फ़िरदौस ख़ान
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ अपनी क्रांतिकारी रचनाओं के लिए जाने जाते हैं. नोबेल पुरस्कार के लिए नामित फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर साम्यवादी होने और इस्लाम के उसूलों के ख़िलाफ़ लिखने के भी आरोप लगते रहे. उनका जन्म 11 फ़रवरी, 1911 को पाकिस्तान के स्यालकोट शहर में हुआ था. उनके पिता वकील थे. रिवायत के मुताबिक़, उनकी शुरुआती तालीम उर्दू, अरबी और फ़ारसी में हुई. इसके बाद उन्होंने स्कॉटिश मिशन स्कूल और लाहौर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की. उन्होंने 1933 में अंग्रेज़ी और 1934 में अरबी में एमए किया. कुछ वक़्त तक उन्होंने अमृतसर के एमएओ कॉलेज में बतौर लेक्चरर काम किया. मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर 1936 में वह प्रगतिवादी लेखक संघ से जुड़ गए. उन्होंने उस वक़्त मार्क्सवादी नेता सज्जाद ज़हीर के साथ मिलकर प्रगतिवादी लेखक संघ की पंजाब शाखा की स्थापना की. 1938 से 1946 तक उन्होंने उर्दू साहित्यिक मासिक अदब-ए-लतीफ़ का संपादन किया. 1941 में उनके छंदों का पहला काव्य संकलन नक़्श-ए-फ़रियादी प्रकाशित हुआ, जो बेहद सराहा गया. 1952 में दस्त-ए-सबा, 1956 में ज़िंदानामा, 1964 में दस्ते-तहे-संग, 1971 में सरे-वादिए-सीना, 1978 में शाम-ए-शहर-ए-यारां, 1980 में मेरे दिल मेरे मुसाफिर प्रकाशित हुआ, जबकि ग़ुबार-ए-अय्याम (दिनों की गर्द) उनकी मौत के बाद प्रकाशित हुआ. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने गद्य रचनाएं भी कीं. 1963 में उनके लेखों का संग्रह मीज़ान प्रकाशित हुआ. 1971 में सलीबें मेरे दरीचे प्रकाशित हुआ, जो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ द्वारा पत्नी को लिखे गए ख़तों का संग्रह है. 1973 में उनके भाषणों, लेखों और साक्षात्कारों का संग्रह माताए-लौह-ओ-क़लम प्रकाशित हुआ, जो उनके चाहने वालों को ख़ासा पसंद आया. 1962 में उन्हें लेनिन शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया.
उन्होंने एक अंग्रेज़ महिला एलिस जॉर्ज से शादी की और दिल्ली आकर बस गए. ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती हुए और कर्नल के पद तक पहुंचे. 1942 से लेकर 1947 तक वह सेना में रहे, लेकिन हिंदुस्तान के बंटवारे के वक़्त वह पद से इस्तीफ़ा देकर लाहौर वापस चले गए. वहां उन्होंने इमरोज़ और पाकिस्तान टाइम्स का संपादन किया. 1951 में लियाक़त अली खां की सरकार के तख्तापलट की साज़िश के आरोप में उन्हें जेल जाना पड़ा और 1955 में वह क़ैद से रिहा हुए. इसके बाद 1962 तक वह लाहौर में पाकिस्तानी कला परिषद में रहे. 1963 में उन्होंने यूरोप, अल्जीरिया और मध्य पूर्व का भ्रमण किया और अगले साल स्वदेश लौटे. 1958 में स्थापित एशिया-अफ्रीका लेखक संघ के संस्थापक सदस्यों में वह भी शामिल थे. भारत-पाक के 1965 के युद्ध के वक़्त वह पाक के सूचना मंत्रालय में कार्यरत थे. 1978 में वह एशियाई-अफ्रीकी लेखक संघ के प्रकाशन अध्यक्ष बने और 1982 तक बैरूत (लेबनान) में कार्यरत रहे. 1982 में वापस लाहौर लौट आए. 1978 से उन्होंने एशियाई-अफ्रीकी लेखक संघ के मुखपत्र लोटस का संपादन भी किया. उनका निधन 73 साल की उम्र में 20 नवंबर, 1984 को लाहौर में हुआ.
उन्होंने पाकिस्तानी फ़िल्मों में गीत भी लिखे. उनकी यह ग़ज़ल बहुत मशहूर हुई, जो उन्होंने हैदराबाद के मशहूर शायर मख़दूम मुहीउद्दीन को समर्पित की थी, जिन्होंने तेलंगाना आंदोलन में शिरकत की थी-
आपकी याद आती रही रात भर
चांदनी दिल दुखाती रही रात भर
गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर
कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन
कोई तस्वीर गाती रही रात भर…
उनके गीत भी बहुत मशहूर हुए, जिनमें से एक है-जब तेरी समंदर आंखों में-
ये धूप किनारा, शाम ढले
मिलते हैं दोनों व़क्त जहां
जो रात न दिन, जो आज न कल
पल भर को अमर, पल भर में धुआं
इस धूप किनारे पल दो पल
होंठों की लपक, बांहों की छनक
ये मेल हमारा, झूठ न सच
क्यूं रार करो, क्यूं दोष धरो
किस कारन झूठी बात करो
जब तेरी समंदर आंखों में
इस शाम का सूरज डूबेगा
सुख सोएंगे घर दर वाले
और राही अपनी रह लेगा...
उनकी शायरी में रूमानियत है और महबूब से शिकवे-गिले भी-
आके वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझसे
जिसने इस दिल को परी़खाना बना रखा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था
आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवां गुज़रे हैं जिनसे उसी रानाई के
जिसकी इन आंखों ने बेसूद इबादत की है...
उनका कलाम नौजवानों के दिल की आवाज़ बन गया. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी में जहां रूमानियत मिलती है, वहीं मौजूदा हालात का तब्सिरा भी मिलता है. पहले जहां प्रेमी के लिए उसकी प्रेमिका ही सब कुछ थी, लेकिन अब वह सिर्फ़ कुछ है, सब कुछ नहीं. वह कहते हैं-
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरख़शां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूं हो जाए
यूं न था, मैंने फ़क़्त चाहा था यूं हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग...
जब उन्हें देशद्रोह-रावलपिंडी साज़िश मामले में जेल जाना पड़ा, तो उनके कलाम में भी उनकी ज़िंदगी की तरह बदलाव आ गया. उनकी ग़ज़ल का यह शेअर पाकिस्तानी फ़ौजी हुकूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत का प्रतीक बन गया-
वो बात, सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है...
उन्होंने सियासत पर भी जमकर क़लम चलाई. उनके कलाम में अंतरराष्ट्रीय मुद्दे भी छाए रहे, मामला चाहे अफ्रीका की आज़ादी का हो या अरबों के संघर्ष का. अफ्रीकी स्वतंत्रता प्रेमियों के लिए उन्होंने जहां नज़्म अफ्रीका कम बैक लिखी, वहीं साम्राज्यवादियों से संघर्षरत अरबों के लिए सर-ए-वादी-ए-सीना, बैरूत में किए गए जनसंहार के खिला़फ एक नग़मा कर्बला-ए-बैरूत लिखकर अपने ग़ुस्से का इज़हार किया. फ़िलीस्तीन के शहीदों को श्रद्धांजलि पेश करते हुए वह लिखते हैं-
मैं जहां पर भी गया अर्ज़-ए-वतन
तेरी तज़लील के दाग़ों की जलन दिल में लिए
तेरी हुरमत के चिराग़ों की लगन दिल में लिए
तेरी उल्फ़त, तेरी यादों की कसक साथ गई
तेरे नारंज शगूफ़ों की महक साथ गई
सारे अनदेखे राफ़ीक़ों का जिलौ साथ रहा
कितने हाथों से हम आग़ोश मेरा हाथ रहा...
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के कलाम में मानव प्रेम भी है और दबे-कुचले लोगों का दर्द भी इसमें झलकता है. यही उनकी शायरी की जान भी है-
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
देख के आहंगर की दुकां में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़ंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बां की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहने हैं कह ले...
दरअसल, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की समूची शायरी आम इंसान के दर्द को बयां करती है. यह पीड़ितों की आवाज़ बनकर बुलंद होती है.