प्रदीप श्रीवास्तव
कई लोगों को याद भी नहीं होगा कि आखिरी बार गौरया कब देखा था, नई पीढी के बच्चों ने तो केवल अपनी पाठ्य पुस्तकों में ही पढ़ा होगा, वह भी गौरया नहीं, अंग्रेजी में स्पैरो शब्द से ही जानते होंगे. जानेंगे भी कैसे, महानगरों की बात छोड़ें. अब तो छोटे शहरों के साथ-साथ कस्बों में भी बन रही अपार्टमेंटों के अलावा ध्वनि प्रदूषण के चलते नन्हीं सी खूबसूरत जान घबरा कर गायब हो गईं हैं. कंकरीटों के जंगल के बीच ज़रूर शहरों के सौन्दर्य में चार-चांद लग गए हों, लेकिन सच्चाई यह है कि कंकरीट के इस जंगल में पेड़ गायब होते जा रहे हैं या यूं कहें कि गायब होते पेड़ों के चलते इन गौरया का बसेरा काम हो गया है. महानगरों की भागम-भाग की जिंदगी के बीच वाहनों की चकाचौंध एवं ध्वनि प्रदूषण के चलते लोगों में इतना समय नहीं है कि वे इन नन्ही जान को दाना पानी दें सके.
लगभग दो दशक पीछे चलें तो याद आएगा कि किस तरह यह घरेलू चिड़िया गौरया की चहचाहट से घर वालों की नींद खुलते ही, दादी हों या नानी वे अपने हाथों में झाडू लेकर घर के बड़े आंगन को बुहारने लगाती थीं. आंगन साफ होते ही गौरया का झुंड चीं-चीं करता आंगन में उतर आता, जिन्हें देखकर हम छोटे-छोटे बच्चे किलकारी भरते हुए उन्हें पकड़ने का प्रयास करते, लेकिन वे नन्ही जान फुदककर दूर जा बैठती. याद करें कि तब सुबह का आभास सूर्योदय से पहले इन गौरय्या की चहचाहट या फिर कोवे के कांव-कांव से होता था, जिनकी आवाज सुनकर लोग अपना बिस्तर छोड़ देते थे. अब उन आवाजों वा चहचाहट की जगह ले ली है मोबाईल की टोन ने. आखिर क्यों, क्योंकि उनकी चहचाहट हम-आपने छीन ली है. क्योंकि कटते पेड़, बढ़ते प्रदूषण के चलते यह नन्ही जान गौरया हमसे रूठ गई है. अब कहां सुनाई देता है इनका कलरव. इनका रूठ जाना भी जायज है. हम अपनी आधुनिक जीवन शैली में इतने स्वार्थी हो गए हैं कि हमें उनके जीवन की परवाह ही नहीं रही.
याद करें तब मकानों की ऊंची-ऊंची दीवारें होती थीं, जिन पर रोशनी व हवा आदि आने के लिए रोशनदान बने होते थे, जिन पर वे तिनका-तिनका जोड़कर अपना घोंसला बनातीं. फिर उसमें अंडा देतीं, जिसका वे कितना ख्याल रखतीं. हम छोटे भाई-बहन कभी-कभी उनके घोसलों से अंडे हटा देते. जब वे वापस लौटती तो घोंसले अपने अंडों को न देखकर कितनी तेज चीं-चीं करतीं, जिसे सुनकर मां, नानी और दादी हम लोगों पर कितना गुस्सा करतीं . जब हम अंडे वापस रख देते, तो वे उन्हें देखकर कितनी खुश होतीं थी. इस बात का पता आज चलता है, जब हम अपने बच्चों को कुछ समय बाद देखते हैं. आज जो घर बन रहे हैं उनमें आदमी के लिए ही जगह नहीं होती, तो वहां पर पक्षी अपना घरौंदा कहां बना सकते हैं. जो जगह बनाते भी हैं तो वहां पर शीशे या फिर लोहे की जाली लगवा देते हैं.
कहने का मतलब आज हम अपने घरौंदों के बनवाने के फेर में इन नन्ही जान के घरोंदों को छीनते जा रहे हैं. आखिर वे जाएं तो जाएं कहां? कालोनियों में पार्क तो बन रहे हैं, लेकिन वहां पर पेड़ों की जगह लोहे के खेलने के उपकरण लग गए हैं. शहर ही नहीं गांवों की हालत बुरी हो चली है. खेतों कीटनाशक डालने से मरे कीट गौरया के खाने के लायक नहीं रहे. पहले घरों के आंगन में बच्चों द्वारा खाना खाते वक्त आधा खाते आधा गिराते थे. अब वह भी नहीं रहा. बच्चे घर की चारदिवारी के भीतर डायनिंग टेबल पर खाते हैं, तो फिर जूठन कहां निकलेगा, जिसे चिड़िया चुग सकेगी.
बात केवल गौरया की ही नहीं है. अब न तो कोवे दिखाई देते हैं न ही गौरया की सहेली मैना ही दिखती है. न ही कोयल की कू- कू सुनाई देती है. तोते की बात ही न करें तो बेहतर होगा.
आखिर यह सब क्यों, इसीलिए न कि हम सब प्रकृति से खुलकर खिलवाड़ जो करने लगे हैं इसका फल भी तो हमें आप को ही भुगतना पड़ेगा. यह समस्या केवल भारत कि ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की है. इसके लिए हमें और आप को ही पहल करनी होगी. तभी हम अपने पशु-पक्षियों को बचा सकेंगे, नहीं तो ये सब भी इतिहास के पन्नों में अंकित हो कर रह जाएंगे.