फ़िरदौस ख़ान
हिंदुस्तान में अनेक भक्त कवि हुए हैं, जिन्होंने भक्ति-रस में सराबोर होकर अपनी रचनाओं से भक्ति की गंगा प्रवाहित की. इन्हीं में से एक हैं मीरा. मीरा कृष्ण की दीवानी थीं. वे कृष्ण को दिल ही दिल में अपना पति मानती थीं, क्योंकि बचपन में उनकी मां ने कृष्ण की मूर्ति की तरफ़ इशारा करते हुए उनसे कहा था, यह है तेरा वर. हालांकि उनकी मां ने बाल हठ को देखते हुए बेटी की जिज्ञासा शांत करने के मक़सद से ऐसा कहा था, लेकिन तभी से मीरा के बाल मन ने कृष्ण को अपना पति मान लिया और वे उम्र भर कृष्ण के प्रेम में आकंठ डूबी रहीं. वे भक्ति-काल की अद्‌भुत कवियित्री थीं. उनके पद जनमानस में बेहद प्रिय हैं. कृष्ण भक्त मीरा की पदावली बड़े भक्ति-भाव से गाते हैं. उन्होंने अनेक कष्ट सहे, लेकिन फिर भी कृष्ण के गुन गाती रहीं.

हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब मीरा में कृष्ण दीवानी मीरा की संक्षिप्त जीवनी के साथ उनकी प्रसिद्ध रचनाओं को शामिल किया गया है. किताब का संपादन किया है सुदर्शन चोपड़ा ने. किताब की ख़ास बात यह है कि इसमें मीरा की जीवनी अंधविश्वास पर आधारित न होकर तथ्यों के साथ आगे ब़ढती है. जैसे किताब में बताया गया है कि मीरा सागर की अथाह गहराई में समा गई थीं. ग़ौरतलब है कि तक़रीबन बारह साल की उम्र में उनका विवाह चित्तौ़ड़ के नरेश राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था. मीरा विवाह नहीं करना चाहती थीं. उन्होंने अपने मुंहबोले भाई जयमल से भी विनती की कि वे उनके परिजनों को समझाएं कि मीरा विवाह नहीं करना चाहती हैं. जयमल ने मीरा की बात परिवार के दूसरे सदस्यों तक पहुंचाई, लेकिन किसी ने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया. मीरा का विवाह कर दिया गया. ससुराल पहुंचने पर मीरा ने भोजराज को अपना पति मानने से इंकार कर दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी सास से भी कह दिया कि वे अपने कृष्ण कन्हैया के सिवा किसी अन्य देवी-देवता को नहीं मानतीं.
सीस नवै मम श्री गिरिधारिसिंह
आन न मानत, नाथ वही है
मीरा से नाराज़ होकर उनके ससुराल वालों ने उन्हें एकांतवास दिया, लेकिन मीरा को लगा कि उन्हें दंड नहीं, बल्कि वरदान मिल गया है. वे पति के संग की भावी पी़डा से छुटकारा पा गईं और अपने सांवरिया के संग एकांतवास का सुख मिल गया. व़क्त बीतता रहा. मीरा की वाणी में छंदों के बंध खुल-खुलकर बिखरने लगे. उनके सुरीले कंठ से निकलने वाले मधुर गीतों से कक्ष गूंज उठा. वह अपने सांवरे के समक्ष झूम-झूमकर नाचतीं और घर-परिवार सब भूल जातीं. बस एक वे थीं और एक था उसका सांवरिया. कृष्ण के सिवा दूसरा कोई भी उनका नहीं रह गया था. रह-रहकर उनके मुख से यह गीत फूट प़डता.
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई

भोजराज की मौत के बाद उसके शव के साथ मीरा पर सती होने के लिए दबाव डाला गया, लेकिन उन्होंने सती होने से साफ़ मना कर दिया. मीरा का कहना था-
मीरा के रंग लाग्यौ हो नाम हरि
और रंग अंटकि परी
गिरधर गास्यां सती न होस्यां
मन मोह्यो धननामी
हालांकि सास ने ख़ूब ताने मारे, ननद ने उलाहना दिया, लेकिन ससुर चुप रहे, हालांकि देवर रत्नसिंह ने मीरा का साथ दिया. जैसे-जैसे वक़्त बीतने लगा, मीरा के प्रति घरवालों की कु़ढ़न भी ब़ढती गई. कई बार मीरा की हत्या करने की कोशिश भी की गई. कभी पिटारी में सांप भेजा गया, तो कभी विष का प्याला भेजा गया, लेकिन कोई भी अंतत: मीरा का कुछ नहीं बिगा़ड़ पाया. वे साधु-संतों को एकत्र करतीं और हरि भजन गातीं-
पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे
मैं तो अपने नारायण की
आपहिं हो गई दासी रे
लोग कहें मीरा भई बावरी
सासु कहे कुल नासी रे
पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे
विष का प्याला राणा जी भेज्या
पीवत मीरा हांसी रे
मीरा के प्रभु गिरधर नागर
सहज मिले अविनासी रे
पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे

अपने ख़िलाफ़ होने वाली साज़िशों से तंग आकर आख़िरकार मीरा ने चित्तौ़ड़ छोड़ने का फ़ैसला कर लिया. अपनी बचपन की सखी ललिता के साथ पहले वे मेड़ता गईं, लेकिन वहां ज़्यादा दिन नहीं रह सकीं. ताऊ वीरमदेव और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ उन्हें अजमेर जाना प़डा. यहां भी वह एक साल ही रह पाईं. इसके बाद उन्होंने वृंदावन की राह पकड़ी. यहां वे प्रसिद्ध विद्वान और कृष्ण भक्त जीव गोस्वामी से मिलने गईं, लेकिन उन्होंने यह कहकर मीरा से मिलने से इंकार कर दिया कि उन्होंने स्त्री-मुख नहीं देखने की प्रतिज्ञा कर रखी है. इस पर मीरा ने संदेशवाहक से स्पष्ट कहा, जाकर कह दो गुस्सांईंजी से कि वृंदावन में तो मैं सबको सखी रूप में ही जानती हूं. यहां एक ही पुरुष है और वह है गिरिधर गोपाल. पर यह आज पता चला कि गिरिधर गोपाल का एक और पट्टीदार भी है यहां.
संदेश सुनकर गुस्सांईंजी बेहद शर्मसार हुए और ख़ुद बाहर आकर उन्होंने मीरा का स्वागत किया. वृंदावन में कुछ दिन रहने के बाद वे ललिता को लेकर द्वारिका चली गईं और समुद्र तट पर बने रणछोड़जी के प्रसिद्ध मंदिर में रहने लगीं. यहां आकर उन्हें लगा कि बस यही द्वार है प्रिय के उस कक्ष का, जो उनका वास्तविक गंतव्य है. लगा कि बस यही अंतिम पड़ाव है मेरी लंबी भटकन भरी यात्रा का. मीरा की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैलने लगी. अकबर बादशाह भी सुर सम्राट तानसेन के साथ उनसे मिलने आए. मीरा की प्रसिद्धि की ख़बर पाकर राणा ने उन्हें वापस बुलाने के लिए राज पुरोहित के नेतृत्व में ब्राह्मणों का एक दल द्वारिका भेजा, लेकिन मीरा ने वापस जाने से इंकार कर दिया. इस पर ब्राह्मणों ने आमरण अनशन शुरू कर दिया. ललिता ने मीरा को समझाया कि अगर किसी की जान चली गई, तो उनके सिर पर पाप चढ़ेगा. मगर मीरा किसी भी हालत में वापस जाने को तैयार नहीं थीं. वे मंदिर के पश्चिमी प्रांगण के अंतिम छोर पर पहुंचीं और समुद्र में छलांग लगा दी. इसके बाद ललिता भी सागर में समा गई.

क़ाबिले-ग़ौर है कि मीरा की मौत के बारे में जितने भी साक्ष्य मिलते हैं, उन सबमें यही कहा गया है कि वे द्वारिका के रणछोड़जी के मंदिर की मूर्ति में सशरीर समा गई थीं. लोकगीतों का साक्ष्य है-
जाय द्वारिका घर-घर ढूंढी मंदिर सूं न टली 

दरअसल, मीरा के युग के ही चैतन्य महाप्रभु का अंत भी जल में डूबकर ही हुआ था. उनका शव संयोग से एक मछुआरे के जाल में उलझ गया, हालांकि उसमें विकृति आ गई थी, लेकिन शिष्यों ने उसे पहचान लिया. अगर उनका शव न मिलता, तो उनके भी सशरीर परलोक-गमन की कथा बन जाती. यह हक़ीक़त है कि मीरा का शव नहीं मिला, इसलिए श्रद्धावान भक्त-हृदयों ने यह बात कहकर संतोष कर लिया कि वे रणछोड़जी में समा गई हैं.

बहरहाल, किताब की भाषा सरल है. इसका आवरण भी आकर्षक है. दरअसल, हिन्द पॉकेट बुक्स ने भक्त कवियों की एक पूरी श्रृंखला प्रकाशित की है. यह किताब उसी श्रृंखला का एक हिस्सा है. इस तरह श्रृंखला प्रकाशित करने से पाठकों को भक्त कवियों से संबंधित किताबें एक जगह मिल जाती हैं.

समीक्ष्य कृति : मीरा
संपादन : सुदर्शन चोपड़ा
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 95 रुपये

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