'बस-अंत' हो ये
विषाद मन का
हर्ष का संचरण हो
'ऋत' व 'संत' - सी
प्रौढ़ता में,
बाल-पन का स्फुरण हो|
प्रणय का हो शुभ निवेदन
रास का उल्लास हो
'वसन तो' श्रृंगार का
पर वासना का ह्रास हो
स्वर्ण के प्रतिबिम्ब सम
जब खेत अपने पीत हों
श्रम सफलता देख कर जब
नृत्य और संगीत हो
प्रेम-बाण से बिंध जग जब
मिलन को तैयार हो,
और मन में अकारण ही
चपलता का वार हो
साथ में माँ शारदा की
कृपा का गुणगान हो,
तब वसंत के आगमन का
पूर्णता से भान हो|
-अरुण सिंह