसके हाथों उनके भूखे पुत्र के लिए भोजन पहुंच जाए। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं घर से भूखा गया तो स्कूल भोजन नहीं पहुंचा ।कैसे तलाशती होंगीं वे ऐसे व्यक्ति को और भोजन ले जाने को कितनी चिरौरी करती होंगीं उसकी और कभी अपवाद स्वरूप ऐसा दिन आया कि भोजन पहुंचाने वाला कोई नहीं मिला तो हमारे स्कूल से लौटने तक माँ ने खुद भी अन्न का एक दाना तक अपने मुंह में नहीं डाला।  यह सब स्मरण करते हुए हमारी आंखें बार-बार सजल हुई। पिताजी अक्सर बाहर रहते थे ।माताजी कठोर अनुशासनप्रिय और भयंकर क्रोधी भी थीं। उनके हाथों बुरी तरह पिटने का सौभाग्य हम तीनों भाई-बहिनों को  मिला था। पिताजी मानते थे कि महंगे कपड़े पहनने वाला और लंबे-लंबे बाल रखने वाला लड़का कभी पढ़ नहीं सकता। वह अपनी शान शौकत बनाएगा कि पढेगा। इसलिए हमें पहली पेंट  पहनने का सौभाग्य हाई स्कूल कर लेने के बाद मिला।वे हमेशा कहते थे भोजन करते समय कभी भी नमक मिर्च ऊपर से न मांगा जाए और कभी किसी के घर भोजन करके उसकी बुराई न की जाए। यह उनकी दी हुई शिक्षा थी जिसका अनुपालन हम आज तक करते हैं। कुछ ऐसे प्रसंग भी स्मरण में आए जिन्होंने उस दिन हमारे चेहरों पर मुस्कुराहट और हंसी भी ला दी। जब मैं प्रवक्ता हो गया तो छोटी बहिन और अपनी दोनों बेटियों का प्रवेश सरस्वती शिशु मंदिर में करा दिया था। उस समय वही सर्वश्रेष्ठ विद्यालय था परंतु बहन ने एक मजेदार प्रसंग सुनाया  माताजी और पिताजी में किसी न किसी प्रसंग को लेकर प्रतिदिन हल्की-फुल्की बहस और लड़ाई होती ही थी। जिस दिन यह बहस न हो उस दिन लगता था कि किसी की तबीयत खराब है। (यह अलग बात है कि माताजी के गोलोकवासी होने के बाद वे हमसे छिप-छिपकर रोते थे और केवल साढ़े आठ महीने बाद वे भी दिवंगत हो गए)

बहिन ने बताया कि मेरी दूसरी बेटी  बहुत छोटी थी शायद 5 या 6 साल की थी वह बाबा के पास गई और उनसे बोली बाबा हंसिया कहां है बाबा ने कहा बेटा क्या करोगी हसिया का। तो उत्तर दिया तुम्हारी गर्दन काटूंगी ।बाबा हंसने लगे उन्होंने पूछा क्यों बेटा, मेरी गर्दन क्यों काटोगी? बोली आप अम्मा से लड़ते हो।  आशय यह है कि पूर्वजों का स्मरण करते हुए उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना यह पितृ पक्ष का मुख्य उद्देश्य है परंतु महत्व और संदेश यह भी है कि हम अपने जीवित पूर्वजों के प्रति श्रद्धा रखें और उनके सुख -सुविधा का ध्यान रखें उनका आदर करें अगर जीवित पूर्वज दुखी हैं तो श्राद्ध पक्ष का सारा का सारा ताम-झाम निरर्थक है।
मेरी दृष्टि में वृद्धाश्रम देश के युवा वर्ग पर लानत और देश का कलंक हैं।वृद्धों का सम्मानजनक स्थान घर में है। अपने एक मुक्तक के साथ इस चर्चा को विराम देता हूं 
"छांव चाहिए तो द्वारे के पीपल को कटने मत देना।
 घर के आंगन से पुरखों के चिह्न कभी मिटने मत देना। बड़ा कठिन जीवन का पथ है जलते रेगिस्तान मिलेंगे।
 सिर से माँ की आशीशों का हाथ कभी हटने मत देना।। 
(लेखक सुप्रसिद्ध कवि एवं साहित्यकार हैं) 

डॉ. फ़िरदौस ख़ान
ये कहानी है दिल्ली के ’शहज़ादे’ और हिसार की ’शहज़ादी’ की. उनकी मुहब्बत की... गूजरी महल की तामीर का तसव्वुर सुलतान फ़िरोज़शाह तुगलक़ ने अपनी महबूबा के रहने के लिए किया था...यह किसी भी महबूब का अपनी महबूबा को परिस्तान में बसाने का ख़्वाब ही हो सकता था और जब गूजरी महल की तामीर की गई होगी...तब इसकी बनावट, इसकी नक्क़ाशी और इसकी ख़ूबसूरती को देखकर ख़ुद वह भी इस पर मोहित हुए बिना न रह सका होगा...

हरियाणा के हिसार क़िले में स्थित गूजरी महल आज भी सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की अमर प्रेमकथा की गवाही दे रहा है. गूजरी महल भले ही आगरा के ताजमहल जैसी भव्य इमारत न हो, लेकिन दोनों की पृष्ठभूमि प्रेम पर आधारित है. ताजमहल मुग़ल बादशाह शाहजहां ने अपनी पत्नी मुमताज़ की याद में 1631 में बनवाना शुरू किया था, जो 22 साल बाद बनकर तैयार हो सका. हिसार का गूजरी महल 1354 में फ़िरोज़शाह तुग़लक ने अपनी प्रेमिका गूजरी के प्रेम में बनवाना शुरू किया, जो महज़ दो साल में बनकर तैयार हो गया. गूजरी महल में काला पत्थर इस्तेमाल किया गया है, जबकि ताजमहल बेशक़ीमती सफ़ेद संगमरमर से बनाया गया है. इन दोनों ऐतिहासिक इमारतों में एक और बड़ी असमानता यह है कि ताजमहल शाहजहां ने मुमताज़ की याद में बनवाया था. ताज एक मक़बरा है, जबकि गूजरी महल फिरोज़शाह तुग़लक ने गूजरी के रहने के लिए बनवाया था, जो महल ही है.

गूजरी महल की स्थापना के लिए बादशाह फ़िरोज़शाह तुग़लक ने क़िला बनवाया. यमुना नदी से हिसार तक नहर लाया और एक नगर बसाया. क़िले में आज भी दीवान-ए-आम, बारादरी और गूजरी महल मौजूद हैं. दीवान-ए-आम के पूर्वी हिस्से में स्थित कोठी फ़िरोज़शाह तुग़लक का महल बताई जाती है. इस इमारत का निचला हिस्सा अब भी महल-सा दिखता है. फ़िरोज़शाह तुग़लक के महल की बंगल में लाट की मस्जिद है. अस्सी फ़ीट लंबे और 29 फ़ीट चौड़े इस दीवान-ए-आम में सुल्तान कचहरी लगाता था. गूजरी महल के खंडहर इस बात की निशानदेही करते हैं कि कभी यह विशाल और भव्य इमारत रही होगी.

सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की प्रेमगाथा बड़ी रोचक है. हिसार जनपद के ग्रामीण इस प्रेमकथा को इकतारे पर सुनते नहीं थकते. यह प्रेम कहानी लोकगीतों में मुखरित हुई है. फ़िरोज़शाह तुग़लक दिल्ली का सम्राट बनने से पहले शहज़ादा फ़िरोज़ मलिक के नाम से जाने जाते थे. शहज़ादा अकसर हिसार इलाक़े के जंगल में शिकार खेलने आते थे. उस वक़्त यहां गूजर जाति के लोग रहते थे. दुधारू पशु पालन ही उनका मुख्य व्यवसाय था. उस काल में हिसार क्षेत्र की भूमि रेतीली और ऊबड़-खाबड़ थी. चारों तरफ़ घना जंगल था. गूजरों की कच्ची बस्ती के समीप पीर का डेरा था. आने-जाने वाले यात्री और भूले-भटके मुसाफ़िरों की यह शरणस्थली थी. इस डेरे पर एक गूजरी दूध देने आती थी. डेरे के कुएं से ही आबादी के लोग पानी लेते थे. डेरा इस आबादी का सांस्कृतिक केंद्र था.

एक दिन शहज़ादा फ़िरोज़ शिकार खेलते-खेलते अपने घोड़े के साथ यहां आ पहुंचा. उसने गूजर कन्या को डेरे से बाहर निकलते देखा, तो उस पर मोहित हो गया. गूजर कन्या भी शहज़ादा फ़िरोज़ से प्रभावित हुए बिना न रह सकी. अब तो फ़िरोज़ का शिकार के बहाने डेरे पर आना एक सिलसिला बन गया. फ़िरोज़ ने गूजरी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा, तो उस गूजर कन्या ने विवाह की मंज़ूरी तो दे दी, लेकिन दिल्ली जाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह अपने बूढ़े माता-पिता को छोड़कर नहीं जा सकती. फ़िरोज़ ने गूजरी को यह कहकर मना लिया कि वह उसे दिल्ली नहीं ले जाएगा.

1309 में दयालपुल में जन्मा फ़िरोज़ 23 मार्च 1351 को दिल्ली का सम्राट बना. फ़िरोज़ की मां हिन्दू थी और पिता तुर्क मुसलमान था. सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक ने इस देश पर साढ़े 37 साल शासन किया. उसने लगभग पूरे उत्तर भारत में कलात्मक भवनों, क़िलों, शहरों और नहरों का जाल बिछाने में ख्याति हासिल की. उसने लोगों के लिए अनेक कल्याणकारी काम किए. उसके दरबार में साहित्यकार, कलाकार और विद्वान सम्मान पाते थे.

दिल्ली का सम्राट बनते ही फ़िरोज़शाह तुग़लक ने महल हिसार इलाक़े में महल बनवाने की योजना बनाई. महल क़िले में होना चाहिए, जहां सुविधा के सब सामान मौजूद हों. यह सोचकर उसने क़िला बनवाने का फ़ैसला किया. बादशाह ने ख़ुद ही करनाल में यमुना नदी से हिसार के क़िले तक नहरी मार्ग की घोड़े पर चढ़कर निशानदेही की थी. दूसरी नहर सतलुज नदी से हिमालय की उपत्यका से क़िले में लाई गई थी. तब जाकर कहीं अमीर उमराओं ने हिसार में बसना शुरू किया था.

किवदंती है कि गूजरी दिल्ली आई थी, लेकिन कुछ दिनों बाद अपने घर लौट आई. दिल्ली के कोटला फ़िरोज़शाह में गाईड एक भूल-भूलैया के पास गूजरी रानी के ठिकाने का भी ज़िक्र करते हैं. तभी हिसार के गूजरी महल में अद्भुत भूल-भूलैया आज भी देखी जा सकती है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि हिसार को फ़िरोज़शाह तुग़लक के वक़्त से हिसार कहा जाने लगा, क्योंकि उसने यहां हिसार-ए-फ़िरोज़ा नामक क़िला बनवाया था. 'हिसार' फ़ारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'क़िला'. इससे पहले इस जगह को 'इसुयार' कहा जाता था. अब गूजरी महल खंडहर हो चुका है. इसके बारे में अब शायद यही कहा जा सकता है-

सुनने की फुर्सत हो तो आवाज़ है पत्थरों में
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियां बोलती हैं...


मोहम्मद रफीक चौहान
एक समय हरियाणा के इतिहास में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यही नहीं दसवीं सदी में इस हिस्से पर उनके शासन के बाद ही यह क्षेत्र हरियाणा के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
आज हरियाणा, पंजाब, यमुना पार सहारनपुर, मुजफ्फरनगर के लगभग सभी चौहान राजपूत राणा हर राय और उनके सगे सम्बन्धियों के वंशज हैं। यही नहीं गुर्जर, जाट, रोड, जातियों में जो चौहान वंश हैं। उन सबके पूर्वज भी क्षत्रिय राजपूत राणा हर राय चौहान को माना जाता है। जो राणा हर राय चौहान अथवा उनके पुत्रों के उस समय उन जातियों की महिलाओं से अंतरजातीय विवाह से उत्पन्न संतान के वंशज हैं। जिनसे उन जातियों में चौहान वंश का प्रचलन हुआ।
राणा हर राय चौहान का हरियाणा
यह ऐतिहासिक कहानी है। दसवीं सदी की है, जब हरियाणा के उत्तर पूर्वी भाग पर चौहानों का राज्य स्थापित हुआ। नीमराना के चौहानों और पुण्डरी (करनाल, कैथल) के पुंडीर राजपूतों के बीच हुए रक्तरंजित युद्ध इसका इतिहास गवाह है। यह ऐतिहासिक कहानी आपको हरियाणा के उस स्वर्णिम काल में ले जाएगी जब यहां क्षत्रिय राजपूतों का राज था। यानी अंग्रेजों और मुगलों के समय से भी पहले .
नीमराणा के राणा हर राय चौहान संतानहींन थे। राज पुरोहितों के सुझाव के पश्चात राणा हर राय गंगा स्नान के लिए हरिद्वार के लिए निकले। लौटते हुए उन्होंने एक रात करनाल के पास के क्षेत्र में खेमा लगाया। उस क्षेत्र का नाम बाद में जा कर जुंडला पड़ा क्यूंकि यहां जांडी के पेड़ उगते थे। राणा जी और उनकी सेना इस इलाके की उर्वरता व हरयाली देख कर मोहित हो गये। उनके पुरोहितों ने उन्हें यहीं राज्य स्थापित करने का सुझाव दिया क्यूंकि पुरोहितों को यह भूमि उनके वंश की वृद्धि के लिए शुभ लगी।
उस समय यह क्षेत्र पुंडीर क्षत्रियों के पुण्डरी राज्य के अंतर्गत था। विक्रमसम्वत 602 में यह राज्य राजा मधुकर देव पुंडीर जी ने बसाया था। राजा मधुकर देव जी का शासन तेलंगाना में था, वे अपने सैनिकों के साथ तेलांगना से कुरुक्षेत्र ब्रह्मसरोवर में स्नान के लिए आये थे। तब यहां के रघुवंशी राजा सिन्धु ( जो की हर्षवर्धन के पूर्वज हो सकते हैं) ने आपने बेटी अल्पदे का विवाह उनसे किया और दहेज़ में कैथल करनाल का इलाका उन्हें दिया।
राजा मधुकर देव पुंडीर ने यही पर अपने पूर्वज के नाम पर पुण्डरी नाम से राजधानी स्थापित की, बाद में उनके वंशजों ने यहां चार गढ़ स्थापित किये जो कि पुण्डरी, पुंडरक, हावडी, चूर्णी (चूर्णगढ़) के नाम से जाने गए‌। हर्षवर्धन के पश्चात् सन 712 ईसवीं के आसपास पुंडीर क्षत्रिय (राजपूतों) ने यमुना पार सहारनपुर और हरिद्वार क्षेत्र पर भी कब्जा कर 1440 गाँव पर अपना शासन स्थापित किया।
पुंडीर राज्य के दक्षिण पश्चिम में मंडाड क्षत्रिय राजपूतों का शासन था जोकि यहां मेवाड़ से आये थे और राजोर गढ़ के बड़गुजरों की शाखा थे। उनके एक राज़ा जिन्द्रा ने जींद शहर बसाया और इस क्षेत्र में राज किया। इन्होने चंदेल और परमार राजपूतों को इस इलाके से हराकर निकाल दिया और घग्गर नदी से यमुना नदी तक राज्य स्थापित किया। चंदेल उत्तर में शिवालिक पहाड़ियों की तराई में जा बसे।(यहां इन्होने नालागढ़ (पंजाब) और रामगढ़ ( पंचकुला, हरियाणा) राज्य बसाये ), वराह परमार राजपूत सालवन क्षेत्र छोडकर घग्घर नदी के पार पटियाला जा बसे। जींद ब्राह्मणों को दान देने के बाद मंढाडो ने कैथल के पास कलायत में राजधानी बसाई व घरौंडा , सफीदों ,राजौंद और असंध में ठिकाने बनाये। मंडाड क्षत्रिय राजपूतों का कई बार पुंडीर राज्य से संघर्ष हुआ पर उन्हें सफलता नहीं मिली।
गंगा स्नान से लौटते वक्त राणा हर राय चौहान थानेसर पहुंचे तथा पुरोहितो के सुझाव पर पुंडीरों से कुछ क्षेत्र राज करने के लिए भेंट में माँगा। पुंडीरों ने राणा जी की मांग ठुकराई और क्षत्रिये धर्म निभाते हुए विवाद का निर्णय युद्ध में करने के लिए राणा हर राय देव को आमंत्रित किया। जिसे हर राय देव ने स्वीकार किया।
ऐसा कहा जाता है कि मंडाड राजपूतों ने चौहानों का इस युद्ध में साथ दिया। पुंडीर सेना पर्याप्त शक्तिशाली होने के कारण प्रारम्भ में हर राय को सफलता नहीं मिली मात्र पुण्डरी पर वो कब्जा कर पाए, राणा हर राय ने हार नजदीक देख नीमराणा से मदद बुलवाई।
नीमराणा से राणा हर राय चौहान के परिवार के राय दालू तथा राय जागर अपनी सेना के साथ इस युद्ध में हिस्सा लेने पहुंचे। नीमराणा की अतिरिक्त सेना और मंडाड राज्य की सेना के साथ मिलने से क्षत्रिय राजपूत राणा हर राय चौहान की स्थिति मजबूत हो गयी और चौहानों ने फिर हावडी, पुंड्रक को जीत लिया, अंत में पुंडीर राजपूतों ने चूर्णगढ़ किले में अंतिम संघर्ष किया और रक्त रंजित युद्ध के बाद इस किले पर भी राणा हर राय चौहान का कब्ज़ा हो गया।
इसके बाद बचे हुए पुंडीर क्षत्रिय (राजपूत) यमुना पार कर आज के सहारनपुर क्षेत्र में आये और कुछ समय पश्चात् उन्होंने दोबारा संगठित होकर मायापुरी (हरिद्वार) को राजधानी बनाकर राज्य किया,बाद में इस मायापुरी राज्य के चन्द्र पुंडीर और धीर सिंह पुंडीर क्षत्रिय राजपूत सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बड़े सामंत बने और सम्राट द्वारा उन्हें पंजाब का सूबेदार बनाया गया, यह मायापुर राज्य हरिद्वार, सहारनपुर, मुजफरनगर तक फैला हुआ था। बाद में युद्ध की कटुता को भूलाते हुए चौहानों और पुंडीरो में पुन वैवाहिक सम्बन्ध होने लगे।
पुंडीर राज्य पर जीत के बाद राणा हर राय ने राय डालु को 48 गांव की जागीर भेंट की जो की आज के नीलोखेड़ी के आसपास का इलाका था। जागर को 12 गांव की जागीर यमुनानगर के जगाधरी शहर के पास मिली तथा हर राय के भतीजे को टोंथा के ( कैथल ) आस पास के 24 गांव की जागीर मिली। राणा हर राय देव ने जुंडला से शासन किया।
इन्हीं के नाम पर इस इलाके का नाम हरियाणा पड़ा जिसका मतलब वो स्थान जहा हर राय राणा के वंशज राज्य करते थे।
(हर राय राणा = हररायराणा = हररायणा = हरियाणा)। परन्तु आजादी के बाद इसका अर्थ राजपूत विरोधी जातियों ने हरी का आना बना दिया जबकि हरी तो हमेशा से उत्तर प्रदेश में ही अवतरित हुए है, हरियाणा तो हरी की कर्म भूमि थी।
राणा हरराय चौहान और उनके चौहान सेना के वंशज आज हरयाणा के अम्बाला पंचकुला करनाल यमुनानगर जिलो के 164 गाँवो में बसते है। रायपुर रानी (84 गाँव की जागीर) इनका आखिरी बचा बड़ा ठिकाना है जो की आजादी के बाद तक भी रहा। हालाकिं इन चौहानो कई छोटी जागीरे चौबीसी के टिकाइओ के नीचे बचीं रहीं जैसे उनहेरी, टोंथा, शहजादपुर, जुंडला, घसीटपुर आदि जो बाद में अंग्रेजो के शासन के अंतर्गत आ गयी। इन चौहानों की एक चौबीसी यमुना पार मुज़्ज़फरनगर जिले में भी मिलती है। 
कलस्यान गुर्जर भी खुद को इसी चौहान वंश की शाखा मानते है, (मुजफरनगर गजेटियर पढ़े). राणा हर राय देव के एक वंशज राव कलस्यान ने गुज्जरी से विवाह किया जिनकी संतान ये कलसियान गुज्जर है। ये गुज्जर आज चौहान सरनेम लगाते है और इनके 84 गांव मुज़्ज़फरनगर के चौहान राजपूतों के 24 गाँव के साथ ही बसे हुए है।
राणा हर राय चौहान ने दूसरी जातियों जैसे जाट ,रोड़ , नाई ,जोगन जातियों की लड़कियों से भी वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। कुरुक्षेत्र के पास के अमीन गाँव चौहान रोड़ इन्हीं के वंशज माने जाते है। लाकड़ा जाट या चौहान जाट भी इन्हीं चौहानो के वंशज माने जाते है। नाई व जोगन बीविओं की संताने आज सोनीपत और उत्तर प्रदेश के घाड के आसपास के इलाके में बसते है इन्हे खाकी चौहान कहा जाता है जिनमे शुद्ध रक्त के राजपूत विवाह नहीं करते।
राणा हर राय के वंशज राणा शुभमल के समय अंबाला, करनाल क्षेत्र में चौहानों के 169 गाँव थे। शुभमल के पुत्र त्रिलोक चंद को 84 गाँव मिले जबकि दुसरे पुत्र मानक चंद को 85 गाँव मिले । त्रिलोक चंद की आठवी पीढ़ी में जगजीत हुए जो गुरु गोविंद सिंह के समय बहुत शक्तिशाली थे। 1756 में जगजीत के पोते फ़तेह चंद ने अपने दो पुत्रों भूप सिंह और चुहर सिंह के साथ अहमद शाह अब्दाली का मुकाबला किया जिसमे अब्दाली की विशाल शाही सेना ने कोताहा में धोखेे से घेरकर 7000 चौहानों का नरसंहार किया। हरियाणा के चौहान आज भी बहुत स्वाभिमानी है और अपने इतिहास पर गर्व करते है। हरियाणा में क्षत्रिय (राजपूतों) की जनसँख्या और प्रभुत्व आज नगण्य सा हो गया है।
राणा हर राय देव चौहान की छतरी आज भी जुंडला गाँव (करनाल) में मौजूद है। पर ये दुःख की बात यहाँ के चौहान राजपूत अपने वीर पूर्वज की शौर्य गाथा को भूलते जा रहे है और हरियाणा में आज तक राणा हर राय देव के नाम पर कोई संग्रहालय मूर्ति या चौक नहीं स्थापित किये गए। हम आशा करते है इस पोस्ट को पढ़ने के बाद राणा हर राय देव चौहान को उनको वंशज यथा संभव सम्मान दिलवा पाएंगे। 
(लेखक करनाल, हरियाणा में एडवोकेट हैं) 


रियाद (सऊदी अरब). सऊदी अरब और भारत के पड़ौसी देश पाकिस्तान के बीच एक महत्वपूर्ण रक्षा समझौता हुआ है. बुधवार को रियाद में हुए इस समझौते के तहत दोनों देशों में से किसी पर भी हुआ हमला दोनों देशों पर हमला माना जाएगा. 

सऊदी अरब के रक्षा मंत्री ख़ालिद बिन सलमान ने पाकिस्तान के साथ हुए इस समझौते पर ख़ुशी का इज़हार किया है. उन्होंने सऊदी अरब के प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ की समझौते के वक़्त की तस्वीरें साझा की हैं. इन तस्वीरों के साथ उन्होंने लिखा है- "सऊदी अरब और पाकिस्तान किसी हमलावर के ख़िलाफ़ अब एक साझा मोर्चा हैं. ये मोर्चा हमेशा और हमेशा के लिए रहेगा." 

पाकिस्तान के उप प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री मुहम्मद इसहाक़ डार ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर लिखा है- "दोनों देशों के बीच तक़रीबन अस्सी साल पुराने रिश्ते हैं, जो भाईचारे, इस्लामी एकजुटता और रणनीतिक सहयोग पर आधारित हैं.

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ इन दिनों सऊदी अरब की यात्रा पर हैं. पाकिस्तान के सेना प्रमुख फ़ील्ड मार्शल असीम मुनीर भी उनके साथ रियाद में हैं. उन्हें पाकिस्तान का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता है. इस समझौते का श्रेय भी उन्हें ही दिया जा रहा है.  




फ़िरदौस ख़ास 
पर्यटन भी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा है. कुछ लोग क़ुदरत की ख़ूबसूरती निहारने के लिए दूर-दराज़ के इलाक़ों में जाते हैं, तो कुछ लोगों को अक़ीदत इबादतगाहों और मज़ारों तक ले जाती है. पर्यटन रोज़गार का भी एक बड़ा साधन है. हमारे देश भारत में लाखों लोग पर्यटन से जुड़े हैं. यहां मज़हबी पर्यटन ख़ूब फल-फूल रहा है. हर साल विदेशों से लाखों लोग भारत भ्रमण के लिए आते हैं, जिनमें एक बड़ी तादाद धार्मिक स्थलों पर आने वाले ज़ायरीनों यानी पर्यटकों की होती है.  

देश की राजधानी दिल्ली में जामा मस्जिद पर्यटकों का पसंदीदा स्थल है. यह मस्जिद लाल पत्थरों और संगमरमर से बनी हुई है. मुग़ल बादशाह शाहजहां ने इसे बनवाया था. इसके ख़ूबसूरत गुम्बद, शानदार मीनारें और हवादार झरोखे इसे बहुत ही दिलकश बनाते हैं. मस्जिद में उत्तर और दक्षिण के दरवाज़ों से दाख़िल हुआ जा सकता है. पूर्व का दरवाज़ा सिर्फ़ जुमे के दिन ही खुलता है. यह दरवाज़ा शाही परिवार के दाख़िले के लिए हुआ करता था. 

इसके अलावा ज़ायरीन दिल्ली में दरगाहों पर भी हाज़िरी लगाते हैं. यहां बहुत सी दरगाहें अक़ीदत का मर्कज़ हैं, ख़ासकर सूफ़ियाना सिलसिले से जुड़े लोग यहां अपनी अक़ीदत के फूल चढ़ाते हैं. यहां महबूबे-इलाही हज़रत शेख़ निजामुद्दीन औलिया और उनके प्यारे मुरीद हज़रत अमीर खुसरो साहब की मज़ारें हैं. ज़ायरीन हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी रहमतुल्लाह अलैह, हज़रत ख़्वाजा अब्दुल अज़ीज़ बिस्तामी, हज़रत ख़्वाजा बाक़ी बिल्लाह, हज़रत ख़्वाजा अलीअहमद एहरारी, हज़रत सैयद बदरुद्दीन शाह समरकंदी, हज़रत सैयद महमूद बहार, हज़रत सैयद सदरुद्दीन शाह, हज़रत सैयद आरिफ़ अली शाह, हज़रत सैयद अबुल कासिम सब्ज़वारी, हज़रत सैयद हसन रसूलनुमा, हज़रत सैयद शाह आलम, हज़रत मौलाना शेख़ जमाली और कमाली, हज़रत मौलाना फ़ख़रुद्दीन फ़ख़्र-ए-जहां, हज़रत मौलाना शेख़ मजदुद्दीन हाजी, हज़रत मौलाना नासेहुद्दीन, हज़रत शम्सुल आरफ़ीन तुर्कमान शाह, हज़रत शाह तुर्कमान बयाबानी सुहरवर्दी, हज़रत शाह सरमद शहीद, हज़रत शाह सादुल्लाह गुलशन, हज़रत शाह वलीउल्लाह, हज़रत शाह मुहम्मद आफ़ाक़, हज़रत शाह साबिर अली चिश्ती साबरी, हज़रत शेख़ सैयद जलालुद्दीन चिश्ती, हज़रत शेख़ कबीरुद्दीन औलिया, हज़रत शेख़ जैनुद्दीन अली, हज़रत शेख़ यूसुफ़ कत्ताल, हज़रत शेख़ नसीरुद्दीन महमूद चिराग़-ए-देहली, ख़लीफ़ा शेख़ चिराग़-ए-देहली, हज़रत शेख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल चिश्ती, हज़रत शेख़ नूरुद्दीन मलिक यारे-पर्रा, हज़रत शेख़ शम्सुद्दीन औता दुल्लाह, हज़रत शेख़ शहाबुद्दीन आशिक़उल्लाह, हज़रत शेख़ ज़ियाउद्दीन रूमी सुहरवर्दी, हज़रत मख़मूद शेख़ समाउद्दीन सुहरवर्दी, हज़रत शेख़ नजीबुद्दीन फ़िरदौसी, हज़रत शेख़ रुकनुद्दीन फ़िरदौसी, हज़रत शेख़ एमादुद्दीन इस्माईल फ़िरदौसी, हज़रत शेख़ उस्मान सय्याह, हज़रत शेख़ सलाहुद्दीन, हज़रत शेख़ अल्लामा कमालुद्दीन, हज़रत शेख़ बाबा फ़रीद (पोते), हज़रत शेख़ अलाउद्दीन, हज़रत शेख़ फ़रीदुद्दीन बुख़ारी, हज़रत शेख़ अब्दुलहक़ मुहद्दिस देहलवी, हज़रत शेख़ सुलेमान देहलवी, हज़रत शेख़ मुहम्मद चिश्ती साबरी, हज़रत मिर्ज़ा अब्दुल क़ादिर बेदिल, हज़रत शेख़ नूर मुहम्मद बदायूंनी, हज़रत शेख़ शाह कलीमुल्लाह, हज़रत शेख़ मुहम्मद फ़रहाद, हज़रत शेख़ मीर मुहम्मदी, हज़रत शेख़ हैदर, हज़रत क़ाज़ी शेख़ हमीदुद्दीन नागौरी, हज़रत अबूबकर तूसी हैदरी, हज़रत नासिरुद्दीन महमूद, हज़रत इमाम ज़ामिन, हज़रत हाफ़िज़ सादुल्लाह नक़्शबंदी, हज़रत शेख़ुल आलेमीन हाजी अताउल्लाह, हज़रत मिर्ज़ा मुल्लाह मज़हर जाने-जानां, हज़रत मीरानशाह नानू और शाह जलाल, हज़रत अब्दुस्सलाम फ़रीदी, हज़रत ख़ुदानुमा, हज़रत नूरनुमा और हज़रत मख़दूम रहमतुल्लाह अलैह की मज़ारों पर भी जाते हैं. यहां हज़रत बीबी हंबल साहिबा, हज़रत बीबी फ़ातिमा साम और हज़रत बीबी ज़ुलैख़ा की मज़ारें भी हैं, जहां महिला ज़ायरीन जाती हैं. यहां पंजा शरीफ़, शाहेमर्दां, क़दम शरीफ़ और चिल्लागाह पर भी ज़ायरीन हाज़िरी लगाते हैं. 

यूं तो हर रोज़ ही मज़ारों पर ज़ायरीनों की भीड़ होती है, लेकिन जुमेरात के दिन यहां का माहौल कुछ अलग ही होता है. क़व्वाल क़व्वालियां गाते हैं. दरगाह के अहाते में अगरबत्तियों की भीनी-भीनी महक और उनका आसमान की तरफ़ उठता सफ़ेद धुआं कितना भला लगता है. ज़ायरीनों के हाथों में फूलों और तबर्रुक की तबाक़ होते हैं. मज़ारों के चारों तरफ़ बनी जालियों के पास बैठी औरतें क़ुरान शरीफ़ की सूरतें पढ़ रही होती हैं. कोई औरत जालियों में मन्नत के धागे बांध रही होती है, तो कोई दुआएं मांग रही होती है. 

राजस्थान के अजमेर में ख़्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह का मज़ार है. ख़्वाजा अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की औलादों में से हैं. ख़्वाजा की वजह से अजमेर को अजमेर शरीफ़ भी कहा जाता है. सूफ़ीवाद का चिश्तिया तरीक़ा हज़रत अबू इसहाक़ शामी ने ईरान के शहर चश्त में शुरू किया था. इसलिए इस तरीक़े या सिलसिले का नाम चिश्तिया पड़ गया. जब ख़्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह हिन्दुस्तान आए, तो उन्होंने इसे दूर-दूर तक फैला दिया. हिन्दुस्तान के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी चिश्तिया सिलसिला ख़ूब फलफूल रहा है. दरअसल यह सिलसिला भी दूसरे सिलसिलों की तरह ही दुनियाभर में फैला हुआ है. यहां भी दुनियाभर से ज़ायरीन आते हैं.     

महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में सैयद हाजी अली शाह बुख़ारी का मज़ार है. हाजी अली भी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की औलादों में से हैं. यह मज़ार मुम्बई के वर्ली तट के क़रीब एक टापू पर बनी मस्जिद के अन्दर है. सफ़ेद रंग की यह मस्जिद बहुत ही ख़ूबसूरत लगती है. मुख्य सड़क से मज़ार तक जाने के लिए एक पुल बना हुआ है. इसके दोनों तरफ़ समन्दर है. शाम के वक़्त समन्दर का पानी ऊपर आने लगता है और यह पुल पानी में डूब जाता है. सुबह होते ही पानी उतरने लगता है. यहां भी हिन्दुस्तान के कोने-कोने के अलावा दुनियाभर से ज़ायरीन आते हैं.

हरियाणा के पानीपत शहर में शेख़ शराफ़ुद्दीन बू अली क़लंदर का मज़ार है. यह मज़ार एक मक़बरे के अन्दर है, जो साढ़े सात सौ साल से भी ज़्यादा पुराना है. कहा जाता है कि शेख़ शराफ़ुद्दीन रहमतुल्लाह अलैह ने लम्बे अरसे तक पानी में खड़े होकर इबादत की थी. जब उनकी इबादत क़ुबूल हुई, तो उन्हें बू अली का ख़िताब मिला. दुनिया में अब तक सिर्फ़ साढ़े तीन क़लन्दर हुए हैं. शेख़ शराफ़ुद्दीन बू अली क़लंदर, लाल शाहबाज़ क़लंदर और शम्स अली कलंदर. हज़रत राबिया बसरी भी क़लंदर हैं, लेकिन औरत होने की वजह से उन्हें आधा क़लंदर माना जाता है. बू अली क़लंदर रहमतुल्लाह अलैह के मज़ार के क़रीब ही उनके मुरीद हज़रत मुबारक अली शाह का भी मज़ार है. यहां भी दूर-दूर से ज़ायरीन आते हैं.  

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले के देवा नामक क़स्बे में हाजी वारिस अली शाह का मज़ार है. आप अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की औलादों में से हैं. उनके वालिद क़ुर्बान अल्ली शाह भी जाने-माने औलिया थे.     

उत्तर प्रदेश के ही कानपुर ज़िले के गांव मकनपुर में हज़रत बदीउद्दीन शाह ज़िन्दा क़ुतबुल मदार का मज़ार है. 
इनके बारे में कहा जाता है कि ये योगी दुर्वेश थे और अकसर योग के ज़रिये महीनों साधना में रहते थे. एक बार वह योग समाधि में ऐसे लीन हुए कि लम्बे अरसे से तक उठे नहीं. उनके मुरीदों ने समझा कि उनका विसाल हो गया है. उन्होंने हज़रत बदीउद्दीन शाह को दफ़न कर दिया. दफ़न होने के बाद उन्होंने सांस ली. उनके मुरीद यह देखकर हैरान रह गए कि वे ज़िन्दा हैं. वे क़ब्र खोदकर उन्हें निकालने वाले ही थे, तभी एक बुज़ुर्ग ने हज़रत बदीउद्दीन शाह से मुख़ातिब होकर कहा कि दम न मार यानी अब तुम ज़िन्दा ही दफ़न हो जाओ. फिर उस क़ब्र को ऐसे ही छोड़ दिया गया. इसलिए उन्हें ज़िन्दा पीर भी कहा जाता है. आपकी उम्र मुबारक तक़रीबन छह सौ साल थी.    

इनके अलावा देशभर में और भी औलियाओं की मज़ारें हैं, जहां दूर-दराज़ के इलाक़ों से ज़ायरीन आते हैं और सुकून हासिल करते हैं. 
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं)


अल इश्क़ो नारून, युहर्री को मा सवीयिल महबूब...
यानी इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है...

इश्क़ वो आग है, जिससे दोज़ख भी पनाह मांगती है... कहते हैं, इश्क़ की एक चिंगारी से ही दोज़ख़ की आग दहकायी गई है... जिसके सीने में पहले ही इश्क़ की आग दहकती हो उसे  दोज़ख़ की आग का क्या ख़ौफ़...

जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है... इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना... क्योंकि इश्क़ तो 'उससे' हुआ है...उसकी ज़ात (अस्तित्व) से हुआ है... उस 'महबूब' से जो सिर्फ़ 'जिस्म' नहीं है... वो तो ख़ुदा के नूर का वो क़तरा जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है... इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है... इश्क़ में रूहानियत होती है... इश्क़, बस इश्क़ होता है... किसी इंसान से हो या ख़ुदा से...

हज़रत राबिया बसरी कहती हैं- इश्क़ का दरिया अज़ल से अबद तक गुज़रा, मगर ऐसा कोई न मिला जो उसका एक घूंट भी पीता. आख़िर इश्क़ विसाले-हक़ हुआ...

बुजुर्गों से सुना है कि शायरों की बख़्शीश नहीं होती...वजह, वो अपने महबूब को ख़ुदा बना देते हैं...और इस्लाम में अल्लाह के बराबर किसी को रखना...शिर्क यानी ऐसा गुनाह माना जाता है, जिसकी मुआफ़ी तक नहीं है...कहने का मतलब यह है कि शायर जन्नत के हक़दार नहीं होते...उन्हें  दोज़ख़ (जहन्नुम) में फेंका जाएगा... अगर वाक़ई ऐसा है तो मुझे  दोज़ख़ भी क़ुबूल है...आख़िर वो भी तो उसी अल्लाह की तामीर की हुई है...जब हम अपने महबूब (चाहे वो काल्पनिक ही क्यूं न हो) से इतनी मुहब्बत करते हैं कि उसके सिवा किसी और का तसव्वुर करना भी कुफ़्र महसूस होता है... उसके हर सितम को उसकी अदा मानकर दिल से लगाते हैं... फिर जिस ख़ुदा की हम उम्रभर इबादत करते हैं तो उसकी  दोज़ख़ को ख़ुशी से क़ुबूल क्यूं नहीं कर सकते...?

बंदे को तो अपने महबूब (ख़ुदा) की  दोज़ख़ भी उतनी ही अज़ीज़ होती है, जितनी जन्नत... जिसे इश्क़ की दौलत मिली हो, फिर उसे कायनात की किसी और शय की ज़रूरत ही कहां रह जाती है, भले ही वो जन्नत ही क्यों न हो...

जब इश्क़े-मजाज़ी (इंसान से इश्क़) हद से गुज़र जाए, तो वो ख़ुद ब ख़ुद इश्क़े-हक़ीक़ी (ख़ुदा से इश्क़) हो जाता है... इश्क़ एक ख़ामोश इबादत है... जिसकी मंज़िल जन्नत नहीं, दीदारे-महबूब है...

किसी ने क्या ख़ूब कहा है-
मुकम्मल दो ही दानों पर
ये तस्बीह-ए-मुहब्बत है
जो आए तीसरा दाना
ये डोर टूट जाती है

मुक़र्रर वक़्त होता है
मुहब्बत की नमाज़ों का
अदा जिनकी निकल जाए
क़ज़ा भी छूट जाती है

मोहब्बत की नमाज़ों में
इमामत एक को सौंपो
इसे तकने उसे तकने से
नीयत टूट जाती है

मुहब्बत दिल का सजदा है
जो है तैहीद पर क़ायम
नज़र के शिर्क वालों से
मुहब्बत रूठ जाती है


डॉ. फ़िरदौस ख़ान
इस्लाम में सूफ़ियों का अहम मुक़ाम है. सूफ़ी मानते हैं कि सूफ़ी मत का स्रोत ख़ुद पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सलल्ललाहु अलैहि वसल्लम हैं. उनकी प्रकाशना के दो स्तर हैं, एक तो जगज़ाहिर क़ुरआन है, जिसे इल्मे-सफ़ीना यानी किताबी ज्ञान कहा गया है, जो सभी आमो-ख़ास के लिए है. और दूसरा इल्मे-सीना यानी गुह्य ज्ञान, जो सूफ़ियों के लिए है. उनका यह ज्ञान पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद, ख़लीफ़ा अबू बक़्र, हज़रत अली, हज़रत बिलाल और पैग़म्बर के अन्य चार क़रीबी साथियों के ज़रिये एक सिलसिले में चला आ रहा है, जो मुर्शिद से मुरीद को मिलता है. पीरों और मुर्शिदों की यह रिवायत आज भी बदस्तूर जारी है. दुनियाभर में अनेक सूफ़ी हुए हैं, जिन्होंने लोगों को राहे-हक़ पर चलने का पैग़ाम दिया. इन्हीं में से एक हैं फ़ारसी के सुप्रसिद्ध कवि रूमी. वह ज़िन्दगी भर इश्क़े-इलाही में डूबे रहे. उनकी हिकायतें और बानगियां तुर्की से हिंदुस्तान तक छाई रहीं. आज भी खाड़ी देशों सहित अमेरिका और यूरोप में उनके कलाम का जलवा है. उनकी शायरी इश्क़ और फ़ना की गहराइयों में उतर जाती है. ख़ुदा से इश्क़ और इश्क़ में ख़ुद को मिटा देना ही इश्क़ की इंतहा है, ख़ुदा की इबादत है.
वे कहते हैं-
बंदगी कर, जो आशिक़ बना सकती है
बंदगी काम है जो अमल में ला देती है
बंदा क़िस्मत से आज़ाद होना चाहता है
आशिक़ अबद से आज़ादी नहीं चाहता है
बंदा चाहता है हश्र के ईनाम व ख़िलअत
दीदारे-यार है आशिक़ की सारी ख़िलअत
इश्क़ बोलने व सुनने से राज़ी होता नहीं
इश्क़ दरिया वो जिसका तला मिलता नहीं
हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब रूमी में सूफ़ी कवि रूमी की ज़िन्दगी, उनके दर्शन और उनके कलाम को शामिल किया गया है. इसके साथ ही इस किताब में सूफ़ी मत के बारे में भी संक्षिप्त मगर अहम जानकारी दी गई है. इस किताब का संपादन अभय तिवारी ने किया है. इस किताब के दो खंड हैं-रूमी की बुनियाद : सूफ़ी मत और मसनवी मानवी से काव्यांश. पहले खंड में सूफ़ी मत का ज़िक्र किया गया है. बसरा में दसवीं सदी के पूर्वार्ध में तेजस्वी लोगों के दल इख़्वानुस्सफ़ा के मुताबिक़, एक आदर्श आदमी वह है, जिसमें इस तरह की उत्तम बुद्धि और विवेक हो जैसे कि वह ईरानी मूल का हो, अरब आस्था का हो, धर्म में सीधी राह की ओर प्रेरित हनी़फ़ी (इस्लामी धर्मशास्त्र की सबसे तार्किक और उदार शाख़ा के मानने वाले) हो, शिष्टाचार में इराक़ी हो, परम्परा में यहूदी हो, सदाचार में ईसाई हो, समर्पण में सीरियाई हो, ज्ञान में यूनानी हो, दृष्टि में भारतीय हो, ज़िन्दगी जीने के ढंग में रहस्यवादी हो. 
रूमी को कई नामों से जाना जाता है. अफ़ग़ानी उन्हें बलख़ी पुकारते हैं, क्योंकि उनका जन्म अफ़ग़ानिस्तान के बलख़ शहर में हुआ था. ईरान में वह मौलवी हैं, तुर्की में मौलाना और हिन्दुस्तान सहित अन्य देशों में रूमी. आज जो प्रदेश तुर्की नाम से प्रसिद्ध है, मध्यकाल में उस पर रोम के शासकों का अधिकार लम्बे वक़्त तक रहा था. लिहाज़ा पश्चिम एशिया में उसका लोकनाम रूम पड़ गया. रूम के शहर कोन्या में रिहाइश की वजह से ही मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन, मौलाना-ए-रूम या रूमी कहलाए जाने लगे. उनके सिलसिले के सूफ़ी मुरीद उन्हें ख़ुदावंदगार के नाम से भी पुकारते थे. रूमी का जन्म 1207 ईस्वी में बलख़ में हुआ था. उनके पुरखों की कड़ी पहले ख़ली़फ़ा अबू बक़्र रज़ियल्लाहु अन्हु तक जाती है. उनके पिता बहाउद्दीन वलेद न सिर्फ़ एक आलिम मुफ़्ती थे, बल्कि बड़े पहुंचे हुए सूफ़ी भी थे. उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी.
इस्लाम के मुताबिक़ अल्लाह ने कुछ नहीं से सृष्टि की रचना की यानी रचना और रचनाकार दोनों अलग-अलग हैं. इस्लाम का मूल मंत्र कलमा है ला इलाह इल्लल्लाह यानी अल्लाह के सिवा दूसरा कोई माबूद नहीं है. इसी कलमे पर सब मुसलमान ईमान लाते हैं. मगर सूफ़ी ये भी मानते हैं कि ला मौजूद इल्लल्लाह यानी उसके सिवा कोई मौजूद नहीं है. इस मौजूदगी में भी दो राय हैं. एक तो वहदतुल वुजूद यानी अस्तित्व की एकता, जिसे इब्नुल अरबी ने मुकम्मल शक्ल दी और जो मानता है कि जो कुछ है सब ख़ुदा है, और काफ़ी आगे चलकर विकसित हुआ. दूसरा वहदतुल शुहूद यानी (साक्ष्य की एकता, जो मानता है कि जो भी है उस ख़ुदा से है. 
इस्लाम में इस पूरी कायनात की रचना का स्रोत नूरे-मुहम्मद है. नूरुल मुहम्मदिया मत के मुताबिक़ जब कुछ नहीं था, तो वह सिर्फ़ ख़ुदा सिर्फ़ अज़ ज़ात यानी स्रोत के रूप में था. इस अवस्था के दो रूप मानते हैं- अल अमा यानी घना अंधेरा और वहदियत यानी एकत्व. इस अवस्था में ख़ुदा निरपेक्ष और निर्गुण रहता है. इसके बाद की अवस्था वहदत है, जिसे हक़ीक़तुल मुहम्मदिया भी कहा जाता है. इस अवस्था में ख़ुदा को अपनी सत्ता का बोध हो जाता है. तीसरी अवस्था वाहिदियत की है, जिसमें वह परम प्रकाश, अहं, शक्ति और इरादे के विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हो जाता है. अन्य तरीक़े से इस हक़ीक़तुल मुहम्मदिया को ही नूरुल मुहम्मदिया भी कहा गया है. माना गया है कि ख़ुदा ने जब सृष्टि की इच्छा की तो अपनी ज्योति से एक ज्योति पैदा की-नूरे मुहम्मद. शेष सृष्टि का निर्माण इसी नूर से माना गया है. सभी पैग़म्बर भी इसी नूर की अभिव्यक्ति हैं. इस विधान और नवअफ़लातूनी विधान के वन, नूस और वर्ल्ड सोल के बीच काफ़ी साम्य है. वैसे तो इन दोनों से काफ़ी पूर्ववर्ती श्रीमद्भागवत में वर्णित सांख्य दर्शन के अव्यक्त, प्रधान आदि भी ऐसी ही व्यवस्था के अंग हैं, लेकिन उसमें नूरुल मुहम्मदिया या वर्ल्ड सोल जैसी कोई शय नहीं है. इसके बाद इस दिव्य ज्ञान की व्यवस्था में और भी विभाजन हैं, पांच तरह के आलम, ईश्वर का सिंहासन, उसके स्वर्ग का विस्तार आदि तमाम अंग हैं. इस विधान के दूसरे छोर पर आदमी है और उसकी ईश्वर की तरफ़ यात्रा की मुश्किलें हैं, उन्हें पहचानना और इस पथ के राही के लिए आसान करना ही इस ज्ञान का मक़सद है.
रूमी के कई क़िस्से बयान किए जाते हैं. एक बार एक क़साई की गाय रस्सी चबाकर भाग ख़डी हुई. क़साई उसे पक़डने को पीछे भागा, मगर गाय गली-गली उसे गच्चा देती रही और एक गली में जहां रूमी खड़े थे, उन्हीं के पास जाकर चुपचाप रुक गई. रूमी ने उसे पुचकारा और सहलाया. क़साई को उम्मीद थी कि रूमी उसे गाय सौंप देंगे, मगर रूमी का इरादा कुछ और था. चूंकि गाय ने उनके पास पनाह ली थी, इसलिए रूमी ने क़साई से गुज़ारिश की कि गाय को क़त्ल करने की बजाय छो़ड दिया जाए. क़साई ने सर झुकाकर इसे मान लिया. फिर रूमी बोले कि सोचे जब जानवर तक ख़ुदा के प्यार करने वालों द्वारा बचा लिए जाते हैं, तो ख़ुदा की पनाह लेने वाले इंसानों के लिए कितनी उम्मीद है. कहते हैं कि फिर वह गाय कोन्या में नहीं दिखी. एक बार किसी मुरीद ने पूछा कि क्या कोई दरवेश कभी गुनाह कर सकता है. रूमी का जवाब था कि अगर वह भूख के बग़ैर खाता है तो ज़रूर, क्योंकि भूख के बग़ैर खाना दरवेशों के लिए बड़ा संगीन गुनाह है.
किताब के दूसरे खंड में रूमी का कलाम पेश किया गया है. इश्क़े-इलाही में डूबे रूमी कहते हैं-
हर रात रूहें क़ैदे-तन से छूट जाती हैं
कहने करने की हदों से टूट जाती हैं
रूहें रिहा होती हैं इस क़फ़स से हर रात
हाकिम और क़ैदी हो जाते सभी आज़ाद
वो रात जिसमें क़ैदी क़फ़स से बे़खबर है
खोने पाने का कोई डर नहीं व ग़म नहीं
न प्यार इससे, उससे कुछ बरहम नहीं
सूफ़ियों का हाल ये है बिन सोये हरदम
वे सो चुके होते जबकि जागे हैं देखते हम
सो चुके दुनिया से ऐसे, दिन और रात में
दिखे नहीं रब का क़लम जैसे उसके हाथ में

बेशक इश्क़े-इलाही में डूबा हुआ बंदा ख़ुद को अपने महबूब के बेहद क़रीब महसूस करता है. वह इस दुनिया में रहकर भी इससे जुदा रहता है. रूमी के कलाम में इश्क़ की शिद्दत महसूस किया जा सकता है. रूमी कहते हैं-
क्योंकि ख़ुदा के साथ रूह को मिला दिया
तो ज़िक्र इसका और उसका भी मिला दिया
हर किसी के दिल में सौ मुरादें हैं ज़रूर
लेकिन इश्क़ का मज़हब ये नहीं है हुज़ूर
मदद देता है इश्क़ को रोज़ ही आफ़ताब
आफ़ताब उस चेहरे का जैसे है नक़ाब

इश्क़ के जज़्बे से लबरेज़ दिल सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने महबूब की बात करना चाहता है, उसकी बात सुनना चाहता है, उसके बारे में सुनना चाहता है और उसे बारे में ही कहना चाहता है. यही तो इश्क़ है.
बेपरवाह हो गया हूं अब सबर नहीं होता मुझे
आग पर बिठा दिया है इस सबर ने मुझे
मेरी ताक़त इस सबुरी से छिन गई है
मेरी रूदाद सबके लिए सबक़ बन गई है
मैं जुदाई में अपनी इस रूह से गया पक
ज़िंदा रहना जुदाई में बेईमानी है अब
उससे जुदाई का दर्द कब तक मारेगा मुझे
काट लो सर, इश्क नया सिर दे देगा मुझे
बस इश्क़ से ज़िंदा रहना है मज़हब मेरे लिए
इस सर व शान से ज़िंदगी शर्म है मेरे लिए

बहरहाल, ख़ूबसूरत कवर वाली यह किताब पाठकों को बेहद पसंद आएगी, क्योंकि पाठकों को जहां रूमी के कई क़िस्से पढ़ने को मिलेंगे, वहीं महान सूफ़ी कवि का रूहानी कलाम भी उनके दिलो-दिमाग़ को रौशन कर देगा.

समीक्ष्य कृति : रूमी 
संपादन : अभय तिवारी
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 110 रुपये
 



यूनुस ख़ान 
आज है 17 सितंबर, गीतकार हसरत जयपुरी सन 1999 में आज ही के दिन इस संसार को अलविदा कह गए थे. जयपुरी ने अपने तईं गीतकारी की दुनिया को बहुत बदला था. 
ये बात तकरीबन 1947-48 की है. उन दिनों राज कपूर अपनी दूसरी फिल्म 'बरसात' के लिए गीतकार की तलाश में थे और पृथ्वी जी ने एक नौजवान शायर को यहां राज से मिलने बुलवाया था. ये शायर थे हसरत जयपुरी. उनका असली नाम था इक़बाल हुसैन. ये वे दिन थे जब हसरत को मुंबई में बतौर बस कंडक्टर नौकरी करते सात-आठ बरस हो गए थे. शंकर-जयकिशन के लिए हसरत ने 'बरसात' का जो पहला गीत लिखा वो था-'जिया बेकरार है...'
हसरत हिंदी फिल्मों के रुमानी गीतों के सुल्तान थे. बचपन में उन्हें अपने मुहल्ले की एक लड़की राधा से प्रेम हो गया था. मजहब की दीवार थी. राधा की शादी कहीं और कर दी गई और हसरत ने लिखा, 'दिल के झरोखों में तुझको बिठाकर.. यादों को तेरी में दुल्हन बनाकर.. रख लूंगा मैं दिल के पास...मत हो मेरी जां उदास..'
हसरत जिंदगी भर मोहब्बत की दास्तां को गीतों की शक्ल में ढालते रहे. एक जमाने में उन्होंने राधा के नाम लिखा था, 'ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर तुम नाराज ना होना...' उनका ये पैगाम उनकी डायरी में ही दबा रह गया था. बाद में राज कपूर की बेमिसाल फिल्म 'संगम' में इसे इस्तेमाल किया गया. 
मैं अपने रेडियो-कार्यक्रमों में भी हसरत को 'शिद्दत से की गई मोहब्बतों के शायर' कहता हूं. आइए, उनके कुछ बेहद रूमानी गानों की बातें करें, 'आ जा रे आ जरा आ...' (फिल्म 'लव इन टोकियो' 1966). 
इस गाने में वो लिखते हैं: 
'देख फिजां में रंग भरा है
मेरे जिगर का जख्म हरा हरा है
सीने से मेरे सिर को लगा दे
हाथ में तेरे दिल की दवा है...' 
फिल्म 'सुहागन' (1964) का ये गाना याद कीजिए, 'तू मेरे सामने है। तेरी जुल्फें हैं खुलीं /तेरा आंचल है ढला / मैं भला होश में कैसे रहूं..'
मदनमोहन-मोहम्मद रफी और हसरत का खूबसूरत और दुर्लभ संगम है ये. 
और अफसोस का ये गाना, 'आंसू भरी हैं ये जीवन की राहें/कोई उनसे कह दे/हमें भूल जाएं' (परवरिश-1958). संगीतकार दत्ताराम.
हसरत फिल्मी गानों में कमाल के लफ्ज और गजब की मिसालें लेकर आए. जैसे 'ऐ नरगिस-ए-मस्ताना बस इतनी शिकायत है' (फिल्म आरजू) नरगिस-ए-मस्ताना के मायने हैं मस्त आंखों वाली. उनका एक गाना है "तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नज़र ना लगे चश्मे बद्दूर". यहां चश्म–ए–बद्दूर का मतलब है, बुरी नज़र ना लगे। वो फिल्म प्रोफेसर के एक गाने में "गुलबदन" लफ्ज़ इस्तेमाल करते हैं। "जंगली" के एक गाने में वो "शब ब खैर" और एक अन्य गाने में "जनाब ए आली" कहते हैं। उन्होंने उर्दू के कुछ लफ़्ज़ अपने गीतों के जरिए आम जनता की जुबां तक पहुंचा दिए। 
अब जरा इस एक्सप्रेशन को देखिए जिसे हम आम जिंदगी में कितना इस्तेमाल करते हैं, 'अजी रूठकर अब कहां जाइएगा, जहां जाइएगा हमें पाइएगा' (फिल्म-आरजू). 
1952 में आई दिलीप कुमार वाली फिल्म 'दाग' के एक गाने में तो हसरत ने जैसे कलेजा चीरकर रख दिया है, 
'चांद एक बेवा की चूड़ी की तरह टूटा हुआ
हर सितारा बेसहारा सोच में डूबा हुआ गम के बादल एक जनाजे की तरह ठहरे हुए 
हिचकियों के साज पर कहता है दिल रोता हुआ.. 
कोई नहीं मेरा इस दुनिया में 
आशियां बरबाद है..'
हसरत और शैलेन्द्र ने शंकर जयकिशन के साथ राजकपूर की फिल्मों में भी गाने लिखे और बाहर की फिल्मों में भी। दिलचस्प ये है कि जब शैलेन्द्र ने "तीसरी कसम" बनाई तो उन्होंने इस फिल्म में लिखा "दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई/काहे को दुनिया बनाई"।
इस गाने का मजरूह कनेक्शन है। असल में राज कपूर ने एक समय मजरूह से ये मुखड़ा लिखवाया था। ये वो वक्त था जब पुलिस मजरूह के पीछे पड़ी थी। तफसील से ये किस्सा फिर कभी। पर शैलेन्द्र की फिल्म, मजरूह का मुखड़ा, हसरत का नगमा, क्या ग़ज़ब सफर एक गाने का। 
"आम्रपाली" के एक गाने की ये पंक्ति:
कहता है समय का उजियारा
एक चन्द्र भी आने वाला है
इन जोत की प्यासी अंखियन को
अंखियों से पिलाने वाला है
ये भी हसरत हैं। 
सचिन देव बर्मन की एक फिल्म ऐसी है जिसके सारे गाने हसरत ने लिखे। ये फिल्म है "तेरे घर के सामने"। कमाल के गाने हैं इस फिल्म में। हसरत के मजाहिया गाने भी ग़ज़ब हैं जैसे "मैं तेरे प्यार में क्या क्या न बना" या "मेरी भैंस को डंडा क्यों मारा"।
हसरत ने "बहारों फूल बरसाओ" भी लिखा जिसे बीबीसी के एक सर्वे में बीते सौ सालों का सबसे पसंदीदा गाना घोषित किया गया था। 
हसरत की याद को नमन।
(लेखक विविध भारती के जाने माने उद्घोषक हैं)


फ़िरदौस ख़ान
गुर्दे की पथरी अब एक आम मर्ज़ हो गया है. पथरी की वजह से नाक़ाबिले बर्दाश्त दर्द होता है. पेशाब में जलन होती है. इसकी वजह से गुर्दों को नुक़सान हो सकता है. 
चिकित्सकों के मुताबिक़ पेशाब में कैल्शियम, ऑक्सालेट, यूरिक एसिड और सिस्टीन जैसे पदार्थ इकट्ठे होकर  क्रिस्टल बन जाते हैं. फिर ये क्रिस्टल गुर्दे से जुड़कर रफ़्ता-रफ़्ता पथरी का रूप इख़्तियार कर लेते हैं. इनमें 80 फ़ीसद पथरी कैल्शियम से बनी होती है और कुछ पथरी कैल्शियम ऑक्सालेट और कुछ कैल्शियम फ़ॉस्फ़ेट से बनी होती हैं. बाक़ी पथरी यूरिक एसिड, संक्रमण और सिस्टीन से बनी होती हैं.
पथरी के कई इलाज हैं. आज हम कुछ ऐसे इलाज के बारे में बता रहे हैं, जिनसे लोगों को पथरी से निजात मिली है. 
पथरी के मरीज़ को कितने दिन में इससे निजात मिलती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि गुर्दे में कितनी और किस आकार की पथरियां हैं. इसके साथ ही परहेज़ भी बहुत मायने रखता है. मसलन पथरी के मरीज़ को कैल्शियम और आयरन से बनी चीज़ें कम कर देनी चाहिए. इसके साथ ही पानी ज़्यादा से ज़्यादा पीना चाहिए. 
ज़ैतून, शहद और नींबू  
एक गिलास पानी में एक चम्मच ज़ैतून का तेल, एक चम्मच शहद और एक नींबू का रस मिलाकर रोज़ पीने से पथरी टूटकर पेशाब के साथ जिस्म से बाहर निकल जाती है.
खीरा 
देसी खीरा पथरी के मरीज़ के लिए बहुत फ़ायदेमंद है. छिलके समेत देसी खीरा ज़्यादा से ज़्यादा खाना चाहिए. इससे भी पथरी टूटकर पेशाब के साथ बाहर निकल जाती है.
मूली
मूली भी पथरी के मरीज़ के लिए बहुत फ़ायदेमंद है. सब्ज़ी या सलाद के रूप में ज़्यादा से ज़्यादा मूली खानी चाहिए. इससे भी पथरी टूटकर पेशाब के साथ बाहर निकल जाती है.
सोडा 
सोडा भी पथरी के मरीज़ के लिए बहुत ही फ़ायदेमंद है. लगातार सोडा पीने से पथरी टूटकर पेशाब के साथ बाहर निकल जाती है.
अब बात करते हैं होम्योपैथी दवा की. Berberis Vulgaris Mother Tincture Q की पांच-पांच बूंदें दिन में तीन बार लेने से पथरी टूटकर पेशाब के साथ जिस्म से बाहर निकल जाती है. 
ज़्यादा परेशानी होने पर चिकित्सक से परामर्श लें. 


फ़िरदौस ख़ान  
हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के दर्द से परेशान है. किसी के पूरे जिस्म में दर्द है, किसी की पीठ में दर्द है, किसी के घुटनों में दर्द है और किसी के हाथ-पैरों में दर्द है. हालांकि दर्द की कई वजहें होती हैं. इनमें से एक वजह यूरिक एसिड भी है.  

दरअसल, यूरिक एसिड एक अपशिष्ट पदार्थ है, जो खाद्य पदार्थों के पाचन से पैदा होता है और इसमें प्यूरिन होता है. जब प्यूरिन टूटता है, तो उससे यूरिक एसिड बनता है. किडनी यूरिक एसिड को फ़िल्टर करके इसे पेशाब के ज़रिये जिस्म से बाहर निकाल देती है. जब कोई व्यक्ति अपने खाने में ज़्यादा मात्रा में प्यूरिक का इस्तेमाल करता है, तो उसका जिस्म यूरिक एसिड को उस तेज़ी से जिस्म से बाहर नहीं निकाल पाता. इस वजह से जिस्म में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ने लगती है. ऐसी हालत में यूरिक एसिड ख़ून के ज़रिये पूरे जिस्म में फैलने लगता है और यूरिक एसिड के क्रिस्टल जोड़ों में जमा हो जाते हैं, जिससे जोड़ों में सूजन आ जाती है. इसकी वजह से गठिया भी हो जाता है. जिस्म में असहनीय दर्द होता है. इससे किडनी में पथरी भी हो जाती है. इसकी वजह से पेशाब संबंधी बीमारियां पैदा हो जाती हैं. मूत्राशय में असहनीय दर्द होता है और पेशाब में जलन होती है. पेशाब बार-बार आता है. यह यूरिक एसिड स्वस्थ व्यक्ति को बीमार कर देता है. 

यूरिक एसिड से बचने के लिए अपने खान-पान पर ख़ास तवज्जो दें. दाल पकाते वक़्त उसमें से झाग निकाल दें. कोशिश करें कि दाल कम इस्तेमाल करें. बिना छिलकों वाली दालों का इस्तेमाल करना बेहतर है. रात के वक़्त दाल, चावल और दही आदि खाने से परहेज़ करें. हो सके तो फ़ाइबर से भरपूर खाद्य पदार्थों का सेवन करें.  
जौ 
यूरिक एसिड से निजात पाने के लिए जौ का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करें. जौ की ख़ासियत है कि यह यूरिक एसिड को सोख लेता है और उसे जिस्म से बाहर करने में कारगर है. इसलिए जौ को अपने रोज़मर्रा के खाने में ज़रूर शामिल करें. गर्मियों के मौसम में जौ का सत्तू पी सकते हैं, जौ का दलिया बना सकते हैं, जौ के आटे की रोटी बनाई जा सकती है.
ज़ीरा
यूरिक एसिड के मरीज़ों के लिए ज़ीरा भी बहुत फ़ायदेमंद है. ज़ीरे में आयरन, कैल्शियम, ज़िंक और फ़ॉस्फ़ोरस पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं. इसके अलावा इसमें एंटीऑक्सीडेंट उच्च मात्रा में मौजूद होता है, जो यूरिक एसिड की वजह से होने वाले जोड़ों के दर्द और सूजन को कम करता है. यह टॉक्सिंस को जिस्म से बाहर करने में भी मददगार है.
नींबू
नींबू में मौजूद साइट्रिक एसिड शरीर में यूरिक एसिड के स्तर को बढ़ने से रोकता है.  
ज़्यादा परेशानी होने पर चिकित्सक से परामर्श लें. 
   


शैलेश पाण्डेय-
बहुमु​खी प्रतिभा के धनी रुडयार्ड किपलिंग की पहचान कवि, लघु कथाकार, पत्रकार और उपन्यासकार के तौर पर रही है। इस अंग्रेज साहित्यकार की प्रसिद्ध कृति जंगल बुक पर निर्मित धारावाहिक जब दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ तब उसका मुख्य पात्र मोगली बच्चों में बहुत लोकप्रिय हुआ। इस अंग्रेजी भाषा के विद्वान की अधिकांश कृतियों को भले ही हिंदी मीडियम के लोगों ने नहीं पढ़ा हो लेकिन दूरदर्शन पर मोगली के चरित्र ने उन्हें भारत विशेषकर हिंदीभाषियों के घर-घर तक पहुंचा दिया। भारत में जन्मे यही रुडयार्ड किपलिंग बूंदी शहर में भी निवास कर चुके हैं तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। रुडयार्ड किपलिंग वाकई जैत सागर के किनारे स्थित रमणीक सुख महल में निवास कर चुके हैं और कहा यह भी जाता है कि यहीं उन्हें अपने प्रसिद्ध उपन्यास किम की प्रेरणा मिली थी। उनकी यादों को संजोए रखने के लिए सुख महल में एक कमरा भी सुरक्षित है। हालांकि सुख महल अब बूंदी के इतिहास को दर्शाते म्यूजियम में तब्दील किया जा चुका है। लेकिन पहले यहां लोग ठहरते भी थे।

बूंदी का गढ़ पैलेस देखने के दौरान हुई थकान के बाद कुछ चाय नाश्ते के साथ ऐसी जगह चलने का मानस बनाया जहां शीतलता भी हो। सावन कुमार ने इसके लिए सुख महल का नाम सुझाया तो मैं तुरंत तैयार हो गया। लगभग दो माह पहले हम वरिष्ठ पत्रकार राहुल जी के साथ बूंदी घूमने गए थे तब शाम के छह बज चुके थे इसलिए सुख महल देखने से वंचित हो गए थे। तब हम जैतसागर के किनारे बैठकर ही मन बहलाकर लौटे थे।
क्योंकि इस बार भी हमारे पास एक ही दिन का समय था इसलिए मैं सुख महल के दीदार करने का मौका नहीं खोना चाहता था।  गढ़  पैलेस से निकलकर बूंदी की गलियों से गुजरते हुए जब सुख महल पहुंचे तो वहीं नजदीक एक छोटी दुकान के पास कार पार्क कर चाय का स्वाद लेकर खुद को तरोताजा किया। जितना शानदार चाय का स्वाद था उतना ही पास में जैत सागर के अंदर और बाहर गंदगी की भरमार ने मन खराब कर दिया । लोगों ने पूजा सामग्री के साथ पॉलीथिन की थैलियों को भी प्रवाहित कर दिया था। बाहर भी गंदगी के ढेर लगे थे। जैत सागर में कमल के पत्ते तो नजर आ रहे थे लेकिन कमल के फूल नहीं दिखे। शायद प्रदूषण की वजह से यहां कमल नहीं खिलते हों।

जब हम सुख महल के द्वार पर पहुंचे तो सावन कुमार ने वहां मौजूद कर्मचारियों को अपनी हाडोती भाषा में बातचीत से प्रभावित कर लिया। उनमें से एक कर्मचारी हमें सुख महल लेकर पहुंचा और रुडयार्ड किपलिंग ने जहां निवास किया उस जगह तथा वहां मौजूद पेंटिग्स तथा प्राचीन कलाकृतियों की जानकारी दी। उनका कहना था कि रिमझिम बारिश में सुख महल के झरोखे से जैत सागर को निहारना अलौकिक अनुभव प्रदान करता है। यहीं पर बूंदी की प्रसिद्ध शिकार पेंटिग्स भी थीं। इनके अलावा पुरातत्व महत्व की छोटी से लेकर चार फीट तक की प्रतिमाएं भी सजी थीं। हालांकि यह सभी प्रतिमाएं खंडित हैं लेकिन इनमें ज्यादातर बूंदी जिले के क्षेत्र में ही खोज में मिली होंगी जिन्हें यहां सुरक्षित रखा गया है। सुख महल से विशाल जैत सागर का दृश्य ऐसा नजर आता है मानों पहाड़ों के बीच जल से भरा कटोरा हो। हाल ही में मानसून में इस बार जमकर बारिश हुई है इसलिए जैत सागर लबालब भरा था जबकि हम गर्मियों में यहां आए थे पानी काफी कम था और साफ सफाई के अभाव में सड़ांध मार रहा था। जो लोग 70 के दशक से पहले यूपी विशेषकर कानपुर संभाग की तीन दिन की बारात में शामिल हुए हों उन्हें नाश्ते में दिया जाने वाला पंचमेल का सकोरा याद होगा। यह मिट्टी के घड़े के मुख को ढके जाने वाले जैसा पात्र होता है। लेकिन इसका आकार कुछ बड़ा होता है जिसमें पांच तरह की मिठाइयां लड्डू, बरफी, बालूशाही, गुलाब जामुन, इमरती परोसी जाती थीं। बूंदी शहर में मुझे ऐसा ही महसूस हुआ कि पहाड़ों के बीच यह मिठाइयों से भरा सकोरा है। इस सकोरे की मिठाइयां यहां के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल हैं।

हम काफी देर तक रुडयार्ड किपलिंग के यहां रहने के दौरान की कल्पना करते रहे। जिन्होंने भी अंग्रेजों के रहन सहन को देखा और सुना है। उन्हें सुख महल के कमरे देखकर आश्चर्य होगा कि रुडयार्ड किपलिंग इतने छोटे कमरों में कैसे रहे होंगे। क्योंकि अंग्रेज अपने विशाल बंगलों में रहने के आदी है। आप भारत में रेलवे के अंग्रेजों के जमाने के बंगलों को देख लें तो इसका अंदाजा हो जाएगा। जब अंग्रेज अफसर रहते थे तब उनके बंगले के कमरों का आकार हमारे पूरे घर के बराबर तथा स्नानघर हमारे एक कमरे से ज्यादा बड़ा होता था।

सुख महल अपने नाम के अनुसार तन मन को सुख देने वाला है। अभी भी इस परिसर में घने और विशालकाय आम और रैणी के कई पेड़ हैं। जिनकी छाया तेज गर्मी में शीतलता का अहसास कराती है। आज की पीढ़ी को रैणी के फल के बारे में पता भी नहीं होगा। यह पीले रंग का बहुत छोटे आकार का फल होता है। गर्मी के मौसम में  पेड़  के नीचे इन फलों की चादर बिछ जाती थी। अब ये  पेड़  भी गिने चुने रह गए हैं जबकि यह फल तो देखने को भी नहीं मिलता। मैंने बचपन में कोटा में भी इसके  पेड़  देखे हैं और रैणी बाग के नाम से सेंट्रल जेल के पास एक स्थान भी है। सुख सागर के इसी परिसर में बूंदी का प्रसिद्ध म्यूजियम है जिसको बहुत साज संवार के साथ रखा गया है। म्यूजियम में मूर्तियां, राजा महाराजाओं के समय के अस्त्र शस्त्र तथा मिनियेचर पेंटिंग को प्रदर्शित किया गया है। हालांकि इसमें अन्य म्यूजियम के समान बहुत सामग्री नहीं है। इस म्यूजियम में जहां मेरा पूरा ध्यान यहां रखी मूर्तियों के शिल्प कौशल पर था और निर्माण काल को जानने की उत्सुकता थी वहीं हमारे साथी सावन कुमार भांति-भांति की टोपी दार बंदूक, रिवाल्वर और तलवार तथा भालों के आकार-प्रकार को परखने में व्यस्त थे। उन्होंने इन तलवार और बंदूकों के साथ अलग अलग पोज में फोटो भी खिंचवाए मानो इस शस्त्रागार को अपने साथ ले जाना चाहते हों। इसी हाल में भगवान राधा-कृष्ण को समर्पित कई मिनियेचर पेंटिग्स हैं। इन पेंटिग्स के साथ संस्कृत भाषा में तो दोहा नुमा कुछ लिखा है जो मेरी समझ के बाहर था। हिंदी में भी केप्शन है। जैसे राधा कृष्ण का व्याकुलता से इंतजार करते हुए, राधा सखियों से कृष्ण के आने के बारे में जानकारी लेते हुए इत्यादि। इससे फायदा यह हुआ कि हम प्रत्येक चित्र को देखने के साथ उसकी भावना को भी समझ सके। कुछ चित्रों में तो एक साथ कई भाव मौजूद थे। इन पेंटिग्स को देखने के बाद महसूस हुआ कि सामान्य आकार की पेंटिंग के मुकाबले इन्हें चित्रित करने में चित्रकार को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती  होगी क्योंकि इतनी छोटी पेंटिंग में नायक और नायिका तथा अन्य पात्रों की नाक, आंख या गले में पहनी माला के मोतियों को आकार देने में अत्यधिक सावधानी की जरूरत है।

म्यूजियम से बाहर निकलते शाम के चार बज चुके थे। दर्शनीय स्थल देखने के चक्कर में दोपहर के भोजन पर ध्यान नहीं दिया लेकिन अब पेट में चूहों ने आगाह करना शुरू किया था। सावन कुमार पहले ही तय कर के आए थे कि यहां बूंदी-चित्तोड हाइवे पर हाल ही में खुले रेस्तरां में कत्त-बाफले भोजन का मुंबई से आए अजातशत्रु को रसास्वादन करना है। सावन की पंसद वाकई लाजवाब निकली। आधुनिक सुविधाओं से युक्त इस रेस्तरां में न केवल स्वादिष्ट भोजन मिला बल्कि वहां कार्यरत भाई ने बहुत मनुहार से भोजन भी कराया। जब हम चार जनों के भोजन का बिल अजात ने चुकाया तो वह आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने रास्ते में कहा कि दिल्ली या मुंबई में इस स्तर के रेस्तरां में एक जने के भोजन का बिल इससे ज्यादा आता। यहीं से हम बूंदी के शेष बचे पर्यटन स्थलों को देखने आने का संकल्प कर कोटा के लिए रवाना हो गए।

पुनश्च:: कल पहले एपीसोड में मैंने लिखा था कि सावन कुमार का ससुराल बूंदी में है। उन्होंने अपने ससुराल वालों को बूंदी आने के बारे में सूचित नहीं किया था। सावन कुमार के अनुसार जैसे ही उन्होंने पहला एपीसोड पढ़ा साले साहब का उलाहने का फोन आ गया। अब देखना यह है कि केवल उलाहना भर है या कुछ और भी।


शैलेश पाण्डेय
विशाल रेगिस्तान, महाराणा प्रताप जैसे महान योद्धाओं और महारानी पद्मनी के नेतृत्व में हुए जौहर जैसे ऐतिहासिक कारणों और मारवाड़ियों के व्यवसाय कौशल तथा चित्तौड और आमेर जैसे अभेद फोर्ट से वीर प्रसूता राजस्थान की पहचान रही है। लेकिन 60 के दशक में जब चंबल नदी के किनारे बसे कोटा में नए नए उद्योग खुलने से इसे औद्योगिक नगरी के तौर पर पहचान मिली तो बड़ी संख्या में देश भर से प्रवासी आए। जब वे अवकाश में अपने गृह प्रदेश जाते थे तब यह बताने पर कि कोटा से आए हैं तो अधिकतर यही पूछते थे, यह शहर कहां है। क्या बूंदी कोटा वाला कोटा। यानी कोटा की पहचान बूंदी से थी। आज भले ही बूंदी अपने नाम के अनुरूप तरक्की नहीं कर पाया हो लेकिन हाडोती आने वाले विदेशी पर्यटकों में यह आज भी पहले स्थान पर है। हो भी क्यों नहीं आखिर करीब तेरह सौ साल पहले अरावली पर्वत श्रंखला की तलहटी में बसाया गया यह शहर अपने नैसर्गिक सौंदर्य, पुरातत्व और चित्रकला शैली के कारण अलग ही स्थान रखता है। फिर यह महाकवि सूर्य मल्ल मिश्रण का शहर है जिन्होंने वंश भास्कर जैसे डिंगल काव्य ग्रंथ की रचना की है। मेरा बूंदी शहर कई बार आना जाना रहा। कई बार मैच खेलने के लिए तो कुछ अवसरों पर तीज जैसे मेले देखने गए। यहां के कुछ पिकनिक स्थलों पर भी गए लेकिन कभी ऐतिहासिक गढ़ पैलेस जैसे पर्यटन स्थल पर नहीं जा पाए। जबकि नेचर गाइड और मशहूर फोटोग्राफर एएच जैदी जिन्हें हम जैदी भाई कहते हैं आए दिन पर्यटकों और शोधार्थियों को लेकर बूंदी जाते हैं। वह कई बार साथ चलने का निमंत्रण दे चुके हैं। उनका पारिवारिक कारणों से बूंदी से गहरा नाता है।

खुशकिस्मती से इन दिनों बेटा अजातशत्रु कोटा आया हुआ है। शुक्रवार को अचानक उसने कह दिया आप मेरे पास दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद आते हो तो एक एक जगह घुमाता हूं। दिल्ली में तो अब कोई जगह ही नहीं बची। आपके कोटा आओ तो केवल दशहरा मेला या ज्यादा से ज्यादा रिवर फ्रंट दिखा दिया। बाकी समय घर में घुसे रहो। उसके उलाहने पर हमने चंबल गार्डन, जल महल से लेकर सिटी पार्क तक के स्थान गिनाए लेकिन श्रीमान ने इनमें कोई रूचि नहीं दिखाई। इस पर नीलम जी ने यह सोचकर बूंदी का प्रस्ताव रखा कि वहां किले और तालाब हैं जिनमें बेटे की रूचि है। हमारे जननायक अखबार के साथी पत्रकार सावन कुमार टांक का ससुराल बूंदी में है और वहां से वाकिफ हैं इसलिए उनका साथ सोने पर सुहागा होता। उन्हें तुरंत साथ चलने के लिए सूचित कर दिया। सावन ने भी आज्ञाकारी अनुज की तरह बगैर आगा पीछे सोचे हामी भर दी। यह बात दूसरी है कि बगैर ससुराल वालों से मिले जब कोटा आए होंगे तब घर में उनकी क्या हालत हुई होगी यह पूछने पर ही मालूम पड़ेगा।
कहा जाता है कि सावन का महीना और हल्की रिमझिम में बूंदी का नैसर्गिक सौंदर्य खुलकर सामने आता है। पहाड़ों पर फैली हरियाली और प्रसिद्ध तालाबों में लबालब भरा पानी और खिले कमल मन मोह लेते हैं। फिलहाल बारिश का दौर खत्म होने के बाद गर्मी और उमस हो गई है। रविवार सुबह करीब नौ बजे हम कोटा से कार द्वारा रवाना हुए और बूंदी की संकरी गलियों में चक्कर काटते हुए गढ पैलेस तक पहुंचे तब तक दोपहर हो चुकी थी और सूर्य तेजी के साथ आसमान पर चमक रहा था। पहले ही पता लगा लिया था इसलिए ठण्डे पानी की बोतल साथ रख ली थीं। कार पार्क करने के बाद टिकट लेकर आगे बढ़े तो चढ़ाई देख होश उड़ गए। वहां मौजूद गार्ड ने सचेत कर दिया था कि संभलकर चलें क्योंकि चढ़ाई के रास्ते में चिकने पत्थरों से फिसलने का खतरा है। पहले तो नीलम जी घबराकर वहीं रूकने और हमें किला देखने के लिए जाने को कहने लगीं। लेकिन सावन कुमार के साहस बंधाने पर किसी तरह राजी हो गईं। जब तक गढ पैलेस के मुख्य द्वार पर पहुंचे तब पता चला कि बूंदी के इस गढ पैलसे को सबसे सुरक्षित क्यों कहा जाता था। लेकिन पूर्व के राजाओं की सुरक्षा व्यवस्था से हम दोनों मियां बीबी के कस बल निकल चुके थे। अब बेटे अजात का यह कथन समझ आ रहा था कि पर्यटन का सही वक्त जवानी होती है। अजात को अपनी प्रोफेशनल लाइफ में जब भी अवकाश मिलता है उसी के अनुरूप देश विदेश में घूमने को प्राथमिकता देता है।बूंदी किले का मुख्य द्वार बहुत भव्य और कलात्मक नक्काशी से युक्त है। वहां की हमारी फोटो सोशल मीडिया साइट पर देखकर राजस्थान पत्रिका अलवर में सहयोगी रहीं ज्योति शर्मा ने भी इसकी कलात्मकता की तारीफ की जबकि अलवर अपने आप में राजस्थान के सर्वाधिक नैसर्गिक सौंदर्य और कलात्मक पुरातत्व स्थलों में से एक है। इसके म्यूजियम में बाबरनामा जैसी कृति मौजूद है। जो दुनिया में केवल दूसरी है।
किले के मुख्य प्रवेश द्वार के पास मौजूद सुरक्षाकर्मियों से टिकट चैक कराने के बाद आगे बढ़े तो हर जगह सीढ़ियां ही थीं। ये भी सीढ़ियां पुराने समय के खाते पीते मजबूत कद काठी के लोगों के हिसाब से ज्यादा गेप वाली थीं। जिन पर चढ़ना हम सामान्य लोगों के लिए एवरेस्ट की चढ़ाई से कम नहीं था। लेकिन जैसे ही मुख्य महलों छत्र महल, फूल महल और बादल महल में पहुंचे कलात्मक कक्ष, स्वचालित फौव्वारा इत्यादी देख चकित रह गए। यहां की चित्रशाला में वॉल पेंटिंग का खजाना खुल गया। हालांकि पेंटिग काफी हद तक नष्ट हो चुकी हैं लेकिन उनको देखकर लगता है कि कितने कलाकारों ने किस हुनर से इन्हें रंग रोगन और कूंची से आकर्षक रूप दिया होगा। यह देखकर अफसोस हुआ कि प्रकृति और समय ने तो पेंटिंग को नष्ट किया लेकिन इस कीमती विरासत को बर्बाद करने में हम पर्यटक भी कम नहीं। ऐसा लगता था कि लोगों ने इन्हें हाथों से खरोंचकर देखा कि यह वाकई वॉल पेंटिंग है या नहीं। यही हाल कांच जड़ित कक्ष में देखने को मिला। लोगों ने दीवार में जड़ित कांच के टुकड़ों तक को खरोंच दिया। दीवारों पर जो कला की गई है उनसे कांच निकलने से विद्रुप नजर आती हैं। राजपूतकालीन वास्तुकला के खम्बे, हाथी और उन पर की नक्काशी देखने लायक थी। गढ पैलेस के उपर से बूंदी को देखना अपने आप में अनूठा अनुभव है।  ऐसे तो आम धारणा है कि बूंदी को छोटा कस्बानुमा है लेकिन यहां से उसका वैभव नजर आता है। जैसे समान आकार के मकान हों जबकि ऐसा है नहीं। यदि इन्हें एक ही कलर में रखा जाए तो पर्यटकों के लिए बहुत अच्छा अनुभव हो सकता है।

किले से आसपास फैली अरावली पर्वतमाला आपको प्रकृति के झंझावतों से सुरक्षा का अहसास करा देती है। यदि आप फोटोग्राफी या चित्रकारी में थोड़ी भी रूचि रखते हैं तो यहां घंटों बिता सकते हैं। इन दोनों विधाओं के लिए ऐसी जगह आसानी से नहीं मिलती। गर्मी में पसीने से तरबतर हम लोगों ने किला देखने के बाद अगले पड़ाव सुखमहल का रूख किया। किले में चढ़ने में जितनी परेशानी हुई थी उसके मुकाबले उतरते समय आसानी रही लेकिन फिसलने का खतरा ज्यादा था। रेलिंग और सांकल की वजह से उसके सहारे नीचे आसानी से आ गए। रविवार को कांस्टेबल परीक्षा थी इसलिए सैकडों छात्र बूंदी आए थे। वे भी बचे समय में किला देखने पहुंचे थे। लेकिन जब सौ रूपए टिकट दर सुनते तो चौंक जाते। बेरोजगार के लिए इतना पैसा देना बहुत मुश्किल है। जब हम बेरोजगार थे उस समय के अनुभव याद आ गए लेकिन जो भी किला देखने जा रहे थे उनका उत्साह और फुर्ती देखने लायक थी।


अजय शुक्ला 
हमारी एक और बेटी मानसिक रोगियों की हवस का शिकार बन गई। उसके दिल में एक सुनहरे भविष्य का सपना था मगर देश की रक्षा का भार कंधों पर उठाए युवक ने अपने साथियों के साथ उसको असुरक्षित बना दिया। न सिर्फ सामाजिक बल्कि नैतिक दृष्टि से भी। हमारे प्रधानमंत्री से लेकर अन्य जिम्मेदार और सत्ता पर काबिज लोग बयान देते रह गए। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली हो या फिर उसके आसपास का इलाका, पहले से ही यह असुरक्षित था। अब तो गांवों की भाई-बहन वाली संस्कृति भी कलंकित हो गई है। हम शर्मसार हैं कि हमारे देश के युवा किस दिशा में जा रहे हैं। अकेली लड़की को देखकर उसको अपनी जिस्मानी भूख मिटाने का साधन मात्र मानने लगते हैं।
हम अचानक यह चर्चा क्यों कर रहे हैं क्योंकि बलात्कार रोजमर्रा की घटना बन गई है। अब इसके खिलाफ मोमबत्तियां लेकर लोग प्रदर्शन नहीं करते। बेटियों को इंसाफ दिलाने और उन्हें बचाने के लिए सड़कों पर नहीं उतर रहे। बता दूं कि उस हरियाणा में जहां एक गांव की बेटी का गांव के बेटे से विवाह नहीं हो सकता क्योंकि उन्हें भाई-बहन माना जाता है, उस राज्य में एक होनहार बेटी के साथ गांव के ही योग्य बेटे ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर सामूहिक बलात्कार किया। यह बेटी सामान्य नहीं थी, बल्कि उसने दसवीं की परीक्षा में सीबीएससी में टॉप किया था। उसे हमारे देश के राष्ट्रपति ने सम्मानित कर खुद को गौरवांवित महसूस किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हरियाणा से ही ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का शुभारंभ किया था। राज्य में जब बेटियां ही सुरक्षित नहीं रहेंगी तो वह कैसे बचेंगी और कैसे पढ़ेंगी यह सवाल खड़ा हो गया है।
बेटियों के जीवन को तोड़ने वाली मानसिकता से मुक्ति का रास्ता हम क्यों नहीं खोज रहे हैं? सत्ता पर आसीन जिम्मेदार लोग इसका हल क्यों नहीं खोज पा रहे। क्यों नहीं हम इसको लेकर मानसिकता में बदलाव के लिए कुछ कर रहे हैं? इसकी कई वजहें हैं। बड़ा कारण, बलात्कार पीड़िता को तत्काल मदद न मिल पाना है। इसके बाद उसे न्याय के लिए भटकना पड़ता है। ऐसे मामलों के निपटारे में इतना अधिक वक्त लगता है कि अधिकतर मामलों में समझौते का दबाव बन जाता है। कई बार पुलिस असंवेदनशील होती है तो कई बार उस पर अपराधियों को बचाने का राजनीतिक दबाव होता है। देश में हर रोज बलात्कार की कई घटनाएं होती हैं। मगर शोर कुछ मामलों में ही मचता है। तब बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने की भी मांग की जाती है।
हमारा मानना है कि फांसी या उम्रकैद कुछ ही इस सामाजिक अपराध का हल नहीं है, बल्कि बलात्कारी को ऐसी सजा मिले कि उसका जीवन उसे खुद बोझ लगने लगे। वह खुद अपराध बोध का शिकार हो जाए जो उसके लिए मौत के समान ही हो। उसे इतना दर्द मिले, जितना पीड़िता ने भुगता है। अगर अपराधी को हम फांसी दे देंगे, तो दर्द उसके परिवार के सदस्यों को होगा, न कि उसे।
हमें अपनी व्यवस्था में यह सुधार करना होगा कि समाज में कई स्तर पर नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाया जाए। माता-पिता को भी सांकेतिक सजा मिले, जिससे वह अपने बच्चों में संस्कारों का सृजन करें न कि सिर्फ किताबी पढ़ाई पर जोर दें। हम शुक्रगुजार हैं मिशनरी के विद्यालयों के जो फिलहाल नैतिक शिक्षा के साथ-साथ अपने यहां पढ़ने वाले बच्चों को यौन अपराधों से निपटने और पहचानने का पाठ भी पढ़ाते हैं। अफसोस इस बात का है कि सरकारी स्तर पर तमाम बड़ी-बड़ी बातों को करने के बावजूद हमारे सरकारी स्कूलों की हालत बद से बदतर है। यहां न शिक्षा मिल रही है और न ही संस्कार, जबकि कभी इन्हीं स्कूलों से देश की असंख्य प्रतिभाएं भी निकली हैं और संस्कारित लोग भी। आखिर आज हम यह क्यों नहीं कर सकते? हम क्यों नहीं अपने बच्चों को सिखाते हैं कि किसी की भी बेटी हमारी भी बेटी-बहन, दोस्त है और हमें उनका भी उतना ही सम्मान करना चाहिए, जितना अपने परिवार की बेटियों का करते हैं। हरियाणा से ही सम्मान के नाम पर होने वाली हत्याएं नहीं थम रही हैं। पुलिस एफआईआर दर्ज करने तक से बचती है। सैकड़ों ऐसे उदाहरण आपको मिल जाएंगे, जिसमें पुलिस की लापरवाही सामने होगी।
बलात्कार को रोकने और बेटियों का सम्मान बनाए रखने के लिए हमें हर स्तर पर प्रयास करने की जरूरत है। पुलिस-न्याय व्यवस्था में सुधार के साथ ही सामाजिक जिम्मेदारी तय होना भी बेहद जरूरी है। पुलिस संवेदनशील बने और बेटियों के दर्द को महसूस करे उसके लिए विशेष प्रशिक्षण और संस्कारशाला तैयार करने की जरूरत है। पुलिस थानों में बेटियों की काउंसिलिंग की व्यवस्था होनी चाहिए। इस तरह के मामलों में त्वरित कार्रवाई करने वालों को विशेष सम्मान दिया जाना चाहिए। पीड़ित बेटियों को कलंकित नजर से देखने के बजाय उन्हें बहादुर बेटी के तौर पर देखा जाना चाहिए। बलात्कार पीड़ित बेटी के साथ हर तरह की हमदर्दी दिखाई जानी चाहिए। उन्हें कैसे उस खौफ से बाहर निकाला जाए, इसकी व्यवस्था भी की जानी चाहिए। निभर्या कांड के बाद गठित जस्टिस वर्मा कमेटी ने ही जो सिफारिशें की हैं, अगर वे भी सही अर्थों में लागू हो जाएं, तो काफी हद तक बात बन जाएगी। सरकार ने निभर्या फंड बना दिया, पर उसका पैसा कहां खर्च हो रहा है, यह किसी को पता नहीं है। उस धन से तमाम व्यवस्थाएं की जा सकती हैं।
हम डिजिटल एरा के युवा भारत में जी रहे हैं। मगर यह वह भारत नहीं है, जहां सच और संस्कारों पर जोर दिया जाता था। आज सच की राह पकड़ने वालों का मजाक बनाया जाता है। बेटियों को देवी मानकर पूजा जाता है मगर उसके शरीर को हवसी की तरह भी देखा जाता है। मासूम बच्चियां तक दरिंदगी का शिकार हो रही हैं और वह जीवन भर एक लाश बनकर रह जाती हैं। सरकार के स्तर पर ऐसी बेटियों के सम्मान से जीने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है। सरकारी दफ्तर और अफसर मदद को पहुंची ऐसी पीड़ित बेटियों को फिर से शिकार बनाने की ताक में रहते हैं। अत: जरूरत है कि ऐसे अपराध के खिलाफ हम सब एक होकर खड़े हों। यह भी चुनावी सियासी मुद्दा बने जिससे हमारे राजनीतिज्ञ और विधि-व्यवस्था बनाने वाले डरें कि ऐसी घटनाएं हुईं तो उनका भविष्य भी अंधकारमय हो जाएगा। 
जय हिंद।
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान सम्पादक हैं)


राजेश कुमार गुप्ता 
वो आवाज़, जिसे सुनकर स्वयं स्वरकोकिला लता मंगेश्कर जी ने 'तपस्विनी' कहकर संबोधित किया। तो उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ान ने उन्हें ‘सुस्वरलक्ष्मी’ की उपाधि दी और किशोरी आमोनकर ने उन्हें ‘आठवां सुर’ तक कह दिया, जो संगीत के 7 सुरों से भी ऊंचा होता है। ख़ुद सरोजनी नायडू जी ने उन्हें अपने स्वयं के ख़िताब 'नाइटिंगगेल ऑफ़ इण्डिया’ कहकर पुकारा। सिर्फ़ महान संगीतज्ञों ने ही नहीं, बल्कि राजनेता भी उनकी गायकी के प्रशंसक थे। महात्मा गांधी सुब्बुलक्ष्मी को ‘आधुनिक भारत की मीरा’ कहा करते थे। गांधी जी ने उनकी प्रशंसा में कहा था ... "'हरि तुम हरो जन की पीर ...', इस मीरा भजन को सुब्बुलक्ष्मी सिर्फ़ उच्चारित भी कर दें तो ये भजन किसी और के गाने से ज़्यादा सुरीला होगा"। दिल्ली में 1953 में आयोजित कर्नाटक संगीत के एक समारोह में सुब्बुलक्ष्मी को गाते हुए सुनकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू जी ने मंत्रमुग्ध हो कर कहा कि सुब्बुलक्ष्मी के संगीत के आगे मेरा प्रधानमंत्री पद भी तुच्छ सा प्रतीत होता है।

ये वही दौर था जब कर्नाटक संगीत में एक ऐसी सधी हुई आवाज़ गूंजी और लोगों को अपने बस में करती गयी। उस आवाज़ ने भाषाओं का भेद मिटा दिया और सभी को समान रूप से अपने मोह में बाँध चली। ये आवाज़ थी "मदुरै षण्मुखवडिवु सुब्बुलक्ष्मी" जी की, जिन्हें हम आज "एम एस सुब्बुलक्ष्मी" के नाम से जानते हैं।
16 सितम्बर 1916 में तमिलनाडु के मदुरै शहर में रहने वाली वीणा वादक शनमुकवादिवेर अम्माल और सुब्रमण्य अय्यर के घर में एक बच्ची का जन्म हुआ। घर वालों ने उसका नाम कुंजम्मा रखा था। उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि ये कुंजम्मा आगे चलकर अपने समय की सबसे महान गायिका बनेगी। इस बच्ची ने आरंभिक गायन भक्ति संगीत के रूप में अपनी माता से सीखा। इसके उपरांत सुब्बुलक्ष्मी ने 5 साल की उम्र से ही शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेना शुरू कर दिया था। उन्होंने पण्डित नारायण व्यास, के. अलावा आर्यकुड़ी, श्रीनिवास अय्यर और रामानुज आदगर से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली। उन्होंने 8 साल की उम्र से ही कार्यक्रमों में गाना शुरू कर दिया था। सबसे पहले उन्होंने कुम्बाकोनम में महामहम उत्सव के दौरान कार्यक्रम किया था और इस कार्यक्रम के बाद ही उनकी संगीत जगत की यात्रा शुरू हो गई। देखते-देखते 2 साल बाद यानी 10 साल की उम्र में सुब्बुलक्ष्मी का पहला डिस्क एल्बम भी रिलीज़ हो गया। उस समय जब संगीत जगत में पुरुषों का दबदबा था तब ऐसा कर दिखाना अपने आप में एक उपलब्धि थी।

ये दौर भारतीय स्वतंत्रता का भी था। और इस समय स्वतंत्रता आंदोलन भी ज़ोरों पर थे। सुब्बुलक्ष्मी का मानना था कि कला से पैसे नहीं कमाना चाहिए। तो जो भी धन उन्हें कार्यक्रमों से मिला करता उन्हें वो स्वतंत्रता आंदोलन में लगा दिया करती थीं। उनके पति सदाशिवम् भी एक राष्ट्रभक्त थे और स्वतंत्रता आंदोलनों में महात्मा गांधी के साथ जुड़े हुए थे। अपनी पत्नी का सदाशिवम हमेशा प्रोत्साहन और मार्गदर्शन किया करते थे। सुब्बुलक्ष्मी के लिए उन्होंने गायन सभाओं का आयोजन किया और इससे सुब्बुलक्ष्मी की प्रतिभा को आगे बढ़ने में मदद भी मिली। सुब्बुलक्ष्मी को उनकी बेहतरीन आवाज़ के लिए आम जनता के साथ साथ तमाम बड़े बड़े विख्यात लोग भी उनके मुरीद होते गए। विदुषी एम एस सुब्बुलक्ष्मी पहली भारतीय रही हैं। जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ की सभा में संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत किया। कर्नाटक संगीत का सर्वोत्तम पुरस्कार ‘संगीत कलानिधि’ पाने वाली पहली महिला भी आप ही हैं। प्रसिद्ध कांचीपुरम साड़ी में एक शेड आता है जिसका नाम है ‘एम एस ब्लू', ये नाम एम एस सुब्बुलक्ष्मी के नाम पर रखा गया है। क्योंकि वो उस ख़ास तरह के नीले रंग की साड़ी अक्सर अपने कार्यक्रमों में पहना करती थीं।

सुब्बुलक्ष्मी जी को संगीत के साथ-साथ अभिनय में भी ख़ूब सराहना मिली। 1938 में आई तमिल फ़िल्म ‘सेवासदन’ से उन्होंने अपने अभिनय की शुरुआत की थी। सेवासदन फ़िल्म अपने समय में बहुत ही ज़्यादा लोकप्रिय हुई। इस फ़िल्म ने तमिल सिनेमा को बदलकर रख दिया। फ़िल्म की कहानी प्रेमचंद के उपन्यास ‘सेवासदन’ या उर्दू में कहें तो ‘बाज़ार-ए-हुस्न’ पर आधारित थी। 1940 में 'शकुंतला', 1941 में सुब्बुलक्ष्मी ने ‘सावित्री’ फ़िल्म में नारद का क़िरदार निभाया जो एक मर्द का क़िरदार था। फिर 1945 में आई फ़िल्म ‘मीरा’ से उन्हें पूरे भारत में ख़ूब प्रसिद्धि भी मिली। उनकी प्रसिद्धि को देखते हुए फ़िल्म के निर्माताओं ने 1947 में सुब्बुलक्ष्मी को लेकर ‘मीरा’ फ़िल्म का हिंदी में रीमेक भी बनाया। इसमें उन्होंने कई मशहूर मीरा भजन भी गाये। कुछ समय बाद सुब्बुलक्ष्मी को लगा कि नहीं उन्हें फ़िल्मी जगत को छोड़कर संगीत पर ही अपना पूरा ध्यान देना चाहिए। इस फ़ैसले के बाद ही उन्होंने फ़िल्मी दुनिया को पूरी तरह अलविदा कह दिया और अपने आपको पूरी तरह से संगीत में झोंक दिया।

सुब्बुलक्ष्मी को संगीत के क्षेत्र में जो उपलब्धि मिली है उन पर नज़र डालें तो इसमें 1954 में पद्मभूषण, 1956 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1975 में पद्मविभूषण, 1988 में कालिदास सम्मान, 1968 में संगीत कलानिधि और 1974 में मैग्सेसे पुरस्कार, 1990 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार उल्लेखनीय हैं। साल 1998 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से भी सम्मानित किया गया था। 2005 में सरकार ने सुब्बुलक्ष्मी के नाम से डाक टिकट भी प्रकाशित किया गया था। 

1997 में उनके पति कल्कि सदसिवम की मृत्यु के बाद उन्होंने सार्वजनिक कार्यक्रम करना छोड़ दिया। ऐसा माना जाता है कि सुब्बुलक्ष्मी के शुरुआती समय में कल्कि (जो एक पत्रकार, लेखक, गायक, स्वतंत्रता सेनानी और फ़िल्म निर्माता थे) ने अपने लेखों के माध्यम से सुब्बुलक्ष्मी की आवाज़ को लोगों तक पहुंचाने में बहुत मदद की थी। धीरे-धीरे जब दोनों में जान-पहचान काफ़ी हो गई तो 1940 में दोनों ने शादी भी कर ली। सुब्बुलक्ष्मी के पति की मृत्यु के 7 साल बाद 11 दिसम्बर 2004 को 88 साल की उम्र में उन्होंने भी दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी आवाज़ आज भी हमें सुरों के सागर में गोते लगवाती है।


चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है 
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है 

बा-हज़ाराँ इज़्तिराब ओ सद-हज़ाराँ इश्तियाक़ 
तुझसे वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है
 
बार-बार उठना उसी जानिब निगाह-ए-शौक़ का 
और तिरा ग़ुर्फ़े से वो आँखें लड़ाना याद है 

तुझ से कुछ मिलते ही वो बेबाक हो जाना मिरा 
और तिरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है 

खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अ'तन 
और दुपट्टे से तिरा वो मुँह छुपाना याद है 

जानकर सोता तुझे वो क़स्द-ए-पा-बोसी मिरा 
और तिरा ठुकरा के सर वो मुस्कुराना याद है 

तुझको जब तन्हा कभी पाना तो अज़-राह-ए-लिहाज़ 
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है 

जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था 
सच कहो कुछ तुम को भी वो कार-ख़ाना याद है 

ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ 
वो तिरा चोरी-छुपे रातों को आना याद है 

आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़ 
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है 

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए 
वो तिरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है
 
आज तक नज़रों में है वो सोहबत-ए-राज़-ओ-नियाज़ 
अपना जाना याद है तेरा बुलाना याद है 

मीठी मीठी छेड़ कर बातें निराली प्यार की 
ज़िक्र दुश्मन का वो बातों में उड़ाना याद है 

देखना मुझ को जो बरगश्ता तो सौ सौ नाज़ से 
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है 

चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह 
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है 

शौक़ में मेहंदी के वो बे-दस्त-ओ-पा होना तिरा 
और मिरा वो छेड़ना वो गुदगुदाना याद है 

बावजूद-ए-इद्दिया-ए-इत्तिक़ा 'हसरत' मुझे 
आज तक अहद-ए-हवस का वो फ़साना याद है 
-हसरत मोहानी


आऊँगा
बारिश से भीगे खेतों पर
क्वार की धूप बनकर
चमकता-सा....
आऊँगा
थके हुए बदन की रगों में
धारोष्ण दूध की तरह
उफनता-सा....
आऊँगा
रूठी हुई प्रेमिका की आँखों में
मानभरी लालिमा लिए
दमकता-सा....
आऊँगा
अकेले बच्चे के पास
नाचती हुई चिड़िया के परों में
लचकता-सा....
आऊँगा
मकई के दानों में बनकर
मिठास,
शरद के आसपास
सूर्योदय के साथ
चूमने को तुम्हारे खुरदरे हाथ
जरूर जरूर आऊँगा,
करना तुम -- इन्तज़ार....
-कैलाश मनहर 


أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ

أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ
I Love Muhammad Sallallahu Alaihi Wasallam

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