डॉ. फ़िरदौस ख़ान  

हमारे प्यारे हिन्दुस्तान की सौंधी मिट्टी में आज भी मुहब्बत की महक बरक़रार है. इसलिए यहां के बाशिन्दे वक़्त-दर-वक़्त इंसानियत, प्रेम और भाईचारे की मिसाल पेश करते रहते हैं. कितने ही मामले ऐसे हैं, जब यहां के हिन्दू और सिख भाइयों ने मुसलमानों को मस्जिदों और क़ब्रिस्तानों के लिए ज़मीनें दी है.   

हाल ही में पंजाब का ही वाक़िया देखें. पंजाब के मलेरकोटला ज़िले की तहसील अहमदगढ़ के गांव उमरपुरा में 9 दिसम्बर 2025 के मुबारक दिन पहली बार नई मस्जिद में नमाज़ अदा की गई. पंजाब के शाही इमाम मौलाना मुहम्मद उस्मान लुधियानवी ने पहली नमाज़ पढ़ाई. यह गांव की पहली मस्जिद है. इससे पहले गांव में कोई मस्जिद नहीं थी.
ख़ुशनुमा बात यह है कि गुज़श्ता जनवरी 2025 में गांव के पूर्व सरपंच सुखजिन्दर सिंह नोनी और उनके भाई अवनिन्दर सिंह ने अपनी 5.5 बिस्वा ज़मीन मस्जिद के लिए वक़्फ़ की थी, ताकि गांव के मुसलमान भाई अपने ही गांव में नमाज़ अदा कर सकें. गांव के मुसलमानों को नमाज़ के लिए दूर-दराज़ के इलाक़ों में जाना पड़ता था. मस्जिद की तामीर में गांव के सिख परिवारों ने भी हर मुमकिन मदद की.
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'शिवम उर्फ़ अहीर धाम क़ब्रिस्तान
गुज़श्ता दिसम्बर माह में बिहार के बक्सर ज़िले के चौसा प्रखंड के रामपुर पंचायत के गांव डेवी डिहरा के जनार्दन सिंह ने अपने बेटे शिवम कुमार की मौत के बाद मुसलमानों के क़ब्रिस्तान के लिए एक बीघा ज़मीन वक़्फ़ कर दी. 
गुज़श्ता 18 नवम्बर 2025 को देहरादून में हुए एक सड़क हादसे में शिवम कुमार की मौत हो गई थी. शिवम एक नेक युवक था और वह ज़रूरतमंदों की मदद करता था. इसलिए उसके परिवार ने अपने बेटे की याद में क़ब्रिस्तान को ज़मीन देने का फ़ैसला किया, ताकि शिवम की स्मृति आने वाली पीढ़ियों के बीच इंसानियत की मिसाल बनकर ज़िन्दा रहे. इस क़ब्रिस्तान का नाम 'शिवम उर्फ़ अहीर धाम क़ब्रिस्तान’ रखा गया है. यहां शिवम की स्मृति में पौधारोपण भी किया गया.
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गुज़श्ता 28 नवम्बर 2025 को जम्मू में जम्मू डेवलपमेंट अथॉरिटी ने पत्रकार अरफ़ाज़ डिंग का घर ढहा दिया, तो उनके हिन्दू पड़ौसी कुलदीप शर्मा ने उन्हें अपनी ज़मीन का एक हिस्सा देने की पेशकश की, ताकि वह अपना घर बना सकें. ये भी आपसी भाईचारे की एक शानदार मिसाल है.
गुज़श्ता मई 2022 में उत्तराखंड के रुद्रपुर में दो हिन्दू बहनों सरोज और अनीता ने ईदगाह के लिए ज़मीन वक़्फ़ की थी. काशीपुर इलाक़े में ईदगाह कमेटी के प्रमुख हसीन ख़ान ने कहा था- “जब हमारा देश साम्प्रदायिक तनाव झेल रहा है, तब ऐसे माहौल में इन बहनों का ज़मीन वक़्फ़ करना महान काम है.”
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गुज़श्ता जून 2019 में उत्तर प्रदेश के अयोध्या के गोसाईगंज इलाक़े के गांव बेलवारी खान के हिन्दू भाइयों ने मुसलमानों को क़ब्रिस्तान के लिए ज़मीन वक़्फ़ की थी. भूमि दानकर्ता रीपदांद महाराज ने बताया कि सैकड़ों वर्षों से गोसाईगंज नगर व आसपास के मुसलमान इस ज़मीन को क़ब्रिस्तान के रूप में इस्तेमाल करते आए हैं. इसलिए हम लोगों ने अपने पूर्वजों के दिए गये वचन को निभाते हुए खतौनी में चले आ रहे अपने मालिकाना हक़ को ख़त्म करते हुए मुस्लिम क़ब्रिस्तान कमेटी के पक्ष में पंजीकृत दान पत्र लिख दिया है. 
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गुज़श्ता मई 2016 में बिहार के सिवान ज़िले की बिसवार पंचायत के गांव खडखडिया में एक हिन्दू भाई चन्द्र कुमार तिवारी ने अपनी निजी ज़मीन का कुछ हिस्सा मुसलमानों के क़ब्रिस्तान के लिए वक़्फ़ कर इंसानियत की मिसाल क़ायम की. उन्होंने अपनी पैतृक ज़मीन खाता संख्या 85 तौजी संख्या 6310 रक़बा 4 कट्ठा 11 धुर में से उत्तर पश्चिम के कोने पर 4 कट्ठा भूमि मुस्लिम क़ब्रिस्तान के लिए दी.  
सब भाई-बहनों को दिल से सलाम. मुहब्बत का ये जज़्बा यूं ही क़ायम रहे, आमीन


डॉ. फ़िरदौस ख़ान  
आज अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस है। हर साल 11 दिसम्बर को अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने साल 2003 में यह दिवस घोषित किया था। इसका उद्देश्य पर्वतों के महत्व, संरक्षण और पर्वतीय समुदायों के समक्ष आने वाली चुनौतियों के बारे में जागरूकता बढ़ाना है। पर्वत पेयजल, जैव विविधता, औषधियों, भोजन और लकड़ी आदि के महत्वपूर्ण स्रोत हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन और अत्यधिक दोहन की वजह से इनका वजूद ख़तरे में पड़ गया है। इसलिए आज इन्हें संरक्षण की बेहद ज़रूरत है।   

अरावली पर्वत श्रृंखलाओं का अस्तित्व ख़तरे में हैं। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने अरावली पर्वत श्रृंखलाओं में खनन कार्य पर पाबंदी लगाई हुई है, लेकिन न्यायालय द्वारा अरावली पहाड़ियों की एक नई आधिकारिक परिभाषा को मंज़ूरी दिए जाने से प्रयावरणविदों की चिन्ता बढ़ है। उनका कहना है कि अगर वक़्त रहते इनका संरक्षण नहीं किया गया, तो वह दिन दूर नहीं जब अरावली पहाड़ों की जगह सिर्फ़ मरूस्थल ही नज़र आएगा। ग़ौरतलब है कि यह गुजरात के हिम्मत नगर से राजधानी दिल्ली तक 560 किलोमीटर लम्बी विश्व की सर्वाधिक पुरानी पर्वत श्रृंखला है, जिसकी चौड़ाई दस से 100 किलोमीटर तक है। सर्वाधिक ऊंचाई 1723 मीटर राजस्थान के माउंट आबू में है। पहाड़ियों में अकूत खनिज भंडार और क़ीमती पत्थरों का ख़ज़ाना है। खनन से हरियाणा और राजस्थान में अरावली पर्वत श्रृंखला को बहुत नुक़सान पहुंचा है।

क़ाबिले-ग़ौर है कि विगत 20 नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय ने अरावली पहाड़ियों की एक नई आधिकारिक परिभाषा को मंज़ूरी दी है। इसके तहत अरावली के अंदर किसी भी भू-आकृति में स्थानीय राहत से कम से कम 100 मीटर की ऊंचाई होनी चाहिए, जिसमें इसकी ढलान और आसपास के क्षेत्र शामिल हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की एक समिति द्वारा प्रस्तुत उन सिफ़ारिशों को मंज़ूर कर लिया, जिनमें उत्तर-पश्चिम भारत में 692 किलोमीटर की सीमा को परिभाषित करने की नई परिभाषा को मानकीकृत करने की मांग की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय को बताया गया कि भारतीय वन सर्वेक्षण के एक आकलन के मुताबिक़ 12,081 मानचित्र की गई पहाड़ियों में से सिर्फ़ 1048 ही 8.7 मापदंड को पूरा करती हैं, यानी 100 मीटर के मापदंड को पूरा करती हैं। इन नये मानदंडों के तहत अरावली पर्वत श्रृंखला का तक़रीबन 90 फ़ीसद हिस्सा अपने क़ानूनी संरक्षण से बेदख़ल हो जाएगा। 
ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अरावली पर्वत के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

 न्यायालय ने नब्बे के दशक से अरावली पर्वत क्षेत्र में अवैध खनन पर बार-बार रोक लगाई है। क़ाबिले-ग़ौर है कि 21 दिसम्बर 1992 को केंद्र सरकार के नोटिफ़िकेशन और 12 दिसम्बर 1996 के सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले के बाद पूरे अरावली पहाड़ी क्षेत्र को वन क्षेत्र घोषित किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने 18 मार्च 2004 को आदेश दिए थे कि अरावली श्रृंखला में किसी प्रकार से हरियाली को नष्ट नहीं किया जा सकता। इस आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने अरावली पहाड़ी में लगे पौधों को भी वन संरक्षित क्षेत्र मानते हुए वन क्षेत्र की परिभाषा तय की थी। इसके लिए गठित की गई सेंट्रल इंपॉवर्ड कमेटी को अनेक अधिकार सौंपते हुए पेड़ों की अवैध कटाई और खनन को रोकने की ज़िम्मेदारी सौंपी थी। इस कमेटी ने भी 7 जून 2007, 12 सितम्बर 2007 और 7 दिसम्बर 2007 को जारी आदेश में पेड़ों की कटाई नहीं होने देने के सख़्त निर्देश दिए थे। कमेटी ने सर्वोच्च न्यायालय को सौंपी रिपोर्ट में कुछ ख़ास जगहों को छोड़कर इस समूची पर्वत श्रृंखला के आसपास खुदाई पर पूरी तरह रोक लगाने और संरक्षित क्षेत्रों में बनाई गई इमारतों को गिराने की सिफ़ारिश की थी। यह क्षेत्र हरियाणा भूमि एक्ट की धारा 4-5 के तहत भी आता था। इसलिए इस ज़मीन को किसी भी प्रकार का नुक़सान पहुंचाना पर्यावरण नियमों की अवहेलना करना है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने 29 अक्टूबर 2002 को हरियाणा सरकार को निर्देश जारी कर कहा था कि गुड़गांव और फ़रीदाबाद में खनन कार्य से पर्यावरण प्रदूषित होने के साथ असंतुलित भी हो रहा है, इसलिए दोनों ज़िलों में तुरंत प्रभाव से खनन कार्य बंद कराया जाए। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बाद प्रदेश सरकार ने कार्रवाई करते हुए एक टीम का गठन किया और खनन कार्य बंद करवा दिया, लेकिन कुछ दिनों बाद खनन माफ़िया अरावली श्रृंखलाओं में सक्रिय हो गया और फिर से ब्लास्टिंग के माध्यम से खनन कार्य किया जाने लगा। अवैध खनन का मामला जब मीडिया ने उठाया तो सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार को फटकार लगाते हुए फिर से खनन कार्य बंद कराने के निर्देश दिए। सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद प्रदेश सरकार ने अवैध खनन रोकने के लिए बाक़ायदा एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी में पुलिस विभाग, पंचायत विभाग, राजस्व विभाग व खनन विभाग के अधिकारियों को शामिल किया गया था। यह भी सुनिश्चित किया गया था कि अवैध खनन रोकने के लिए कमेटी नियमित रूप से अपने-अपने क्षेत्रों की पर्वत श्रृंखलाओं में जाकर अवैध खनन को पूरी तरह बंद कराए। अवैध खनन की शिकायतें मिलने पर वन मंडल अधिकारी सतबीर सिंह दहिया ने फ़रीदाबाद ज़िले के खेड़ी कलां गांव में छापा मारा था और स्थानीय अधिकारियों को सख़्ती से अवैध खनन पर रोक लगाने की हिदायत दी गई थी। उस वक़्त वन क्षेत्र से दूर खनन की इजाज़त लेकर वन्य इलाके की भी खुदाई की जा रही थी। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में व्यावसायिक व निर्माण गतिविधियों का तेज़ी से प्रसार का सबसे ज़्यादा ख़ामियाज़ा अरावली पहाड़ियों का भुगतना पड़ रहा है। गुड़गांव, मानेसर और फ़रीदाबाद इलाके़ में पत्थरों के लिए अंधाधुंध खनन किया गया था।

पर्यावरणविद् और वाटर मैन नाम से विख्यात हाजी इब्राहिम ख़ान का कहना है कि अरावली पर्वत के विषय में मंज़ूर किए गये नये मानदंडों की वजह से इसका वजूद ख़तरे में पड़ जाएगा। अरावली की पहाड़ियां बारिश, सूखा और बाढ़ को नियंत्रित करती हैं, लेकिन ज़्यादा ऊंची न होने की वजह से इनका अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है, जिससे इसके अस्तित्व को ख़तरा पैदा हो गया है। अरावली के जंगल तबाह होने से यहां रहने वाले वन्य प्राणियों का अस्तित्व भी संकट में पड़ गया है। आबादी की तरफ़ आने पर ये जानवर अकसर दुर्घटना का भी शिकार होते रहते हैं। कई बार तो बस्ती के लोग वन विभाग के अधिकारियों की मदद से जानवरों को जंगल में छोड़ आते हैं। पहले यहां शेर, चीते, हिरण, भेड़िये, नील गाय, गीदड़, जंगली बिल्ले, ख़रगोश, सांप, नेवले, मोर, तीतर आदि बड़ी तादाद में थे, लेकिन अब ये लुप्त होते जा रहे हैं। 

कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा है- “गुजरात से लेकर राजस्थान और हरियाणा तक फैली अरावली पर्वतमाला ने लम्बे समय से भारतीय भूगोल और इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सरकार ने अवैध खनन से पहले ही बर्बाद हो चुकी इन पहाड़ियों के लिए अब लगभग 'डेथ वारंट' पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। सरकार ने घोषणा की है कि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली कोई भी पहाड़ी खनन के ख़िलाफ़ कड़े प्रतिबंधों के अधीन नहीं है। यह फ़ैसला अवैध खननकर्ताओं और माफ़ियाओं के लिए खुला निमंत्रण है कि वे इस श्रृंखला के उस 90 प्रतिशत हिस्से का भी सफ़ाया कर दें, जो सरकार द्वारा निर्धारित ऊंचाई सीमा से नीचे आता है।“

अरावली पहाड़ियों की परिभाषा में बदलाव को लेकर कांग्रेस नेता और पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने एक्स पर लिखा है- "यह अजीब है और इसके पर्यावरण और पब्लिक हेल्थ पर बहुत गंभीर नतीजे होंगे। इसकी तुरंत समीक्षा की ज़रूरत है।"

बहरहाल, अरावली पर्वत श्रृंखलाओं को बचाने की ज़रूरत है। साथ ही सरकारों को भी गंभीरता बरतनी होगी, ताकि इनका वजूद क़ायम रहे।  


डॉ. फ़िरदौस ख़ान
फ़ारूख़ शेख़ फ़िल्मी दुनिया के आसमान का एक ऐसा रौशन सितारे थे, जिसकी चमक से समानांतर सिनेमा दमकता था. उनके चेहरे पर मासूमियत थी. उनके अंदाज़ में शोख़ी थी और उनका मिज़ाज शायराना था.


फ़ारूख़ शेख़ का जन्म 25 मार्च 1948 को गुजरात के सूरत ज़िले के गांव अमरोली में हुआ था. उनके पिता मुस्तफ़ा शेख़ मुम्बई के जाने माने वकील थे. उनके पिता ज़मींदार परिवार से ताल्लुक़ रखते थे. उनकी परवरिश बड़ी शानो-शौकत से हुई थी. उनके कहने से पहले ही ज़रूरत की हर चीज़ उन्हें मुहैया हो जाती थी. इसके बावजूद उनमें ज़रा सा भी ग़ुरूर नहीं था. 
उन्होंने अपनी शुरुआती तालीम मुम्बई के सेंट मैरी स्कूल से हासिल की. उसके बाद उन्होंने सेंट जेवियर्स कालेज में पढ़ाई की. फिर उन्होंने मुम्बई के ही सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ़ लॉ से वकालत की पढ़ाई मुकम्मल की.

उनके पिता चाहते थे कि वह भी उनकी तरह वकील बनें, लेकिन उनकी दिलचस्पी अभिनय में थी. वे कालेज के दिनों से ही रंगमंच से जुड़ गए थे. वे इतना शानदार अभिनय करते थे कि उनके चर्चे दूर-दूर तलक होने लगे. इसका नतीजा ये हुआ कि उन्हें साल 1973 में आई फ़िल्म 'गर्म हवा' में काम करने का मौक़ा मिल गया. इस फ़िल्म में उनके अभिनय को ख़ूब सराहा गया. और इस तरह उनके फ़िल्मी करियर की शुरुआत हुई और हिन्दी सिनेमा को शानदार अभिनेता मिल गया.

फ़ारूख़ शेख़ एक बेहतरीन कलाकार थे. उनके लिए अभिनय महज़ पैसा कमाने का ज़रिया नहीं था. वे एक वक़्त में दो से ज़्यादा फ़िल्मों में काम नहीं करते थे. साल 1978 में आई फ़िल्म 'नूरी' ने उन्हें कामयाबी की बुलंदी पर पहुंचा दिया. ये फ़िल्म इतनी लोकप्रिय हुई कि उनके पास तक़रीबन 40 फ़िल्मों के प्रस्ताव आए. ख़ास बात ये थी कि सबकी सब फ़िल्मों की कहानी 'नूरी' फ़िल्म की कहानी के आसपास ही घूमती थी. उन्होंने सब प्रस्ताव ठुकरा दिए, क्योंकि वे सिर्फ़ पैसों के लिए एक जैसी फ़िल्मों में काम नहीं करना चाहते थे. वे नये और दमदार किरदार निभाना चाहते थे.

फ़ारूख़ शेख़ कलात्मक फ़िल्मों के अभिनेता थे. उनकी फ़िल्मों में जनमानस का दुख-दर्द, उनकी ख़ुशियां और उनके इंद्रधनुषी ख़्वाबों की झलक मिलती है. हालांकि उन्हें दरख़्तों के इर्दगिर्द घूमने वाले किरदार पसंद नहीं थे, लेकिन दर्शकों ने उन्हें अपनी महबूबा से शिद्दत से मुहब्बत करने वाले महबूब के किरदार में भी ख़ूब पसंद किया. नूरी फ़िल्म का नग़मा देखें-
आजा रे ओ दिलबर जानिया
आजा रे आजा रे ओ मेरे दिलबर आजा
दिल की प्यास बुझा जा रे...

नूरी फ़िल्म का ये नग़मा भी बहुत ही दिलकश है-
चोरी चोरी कोई आये
चुपके-चुपके, सबसे छुपके 
ख़्वाब कई दे जाये
आंखें डाले आंखों में, जाने मुझसे क्या वो पूछे
मैं जो बोलूं क्या, हंस दूं मुझको कुछ ना सूझे
ऐसे तांके, दिल में झांके, सांस मेरी रुक जाए


उन पर फ़िल्मायी गई फ़िल्म 'बाज़ार' की ग़ज़ल आज भी लोगों को बहुत पसंद आती है-
फिर छिड़ी रात बात फूलों की
रात है या बारात फूलों की 
फूल के हार, फूल के गजरे
शाम फूलों की रात फूलों की...

फ़िल्म 'उमराव जान' ने तो इतिहास रच दिया था. इसकी ग़ज़ल आज भी लोगों को गुनगुनाने पर मजबूर कर देती है-
ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चांद से बेहतर नज़र आती है हमें  

सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें 
दिन ढले यूं तिरी आवाज़ बुलाती है हमें 

याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से 
रात के पिछले-पहर रोज़ जगाती है हमें 

हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूं है 
अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें...

फ़िल्म 'बीवी हो तो ऐसी' का नग़मा देखें, जिसमें वह अभिनेत्री रेखा के साथ बहुत ही शोख़ अंदाज़ में नज़र आ रहे हैं-
फूल गुलाब का, लाखों में हज़ारों में 
एक चेहरा जनाब का...

उनके अंदाज़ में शोख़ी के साथ-साथ एक ऐसी संजीदगी भी थी, जो मुहब्बत में सिर्फ़ वादे करना ही नहीं जानती, बल्कि उसे शिद्दत से निभाने का जज़्बा भी रखती थी. उसके लिए महबूब ही सबकुछ है. कायनात के ज़र्रे-ज़र्रे में महबूब का अक्स नज़र आता है. फ़िल्म साथ-साथ का नग़मा ऐसा ही है-
तुमको देखा तो ये ख़्याल आया
ज़िन्दगी धूप, तुम घना साया
आज फिर दिलने एक तमन्ना की
आज फिर दिलको हमने समझाया
ज़िन्दगी धूप तुम घना साया...

ये मुहब्बत ही तो है, जो नायिका अपने अमीर बाप का घर छोड़कर नायक के साथ एक छोटे से घर में रहने के लिए आ जाती है. फिर वे दोनों मिलकर अपना घर सजाते हैं-
ये तेरा घर, ये मेरा घर
किसी को देखना हो अगर
पहले आके मांग ले, तेरी नज़र मेरी नज़र...
न बादलों की छांव में, न चांदनी के गांव में
न फूल जैसे रास्ते बने हैं इसके वास्ते
मगर ये घर अजीब है, ज़मीन के क़रीब है
ये ईंट पत्थरों का घर, हमारी हसरतों का घर
ये तेरा घर ये मेरा घर...

उनकी फ़िल्म 'चश्मे बद्दूर' का ये गीत रूह की गहराई में उतर जाता है- 
कहां से आए बदरा हो
कहां से आए बदरा हो
घुलता जाए कजरा... 

उन पर फ़िल्मायी गई फ़िल्म 'गमन' की ग़ज़ल भी यादगार है-
आपकी याद आती रही रातभर
चश्मे- ग़म मुस्कुराती रही रातभर...

इसी फ़िल्म की ये ग़ज़ल भी ख़ूब पसंद की गई-
सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान सा क्यूं है
इस शहर का हर शख़्स परेशान सा क्यूं है...

सटारडम से कोसों दूर रहने वाले फ़ारूख़ शेख़ एक आम आदमी के अभिनेता थे. दर्शकों को लगता था कि उन्हीं के बीच से निकला कोई शख़्स पर्दे पर उन्हीं का कोई किरदार निभा रहा है. उनमें सादगी, विनम्रता और संजीदगी थी. ये संस्कार उन्हें विरासत में मिले थे. उनके मासूम चेहरे से उनके बावक़ार वजूद का अक्स झलकता था.

उन्होंने रंगमंच और फ़िल्मों के अलावा टेलीविज़न के लिए भी काम किया. यहां भी उन्हें ख़ूब कामयाबी मिली. वे समाज सेवा से भी जुड़े रहे.

28 दिसम्बर 2013 को दुबई में दिल का दौरा पड़ने से उनका इंतक़ाल हो गया.
आज भले ही वे हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन अपने अभिनय के ज़रिये वे आज भी अपने चाहने वालों के दिलों में ज़िन्दा हैं.

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जन्म : 25 मार्च 1948 
स्थान : गांव अमरोली, ज़िला सूरत (गुजरात)
निधन : 28 दिसम्बर 2013 
स्थान : मुम्बई (महाराष्ट्र) 



डॉ. फ़िरदौस ख़ान
हिन्दी सिनेमा की सशक्त अभिनेत्री स्मिता पाटिल को उनकी जीवंत और यादगार भूमिकाओं के लिए जाना जाता है. उन्होंने पहली ही फ़िल्म से अपनी अभिनय प्रतिभा का लोहा मनवा दिया था, लेकिन ज़िन्दगी ने उन्हें ज़्यादा वक़्त नहीं दिया. स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर, 1955 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था. उनके पिता शिवाजीराव पाटिल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे. उनकी माता सामाजिक कार्यकर्ता थीं. उनकी शुरुआती शिक्षा मराठी माध्यम के एक स्कूल से हुई थी. कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह मराठी टेलीविज़न में बतौर समाचार वाचिका काम करने लगीं. ख़ूबसूरत आंखों वाली सांवली सलोनी स्मिता पाटिल का हिन्दी सिनेमा में आने का वाक़िया बेहद रोचक है. एक दिन प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल ने उन्हें टीवी पर समाचार पढ़ते हुए देखा. वह स्मिता के नैसर्गिक सौंदर्य और समाचार वाचन से प्रभावित हुए बिना न रह सके. उन दिनों वह अपनी फ़िल्म चरणदास चोर बनाने की तैयारी कर रहे थे. स्मिता पाटिल में उन्हें एक उभरती अभिनेत्री दिखाई दी. उन्होंने स्मिता पाटिल से मुलाक़ात कर उन्हें अपनी फ़िल्म में एक छोटा-सा किरदार निभाने का प्रस्ताव दिया, जिसे उन्होंने क़ुबूल कर लिया. हालांकि यह एक बाल फ़िल्म थी. फ़िल्म में न केवल स्मिता पाटिल के अभिनय की बेहद सराहना हुई, बल्कि इस फ़िल्म ने समानांतर सिनेमा को स्मिता के रूप में एक नया सितारा दे दिया. और फिर यहीं से उनका अभिनय का सफ़र शुरू हो गया, जो उनकी मौत तक जारी रहा. श्याम बेनेगल ने एक बार कहा था, मैंने पहली नज़र में ही समझ लिया था कि स्मिता पाटिल में ग़ज़ब की स्क्रीन उपस्थिति है और जिसका इस्तेमाल रूपहले पर्दे पर किया जा सकता है.

साल 1975 स्मिता ने श्याम बेनेगल की फ़िल्म निशांत में काम किया. इसके बाद 1977 में उनकी भूमिका और मंथन जैसी कामयाब फ़िल्में प्रदर्शित हुईं. 1978 में उन्हें फ़िल्म भूमिका में सशक्त अभिनय करने के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के तौर पर नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इस फ़िल्म में उन्होंने 30-40 के दशक में मराठी रंगमच से जुड़ी अभिनेत्री हंसा वाडेकर की निजी ज़िन्दगी को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर दिया था. इसी साल यानी 1978 में ही उन्हें मराठी फ़िल्म जॅत रे जॅत के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया. इसके बाद 1981 में उन्हें फ़िल्म चक्र के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर और नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड दिया गया. साल 1980 में प्रदर्शित इस फ़िल्म में स्मिता पाटिल ने झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाली महिला का किरदार निभाया था.
 
स्मिता पाटिल ने समानांतर सिनेमा के साथ-साथ व्यवसायिक सिनेमा में भी अपनी अभिनय प्रतिभा के जलवे बिखेरे. जहां उनकी बाज़ार, भीगी पलकें, अर्थ, अर्ध सत्य और मंडी जैसी कलात्मक फ़िल्में सराही गईं, वहीं दर्द का रिश्ता, आख़िर क्यों, ग़ुलामी, अमृत और नज़राना, नमक हलाल और शक्ति जैसी व्यवसायिक फ़िल्में भी लोकप्रिय हुईं. साल 1985 में आई उनकी फ़िल्म मिर्च-मसाला ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई. सौराष्ट्र की आज़ादी से पहले की पृष्ठभूमि पर बनी यह फ़िल्म उस दौर की सामंतवादी व्यवस्था के बीच पिसती एक महिला के संघर्ष को दर्शाती है. दुग्ध क्रांति पर बनी उनकी फ़िल्म मंथन के कुछ दृश्य आज भी टेलीविजन पर देखने को मिल जाते हैं.  इस फ़िल्म के निर्माण के लिए गुजरात के तक़रीबन पांच लाख किसानों ने अपनी मज़दूरी में से दो-दो रुपये फ़िल्म निर्माताओं को दिए थे. स्मिता पाटिल की दूसरी फ़िल्मों की तरह यह भी कामयाब साबित हुई. स्मिता पाटिल ने महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे के साथ भी काम किया. उन्होंने मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित टेली़फ़िल्म सद्‌गति में दमदार अभिनय कर इसे ऐतिहासिक बना दिया. स्मिता पाटिल को भारतीय सिनेमा में उनके  योगदान के लिए 1985 में पदमश्री से सम्मानित किया गया.

उन्होंने शादीशुदा अभिनेता राज बब्बर से प्रेम विवाह किया. उनके लिए राज बब्बर ने अपनी पत्नी नादिरा ज़हीर को छोड़ दिया था. स्मिता पाटिल अपनी नई ज़िन्दगी से बहुत ख़ुश थीं, लेकिन क़िस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था. बहुत कम उम्र में वह इस दुनिया को छोड़ गईं. बेटे प्रतीक को जन्म देने के कुछ दिनों बाद 13 दिसम्बर, 1986 को उनकी मौत हो गई. उनकी मौत के बाद 1988 में फ़िल्म वारिस प्रदर्शित हुई, जो उनकी यादगार फ़िल्मों में से एक है. अभिनेत्री रेखा ने इस फ़िल्म में स्मिता पाटिल के लिए डबिंग की थी.

हिन्दी सिनेमा में स्मिता पाटिल की प्रतिद्वंद्विता शबाना आज़मी से थी. स्मिता पाटिल की तरह शबाना आज़मी भी श्याम बेनेगल की ही खोज थीं. स्मिता पाटिल और शबाना आज़मी के बीच मुक़ाबले की बातें काफ़ी चर्चित हुईं. फ़िल्म अर्थ और मंडी में दोनों अभिनेत्रियों ने साथ-साथ काम किया. दोनों फ़िल्मों की समीक्षकों ने ज़्यादा सराहना की. स्मिता पाटिल का मानना था कि उनकी भूमिका में काफ़ी बदलाव किया गया था. इसके बाद ही उन्होंने व्यवसायिक फ़िल्मों का रुख़ कर लिया. शुरू में उन्हें काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने ख़ुद को वक़्त के हिसाब से ढाल लिया. नतीजतन, उनकी व्यवसायिक फ़िल्में भी बेहद कामयाब रहीं. स्मिता पाटिल के साथ शक्ति और नमक हलाल जैसी फ़िल्मों में करने वाले अभिनेता अमिताभ बच्चन का कहना है कि स्मिता जी कमर्शियल फ़िल्में करने से हिचकिचाती थीं. वह नाचने-गाने में असहज महसूस करती थीं. जब भी वह इस तरह की कोई फ़िल्म करती थीं ख़ुद को पूरी तरह से निर्देशक के हाथों में सौप देती थीं. अमिताभ बच्चन उनकी महानता और सादगी के भी क़ायल रहे हैं. बक़ौल अमिताभ बच्चन, शक्ति की शूटिंग के दौरान हम फ़िल्म के कुछ हिस्से चेन्नई में फ़िल्मा रहे थे. स्मिता जी मेरे पास आईं और बोलीं, नमक हलाल करने के बाद लोग मुझे पहचानने लगे हैं. मुझे लगता है कि यह स्मिता जी की महानता थी, जो वह यह बात कह रही थीं, क्योंकि वह तो हिन्दी सिनेमा का एक जाना माना नाम थीं.

स्मिता पाटिल की सादगी ही उन्हें ख़ास बनाती थी. स्मिता पाटिल के साथ फ़िल्म गमन में काम करने वाले नाना पाटेकर कहते हैं कि मैं और स्मिता एक दूसरे से काफ़ी हंसी-मज़ाक़ किया करते थे. मैं उसे काली-कलूटी कहकर चिड़ाता था, तो वह मुझे कहती थी कि ये काला रंग ही तो उसकी ख़ासियत है, तभी तो लोग उसे प्यार करते हैं. फ़िल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट स्मिता पाटिल का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि स्मिता पाटिल सुन्दर और साहसी थीं. उनके ललाट पर ही शायद दुर्भाग्य लिखा था. मैं इसे खुलेआम स्वीकार करना चाहता हूं कि उनके आकस्मिक निधन से मैं कभी उबर नहीं पाया. नियति का खेल देखें कि वह मां बनीं. उन्होंने एक शिशु को जन्म दिया. एक जीवन देने के साथ ही वह मौत की आग़ोश में चली गईं. ग़म और कुछ नहीं के बीच मैं ग़म को अपनाना चाहूंगी, स्मिता पाटिल ने मेरी आत्मकथात्मक फ़िल्म अर्थ की कहानी सुनने के बाद मुझे यह नोट भेजा था. उसमें उन्हें एक पागल अभिनेत्री की भूमिका निभानी थी. तमाम विकल्पों के बीच उन्होंने उस फ़िल्म के लिए हां की थी. उसकी एक ही वजह थी कि उस किरदार से उन्हें सहानुभूति हुई थी. सहानुभूति की वजह यही हो सकती है कि उन दिनों वह स्वयं शादीशुदा राज बब्बर के साथ ख़तरनाक रिश्ते को जी रही थीं. अपने पास प्रेमी को रखने की चाह और एक घर तो़ड़ने के अपराध की भावना के बीच वह झूल रही थीं. इस भूमिका में इतना विषाद है कि इसे निभाने से मुझे राहत मिलेगी, अर्थ का पहला दृश्य करने के बाद उन्होंने कहा था. हम लोग एक पंचसितारा होटल के कमरे में उस दृश्य की शूटिंग कर रहे थे. इस दृश्य में वह अपने दुर्भाग्य और अवैध संबंध का रोना रो रही थीं. अर्थ का सेट उनके लिए आईना था, जिसमें वह अपने दर्दनाक वर्तमान की झलक देख रही थीं. वह हर दिन सुबह खेल के मैदान में जा रहे बच्चे के उत्साह के साथ सेट पर आती थीं और पिछले दिन अपने प्रेमी के साथ गुज़रे अनुभव और पीड़ा को कैमरे के सामने उतार देती थीं. प्रकृति ने उन्हें अकेलेपन का क़ीमती उपहार दिया था. इस अकेलेपन ने ही उनकी कला को जन्म दिया था. वह प्राय: कहा करती थीं, इस इंडस्ट्री में हर व्यक्ति अकेला है. एक रात मैं थोड़ी देर से घर लौटा तो मेरी बीवी ने बताया कि लिविंग रूम में कोई मेरा इंतज़ार कर रहा है. कमरे में दाख़िल होने के बाद मैंने देखा कि स्मिता पाटिल मेरी तरफ़ पीठ किए खड़ी थीं और बड़े ग़ौर से अपनी हथेली निहार रही थीं. वह रो रही थीं. उन्होंने अपनी हथेली मेरी तरफ़ ब़ढाते हुए कहा, क्या आपने मेरी हथेली में जीवनरेखा देखी है? यह बहुत छोटी है. मैं ज़्यादा दिनों तक ज़िन्दा नहीं रहूंगी. उसके बाद उन्होंने जो बात कहीं, वह मैं अपनी अंतिम सांस तक नहीं भूल सकता. उन्होंने आगे कहा कि महेश, मरने का डर सबसे बड़ा डर नहीं होता. जीने का डर मरने से बड़ा होता है. वह मेरे सामने रात भर पत्तों की तरह कांपती रहीं. शायद अपनी मौत के बारे में सोच कर वह घबरा रही थीं. सुबह होने पर वह अपने घर लौटीं. सुबह की नीम रौशनी में पूरी तरह से टूटी हुई, लड़खड़ाते क़दमों से अपनी कार की तरफ़ जाती उनकी छवि आज भी मेरे दिमाग़ में कौंधती है. वह बहुत सुंदर दिख रही थीं. मुझे यह मानने में कोई गुरेज़ नहीं है कि अर्थ में जो भावनात्मक उबाल मैं दिखा पाया था, वह स्मिता की निजी ज़िंदगी के ईंधन के बिना मुमकिन नहीं होता.

हिन्दी  के अलावा मराठी, गुजराती, तेलुगू, बांग्ला, कन्ऩड और मलयालम फ़िल्मों में भी काम किया. उनकी हिन्दी फ़िल्मों में चरणदास चोर, निशांत, मंथन, कोंद्रा, भूमिका, गमन, द नक्सलिटाइस, आक्रोश, सद्‌गति, अल्बर्ट पिंटो को ग़ुस्सा क्यों आता है, चक्र, तजुर्बा, भीगी पलकें, बाज़ार, दिल-ए-नादान, नमक हलाल, बदले की आग, शक्ति, सुबह, मंडी, अर्थ, चटपटी, घुंघरू, दर्द का रिश्ता, हादसा, क़यामत, अर्धसत्य, पेट प्यार और पाप, शपथ, क़ानून मेरी मुट्ठी में, मेरा दोस्त मेरा दुश्मन, गिद्ध, तरंग, फ़रिश्ता, शराबी, आनंद और आनंद, आज की आवाज़, रावण, क़सम पैदा करने वाले की, जवाब, आख़िर क्यों, हम दो हमारे दो, ग़ुलामी,  मेरा घर मेरे बच्चे, अंगारे, कांच की दीवार, दिलवाला, आपके साथ, अमृत, तीसरा किनारा, अनोखा रिश्ता, दहलीज़, सूत्रधार, नज़राना, शेर शिवाजी, देवशिशु, इंसानियत के दुश्मन, मिर्च मसाला, डांस डांस, राही, अवाम, ठिकाना, आकर्षण, हम फ़रिश्ते नहीं, वारिस, गलियों का बादशाह और सितम आदि शामिल हैं.

भले ही आज स्मिता पाटिल हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी फ़िल्मों के ज़रिये वह हमेशा अपने प्रशंसकों के बीच रहेंगी. बहरहाल, इस साल के शुरू में अभिनेता और कांग्रेस सांसद राज बब्बर ने कहा था कि अब वह ए बुक ऑफ पैन नामक किताब लिखने वाले हैं, जिसमें वह अपने और स्मिता पाटिल के प्रेम के बारे में भी लिखेंगे.

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जन्म : 17 अक्टूबर 1955 
स्थान : पुणे (महाराष्ट्र) 
निधन : 13 दिसम्बर 1986
स्थान : मुम्बई (महाराष्ट्र)    


लाल बिहारी लाल
आज मानव के अधिकारों के संरक्षण का संवैधानिक दर्जा पूरी दुनिया को प्राप्त है। मानव अधिकारों से अभिप्राय ''मौलिक अधिकारों एवं स्वतंत्रता से है जिसके तहत सभी मानव प्राणी समान रुप से हकदार है। जिसमें स्वतंत्रता, समाजिक ,आर्थिक औऱ राजनैतिक रूप में अधिकार देना  शामिल है। जैसे कि जीवन और आजाद रहने का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कानून के सामने समानता एवं आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के साथ ही साथ सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार, भोजन का अधिकार, काम करने का अधिकार एवं शिक्षा का अधिकार।'' आदि शामिल है।

मानवाधिकारों के इतिहास और इसकी चिंताओं को देखें तो सर्वप्रथम इसके बारे में हमें भारतीय वांग्मय में व्यापक तौर पर सामग्री मिलती है। दुनिया कि आदि ग्रंथ कहे जाने वाले सबसे प्राचीन ग्रंथों के रूप में मान्य वेदों में यह सर्वप्रथम दिखाई देते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद से लेकर अथर्ववेद में अनेक ऋचाएं हैं, जो इस बात पर चिंता व्यक्त करती हैं कि व्यक्ति के स्वतंत्रता के अधिकार के साथ उसके बोलने की आजादी का संपूर्ण रूप से ख्याल रखा जाए। राज्य  स्तर पर या स्थानीय निकाय में प्रत्येक नागरिक कानूनी समानता, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के स्तर पर एक समान हो। भारत में इन वैदिक ग्रंथों के बाद अन्य पौराणिक ग्रंथों, जातक कथाओं, अपने समय के कानूनी दस्तावेजों सहित धार्मिक और दार्शनिक पुस्तकों में ऐसी अनेक अवधारणाएं, नियम, सिद्धांत मिलते हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि भारत में मानवाधिकार की चिंता शुरू से की जाती रही है।

इसके बाद युरोप के देशों समेत दुनिया के तमाम देशों में किसी न किसी रूप में मानव के अधिकारों और उनके संरक्षण की बातें उठने लगीं। तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने 10 दिसम्बर 1948 को मानव अधिकार की सार्वभौम घोषणा अंगीकार की ।इन प्रपत्रों को लगभग  विश्व के 380 भाषाओं में अनुवाद कराया गया जिसके कारण इस अधिनियम को गिनीज बुक आफ रिकार्ड में नाम दर्ज हुआ। और 4 दिसंबर 1950 से विधिवत इसे लागू भी कर दिया गया। जिसमें यह बात साफतौर पर लिखी गई कि राष्ट्र के लोग यह विश्वास करते हैं कि कुछ ऐसे मानवाधिकार हैं जो कभी छीने नहीं जा सकते, मानव की गरिमा है और स्त्री-पुरुष के समान अधिकार हैं। इस घोषणा के परिणामस्वरूप विश्व के कई राष्ट्रों ने इन अधिकारों को अपने संविधान में शामिल करना आरंभ कर दिया।  इसका लोगो 23 सितंबर 2011 को न्यूयार्क में जारी किया गया। इस अधिनियम से पूरी दुनिया में मानवहितों की रक्षा करने में काफी सहयोग मिला है।

भारत में इसका गठन 28 सितंबर 1993 को हुआ और 12 अक्टूबर 1993 से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग काम करना शुरु कर दिया। इसके अध्यक्ष(चेयरमैन) सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत जज होते हैं। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है। और इसके प्रथम चेयरमैन जस्टिस रंगनाथ मिश्रा थे वही वर्तमान में इसके चेयरमैन 1 जून  2024 तक  जस्टिस अरुण कुमार मिश्रा थे । फिर इसके कार्यकारी अध्यक्ष विजया भारती स्यानी थे तथा दिसंबर 2024 से जस्टिस वी. रामासुब्रमनियन हैं।

भारत में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 की धारा 21 में राज्य में मानवाधिकार आयोग गठन का प्रावधान है और सभी राज्यों में इस आयोग का गठन हो चुका है। इन आयोगों के वित्तीय भार का वहन राज्य सरकारों द्वारा किया जाता है। संबंधित राज्य का राज्यंपाल, अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति करता है। आयोग का मुख्यालय राज्य में कहीं भी हो सकता है। ''सन 1993 की धारा 21 (5) के तहत राज्य मानव अधिकार के हनन से संबंधित उन सभी मामलों की जांच कर सकता है, जिनका उल्लेख भारतीय संविधान की सूची में किया गया, वहीं धारा 36 (9) के अनुसार आयोग ऐसे किसी भी विषय की जांच नहीं करेगा, जो किसी राज्य आयोग अथवा अन्य आयोग के समक्ष विचाराधीन है। मानव के हीतो की रक्षा करना ही इस आयोग का मुख्य काम है जिसे संवैधानिक मानयता प्राप्त है। इस मानवहितों की रक्षा के उद्देश्यों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए ताकि उसका लाभ उस देश के वासियों को मिल सके इसके लिए  हर साल भारत सहित पूरी दुनिया में 10 दिसंबर को विश्व  मानव अधिकार दिवस मनाते हैं।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार तथा साहित्य टी.वी. के संपादक हैं)


फ़िरदौस ख़ान  
मौलाना मुहम्मद अली जौहर बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे. वे वतन पर मर मिटने वाले स्वतंत्रता सेनानी थे. वे गंभीर पत्रकार थे. वे एक बेहद उम्दा शायर थे. अपने वक़्त के नामचीन शायरों और लेखकों में उनका शुमार होता था. इसके साथ-साथ वे एक समाज सुधारक भी थे. शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके उत्कृष्ट कार्यों को कभी भुलाया नहीं जा सकता. वे मानते थे कि शिक्षा के ज़रिये ही व्यक्ति का संपूर्ण और सर्वांगीण विकास हो सकता है. शिक्षा ही व्यक्ति को अज्ञानता के अंधकार से निकालकर ज्ञान के उजाले तक ले आती है.  

मौलाना मुहम्मद अली जौहर का जन्म 10 दिसम्बर 1878 को उत्तर प्रदेश के रामपुर में हुआ था. जब वे पांच साल के थे, तब उनके पिता अब्दुल अली ख़ान का इंतक़ाल हो गया. उनकी परवरिश की सारी ज़िम्मेदारी उनकी मां आब्दी बानो बेगम पर आ गई. वे एक तालीमयाफ़्ता और दिलेर ख़ातून थीं. उन्होंने अपने बच्चों को दीनी और दुनियावी दोनों ही तरह की तालीम दी थी. उनकी उर्दू, फ़ारसी और अरबी की तालीम घर से ही शुरू हुई. फिर मैट्रिक की पढ़ाई उन्होंने बरेली में की. इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध अलीगढ़ के मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज से स्नातक की उपाधि हासिल की. उनके बड़े भाई शौकत अली चाहते थे कि मुहम्मद अली जौहर इंडियन सिविल सर्विसेज़ पास करें, इसलिए उन्हें ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाई के लिए लन्दन भेजा गया, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाई और वे वापस आ गए. कुछ अरसे बाद उन्हें फिर लन्दन भेजा गया और साल 1898 में उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड के लिंकन कॉलेज से आधुनिक इतिहास में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की. 

लन्दन से वापस आने के बाद उन्होंने कई जगह नौकरी की, लेकिन कहीं भी उनका दिल नहीं लगा. उन्हें तो कुछ और ही करना था, शायद इसलिए. उनकी दिलचस्पी पत्रकारिता और शायरी में थी. वे द टाइम्स, द ऑब्ज़र्वर और द मैनचेस्टर गार्डियन जैसे नामचीन अंग्रेज़ी अख़बारों के लिए लेख लिखा करते थे. इसके साथ ही उर्दू अख़बारों में भी उनके लेख शाया होते थे. बाद में उन्होंने ख़ुद अपने अख़बार निकाले. उन्होंने साल 1911 में कोलकाता में अंग्रेज़ी भाषा में ‘कॉमरेड’ नाम से एक साप्ताहिक अख़बार निकाला. यह अख़बार बहुत लोकप्रिय हुआ. हिन्दुस्तानी ही नहीं, अंग्रेज़ भी इस अख़बार को ख़ूब पढ़ते थे. अगले ही साल 1912 में वे दिल्ली आ गए. यहां उन्होंने साल 1913 में अपना दूसरा अख़बार शुरू किया. उर्दू के इस अख़बार का नाम ‘हमदर्द’ रखा गया. अपने नाम के अनुरूप ही यह अख़बार अवाम का हमदर्द था. इसमें अवाम के मुद्दों को उठाया जाता था और उनकी आवाज़ बुलंद की जाती थी. अंग्रेज़ी और उर्दू के ये दोनों ही अख़बार अपने वक़्त के नामी अख़बार माने जाते थे.

मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने ब्रिटिश हुकूमत की जनविरोधी नीतियों का खुलकर विरोध किया. इसके साथ ही उन्होंने ख़िलाफ़त आन्दोलन का समर्थन करते हुए इसमें बढ़ चढ़कर शिरकत की. 26 सितम्बर 1914 को ब्रिटिश अधिकारियों ने ‘कॉमरेड’ पर पाबंदी लगा दी और प्रेस अधिनियम के प्रावधानों के तहत ज़मानत राशि के साथ अख़बार की सभी प्रतियां ज़ब्त कर ली गईं. उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया. उन्हें चार साल की क़ैद हुई, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. उनका हौसला बरक़रार रहा, बल्कि पहले से भी ज़्यादा बढ़ गया. दरअसल ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लेने की वजह से उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा.  

मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने साल 1906 में मुस्लिम लीग के सदस्य के रूप में अपना सियासी सफ़र शुरू किया था. उन्होंने इसकी स्थापना के लिए ढाका में हुई बैठक में भी शिरकत की थी. साल 1917 में उन्हें सर्वसम्मति से मुस्लिम लीग का अध्यक्ष चुना गया. साल 1919 में वे कांग्रेस में शामिल हो गए. जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने अपने बड़े भाई मौलाना शौकत अली के साथ साल 1919 में अमृतसर में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में शिरकत की. इस अधिवेशन में ख़िलाफ़त आंदोलन के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित हुआ. वे ख़िलाफ़त आंदोलन के लिए एक प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने के लिए लंदन भी गए.

वे देश को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने की लड़ाई में महात्मा गांधी के साथ रहे. उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन का समर्थन करते हुए इसमें हिस्सा लिया. वे साल 1923 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए. लेकिन कुछ अरसे बाद ही उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया. दरअसल कुछ मुद्दों पर उनका कांग्रेस के अन्य नेताओं से टकराव होता रहा. उन्होंने नेहरू रिपोर्ट का ज़ोरदार विरोध किया. इसी तरह के मतभेदों की वजह से वे कांग्रेस से दूर होते गए और आख़िरकार उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया. लेकिन लोगों की भलाई के उनके काम मुसलसल जारी रहे. उन्होंने अपने भाई शौकत अली के साथ मिलकर साल 1924 में दोबारा कॉमरेड का प्रकाशन शुरू किया किया, लेकिन वह ज़्यादा वक़्त तक नहीं चल पाया और साल 1926 में वह फिर से बंद कर दिया गया. 

उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य किए. उन्होंने अलीगढ़ के मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज का विस्तार कर उसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाने के लिए बहुत मशक़्क़त की. उन्होंने जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना में भी अहम किरदार अदा किया था. वे इसके संस्थापकों में से एक थे. जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना 1920 में अलीगढ़ में हुई थी. बाद में इसे दिल्ली लाया गया. 

उन्होंने 1931 में लन्दन में संपन्न हुए गोलमेज़ सम्मेलन में शिरकत की. इस सम्मेलन में दी गई उनकी तक़रीर उनकी आख़िरी ख़्वाहिश बनकर रह गई. सम्मलेन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था- "मेरे मुल्क को आज़ादी दो या मेरी क़ब्र के लिए मुझे दो गज़ जगह दो, क्योंकि यहां मैं अपने मुल्क की आज़ादी लेने आया हूं और उसे लिए बिना वापस नहीं जाऊंगा."

उन्होंने ऐसा इसलिए कहा, क्योंकि वे किसी ग़ुलाम मुल्क में मरना नहीं चाहते थे. कहते हैं कि दिन में एक घड़ी ऐसी आती है, जब मुंह से निकली बात फ़ौरन पूरी हो जाती है. उनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. लंदन में ही 4 जनवरी 1931 को उनका इंतक़ाल हो गया. उन्हें यरूशलेम की मस्जिद-अल-अक़सा के क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया. इस्लाम में मक्का और मदीना के बाद यह मस्जिद सबसे ज़्यादा मुक़द्दस मानी जाती है.

महात्मा गांधी ने मौलाना मुहम्मद अली जौहर को श्रद्धांजलि देते हुए यंग इंडिया के 19 फ़रवरी 1931 के अंक में लिखा था- यरवदा जेल से मौलाना शौकत अली के नाम एक समुद्री तार द्वारा मुझे मौलाना मुहम्मद अली के प्रति अपनी श्रद्धांजलि भेंट करने का सुअवसर प्राप्त हुआ था. किन्तु आज जब मैं यंग इंडिया का सम्पादन शुरू कर रहा हूं तो सार्वजनिक रूप से यह कहे बिना नहीं रह सकता कि मौलाना मुहम्मद अली के रूप में मैंने एक ऐसे व्यक्ति को खोया है, जिनको मैं अपना भाई और मित्र कहता था. और राष्ट्र ने एक निडर देशभक्त खोया है. हमारे विचारों में अंतर रहा, किन्तु जो प्यार मतभेदों को सहन नहीं कर सकता, वह खोखला होता है.     

वाक़ई मौलाना मुहम्मद अली जौहर एक नेक दिल इंसान थे. उनकी शायरी में उनके वजूद का अक्स अयां होता है. 
उनकी शायरी में दुनियावी मसलों का ज़िक्र है, तो आख़िरत की फ़िक्र भी है. बानगी देखिए-  
न नमाज़ आती है मुझको, न वुज़ू आता है 
सज्दा कर लेता हूं जब सामने तू आता है 

तौहीद तो ये है कि ख़ुदा हश्र में कह दे 
ये बंदा ज़माने से ख़फ़ा मेरे लिए है

क़त्ल-ए-हुसैन असल में मर्ग-ए-यज़ीद है 
इस्लाम ज़िन्दा होता है हर कर्बला के बाद 

वक़ार-ए-ख़ून-ए-शहीदान-ए-कर्बला की क़सम 
यज़ीद मोरचा जीता है जंग हारा है 

जीते जी तो कुछ न दिखलाया मगर 
मर के 'जौहर' आपके जौहर खुले

मौलाना मुहम्मद अली जौहर और उनके भाई मौलाना शौकत अली को ‘अली बंधुओं’ के नाम से भी जाना जाता है. मौलाना मुहम्मद अली जौहर भले ही हमारे दरमियान नहीं हैं, लेकिन अपने नेक कामों के ज़रिये वे हमेशा याद किए जाते रहेंगे.  
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं)
साभार : आवाज़ 

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जन्म : 10 दिसम्बर 1878 
स्थान : रामपुर (उत्तर प्रदेश)
निधन : 4 जनवरी 1931
स्थान : लन्दन (ब्रिटेन)



सोनिया गांधी के माता-पिता इटली के वैनिटो प्रांत से थे आल्प्स की तलहटी पर एशियागो  की पहाड़ियों में स्थित लुसियाना गांव __
 इसी पशुपालक क्षेत्र से इटली को अपना प्रिय खाद्य पदार्थ "चीज" मिला है और यह स्थान संगमरमर की खदानों के लिए भी जाना जाता था ।
 सोनिया जी के पिता स्टीफेनो और पाओला की शादी लुसियाना के चर्च में ही हुई थी ।
और सोनिया जी का जन्म 9 दिसंबर 1946 को रात 9:30 बजे हुआ था।
वे मारोसटिका के नगर निगम के अस्पताल में जन्मी थीं जो एशियागो  पहाड़ियों की तलहटी में स्थित एक पुराना छोटा और चारदीवारी वाला शहर था।
  यह खबर जल्दी ही लुसियाना गांव में पहुंच गई और यह गूंज पथरीले घरों, घोड़े के अस्तबलों पथरीली ढलानों और आसपास की पहाड़ियों से टकराते हुए सुदूर स्थित झरनों में जाकर खो गई।
 नवजात कन्या के आगमन की खुशी में और परंपरा के अनुसार पड़ोसियों ने अपने घरों के दरवाजे और खिड़कियों पर गुलाबी रिबन बांधे।
 कुछ दिन बाद पादरी ने बच्ची का नाम रखा "एडविग एंटोनियो अल्बीना माइनो"
  यह नाम सोनिया की नानी के नाम पर था लेकिन स्टेफेनो अपनी बेटी के लिए अलग सा नाम चाहते थे क्योंकि बड़ी बेटी का नाम एना रखा गया था पर वे उसे अनुष्का बुलाते थे और एंटोनिया को वे सोनिया बुलाने लगे ।
इस तरह उन्होंने रूसी मोर्चे से स्वयं के जीवित वापस आने के बाद अपने आप से किया गया वादा निभाया।
 क्यों कि गरीबी झेल रहे अनेक इतालवी लोगों की तरह स्टीफेनो भी मुसोलिनी के प्रचार और फासिस्टवाद से मुग्ध हो गए थे और दूसरा विश्व युद्ध आरंभ होने पर उन्होंने 166 वीकोंजा  सैन्य टुकड़ी में अपना नाम लिखवा लिया यह रेजीमेंट वरसैगलिरी से संबंध रखती थी।
जिसे इतालवी सेवा में प्रतिष्ठित माना जाता था।
  ड्यूक द्वितीय भी इसमें काम कर चुके थे यह टुकड़ी परेड के दौरान अपनी तेज चाल के लिए जानी जाती थी ( प्रति मिनट 130 से अधिक कदमों की चाल )
 वे अपने आसपास अदम्य साहस और कभी पराजित ना होने के भाव से घिरे हुए थे। परंतु रूसियों ने पहले ही हमले में उनको नष्ट कर दिया था और हजारों सिपाही बंदी बना लिए गए थे उनके बीच स्टिफेनो भी थे जो किसी तरह अपनी प्राण रक्षा करने में सफल हो गए थे और रुसी स्टेपिज के एक फार्म हाउस में आश्रय पाने में सफल रहे थे जहां उन्हें एक ग्रामीण परिवार के संरक्षण में कई सप्ताह बिताने पड़े थे उस परिवार की औरतों ने उनके घाव पर मरहम-पट्टी की थी और पुरुषों ने रसद जुटाई।
 अपनी जान बचाने के सिवा वहां हुए दूसरे अनुभवों ने उन लोगों को पूरी तरह से बदल दिया था वह हजारों इतालवी लोगों की तरह वापस आए और जो फासिस्टवाद में जा उलझे थे और जिन्हें रूसी लोगों द्वारा सहायता प्रदान की गई थी तब से स्टीफेनो राजनीति की बात ही नहीं करते थे उनके लिए यह झूठ की पोटली के सिवा कुछ नहीं था ।
 अपनी जान बचाने वाले परिवार को श्रद्धांजलि देने के लिए ही उन्होंने अपनी बेटियों को रुसी नाम देने का निर्णय लिया था।
वे पादरी और अपने ससुराल वालों से जिरह नहीं करना चाहते थे जिनके अनुसार सोनिया का नाम संतों के कैलेंडर का हिस्सा नहीं था।
 स्टीफेनो ने हामी भरी कि वह बच्ची का नाम का पंजीकरण कैथोलिक नाम से ही करवाएंगे ।
 नामकरण के बाद उस प्रांत के स्वादिष्ट व्यंजन बकाला आला वीसेंटिया के साथ पड़ोसियों को दावत दी गई उस समय कॉड परोसना भी किसी विलासिता से कम ना था।
  क्योंकि उस समय हर चीज का अभाव था यहां तक कि प्रांतीय राजधानी विकेंजा में भी कुछ नहीं मिल रहा था।
उस समय गरीबी के चंगुल से निकलना आसान नहीं था उनके पास पहनने को कपड़े खाने के लिए भोजन और बस उससे थोड़ा सा अधिक था।
 माइनो के पास अपनी जमीन नहीं थी केवल पत्थरों से बना हुआ घर और कुछ गायें थी घर को स्टिफेनो ने स्वयं बनाया था।
 यह उसी गली के आखिरी छोर पर था जहां जर्मनी से आए अन्य संबंधियों की पीढ़ियां घर बना कर रहती थी।
 वह सादगी से भरा जीवन व्यतीत करते थे किंतु घाटी से उन्हें अद्भुत दृश्य देखने को मिलते पत्थरों की नीची दीवारें , चारागाहों  की चार दिवारी बनती जहां उनके पशु चरते और इस इलाके में पशुपालन  प्रमुख था।
 क्योंकि ये जगह कृषि के लिए उपयुक्त नहीं थी।
  सोनिया और उनकी बहनें लुसियाना  घाटी में ही बड़ी हुई जो बदलते मौसम के साथ रंग बदला करती थीं।
 उनकी आंखों के सामने हरे और भूरे रंग के सभी शेड्स तैर जाया करते थे ।
 उनकी आंखें पेड़ों को बसंत गर्मी शरद और शीत ऋतु में हरे पीले तांबई और सफेद रंगों में बदलते देखतीं।
  बच्चों के लिए साल की पहली बर्फ किसी समारोह से कम ना होती वह उसका पूरा आनंद लेते सड़कों पर खेलते एक दूसरे को बर्फ के गोलो से मारते।
 स्नोमैन बनाते परंतु यह कड़ी मेहनत और सर्दी सोनिया को जल्दी थका देती , और उन्हें मजबूरन घर लौटना पड़ता उन्हें किचन में आयरन स्टोव के पास बैठकर हाथ सेंकना अच्छा लगता था।
रविवार की सुबह गायों के गले में बंधी हुई घंटियों के सुर में चर्च की बज रही घंटियों के सुर विलीन हो जाते।
  पूरा परिवार अच्छे कपड़े पहनकर चर्च जाता ।
  उन्होंने कभी इसी क्रम में नागा नहीं किया । वे प्रार्थना करते कि स्टिफेनो को काम मिल जाए। और सोनिया का दमा रोग न उभरे।
 घर के हालात में सुधार हो और  लड़कियों को स्वस्थ रूप से बड़े होने के लिए सारी सुख सुविधाएं मिलें।
50 के दशक के आरंभ में स्टिफेनो नो को नौकरी मिली पर वह उनके गांव में नहीं थी यह पर्वत की दूसरी ओर स्विट्जरलैंड में थी उन्हें अनुभवी राजगीर के रूप में बनी पहचान के कारण समय-समय पर काम मिलता था।
 वह कम से कम 2 महीने के लिए घर से बाहर जाते और जब लौटते तो जेबों में भरे पैसे उनकी अपेक्षा से कम समय में समाप्त हो जाते।
1956 में उन्होंने अपने तीनों भाइयों और बहुत से देशवासियों की तरह उन्होंने प्रवास का निर्णय लिया ।
तूरिन बड़ी तेजी से एक औद्योगिक नगर बन रहा था और देहात में रहने वाले बहुत से लोग रोजगार के लिए उस और खींचे चले आ रहे थे माइनो परिवार ने रेल से उतरकर इटली को पार किया और ऑरबेस्सानो में आ बसे।
 जो तूरिन की बाहरी सीमा पर स्थित था।
 ऑरबेस्सानो स्थित सोनिया जी के घर की तस्वीरें ____
राजीव गांधी की मृत्यु के बाद यहां के मेयर कार्लो मारोनी ने इस घर के सामने की सड़क का नाम उनके नाम पर रखा था।
(ये लेख जेवियर मोरो की किताब "द रेड साड़ी" से है)



सर्द हवायें भीगी शाम दिसम्बर की
यख़ बस्ता रुत तेरे नाम दिसम्बर की 
-अज़ीज़ एजाज़ 

 


डॉ. फ़िरदौस ख़ान
आज पहली दिसम्बर है... दिसम्बर का महीना हमें बहुत पसंद है... क्योंकि इसी माह में क्रिसमस आता है... जिसका हमें सालभर बेसब्री से इंतज़ार रहता है... यानी क्रिसमस के अगले दिन से ही इंतज़ार शुरू हो जाता है... 
दिसम्बर में ही हमारी जान फ़लक की सालगिरह भी तो आती है...
इस महीने में दिन बड़े होने शुरू हो जाते हैं... और रातें छोटी होने लगती हैं... यह बात अलग है कि इसका असर जनवरी में ही नज़र आता है... दिसम्बर में ठंडी हवायें चलने लगती हैं... सुबह और शामें कोहरे से ढकी होती हैं... क्यारियों में गेंदा और गुलाब महकने लगते हैं... सच, बहुत ख़ूबसूरत होता है दिसम्बर का महीना...
इसी महीने में अपने साल भर के कामों पर ग़ौर करने का मौक़ा भी मिल जाता है... यानी इस साल में क्या खोया और क्या पाया...? नये साल में क्या पाना चाहते हैं... और उसके लिए क्या तैयारी की है...वग़ैरह-वग़ैरह...

ग़ौरतलब है कि दिसम्बर ग्रेगोरी कैलंडर के मुताबिक़ साल का बारहवां महीना है. यह साल के उन सात महीनों में से एक है, जिनके दिनों की तादाद 31 होती है. दुनिया भर में ग्रेगोरी कैलेंडर का इस्तेमाल किया जाता है. यह जूलियन कालदर्शक का रूपातंरण है. ग्रेगोरी कालदर्शक की मूल इकाई दिन होता है. 365 दिनों का एक साल होता है, लेकिन हर चौथा साल 366 दिन का होता है, जिसे अधिवर्ष कहते हैं. सूर्य पर आधारित पंचांग हर 146,097 दिनों बाद दोहराया जाता है. इसे 400 सालों मे बांटा गया है. यह 20871 सप्ताह के बराबर होता है. इन 400 सालों में 303 साल आम साल होते हैं, जिनमें 365 दिन होते हैं, और 97 अधि वर्ष होते हैं, जिनमें 366 दिन होते हैं. इस तरह हर साल में 365 दिन, 5 घंटे, 49 मिनट और 12 सेकंड होते है. इसे पोप ग्रेगोरी ने लागू किया था.


डॉ. फ़िरदौस ख़ान
’लौह महिला’ के नाम से मशहूर इंदिरा गांधी न सिर्फ़ भारतीय राजनीति पर छाई रहीं, बल्कि विश्व राजनीति के क्षितिज पर भी सूरज की तरह चमकीं. उनकी ज़िन्दगी संघर्ष, चुनौतियों और कामयाबी का एक ऐसा सफ़रनामा है, जो अदम्य साहस का इतिहास बयां करता है. अपने कार्यकाल में उन्होंने अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना किया और हर मोर्चे पर कामयाबी का परचम लहराया. मामला चाहे कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी कलह का हो, अलगाववाद का हो, पाकिस्तान के साथ जंग का हो, बांग्लादेश की आज़ादी का हो, या फिर इसी तरह का कोई और बड़ा मुद्दा हो. हर मामले में उन्होंने अपनी सूझबूझ और साहस का परिचय दिया. बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स का ख़ात्मा, प्रथम पोखरण परमाणु विस्फोट, प्रथम हरित क्रांति जैसे कार्यों के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा. गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अगुवाई और बांग्लादेश की आज़ादी भी उनके साहसिक कार्यों में शामिल है.

देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी का जन्म 19 नवंबर 1917 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में हुआ था. उनका पूरा नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी था. उनके पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री थे और माता कमला नेहरू थीं. उन्होंने शुरुआती तालीम इलाहाबाद के स्कूल में ही ली. इसके बाद उन्होंने गुरु रबींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन स्थित विश्व भारती विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया. कहते हैं, रबीन्द्रनाथ टैगोर ने ही उन्हें ’प्रियदर्शिनी’ नाम दिया था. इसके बाद वे इंग्लैंड चली गईं और ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में बैठीं,लेकिन नाकाम हुईं. इसके बाद उन्होंने ब्रिस्टल के बैडमिंटन स्कूल में कुछ महीने बिताए. फिर साल 1937 में इम्तिहान में कामयाब होने के बाद उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड के सोमरविल कॉलेज में दाख़िला ले लिया. उस दौरान उनकी मुलाक़ात फ़िरोज़ गांधी से हुई, जिन्हें वे इलाहाबाद से जानती थीं. फ़िरोज़ गांधी उन दिनों लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स में पढ़ रहे थे. उनकी जान-पहचान मुहब्बत में बदल गई और फिर 16 मार्च 1942 को उन्होंने इलाहाबाद के आनंद भवन में  फिरोज़ से विवाह कर लिया. उनके दो बेटे संजय और राजीव हुए. राजीव गांधी बाद में देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री बने.

बचपन से ही इंदिरा गांधी को सियासी माहौल मिला था, जिसका उनके किरदार और उनकी ज़िन्दगी पर गहरा असर पड़ा. साल 1941 में ऑक्सफ़ोर्ड से स्वदेश वापसी के बाद वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गईं. उन्होंने युवाओं के लिए वानर सेना बनाई. वानर सेना विरोध प्रदर्शन और झंडा जुलूस निकालने के साथ-साथ कांग्रेस नेताओं की भी ख़ूब मदद करती थी, मसलन संवेदनशील प्रकाशनों और प्रतिबंधित सामग्रियों को गंतव्य तक पहुंचाने का काम करती थी. आज़ादी की लड़ाई में इसके काम को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.  1930 की दहाई के शुरू का वाक़िया है, जब इंदिरा गांधी ने पुलिस की निगरानी में रह रहे अपने पिता के घर से एक अहम दस्तावेज़ को अपनी किताबों के बस्ते में छुपाकर गंतव्य तक पहुंचाया था. इस दहाई के आख़िर में ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में अपनी पढ़ाई के दौरान वे लंदन में आज़ादी के समर्थक दल भारतीय लीग की सदस्य बनीं और विदेश में रहकर भी स्वदेश के लिए काम करती रहीं. सितम्बर 1942 में उन्हें  ब्रिटिश हुकूमत द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया. आख़िर तक़रीबन 243 दिन जेल में गुज़ारने के बाद उन्हें 13 मई 1943 को रिहा किया गया. साल 1947 के देश के बंटवारे के दौरान उन्होंने शरणार्थी शिविरों को संगठित किया और पाकिस्तान से आए लाखों शरणार्थियों के लिए भोजन और चिकित्सा का इंतज़ाम किया. उनके इस कार्य को ख़ूब सराहा गया और इससे उन्हें एक नई पहचान मिली.

1950 की दहाई में इंदिरा गांधी अपने पिता यानी देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के निजी सहायक के तौर पर काम कर रही थीं. साल 1959 वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं. पार्टी के लिए उन्होंने सराहनीय काम किया. 27 मई, 1964 को उनके पिता का देहांत हो गया. इसके बाद वे राज्यसभा सदस्य के रूप में चुनी गईं और प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मंत्री बनीं. साल 1965 की भारत-पाकिस्तान जंग के दौरान वे सेना की हौसला अफ़ज़ाई के लिए श्रीनगर सीमा के इलाक़े में गईं. सेना की चेतावनी के बावजूद उन्होंने दिल्ली आना मंज़ूर नहीं किया और सेना का मनोबल बढ़ाती रहीं. उस दौरान लालबहादुर शास्त्री ताशक़ंद गए हुए थे, जहां सोवियत मध्यस्थता में पाकिस्तान के अयूब ख़ान के साथ शांति समझौते पर दस्तख़त करने के कुछ घंटों बाद ही उनका निधन हो गया.

इसके बाद 19 जनवरी, 1966 को इंदिरा गांधी देश की तीसरी प्रधानमंत्री बनीं. उस वक़्त कांग्रेस दो गुटों में बंट चुकी थी. समाजवादी ख़ेमा इंदिरा गांधी के साथ खड़ा था, जबकि दूसरा रूढ़िवादी गुट मोरारजी देसाई का समर्थक था. मोरारजी देसाई इंदिरा गांधी को ’गूंगी गुड़िया’ कहा करते थे, क्योंकि वे बहुत कम बोलती थीं. साल 1967 के चुनाव में 545 सीटों वाली लोकसभा में कांग्रेस को 297 सीटें मिलीं. उन्हें प्रधानमंत्री चुन लिया गया और वे  24 मार्च, 1977 अपने पद पर बनी रहीं. क़ाबिले-ग़ौर है कि वे 1967 में प्रधानमंत्री पद के लिए चुने जाने के बाद आख़िर तक प्रधानमंत्री बनी रहीं, लेकिन 1977 से 1980 के बीच उन्हें हुकूमत से बेदख़ल रहना पड़ा. उन्होंने मोरारजी देसाई को देश का उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री बनाया. साल 1969 में मोरारजी देसाई के साथ अनेक मुद्दों पर मतभेद हुए और आख़िरकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बंट गई. उन्होंने समाजवादी और साम्यवादी दलों के समर्थन से हुकूमत की. इसके कुछ वक़्त बाद फिर से देश को जंग का सामना करना पड़ा. साल 1971 में जंग के दौरान उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति को नई दिशा दी. नतीजतन, जंग में भारत ने शानदार जीत हासिल की. इस दौरान बांग्लादेश को पाकिस्तान से आज़ादी मिली. दरअसल, बांग्लादेश को आज़ाद कराने में इंदिरा गांधी ने बेहद अहम किरदार निभाया था. कहते हैं कि इस जीत के बाद जब संसद सत्र शुरू हुआ, तो विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने भाषण मे इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ कहकर संबोधित किया था.

इंदिरा गांधी ने  26 जून, 1975 को देश में आपातकाल लागू किया. इसकी वजह से उनकी पार्टी 1977 के आम चुनाव में पहली बार हार गई. उन्हें अक्टूबर 1977 और दिसम्बर 1978 में जेल तक जाना पड़ा. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और जद्दोजहद करती रहीं. फिर 1980 में उन्होंने हुकूमत में वापसी की. कांग्रेस को शानदार कामयाबी मिली और 22 राज्यों में से 15 राज्यों में कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी. 14 जनवरी, 1980 को वे फिर से देश की प्रधानमंत्री बनीं और अपनी ज़िन्दगी के आख़िर तक हुकूमत की. उन दिनों पंजाब में आतंकवाद चरम पर था. उन्होंने पंजाब में अलगाववादियों के ख़िलाफ़ मुहिम शुरू कर दी. इसकी वजह से अलगाववादी उनकी जान के दुश्मन बन गए और 31 अक्टूबर, 1984 को दिल्ली में उनके अंगरक्षकों ने ही उनका क़त्ल कर दिया. उनकी आकस्मिक मौत से देश शोक में डूब गया.

श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पंडित जवाहरलाल  नेहरू से श्रीमती इंदिरा गांधी की तुलना करते हुए कहा था कि अपने पिता के विपरीत श्रीमती इंदिरा गांधी संसद से दूर-दूर रहती थीं. आरंभ में तो वह इतनी चुप रहती थीं कि उन्हें ’गूंगी गुड़िया’ तक कह दिया गया था, किंतु यह उनके साथ अन्याय था. वह कम बोलने में विश्वास करती थीं. सबकी बातें सुनने के बाद अपना मत स्थिर करती थीं और सबसे अंत में प्रकट करती थीं. वह सदन में आकर समय गंवाने की बजाय अपने कमरे में बैठकर सत्ता की चाबियां घुमाती थीं. उन्होंने चौदह वर्ष तक शासन कर विश्व को चमत्कृत कर दिया और विरोधियों को कई बार पछाड़ा. इंदिरा जी के साथ संसद में कई बार काफी नोक-झोंक होती रहती थी, किंतु राजनीति के मतभेदों को उन्होंने व्यक्तिगत संबंधों में बाधक नहीं बनने दिया. उनकी निर्मम त्रासद और क्रूर हत्या ने एक ऐसे व्यक्तित्व को हमारे बीच से उठा लिया, जिन्हें योग्य पिता की योग्य पुत्री के नाते ही नहीं, अपनी निजी योग्यता, कुशलता, निर्णय क्षमता तथा कठोरता के कारण याद किया जाएगा.

दरअसल, सियासत की इस महान और कामयाब शख़्सियत को अपनी निजी ज़िन्दगी में कई ग़म मिले थे. साल 1936 में उनकी मां कमला नेहरू तपेदिक से एक लम्बे अरसे तक जूझने के बाद उन्हें अकेला छोड़ गईं. उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 18 साल थी. फिर शादीशुदा ज़िन्दगी में भी उन्हें दुख मिले.शादी के बाद उनकी शुरुआती ज़िन्दगी ठीक रही, लेकिन बाद में वे अपने पिता के घर आ नई दिल्ली आ गईं. देश के पहले आम चुनाव 1951 में वे अपने पिता और पति दोनों के लिए चुनाव प्रचार कर रही थीं. चुनाव जीतने के बाद फ़िरोज़ गांधी ने अपने लिए अलग घर चुना. फिर साल 1958 में उप-निर्वाचन के कुछ वक़्त बाद फिरोज़ गांधी को दिल का दौरा पड़ा. इस दौरान इंदिरा गांधी ने उनकी ख़ूब ख़िदमत की. उनके रिश्ते बेहतर होने लगे, लेकिन 8 सितम्बर1960 को जब इंदिरा गांधे अपने पिता के साथ एक विदेश दौरे पर गई थीं, तब फिरोज़ की मौत हो गई. उन्होंने ख़ुद को पार्टी और देश के काम में मसरूफ़ कर लिया. उन्होंने संजय गांधी को अपना सियासी वारिस चुना, लेकिन 23 जून, 1980 को एक उड़ान हादसे में उनकी मौत हो गई. इसके बाद वे अपने छोटे बेटे राजीव गांधी को सियासत में लेकर आईं. राजीव गांधी पायलट की नौकरी में ख़ुश थे और सियासत में आना नहीं चाहते थे, लेकिन मां को वे इंकार न कर सके और न चाहते हुए भी उन्हें सियासत में क़दम रखना पड़ा.

इंदिरा गांधी ख़ाली वक़्त में अपने परिजनों के लिए स्वेटर बुना करती थीं. उन्हें संगीत और किताबों से भी ख़ास लगाव था. पाकिस्तानी गायक मेहंदी हसन की ग़ज़लें भी अकसर सुनती थीं. सोने से पहले वे आध्यात्मिक किताबें पढ़ती थीं. भारत रत्न से सम्मानित इंदिरा गांधी ने कहा था- जीवन का महत्व तभी है, जब वह किसी महान ध्येय के लिए समर्पित हो. यह समर्पण ज्ञान और न्याययुक्त हो. शहादत कुछ ख़त्म नहीं करती, वो महज़ शुरुआत है. अगर मैं एक हिंसक मौत मरती हूं, जैसा कि कुछ लोग डर रहे हैं और कुछ षड़यंत्र कर रहे हैं, तो मुझे पता है कि हिंसा हत्यारों के विचार और कर्म में होगी, मेरे मरने में नहीं. लोग अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं, लेकिन अधिकारों को याद रखते हैं. अपने आप को खोजने का सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि आप अपने आप को दूसरों की सेवा में खो दें. संतोष प्राप्ति में नहीं, बल्कि प्रयास में होता है पूरा प्रयास पूर्ण विजय है. प्रश्न करने का अधिकार मानव प्रगति का आधार है. देशों के बीच के शांति, व्यक्तियों के बीच प्यार की ठोस बुनियाद पर टिकी होती है
उन्होंने यह भी कहा था, जब मैं सूर्यास्त  पर आश्चर्य या चांद की ख़ूबसूरती की प्रशंसा कर रही होती हूं, उस समय मेरी आत्मा इन्हें बनाने वाले की पूजा कर रही होती है.
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं) 


डॉ. फ़िरदौस ख़ान
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू आधुनिक भारत के निर्माताओं में एक माने जाते हैं.
देशभर में उनके जन्म दिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही वजह थी कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता था. एक बार चाचा नेहरू से मिलने एक सज्जन आए. बातचीत के दौरान उन्होंने नेहरू जी से पूछा- पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गए हैं,  लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, जबकि आपसे छोटा होते हुए भी मैं बूढ़ा दिखता हूं. नेहरू जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- इसके तीन कारण हैं.  पहला, मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूं. उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूं., इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूं. दूसरा, मैं प्रकृति प्रेमी हूं और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरनों, चांद, सितारों से बहुत प्यार करता हूं. मैं इनके साथ में जीता हूं, जिससे यह मुझे तरोताज़ा रखते हैं. तीसरी वजह यह है कि ज़्यादातर लोग हमेशा छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसके बारे में सोच-सोचकर दिमाग़ ख़राब करते हैं. मेरा नज़रिया अलग है और मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता. यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस पड़े.

पंडित जवाहरलाल नेहरू  का जन्म 14 नवंबर 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था. वह पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी के इकलौते बेटे थे. उनसे छोटी उनकी दो बहनें थीं. उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं. उनकी शुरुआती तालीम घर पर ही हुई. उन्होंने 14 साल की उम्र तक घर पर ही कई अंग्रेज़ शिक्षकों से तालीम हासिल की. आगे की शिक्षा के लिए 1905 में जवाहरलाल नेहरू को इंग्लैंड के हैरो स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहां से उन्होंने प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की. 1912 में उन्होंने लंदन के इनर टेंपल से वकालत की डिग्री हासिल की और उसी साल भारत लौट आए. उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी, लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. भारतीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी और वह सियासी कार्यक्रमों में शिरकत करने लगे. उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया लिया. 8 फ़रवरी 1916 को कमला कौल से उनका विवाह हो गया. 19 नवंबर 1917 को उनके यहां बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमंत्री बनीं. इसके बाद उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ, लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई.

पंडित जवाहरलाल नेहरू  1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए. मगर 1929 में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे. इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य का ऐलान किया गया. इससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की मांग थी. वह जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की जांच में देशबंधु चितरंजनदास और महात्मा गांधी के सहयोगी रहे और 1921 के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गांधी के बेहद क़रीब में आ गए और गांधी जी की मौत तक यह नज़दीकी क़ायम रही. कांग्रेस पार्टी के साथ नेहरू का जुड़ाव 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के फ़ौरन बाद शुरू हुआ. उस वक़्त राष्ट्रवादी गतिविधियों की लहर ज़ोरों पर थी और अप्रैल 1919 को अमृतसर के नरसंहार के रूप में सरकारी दमन खुलकर सामने आया. स्थानीय ब्रिटिश सेना कमांडर ने अपनी टुकड़ियों को निहत्थे भारतीयों की एक सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया, जिसमें 379 लोग मारे गए और तक़रीबन बारह सौ लोग ज़ख़्मी हुए.

1921 के आख़िर में जब कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुछ प्रदेशों में ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया,  तब पहली बार नेहरू जेल गए. अगले 24 साल में उन्हें आठ बार गिरफ्तार कर जेल भेजा गया. नेहरू ने कुल मिलाकर नौ साल से ज़्यादा वक़्त जेलों में गुज़ारा. अपने मिज़ाज के मुताबिक़ ही उन्होंने अपनी जेल-यात्राओं को असामान्य राजनीतिक गतिविधि वाले जीवन के अंतरालों के रूप में वर्णित किया है.  कांग्रेस के साथ उनका राजनीतिक प्रशिक्षण 1919 से 1929 तक चला. 1923 में और फ़िर 1927 में वह दो-दो साल के लिए पार्टी के महासचिव बने. उनकी रुचियों और ज़िम्मेदारियों ने उन्हें भारत के व्यापक क्षेत्रों की यात्रा का मौक़ा दिया, ख़ासकर उनके गृह प्रदेश संयुक्त प्रांत का,  जहां उन्हें घोर ग़रीबी और किसानों की बदहाली की पहली झलक मिली और जिसने इन महत्वपूर्ण समस्याओं को दूर करने की उनकी मूल योजनाओं को प्रभावित किया. हालांकि उनका कुछ-कुछ झुकाव समाजवाद की ओर था, लेकिन उनका सुधारवाद किसी निश्चित ढांचे में ढला हुआ नहीं था. 1926-27 में उनकी यूरोप और सोवियत संघ की यात्रा ने उनके आर्थिक और राजनीतिक चिंतन को पूरी तरह प्रभावित कर दिया.
वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े, चाहे असहयोग आंदोलन हो या फिर नमक सत्याग्रह, या फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन हो. उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत की. नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे. 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया. वह 1923 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए. गांधी जी ने यह सोचकर उन्हें यह पद सौंपा कि अतिवादी वामपंथी धारा की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं को नेहरू कांग्रेस आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल कर सकेंगे.
1931 में पिता की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए. हालांकि 1942 तक गांधी जी ने आधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, लेकिन 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे. मार्च 1931 में महात्मा और ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड इरविन (बाद में लॉर्ड हैलिफ़ैक्स) के बीच हुए गांधी-इरविन समझौते से भारत के दो प्रमुख नेताओं के बीच समझौते का आभास मिलने लगा. इसने एक साल पहले शुरू किए गए गांधी जी के प्रभावशाली सविनय अवज्ञा आंदोलन को तेज़ी प्रदान की, जिसके दौरान नेहरू को गिरफ़्तार किया गया. दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद लंदन से स्वदेश लौटने के कुछ ही वक़्त बाद जनवरी 1932 में गांधी को जेल भेज दिया. उन पर फिर से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की कोशिश का आरोप लगाया गया. नेहरू को भी गिरफ़्तार करके दो साल की क़ैद की सज़ा दी गई.

भारत में स्वशासन की स्थापना की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलनों की परिणति आख़िरकार 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के रूप में हुई, जिसके तहत भारतीय प्रांतों के लोकप्रिय स्वशासी सरकार की प्रणाली प्रदान की गई. इससे एक संघीय प्रणाली का जन्म हुआ, जिसमें स्वायत्तशासी प्रांत और रजवाड़े शामिल थे. संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन प्रांतीय स्वशासन लागू हो गया.
1930 के दशक के मध्य में नेहरू यूरोप के घटनाक्रम के प्रति ज़्यादा चिंतित थे, जो एक अन्य विश्व युद्ध की ओर बढ़ता प्रतीत हो रहा था. 1936 के शुरू में वह अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए यूरोप में थे. इसके कुछ ही वक़्त  बाद स्विट्ज़रलैंड के एक सेनीटोरियम में उनकी पत्नी की मौत हो गई. उस वक़्त भी उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि युद्ध की स्थिति में भारत का स्थान लोकतांत्रिक देशों के साथ होगा. हालांकि वह इस बात पर भी ज़ोर देते थे कि भारत एक स्वतंत्र देशों के रूप में ही ग्रेट ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन में युद्ध कर सकता है.
सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के बाद जब वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने स्वायत्तशासी प्रांतीय मंत्रिमंडलों से मशविरा किए बगैर भारत को युद्ध में झोंक दिया, तो इसके ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी के आलाकमान ने अपने प्रांतीय मंत्रिमंडल वापस ले लिए. कांग्रेस की इस कार्रवाई से राजनीति का अखाड़ा जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए साफ़ हो गया.

अक्तूबर 1940 में महात्मा गांधी जी ने अपने मूल विचार से हटकर एक सीमित नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का फ़ैसला किया, जिसमें भारत की आज़ादी के अग्रणी पक्षधरों को क्रमानुसार हिस्सा लेने के लिए चुना गया था. नेहरू को गिरफ़्तार करके चार साल की क़ैद की सज़ा दी गई. एक साल से कुछ ज़्यादा वक़्त तक ज़ेल में रहने के बाद उन्हें अन्य कांग्रेसी क़ैदियों के साथ रिहा कर दिया गया. इसके तीन दिन बाद हवाई में पर्ल हारबर पर बमबारी हुई. 1942 में जब जापान ने बर्मा के रास्ते भारत की सीमाओं पर हमला किया  तो इस नए सैनिक ख़तरे के मद्देनज़र ब्रिटिश सरकार ने भारत की तरफ़ हाथ बढ़ाने का फ़ैसला किया. प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को संवैधानिक समस्याओं को सुलझाने के प्रस्तावों के साथ भेजा. सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स  युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य और राजनीतिक रूप से नेहरू के नज़दीकी और मोहम्मद अली जिन्ना के परिचित थे. क्रिप्स की यह मुहिम नाकाम रही, क्योंकि गांधी जी आज़ादी से कम कुछ भी मंज़ूर करने के पक्ष में नहीं थे.

कांग्रेस में अब नेतृव्य गांधी जी के हाथों में था, जिन्होंने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ देने का आह्वान किया. 8 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस द्वारा भारत छोड़ो  प्रस्ताव पारित करने के बाद गांधी जी और नेहरू समेत पूरी कांग्रेस कार्यकारिणी समिति को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया. नेहरू 15 जून 1945 को रिहा हुए. लंदन में युद्ध के दौरान सत्तारूढ़ चर्चिल प्रशासन का स्थान लेबर पार्टी की सरकार ने ले लिया था. उसने अपने पहले कार्य के रूप में भारत में एक कैबिनेट मिशन भेजा और बाद में लॉर्ड वेवेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को तैनात कर दिया. अब सवाल भारत की आज़ादी का नहीं, बल्कि यह था कि इसमें एक ही आज़ाद राज्य होगा या एक से ज़्यादा होंगे. गांधी जी ने बटवारे को क़ुबूल करने से इंकार कर दिया, जबकि नेहरू ने मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए  मौन सहमति दे दी. 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग आज़ाद देश बने. नेहरू आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए.
फिर 1952 में आज़ाद भारत में चुनाव हुए. ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को आधार मान कर बनाए गए भारतीय संविधान के तहत हुआ यह पहला चुनाव था, जिसमें जनता ने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल किया. इस चुनाव के वक़्त मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी, जिनमें से 15 फ़ीसदी साक्षर थे. इस चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत से सत्ता में आई और पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने. इससे पहले वह 1947 में आज़ादी मिलने के बाद से अंतरिम प्रधानमंत्री थे. संसद की 497 सीटों के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए.  देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पहला चुनाव प्रचार भी यादगार है. कहा जाता है कि कांग्रेस का चुनाव प्रचार केवल नेहरू पर केंद्रित था. चुनाव प्रचार के लिए नेहरू ने सड़क, रेल, पानी और हवाई जहाज़ सभी का सहारा लिया. उन्होंने 25,000 मील का सफ़र किया यह सफ़र 18,000 मील हवाई जहाज़ से,  5200 मील कार से, 1600 मील ट्रेन से और 90 मील नाव से किया गया. ख़ास बात यह भी रही कि देशभर में 60  फ़ीसदी मतदान हुआ और पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 364 सीटें मिली थीं.

नेहरू के वक़्त एक और अहम फ़ैसला भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का था. इसके लिए राज्य पुनर्गठन क़ानून-1956 पास किया गया. आज़ादी के बाद भारत में राज्यों की सीमाओं में हुआ, यह सबसे बड़ा बदलाव था. इसके तहत 14 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों की स्थापना हुई. इसी क़ानून के तहत केरल और बॉम्बे को राज्य का दर्जा मिला. संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया, जिसके तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा हासिल करने का अधिकार मिला.

1929 में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था,  तब से 35 बरसों तक 1964 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मौत तक नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेहरू का सितारा अक्टूबर 1956 तक बुलंदी पर था, लेकिन 1956 में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ हंगरी के विद्रोह के दौरान भारत के रवैये की वजह से उनकी गुटनिरपेक्ष नीति की जमकर आलोचना हुई. संयुक्त राष्ट्र में भारत अकेला ऐसा गुटनिरपेक्ष देश था, जिसने हंगरी पर हमले के मामले में सोवियत संघ के पक्ष में मत दिया. इसके बाद नेहरू को गुटनिरपेक्ष आंदोलन के आह्वान की विश्वनियता साबित करने में काफ़ी मुश्किल हुई. आज़ादी के बाद के शुरूआती बरसों में उपनिवेशवाद का विरोध उनकी विदेश-नीति का मूल आधार था, लेकिन 1961 के गुटनिरपेक्ष देशों के बेलग्रेड सम्मेलन तक नेहरू ने प्रति उपनिवेशवाद की जगह गुटनिरपेक्षता को सर्वोच्च प्राथमिकता देना शुरू कर दिया था. 1962 में लंबे वक़्त से चले आ रहे सीमा-विवाद की वजह से चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी घाटी पर हमले की चेतावनी दी. नेहरू ने अपनी गुटनिरपेक्ष नीति को दरकिनार कर पश्चिमी देशों से मदद की मांग की. नतीजतन चीन को पीछे हटना पड़ा. कश्मीर नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व काल में लगातार एक समस्या बना रहा, क्योंकि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान भी इस पर अपना दावा कर रहा था. संघर्ष विराम रेखा को समायोजित करके इस विवाद को निपटाने की उनकी शुरुआती कोशिशें नाकाम रहीं और 1948 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर क़ब्ज़े की कोशिश की. भारत में बचे आख़िरी उपनिवेश पुर्तग़ाली गोवा की समस्या को सुलझाने में नेहरू अधिक भाग्यशाली रहे. हालांकि दिसंबर 1961 में भारतीय सेनाओं द्वारा इस पर क़ब्ज़ा किए जाने से कई पश्चिमी देशों में नाराज़गी पैदा हुई, लेकिन नेहरू की कार्रवाई सही थी. हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा उस वक़्त बेमानी साबित हो गया, जब सीमा विवाद को लेकर 10 अक्तूबर 1962 को चीनी सेना ने लद्दाख़ और नेफ़ा में भारतीय चौकियों पर क़ब्ज़ा कर लिया. नवंबर में एक बार फिर चीन की ओर से हमले हुए. चीन ने एकतरफ़ा युद्धविराम का ऐलान कर दिया, तब तक 1300 से ज़्यादा भारतीय सैनिक शहीद हो चुके थे. पंडित नेहरू के लिए यह सबसे बुरा दौर साबित हुआ. उनकी सरकार के ख़िलाफ़ संसद में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया. चीन के साथ हुई जंग के कुछ वक़्त बाद नेहरू की सेहत ख़राब रहने लगी. उन्हें 1963 में दिल का हल्का दौरा पड़ा, फिर जनवरी 1964 में उन्हें दौरा पड़ा. कुछ ही महीनों बाद तीसरे दौरे में 27 मई 1964 में उनकी मौत हो गई.

जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए. उन्होंने औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया. उन्होंने विज्ञान के विकास के लिए 1947  में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की. देश  के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं. खेलों में भी नेहरू की रुचि थी. उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी बताया. उन्होंने 1951 दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया.

पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि विख्यात लेखक भी थे. उनकी आत्मकथा 1936  में प्रकाशित हुई और दुनियाभर में सराही गई. उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद आदि शामिल हैं. वह भारतीय भाषाओं को काफ़ी महत्व देते थे. वह चाहते थे कि हिन्दुस्तानी जब कहीं भी एक-दूसरे से मिले तो अपनी ही भाषा में बातचीत करें. उन्होंने कहा था-मेरे विचार में हम भारतवासियों के लिए एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा. मैं आपको कह सकता हूं कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है  तो मुझे कितना बुरा लगता है. लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता है?

पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने विचारों और अपने उल्लेखनीय कार्यों की वजह से ही महान बने. विभिन्न मुद्दों पर नेहरू के विचार उन्हीं के शब्दों में- भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों पीड़ितों की सेवा है. इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान और अवसर की विषमता का अंत करना है. हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा रही है कि हर आंख के हर आंसू को पोंछ दिया जाए. ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू हैं और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा.

नेहरू जी ने कहा था- अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से आज का बड़ा सवाल विश्व शांति का है. आज हमारे लिए यही विकल्प है कि हम दुनिया को उसके अपने रूप में ही स्वीकार करें. हम देश को इस बात की स्वतंत्रता देते रहें कि वह अपने ढंग से अपना विकास करे और दूसरों से सीखे, लेकिन दूसरे उस पर अपनी कोई चीज़ नहीं थोपें. निश्चय ही इसके लिए एक नई मानसिक विधा चाहिए. पंचशील या पांच सिद्धांत यही विधा बताते हैं.

नेहरू जी ने कहा था- आप में जितना अधिक अनुशासन होगा, आप में उतनी ही आगे बढ़ने की शक्ति होगी. कोई भी देश, जिसमें न तो थोपा गया अनुशासन है, और न आत्मा-अनुशासन-बहुत वक़्त तक नहीं टिक सकता.

मीडिया द्वारा अपना विरोध करने के बारे में उन्होंने कहा था, ’हो सकता है, प्रेस गलती करे, हो सकता है, प्रेस ऐसी बात लिख दे, जो मुझे पसंद न हो. प्रेस का गला घोंटने की बजाय मैं यह पसंद करूंगा कि प्रेस गलती करे और गलती से सीखे, मगर देश में प्रेस की स्वतंत्रता बरकरार रहे.
वह यह भी कहा करते थे कि एक ऐसा क्षण जो इतिहास में बहुत ही कम आता है , जब हम पुराने को छोड़ नए की तरफ जातेहैं , जब एक युग का अंत होता है , और जब वर्षों से शोषित एक देश की आत्मा , अपनी बात कह सकती है.
बेशक, पंडित नेहरू जैसे नेता सदियों में जन्म लेते हैं. उनके विचार आज भी बेहद प्रासंगिक हैं. बस ज़रूरत है उनको अपनाने की.



लाल बिहारी लाल
बच्चें हर देश का  भविष्य और उसकी तस्वीर होते हैं। बच्चे ही किसी देश के आने वाले भविष्य को तैयार करते हैं। लेकिन भारत जैसे देश में बाल मजदूरी, बाल विवाह और बाल शोषण के तमाम ऐसे अनैतिक और क्रूर कृत्य मिलेंगे जिन्हें देख आपको यकीन नहीं होगा कि यह वही देश है जहां भगवान विष्णु को बाल रूप में पूजा जाता है और जहां के प्रथम प्रधानमंत्री को बच्चे इतने प्यारे थे कि उन्होंने अपना जन्म दिवस ही उनके नाम कर दिया.
देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को बच्चों से विशेष प्रेम था। यह प्रेम ही था जो उन्होंने अपने जन्म दिवस को बाल दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। जवाहरलाल नेहरू को बच्चों से लगाव था तो वहीं बच्चे भी उन्हें चाचा नेहरू के नाम से जानते थे। जवाहरलाल नेहरू ने नेताओं की छवि से अलग हटकर एक ऐसी तस्वीर पैदा की जिस परचलना आज के नेताओं के बस की बात नहीं। आज चाचा नेहरू का जन्मदिन है, तो चलिए जानते हैं जवाहरलाल नेहरू के उस पक्ष के बारे में जो उन्हें बच्चों के बीच चाचा बनाती थी।

14 नवंबर, 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में जन्मे पं. नेहरू का बचपन काफी शानोशौकत से बीता। उनके पिता देश के उच्च वकीलों में से एक थे। पं. मोतीलाल नेहरु देश के एक जाने माने धनाढ्य वकील थे। उनकी मां का नाम स्वरूप रानी नेहरू था। वह मोतीलाल नेहरू के इकलौते पुत्र थे। इनके अलावा मोती लाल नेहरू की तीन पुत्रियां थीं उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं।
    पं. नेहरु महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़े। चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफी प्रभावित थे और इसीलिए आजादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे। सन् 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया। 1923 में वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए। 1929 में नेहरू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर सत्र के अध्यक्ष चुने गए। नेहरू आजादी के आंदोलन के दौरान बहुत बार जेल गए। 1920 से1922 तक चले असहयोग आंदोलन के दौरान उन्हें दो बार गिरफ्तार किया गया।
नेहरू जहां गांधीवादी मार्ग से आजादी के आंदोलन के लिए लड़े वहीं उन्होंने कई बार सशस्त्र संघर्ष चलाने वाले क्रांतिकारियों का भी साथ दिया। आजाद हिन्द फौज के सेनानियों पर अंग्रेजों द्वारा चलाए गए मुकदमे में नेहरू ने क्रांतिकारियों की वकालत की। उनके प्रयासों के चलते अंग्रेजों को बहुत से क्रांतिकारियों का रिहा करना पड़ा। 27 मई, 1964 को उनका निधन हो गया.

बच्चों के चाचा नेहरू
एक दिन तीन मूर्ति भवन के बगीचे में लगे पेड़-पौधों के बीच से गुजरते हुए घुमावदार रास्ते पर नेहरू जी टहल रहे थे।उनका ध्यान पौधों पर था, तभी पौधों के बीच से उन्हें एक बच्चे के रोने की आवाज आई. नेहरूजी ने आसपास देखा तो उन्हें पेड़ों के बीच एक-दो माह का बच्चादिखाई दिया जो रो रहा था।नेहरूजी ने उसकी मां को इधर-उधर ढूंढ़ा पर वह नहीं मिली। चाचा ने सोचा शायद वह बगीचे में ही कहीं  माली के साथ काम कर रही होगी। नेहरूजी यह सोच ही रहे थे कि बच्चे ने रोना तेज कर दिया। इस पर उन्होंने उस बच्चे की मां की भूमिका निभाने का मन बना लिया।वह बच्चे को गोद में उठाकर खिलाने लगे और वह तब तक उसके साथ रहे जब तक उसकी मां वहां नहीं आ गई। उस बच्चे को देश के प्रधानमंत्री के हाथ में देखकर उसकी मां को यकीन ही नहीं हुआ।
दूसरा वाकया जुड़ा है तमिलनाडु से, एक बार जब पंडित नेहरू तमिलनाडु के दौरे पर गए तब जिस सड़क से वे गुजर रहे थे वहां लोग साइकलों पर खड़े होकर तो कहीं दीवारों पर चढ़कर नेताजी को निहार रहे थे। प्रधानमंत्री की एक झलक पाने के लिए हर आदमी इतना उत्सुक था कि जिसे जहां समझ आया वहां खड़े होकर नेहरू जी को निहारने लगा। इस भीड़ भरे इलाके में नेहरूजी ने देखा कि दूर खड़ा एक गुब्बारे वाला पंजों के बल खड़ा डगमगा रहा था, ऐसा लग रहा था कि उसके हाथों के तरह-तरह के रंग-बिरंगी गुब्बारे मानो पंडितजी को देखने के लिए डोल रहे हों. जैसे वे कह रहे हों हम तुम्हारा तमिलनाडु में स्वागत करते हैं। नेहरूजी की गाड़ी जब गुब्बारे वाले तक पहुंची तो गाड़ी से उतरकर वेगुब्बारे खरीदने के लिए आगे बढ़े तो गुब्बारे वाला हक्का-बक्का-सा रह गया।नेहरू जी ने अपने तमिल जानने वाले सचिव से कहकर सारे गुब्बारे खरीदवाए और वहां उपस्थित सारे बच्चों को वे गुब्बारे बंटवा दिए। ऐसे प्यारे चाचा नेहरू को बच्चों के प्रति बहुत लगाव था। नेहरू जी के मन में बच्चों के प्रति विशेष प्रेम और सहानुभूति देखकर लोग उन्हें चाचा नेहरू के नाम से संबोधित करने लगे और जैसे-जैसे गुब्बारे बच्चों केहाथों तक पहुंचे बच्चों ने चाचा नेहरू-चाचा नेहरू की तेज आवाज से वहां का वातावरण उल्लासित कर दिया. तभी से वे चाचा नेहरू के नाम से प्रसिद्ध हो गए। भारत के भारत में इस तरह के महान मानव का जन्म बहुत कम ही हो रहा है जो देश के युवाओं एव बच्चों की सोंच रखता है और इसके चहुमुखी विकास की बात करता हो।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं  साहित्य टी.वी.के संपादक हैं)


डॉ. फ़िरदौस ख़ान
हिन्दुस्तान में आज जब मुट्ठीभर ख़ुदग़र्ज़ लोग मज़हब, जात, भाषा और प्रांत के नाम पर देश को बांटने की कोशिश कर रहे हैं, तो ऐसे में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संदेश बेहद प्रासंगिक हो जाते हैं. उन्होंने हमेशा देश की एकता और अखंडता को क़ायम रखने पर ज़ोर दिया. बक़ौल जवाहरलाल नेहरू,हिंदुस्तानी ज़िंदगी में कितनी विविधता है और उसमें अलग-अलग कितने वर्ग, क़ौमें और पंथ हैं तथा संस्कृति विकास की कितनी अलग-अलग सीढ़ियां हैं, फिर भी समझता हूं कि उसकी आत्मा एक है. भारत में अनेक प्रकार के लोग रहते हैं. उनमें एकता भी है, लेकिन अनेकता बहुत है. आप असम से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक जाइए. आप कितना अंतर पाएंगे, भाषा में, खाने-पीने में, कप़डे-लत्ते पहनने में और सब बातों में, उसी के साथ आप संस्कृति की एक पक्की एकता भी पाएंगे, जो प्राचीन समय से चली आती है. भारत की जो असली संस्कृति है, वह दिमाग़ की है या मन की है, आध्यात्मिक है. इस वक़्त देश में जो सबसे ज़रूरी बुनियादी चीज़ है और जिसे हर कोई बुनियादी मानता है, वह है भारत की एकता.

हिन्द पॉकेट बुक्स ने हाल में जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियों की किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियां. किताब के संपादक राजवीर सिंह दार्शनिक ने विभिन्न मुद्दों पर जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियों को शामिल किया है. गंगा के बारे में जवाहर लाल नेहरू कहते हैं-गंगा तो भारत की प्राचीन सभ्यता की प्रतीक रही है, निशान रही है, सदा बदलती, सदा बहती, फिर वही गंगा की गंगा. मैंने सुबह की रौशनी में गंगा को मुस्कराते, उछलते-कूदते देखा है. और देखा है शाम के साये में उदास, काली-सी चादर ओढ़े हुए. यही गंगा मेरे लिए निशानी है भारत की प्राचीनता की, यादगार की, जो बहती आई है वर्तमान तक और बहती चली जा रही है भविष्य के महासागर की ओर.

पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर, 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था. देशभर में जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिन 14 नवम्बर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही वजह थी कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता है. वह पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी के इकलौते बेटे थे. उनसे छोटी उनकी दो बहनें थीं. उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्तराष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं. उनकी शुरुआती तालीम घर पर ही हुई. उन्होंने 14 साल की उम्र तक घर पर ही कई अंग्रेज़ शिक्षकों से तालीम हासिल की. आगे की शिक्षा के लिए 1905 में जवाहरलाल नेहरू को इंग्लैंड के हैरो स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहां से उन्होंने प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की. साल 1912 में उन्होंने लंदन के इनर टेंपल से वकालत की डिग्री हासिल की और उसी साल भारत लौट आए. उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी, लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. भारतीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी और वह सियासी कार्यक्रमों में शिरकत करने लगे. उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया लिया. 8 फ़रवरी, 1916 को कमला कौल से उनका विवाह हो गया. 19 नवंबर, 1917 को उनके यहां बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमंत्री बनीं. इसके बाद उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ,लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई.

पंडित जवाहरलाल नेहरू 1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए. 1921 के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गांधी के बेहद क़रीब में आ गए और गांधी जी की मौत तक यह नज़दीकी क़ायम रही. वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े, चाहे असहयोग आंदोलन हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन. उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत की. नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे. साल 1931 में पिता की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए. हालांकि 1942 तक गांधी जी ने अधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, लेकिन 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे. जब 15 अगस्त, 1947 को देश आज़ाद हुआ तो वह आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए. जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए. उन्होंने औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया. उन्होंने विज्ञान के विकास के लिए 1947 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की. देश के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं. खेलों में भी नेहरू की रुचि थी. उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी बताया. उन्होंने 1951 दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया. 1955 में उन्हें देश की सर्वोच्च उपाधि भारत रत्न से नवाज़ा गया. मगर देश को बहुत दिनों तक उनका साथ नहीं मिला. दिल का दौरा प़डने से 27 मई, 1964 में उनकी मौत हो गई. वह देश से बेहद प्यार करते थे. इसलिए उनकी वसीयत भी यही थी-मेरी भस्म उन खेत-खलिहानों में बिखेर दी जाए, जहां भारत के किसान अपना ख़ून-पसीना बहाते हैं, ताकि भस्म भारत माता की धूल और मिट्टी में मिलकर उसमें विलीन हो जाए.

पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि विख्यात लेखक भी थे. उनकी आत्मकथा दुनिया भर में सराही गई. उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद आदि शामिल हैं. वह भारतीय भाषाओं को काफ़ी महत्व देते थे. वह चाहते थे कि हिंदुस्तानी जब कहीं भी एक-दूसरे से मिले तो अपनी ही भाषा में बातचीत करें. उन्होंने कहा था-मेरे विचार में हम भारतवासियों के लिए एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा. मैं आपको कह सकता हूं कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है तो मुझे कितना बुरा लगता है. लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं?

वह कहते हैं-यूरोप और दूसरे देशों के लोग मानते हैं कि भारत में सैक़डों भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन उनकी यह धारणा ग़लत है. भारत की भाषाएं दो परिवारों में बांटी जा सकती हैं-पहला परिवार द्रव़िड भाषा का है, जिसमें तमिल, तेलुगू,कन्ऩड और मलयालम हैं और दूसरी भारतीय आर्य जाति की भाषा है, जो मूलरूप से संस्कृत है. हिंदी, बांग्ला, गुजराती और मराठी संस्कृत से निकली हैं. हां,बोलियां सैकड़ों हो सकती हैं. वह मानते थे कि किसी क़ौम के विकास और उसके बच्चों की शिक्षा का एकमात्र साधन उसकी अपनी भाषा ही है. भारत में आज हरेक चीज़ उलट- पुलट हो रही है और हम आपस में भी अंग्रेजी बहुत ज़्यादा प्रयोग कर रहे हैं. तुम्हें (इंदिरा प्रियदर्शिनी) अंग्रजी में लिखना मेरे लिए कितनी भद्दी बात है. फिर भी मैं ऐसा कर रहा हूं. लेकिन मुझे विश्वास है कि हम लोग जल्दी ही इस आदत से छुटकारा पा लेंगे.

वह एक ज़िंदादिल इंसान थे. उनका कहना था-हमें पूरा यक़ीन है कि सफलता हमारा इंतज़ार कर रही है और कभी न कभी हम उसे ज़रूर प्राप्त कर लेंगे. यदि पार करने के लिए ये रुकावटें न होतीं और जीतने के लिए ये लड़ाइयां न होतीं,तो जीवन नीरस और बेरंग हो जाता. जब हम ज़िंदगी में वर्तमान काल में जहां कि इतनी कशमकश है और हल करने के लिए इतने मसले हैं, एक जीती-जागती क़डी न क़ायम कर सकें, तब तक हम ज़िंदगी को ज़िंदगी नहीं कह सकते. असल में मेरी दिलचस्पी इस दुनिया में और इस ज़िंदगी में है, किसी दूसरी दुनिया या आने वाली ज़िंदगी में नहीं. आत्मा जैसी कोई चीज़ है भी या नहीं, मैं नहीं जानता. ज़िंदगी में चाहे जितनी बुराइयां हों, आनंद और सौंदर्य भी है और हम सदा प्रकृति की मोहिनी वनभूमि में सैर कर सकते हैं.

बहरहाल, आकर्षक कवर वाली यह किताब पाठकों ख़ासकर चाचा नेहरू के प्रशंसकों और राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को बहुत पसंद आएगी. किताब में एकाध जगह दोहराव है, जो पाठकों को कुछ अखर सकता है. फिर भी इसमें कोई शक नहीं कि यह किताब संग्रहणीय है.

समीक्ष्य कृति : जवाहरलाल नेहरू की सूक्तियां
संपादक : राजवीर सिंह दार्शनिक
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 110 रुपये


डॉ. फ़िरदौस ख़ान
देशभर में जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिन 14 नवम्बर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही वजह थी कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता था. एक बार चाचा नेहरू से मिलने एक सज्जन आए. बातचीत के दौरान उन्होंने नेहरू जी से पूछा- पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गए हैं,  लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, जबकि आपसे छोटा होते हुए भी मैं बूढ़ा दिखता हूं. नेहरू जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- इसके तीन कारण हैं.  पहला, मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूं. उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूं. इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूं. दूसरा, मैं प्रकृति प्रेमी हूं और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरनों, चांद, सितारों से बहुत प्यार करता हूं. मैं इनके साथ में जीता हूं, जिससे यह मुझे तरोताज़ा रखते हैं. तीसरी वजह यह है कि ज़्यादातर लोग हमेशा छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसके बारे में सोच-सोचकर दिमाग़ ख़राब करते हैं. मेरा नज़रिया अलग है और मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता. यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस पड़े.

पंडित जवाहरलाल नेहरू  का जन्म 14 नवम्बर 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था. वह पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी के इकलौते बेटे थे. उनसे छोटी उनकी दो बहनें थीं. उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं. उनकी शुरुआती तालीम घर पर ही हुई. उन्होंने 14 साल की उम्र तक घर पर ही कई अंग्रेज़ शिक्षकों से तालीम हासिल की. आगे की शिक्षा के लिए 1905 में जवाहरलाल नेहरू को इंग्लैंड के हैरो स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहां से उन्होंने प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की. साल 1912 में उन्होंने लंदन के इनर टेंपल से वकालत की डिग्री हासिल की और उसी साल भारत लौट आए. उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी, लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. भारतीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी और सियासी कार्यक्रमों में शिरकत करने लगे. उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया लिया. 8 फ़रवरी 1916 को कमला कौल से उनका विवाह हो गया. 19 नवंबर 1917 को उनके यहां बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमंत्री बनीं. इसके बाद उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ, लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई.

पंडित जवाहरलाल नेहरू  1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए. मगर 1929 में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे. इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य का ऐलान किया गया. इससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की मांग थी. वह जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की जांच में देशबंधु चितरंजनदास और महात्मा गांधी के सहयोगी रहे और 1921 के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गांधी के बेहद क़रीब में आ गए और गांधी जी की मौत तक यह नज़दीकी क़ायम रही. कांग्रेस पार्टी के साथ नेहरू का जुड़ाव 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के फ़ौरन बाद शुरू हुआ. उस वक़्त राष्ट्रवादी गतिविधियों की लहर ज़ोरों पर थी और अप्रैल 1919 को अमृतसर के नरसंहार के रूप में सरकारी दमन खुलकर सामने आया. स्थानीय ब्रिटिश सेना कमांडर ने अपनी टुकड़ियों को निहत्थे भारतीयों की एक सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया, जिसमें 379 लोग मारे गए और तक़रीबन बारह सौ लोग ज़ख़्मी हुए.

साल 1921 के आख़िर में जब कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुछ प्रदेशों में ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया,  तब पहली बार नेहरू जेल गए. अगले 24 साल में उन्हें आठ बार गिरफ्तार कर जेल भेजा गया. नेहरू ने कुल मिलाकर नौ साल से ज़्यादा वक़्त जेलों में गुज़ारा. अपने मिज़ाज के मुताबिक़ ही उन्होंने अपनी जेल-यात्राओं को असामान्य राजनीतिक गतिविधि वाले जीवन के अंतरालों के रूप में वर्णित किया है.  कांग्रेस के साथ उनका राजनीतिक प्रशिक्षण 1919 से 1929 तक चला. साल 1923 में और फ़िर 1927 में वह दो-दो साल के लिए पार्टी के महासचिव बने. उनकी रुचियों और ज़िम्मेदारियों ने उन्हें भारत के व्यापक क्षेत्रों की यात्रा का मौक़ा दिया, ख़ासकर उनके गृह प्रदेश संयुक्त प्रांत का,  जहां उन्हें घोर ग़रीबी और किसानों की बदहाली की पहली झलक मिली और जिसने इन महत्वपूर्ण समस्याओं को दूर करने की उनकी मूल योजनाओं को प्रभावित किया. हालांकि उनका कुछ-कुछ झुकाव समाजवाद की ओर था, लेकिन उनका सुधारवाद किसी निश्चित ढांचे में ढला हुआ नहीं था. 1926-27 में उनकी यूरोप और सोवियत संघ की यात्रा ने उनके आर्थिक और राजनीतिक चिंतन को पूरी तरह प्रभावित कर दिया.

वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े, चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो. उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत की. नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे. साल 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया. वह 1923 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए. गांधी जी ने यह सोचकर उन्हें यह पद सौंपा कि अतिवादी वामपंथी धारा की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं को नेहरू कांग्रेस आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल कर सकेंगे.

1931 में पिता की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए. हालांकि 1942 तक गांधी जी ने आधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, लेकिन 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे. मार्च 1931 में महात्मा और ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड इरविन (बाद में लॉर्ड हैलिफ़ैक्स) के बीच हुए गांधी-इरविन समझौते से भारत के दो प्रमुख नेताओं के बीच समझौते का आभास मिलने लगा. इसने एक साल पहले शुरू किए गए गांधी जी के प्रभावशाली सविनय अवज्ञा आंदोलन को तेज़ी प्रदान की, जिसके दौरान नेहरू को गिरफ़्तार किया गया. दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद लंदन से स्वदेश लौटने के कुछ ही वक़्त बाद जनवरी 1932 में गांधी को जेल भेज दिया. उन पर फिर से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की कोशिश का आरोप लगाया गया. नेहरू को भी गितफ़्तार करके दो साल की क़ैद की सज़ा दी गई.

भारत में स्वशासन की स्थापना की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलनों की परिणति आख़िरकार 1935 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के रूप में हुई, जिसके तहत भारतीय प्रांतों के लोकप्रिय स्वशासी सरकार की प्रणाली प्रदान की गई. इससे एक संघीय प्रणाली का जन्म हुआ, जिसमें स्वायत्तशासी प्रांत और रजवाड़े शामिल थे. संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन प्रांतीय स्वशासन लागू हो गया.

1930 के दशक के मध्य में नेहरू यूरोप के घटनाक्रम के प्रति ज़्यादा चिंतित थे, जो एक अन्य विश्व युद्ध की ओर बढ़ता प्रतीत हो रहा था. 1936 के शुरू में वह अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए यूरोप में थे. इसके कुछ ही वक़्त  बाद स्विट्ज़रलैंड के एक सेनीटोरियम में उनकी पत्नी की मौत हो गई. उस वक़्त भी उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि युद्ध की स्थिति में भारत का स्थान लोकतांत्रिक देशों के साथ होगा. हालांकि वह इस बात पर भी ज़ोर देते थे कि भारत एक स्वतंत्र देशों के रूप में ही ग्रेट ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन में युद्ध कर सकता है.
सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के बाद जब वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने स्वायत्तशासी प्रांतीय मंत्रिमंडलों से मशविरा किए बगैर भारत को युद्ध में झोंक दिया, तो इसके ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी के आलाकमान ने अपने प्रांतीय मंत्रिमंडल वापस ले लिए. कांग्रेस की इस कार्रवाई से राजनीति का अखाड़ा जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए साफ़ हो गया.

अक्टूबर 1940 में महात्मा गांधी जी ने अपने मूल विचार से हटकर एक सीमित नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का फ़ैसला किया, जिसमें भारत की आज़ादी के अग्रणी पक्षधरों को क्रमानुसार हिस्सा लेने के लिए चुना गया था. नेहरू को गिरफ़्तार करके चार साल की क़ैद की सज़ा दी गई. एक साल से कुछ ज़्यादा वक़्त तक ज़ेल में रहने के बाद उन्हें अन्य कांग्रेसी क़ैदियों के साथ रिहा कर दिया गया. इसके तीन दिन बाद हवाई में पर्ल हारबर पर बमबारी हुई. 1942 में जब जापान ने बर्मा के रास्ते भारत की सीमाओं पर हमला किया  तो इस नए सैनिक ख़तरे के मद्देनज़र ब्रिटिश सरकार ने भारत की तरफ़ हाथ बढ़ाने का फ़ैसला किया. प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को संवैधानिक समस्याओं को सुलझाने के प्रस्तावों के साथ भेजा. सर स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स  युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य और राजनीतिक रूप से नेहरू के नज़दीकी और मोहम्मद अली जिन्ना के परिचित थे. क्रिप्स की यह मुहिम नाकाम रही, क्योंकि गांधी जी आज़ादी से कम कुछ भी मंज़ूर करने के पक्ष में नहीं थे.

कांग्रेस में अब नेतृव्य गांधी जी के हाथों में था, जिन्होंने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ देने का आह्वान किया. 8 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस द्वारा भारत छोड़ो  प्रस्ताव पारित करने के बाद गांधी जी और नेहरू समेत पूरी कांग्रेस कार्यकारिणी समिति को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया. नेहरू 15 जून 1945 को रिहा हुए. लंदन में युद्ध के दौरान सत्तारूढ़ चर्चिल प्रशासन का स्थान लेबर पार्टी की सरकार ने ले लिया था. उसने अपने पहले कार्य के रूप में भारत में एक कैबिनेट मिशन भेजा और बाद में लॉर्ड वेवेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को तैनात कर दिया. अब सवाल भारत की आज़ादी का नहीं, बल्कि यह था कि इसमें एक ही आज़ाद राज्य होगा या एक से ज़्यादा होंगे. गांधी जी ने बटवारे को क़ुबूल करने से इंकार कर दिया, जबकि नेहरू ने मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए मौन सहमति दे दी. 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग आज़ाद देश बने. नेहरू आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए.

फिर 1952 में आज़ाद भारत में चुनाव हुए. ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को आधार मान कर बनाए गए भारतीय संविधान के तहत हुआ यह पहला चुनाव था, जिसमें जनता ने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल किया. इस चुनाव के वक़्त मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी, जिनमें से 15 फ़ीसद साक्षर थे. इस चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत से सत्ता में आई और पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने. इससे पहले वह 1947 में आज़ादी मिलने के बाद से अंतरिम प्रधानमंत्री थे. संसद की 497 सीटों के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए.  देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पहला चुनाव प्रचार भी यादगार है. कहा जाता है कि कांग्रेस का चुनाव प्रचार केवल नेहरू पर केंद्रित था. चुनाव प्रचार के लिए नेहरू ने सड़क, रेल, पानी और हवाई जहाज़ सभी का सहारा लिया. उन्होंने 25,000 मील का सफ़र किया यह सफ़र 18,000 मील हवाई जहाज़ से,  5200 मील कार से, 1600 मील ट्रेन से और 90 मील नाव से किया गया. ख़ास बात यह भी रही कि देशभर में 60  फ़ीसद मतदान हुआ और पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 364 सीटें मिली थीं.

नेहरू के वक़्त एक और अहम फ़ैसला भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का था. इसके लिए राज्य पुनर्गठन क़ानून-1956 पास किया गया. आज़ादी के बाद भारत में राज्यों की सीमाओं में हुआ, यह सबसे बड़ा बदलाव था. इसके तहत 14 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों की स्थापना हुई. इसी क़ानून के तहत केरल और बॉम्बे को राज्य का दर्जा मिला. संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया, जिसके तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा हासिल करने का अधिकार मिला.

1929 में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था,  तब से 35 बरसों तक 1964 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मौत तक नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेहरू का सितारा अक्टूबर 1956 तक बुलंदी पर था, लेकिन 1956 में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ हंगरी के विद्रोह के दौरान भारत के रवैये की वजह से उनकी गुटनिरपेक्ष नीति की जमकर आलोचना हुई. संयुक्त राष्ट्र में भारत अकेला ऐसा गुटनिरपेक्ष देश था, जिसने हंगरी पर हमले के मामले में सोवियत संघ के पक्ष में मत दिया. इसके बाद नेहरू को गुटनिरपेक्ष आंदोलन के आह्वान की विश्वनियता साबित करने में काफ़ी मुश्किल हुई. आज़ादी के बाद के शुरूआती बरसों में उपनिवेशवाद का विरोध उनकी विदेश-नीति का मूल आधार था, लेकिन 1961 के गुटनिरपेक्ष देशों के बेलग्रेड सम्मेलन तक नेहरू ने प्रति उपनिवेशवाद की जगह गुटनिरपेक्षता को सर्वोच्च प्राथमिकता देना शुरू कर दिया था. साल 1962 में लंबे वक़्त से चले आ रहे सीमा-विवाद की वजह से चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी घाटी पर हमले की चेतावनी दी. नेहरू ने अपनी गुटनिरपेक्ष नीति को दरकिनार कर पश्चिमी देशों से मदद की मांग की. नतीजतन चीन को पीछे हटना पड़ा. कश्मीर नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व काल में लगातार एक समस्या बना रहा, क्योंकि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान भी इस पर अपना दावा कर रहा था. संघर्ष विराम रेखा को समायोजित करके इस विवाद को निपटाने की उनकी शुरुआती कोशिशें नाकाम रहीं और 1948 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर क़ब्ज़े की कोशिश की. भारत में बचे आख़िरी उपनिवेश पुर्तग़ाली गोवा की समस्या को सुलझाने में नेहरू अधिक भाग्यशाली रहे. हालांकि दिसम्बर 1961 में भारतीय सेनाओं द्वारा इस पर क़ब्ज़ा किए जाने से कई पश्चिमी देशों में नराज़गी पैदा हुई, लेकिन नेहरू की कार्रवाई सही थी. हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा उस वक़्त बेमानी साबित हो गया, जब सीमा विवाद को लेकर 10 अक्टूबर 1962 को चीनी सेना ने लद्दाख़ और नेफ़ा में भारतीय चौकियों पर क़ब्ज़ा कर लिया. नवंबर में एक बार फिर चीन की ओर से हमले हुए. चीन ने एकतरफ़ा युद्धविराम का ऐलान कर दिया, तब तक 1300 से ज़्यादा भारतीय सैनिक शहीद हो चुके थे. पंडित नेहरू के लिए यह सबसे बुरा दौर साबित हुआ. उनकी सरकार के ख़िलाफ़ संसद में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया. चीन के साथ हुई जंग के कुछ वक़्त बाद नेहरू की सेहत ख़राब रहने लगी. उन्हें 1963 में दिल का हल्का दौरा पड़ा, फिर जनवरी 1964 में उन्हें दौरा पड़ा. कुछ ही महीनों बाद तीसरे दौरे में 27 मई 1964 में उनकी मौत हो गई.

जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए. उन्होंने औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया. उन्होंने विज्ञान के विकास के लिए 1947  में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की. देश  के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं. खेलों में भी नेहरू की रुचि थी. उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी बताया. उन्होंने 1951 दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया.

पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि विख्यात लेखक भी थे. उनकी आत्मकथा 1936  में प्रकाशित हुई और दुनियाभर में सराही गई. उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद आदि शामिल हैं. वह भारतीय भाषाओं को काफ़ी महत्व देते थे. वह चाहते थे कि हिन्दुस्तानी जब कहीं भी एक-दूसरे से मिले तो अपनी ही भाषा में बातचीत करें. उन्होंने कहा था-मेरे विचार में हम भारतवासियों के लिए एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा. मैं आपको कह सकता हूं कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है  तो मुझे कितना बुरा लगता है. लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं?

पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने विचारों और अपने उल्लेखनीय कार्यों की वजह से ही महान बने. विभिन्न मुद्दों पर नेहरू के विचार उन्हीं के शब्दों में- भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों पीड़ितों की सेवा है. इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान और अवसर की विषमता का अंत करना है. हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा रही है कि हर आंख के हर आंसू को पोंछ दिया जाए. ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू हैं और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा.

नेहरू जी ने कहा था- अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से आज का बड़ा सवाल विश्व शांति का है. आज हमारे लिए यही विकल्प है कि हम दुनिया को उसके अपने रूप में ही स्वीकार करें. हम देश को इस बात की स्वतंत्रता देते रहें कि वह अपने ढंग से अपना विकास करे और दूसरों से सीखे, लेकिन दूसरे उस पर अपनी कोई चीज़ नहीं थोपें. निश्चय ही इसके लिए एक नई मानसिक विधा चाहिए. पंचशील या पांच सिद्धांत यही विधा बताते हैं.

नेहरू जी ने कहा था- आप में जितना अधिक अनुशासन होगा, आप में उतनी ही आगे बढ़ने की शक्ति होगी. कोई भी देश, जिसमें न तो थोपा गया अनुशासन है, और न आत्मा-अनुशासन-बहुत वक़्त तक नहीं टिक सकता.
बेशक, नेहरू के विचार आज भी बेहद प्रासंगिक हैं. बस ज़रूरत है उनको अपनाने की. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)


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