फ़िरदौस ख़ान
रबीन्द्रनाथ ठाकुर को आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है. वे बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे. वे एशिया के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता हैं, जिन्हें 1913 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इतना ही नहीं, वे एकमात्र ऐसे कवि हैं, जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं. भारत का राष्ट्रगान जन गण मन और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही रचनाएं हैं. ग़ौरतलब है कि उनका जन्म 7 मई, 1861 को कोलकाता के जो़डासांको ठाकुरबा़डी में हुआ था. उनकी शुरुआती शिक्षा सेंट ज़ेवियर स्कूल में हुई. इसके बाद 1878 में उन्होंने इंग्लैंड के ब्रिजटोन पब्लिक स्कूल में दाख़िला ले लिया. फिर उन्होंने लंदन कॉलेज विश्वविद्यालय में क़ानून का अध्ययन किया, लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए. दरअसल, बहुमुखी प्रतिभा के धनी रबीन्द्रनाथ का बचपन से ही कला के प्रति रुझान था और कविताएं और कहानियां लिखना उन्हें बेहद पसंद था. हालांकि उनके पिता देबेंद्रनाथ ठाकुर यही चाहते थे कि उनका बेटा पढ़-लिखकर वकील बने, लेकिन रबीन्द्रनाथ का मन कला और साहित्य को कब का समर्पित हो चुका था. आख़िरकार पिता को बेटे की ज़िद के आगे झुकना ही पड़ा और उन्होंने रबीन्द्रनाथ पर घर-परिवार की ज़िम्मेदारियां डाल दीं. 1883 में मृणालिनी देवी से उनका विवाह हुआ.
गौरतलब है कि रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने बहुत कम उम्र में लिखना शुरू कर दिया था. उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में महज़ सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी. उनकी शुरुआती रचनाओं में बनफूल और कवि काहिनी उल्लेखनीय हैं. किड़ओ कोमल, प्रभात संगीत, छबि ओ गान, मानसी में उनकी काव्य शैली का विकास सा़फ़ झलकता है. इसी तरह सोनार तरी नामक काव्य संग्रह में विश्व जीवन की आनंद चेतना का पहला स्वर फूटता है, जो चित्रा में बुलंदी तक पहुंचता है. उसी वक़्त नैवेद्य काव्य संग्रह में भक्ति के प्रति उनकी व्याकुलता नज़र आती है, जो बाद में गीतांजलि में और भी तीव्र हो उठती है. ब्रिटिश सरकार ने 1913 में उन्हें नाइटहुड की उपाधि से सम्मानित किया था, लेकिन जलियांवाला बाग़ के नरसंहार से मर्माहत होकर उन्होंने यह उपाधि वापस कर दी. 1916 में उनका काव्य संग्रह श्लाका प्रकाशित हुआ. इसके बाद पलातक, पूरबी, प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका, पत्रपुट, आरोग्य, शेषलेखा आदि काव्य संग्रह प्रकाशित हुए और ख़ूब सराहे भी गए. रबीन्द्रनाथ ठाकुर पारंपरिक बंधनों से मुक्त होकर सृजन करने में विश्वास करते थे. उन्होंने पद्य की तरह गद्य की रचना भी बचपन से ही शुरू कर दी थी. उनके निबंध उनके शिल्प कार्य केबेहतरीन उदाहरण हैं. इनमें विचारों की गंभीरता के साथ भाषा शैली भी उत्कृष्ट है. उनका श्रेष्ठ गद्य ग्रंथ जीवनस्मृति है, जिसमें जीवन के अनेक चित्र अंकित हैं. उन्होंने 1888 में आधुनिक बांग्ला साहित्य में छोटी कहानी का सृजन करके एक नई विधा की शुरुआत की, जिसे बाद में कई साहित्यकारों ने अपनाया.
1884 में उनका पहला उपन्यास करुणा प्रकाशित हुआ. उनके प्रसिद्ध उपन्यासों में चोखेर बाली, नौका डूबी, गोरा, घरे-बाइरे आदि उल्लेखनीय हैं. नाटक के क्षेत्र में भी उन्होंने बेहतरीन काम किया. बाल्मीकि प्रतिभा और मायेर खेला उनके शुरुआती गीतिनाट्य हैं. राजा ओ रानी, विसर्जन और चित्रांगदा में उनकी उत्कृष्ट नाट्य प्रतिभा के दर्शन होते हैं. उनका सांकेतिक नाटक रक्तकरबी उनकी श्रेष्ठ कृतियों में से एक है. काव्य, स्वर, नाट्य और नृत्य से सजा उनका नाटक नटीर पूजा, श्यामा आदि भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं. शारदोत्सव, राजा, अचलायतन और फाल्गुनी भी उनके प्रसिद्ध नाटकों में शामिल हैं. उन्होंने तक़रीबन 2230 गीतों की भी रचना की, जो रबीन्द्र संगीत के नाम से जाने जाते हैं. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित उनके ये गीत ज़िंदगी के विभिन्न रंगों को अपने में समेटे हुए हैं.
रबीन्द्रनाथ ठाकुर सियालदह और शजादपुर स्थित अपनी पैतृक संपत्ति की देखभाल के लिए 1891 में पूर्वी बंगाल (बांग्लादेश) आ गए और तक़रीबन दस साल तक यहीं रहे. उन्होंने यहां के जनमानस के सुख-दुख को बेहद क़रीब से देखा और अपनी रचनाओं में उसका मार्मिक वर्णन भी किया, जिसे उनकी कहनानियों दीन-हीनों और छोटे-मोटे दुख में महसूस किया जा सकता है. वे प्रकृति प्रेमी थे, इसलिए वे चाहते थे कि विद्यार्थी प्रकृति के बीच रहकर अध्ययन करें. इसी मक़सद से 1901 में उन्होंने सियालदह छोड़ दिया और उसी साल शांति निकेतन नामक एक विद्यालय की स्थापना की, जो 1921 में विश्व भारतीय विश्वविद्यालय बन गया. उनकी रचनाओं में आसमान, सूरज, चांद, सितारे, बरसात, बलखाती नदियां, पेड़ और लहलहाते खेतों का मनोहारी चित्रण मिलता है. उनकी रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद भी हुआ और वे देश-विदेश में मशहूर हो गए. रबीन्द्रनाथ के जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए. 1902 और 1907 के बीच उनकी पत्नी और उनके दो बच्चों की मौत हो गई. इस दुख से उबरने के लिए उन्होंने अपना सारा वक़्त काम में लगा दिया. एक वक़्त ऐसा भी आया, जब शांति निकेतन की आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब हो गई. धन संग्रह के लिए गुरुदेव ने नाटकों का मंचन शुरू कर दिया. उस वक़्त महात्मा गांधी ने उन्हें साठ हज़ार रुपये का चेक दिया था. कहा जाता है कि रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने ही गांधी जी को महात्मा का विशेषण दिया था. ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त में उन्होंने चित्र बनाना शुरू किया. यहां भी उन्होंने ज़िंदगी के तमाम रंगों को कैनवास पर उकेरा. उनके चित्र भी उनकी अन्य कृतियों की तरह दुनिया भर में सराहे गए. हालांकि उन्होंने चित्रकला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी, बावजूद इसके उन्होंने ब्रुश, रूई और अपनी उंगलियों को रंग में डुबोकर कैनवास पर मन के भावों को उकेर दिया.
रबीन्द्रनाथ ठाकुर की मौत 7 अगस्त, 1941 को कलकत्ता में हुई. भले ही आज यह महान कलाकार हमारे बीच नहीं है, लेकिन अपनी महान रचनाओं के कारण वे हमेशा याद किए जाते रहेंगे. वे कहा करते थे, विश्वास वह पक्षी है, जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है.