जगदीश्वर चतुर्वेदी
आदिवासी समस्या राष्ट्रीय समस्या है। भारत की राजनीति में आदिवासियों को
दरकिनार करके कोई राजनीतिक दल नहीं रह सकता। एक जमाना था आदिवासी हाशिए पर थे लेकिन
आज केन्द्र में हैं। आदिवासियों की राजनीति के केन्द्र में आने के पीछे प्रधान कारण
है आदिवासी क्षेत्रों में कारपोरेट घरानों का प्रवेश और आदिवासियों में बढ़ती
जागरूकता। आदिवासियों के प्रति वामपंथी दलों का रूख
कांग्रेस और भाजपा के रुख से
बुनियादी तौर पर भिन्न है। वामपंथी दलों ने आदिवासियों को कभी भी आदिवासी बनाए
रखने, वे जैसे हैं वैसा बनाए रखने की कोशिश नहीं की है। वामपंथी दलों ने आदिवासियों
को साम्राज्यवादी विचारकों द्वारा दी गयी घृणित पहचान से मुक्त किया है। उन्हें
मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठा दी है। यह कार्य उनके मानवाधिकारों की रक्षा करते हुए
किया है। आदिवासियों को वे
सभी सुविधा और सुरक्षा मिले जो देश के बाकी नागरिकों
को मिलती हैं। आदिवासियों का समूचा सांस्कृतिक तानाबाना और जीवनशैली वे जैसा चाहें
रखें,राज्य की उसमें किसी भी किस्म के हस्तक्षेप की भूमिका नहीं होगी,इस प्रक्रिया
में भारत के संविधान में संभावित रूप में जितना भी संभव है उसे आदवासियों तक
पहुँचाने में वामपंथियों की बड़ी भूमिका रही है। आदिवासियों को आतंकी या
हथियारबंद
करके उनके लिए लोकतांत्रिक स्पेस तैयार नहीं किया जा सकता।
लोकतांत्रिक स्पेस तैयार करने के लिए आदिवासियों के बीच लोकतांत्रिक संस्थाओं और
लोकतांत्रिक कानूनों क पालन और प्रचार-प्रसार पर जोर देना होगा। आदिवासियों के लिए
लोकतंत्र में जगह तब ही मिलेगी जब उन्होंने लोकतांत्रिक ढ़ंग से लोकतान्त्रिक
समस्याओं पर गोलबंद किया है। लोकतंत्र की बृहत्तर प्रक्रिया का उन्हें
हिस्सा
बनाया जाए। आदिवासियों के लिए बंदूक की नोंक पर लाई गई राजनीति आपराधिक कर्म को
बढ़ावा देगी। उन्हें अपराधी बनायेगी। साम्राज्यवादी विचारकों के आदिवासियों को
अपराधी की कोटि में रखा। इन दिनों आदिवासियों को तरह-तरह के बहानों से मिलिटेंट
बनाने,जुझारू बनाने,हथियारबंद करने,पृथकतावादी बनाने,सर्वतंत्र-स्वतंत्र बनाने के
जितने भी प्रयास उत्तर-पूर्व के राज्यों से लेकर
छत्तीसगढ़-लालगढ़ तक चल रहे हैं
,वे सभी आदिवासियों को अपराधकर्म में ठेल रहे हैं। अंतर यह है कि उसके ऊपर राजनीति
का मुखौटा लगा हुआ है। आदिवासी को मनुष्य बनाने की बजाय मिलिटेंट बनाना
सामाजिक-राजनीतिक अपराध है।
हमें इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि आदिवासी इलाकों में ही उग्रवाद क्यों
पनपा है ? कांग्रेस के नेताओं और भारत सरकार के गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् के पास
उग्रवाद की समस्या का एक ही समाधान है वह है आदिवासी इलाकों में विकास और पुलिस
कार्रवाई। इसी एक्शन प्लान पर ही सारा मीडिया और कारपोरेट जोर दे रहा है। इस एक्शन
प्लान को आदिवासी समस्या के लिए रामबाण दवा कहा जा रहा है। केन्द्र
सरकार ने इस
दिशा में कदम उठाते हुए कुछ घोषणाएं भी की हैं। लेकिन यह प्लान बुनियादी तौर पर
अयथार्थपरक है। इस प्लान में आदिवासियों का उनकी जमीन से उच्छेद रोकना, उनके
क्षेत्र के संसाधनों का स्वामित्व,विस्थापन और उनके पीढ़ियों के जमीन के स्वामित्व
की बहाली की योजना या कार्यक्रम गायब है। मनमोहन-चिदम्बरम् बाबू जिस तरह का लिकास
करना चाहते हैं उसमें आदिवासियों का विस्थापन
अनिवार्य है। समस्या यहां पर है कि
क्या केन्द्र सरकार विकास का मॉडल बदलना चाहती है ? जी नहीं, केन्द्र सरकार विकास
का नव्य-उदार मॉडल जारी रखना चाहती है। आदिवासियों की उनकी जमीन से बेदखली जारी
रखना चाहती है, ऐसे में आदिवासियों के सड़कें,स्कूल-कॉलेज,रोजगार के सपने देकर शांत
नहीं किया जा सकता। विकास के मनमोहन मॉडल में विस्थापन अनिवार्य और अपरिहार्य है।
ऐसी अवस्था में
आदिवासियों के बीच में विकास और पुलिस एक्शन का प्लॉन पिटेगा।
आदिवासियों का प्रतिवाद बढ़ेगा। दूसरी बात यह कि विस्थापन का विकल्प मुआवजा नहीं
है। मुआवजा ज्यादा हो या कम इससे भी आदिवासियों का गुस्सा शांत होने वाला नहीं है।
इस प्रसंग में सबसे बुनियादी परिवर्तन यह करना होगा कि आदिवासियों के इलाकों पर
उनका ही स्वामित्व रहे। क्रेन्द्र या राज्य सरकार का आदिवासियों की जमीनऔर जंगल पर
स्वामित्व संवैधानिक तौर पर खत्म करना होगा।
आदिवासियों के सामने इस समय दो तरह
की चुनौतियां हैं, पहली चुनौती है आदिवासियों के प्रति उपेक्षा और विस्थापन से
रक्षा करने की और उसके विकल्प के रूप में परंपरागत संस्थाओं और आदिवासी एकजुटता को
बनाए रखने की। दूसरी चुनौती है नयी परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल बदलने और
लदनुरूप अपने संस्कारों,आदतों और कानूनों में बदलाव लाने की। आदिवासियों पर कोई भी
परिवर्तन यदि बाहर
से थोपा जाएगा तो वे प्ररोध करेंगे। आदिवासियों का प्रतिरोध
स्वाभाविक है। वे किसी भी चीज को स्वयं लागू करना चाहते हैं। यदि केन्द्र सरकार
उनके ऊपर विकास को थोपने की कोशिश करेगी तो उसमें अंततः असफलता ही हाथ लगेगी।
आदिवासी अस्मिता की धुरी है स्व-संस्कृति प्रेम, आत्मनिर्णय और आत्म-सम्मान में
विश्वास।