खु़र्शीद अनवर
वहाबी इस्लाम सऊदी अरब सरकार की राजनीतिक विचारधारा है। पूरे स्कूली पाठ्यक्रम में इस विचारधारा का प्रचार शामिल है। सऊदी अरब में पब्लिक स्कूलों की संख्या लगभग पच्चीस हजार है,

जिनमें पचास लाख से ऊपर छात्र शिक्षा ग्रहण करते हैं। फारूक मस्जिद, टेक्सास (अमेरिका) से बरामद एक दसवीं कक्षा की किताब ‘साइंस ऑफ तौहीद’ में दर्ज है कि गैर-मुसलिमों या गैर-वहाबी मुसलिमों के साथ रहना इस्लाम के खिलाफ है। इसीलिए अल्लाह का हुक्म है कि सिर्फ मुसलमानों (वहाबी मुसलमानों) के दरमियान उठो-बैठो। यह तो महज झलक है। जरा सऊदी अरब के शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्वीकृत वहां पाठ्यक्रम में मौजूद कुछ उदाहरणों को देखें तो तस्वीर और साफ हो जाएगी।

‘‘मुसलमान जो अंतर्धार्मिक संवाद में पड़ते हैं उनको भी अधार्मिक मानना चाहिए। सूफी और शिया आस्था को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए। जो मुसलिम कोई और धर्म अपना ले उसे कत्ल कर दिया जाना चाहिए। एक मुसलमान के लिए जायज है कि उसका खून बहा दे और उसकी संपत्ति पर कब्जा कर ले।’’

‘‘जो सुन्नी मुसलिम वहाबी विचारधारा में विश्वास नहीं रखते उनकी भर्त्सना करनी चाहिए और उन्हें हेय दृष्टि से देखना चाहिए और उनको बहु-ईश्वरवादी नस्ल की पैदावार मानना चाहिए। मुसलमानों पर जोर डालो कि ईसाई, यहूदी, बहु-ईश्वरवादी, और गैर-वहाबी मुसलिमों समेत तमाम अनास्था वालों से नफरत करनी चाहिए। न तो किसी गैर-मुसलिम या वहाबी आस्था में विश्वास न रखने वाले मुसलिम से मेलजोल करो न ही आदर दिखाओ।’’

‘‘जिहाद के जरिए इस्लाम फैलाना ‘मजहबी फर्ज’ है। एक सच्चे मुसलमान का फर्ज है कि अल्लाह के नाम पर जिहाद के लिए तैयार रहे। तमाम नागरिकों और सरकार का भी यही फर्ज है। सैन्य प्रशिक्षण आस्था में निहित है और इसे लागू किया जाना चाहिए। जंग के लिए असलहे रखना जरूरी है। बेहतर तो यह हो कि विशिष्ट सैन्य वाहन, टैंक, रॉकेट, लड़ाकू विमान और वे अन्य सामान जो आधुनिक युद्ध में जरूरी होते हैं उनकी फैक्ट्रियां लगाई जाएं।’’

जरा नजर डालिए कि प्राथमिक शिक्षा में जिन बच्चों को पढ़ाया जाए कि ‘इस्लाम (वहाबी) के अलावा हर धर्म गलत रास्ते पर है। और फिर इम्तिहान में सवाल हो, रिक्त स्थान की पूर्ति करें ‘‘.... के अलावा हर धर्म गलत रास्ते पर है। जो मुसलमान नहीं है वह मरने के बाद ... में जाएगा।’’ जाहिर है कि पहले इन बच्चों को गैर-इस्लामी कौन है यह बताया जा चुका है। इसमें गैर-वहाबी सुन्नी, शिया समेत तमाम धर्म शामिल हैं।

एक मार्च, 2002 को ऐन-अल-यकीन नामक पत्रिका ने ऑनलाइन सऊदी अरब के राजशाही परिवार के वहाबियत को दुनिया भर में फैलाने के शैक्षणिक कार्यक्रम के बारे में रिपोर्ट दी। इसमें बताया गया कि किंग फहद अरबों सऊदी रियाल वहाबी इस्लामी संस्थानों और इस विचारधारा की शिक्षा पर खर्च कर रहे हैं। सऊदी अरब से बाहर पश्चिमी देशों में 210 इस्लामी केंद्र, 500 मस्जिदें, 202 कॉलेज और 2000 स्कूल एशिया, ऑस्ट्रेलिया और उत्तरी अमेरिका में इन्हीं पाठ्यक्रमों के साथ खोले हैं, जिनमें वही शिक्षा दी जाएगी जो सऊदी अरब के पब्लिक स्कूलों में दी जाती है। मतलब जिहादी शिक्षा, नफरत की शिक्षा, आतंकी शिक्षा।

ऐन-अल-यकीन ने जो देश गिनाए उनमें दक्षिण एशिया, अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका सहित अस्सी देशों का जिक्र है। सऊदी अरब में तो वहाबियत राजनीतिक विचारधारा ही है और राष्ट्र एक वहाबी राष्ट्र, लेकिन इसका नासूर दुनिया भर में फैले इसके लिए मदीना स्थित इस्लामी विश्वविद्यालय में पचासी सीटें विदेशी छात्रों के लिए आरक्षित हैं और इसमें लगभग एक सौ चालीस देशों के पांच हजार छात्र पंजीकृत हैं।

सऊदी अरब के शिक्षामंत्री फैसल बिन अब्दुल्लाह बिन मोहम्मद अल सऊद ने जहरीली शिक्षा का राज फाश होने के बाद 2005 में पाठ्यक्रम में सुधार लाने की बात की, लेकिन आज तक इस पर कोई अमल नहीं हुआ। इतना ही नहीं, इसी वर्ष यानी 2005 में एक अध्यापक को यहूदियों, शिया मुसलिमों, गैर-वहाबी सुन्नियों को भी इंसान बताने के जुर्म में सार्वजनिक रूप से साढ़े सात सौ कोड़े और कैद की सजा हुई। बाद में अंतरराष्ट्रीय दबाव में कैद की सजा माफ की गई।

कौन-सी शिक्षा है यह? क्या मकसद है इस शिक्षा का? क्या बन रहे हैं यहां से तथाकथित शिक्षा प्राप्त करने वाले?

ईरान के प्रोफेसर मुर्तजा मुत्तरी के शब्दों में, इन वहाबियों को न इस्लाम की समझ है न कुरान की। लिहाजा इनका पूरा शिक्षाशास्त्र खूनी खेल ही सिखा सकता है। ‘‘वहाबियों का अकीदा है कि अल्लाह के दो पहलू हैं। पहला उसका तसव्वुर, जिसमें दाखिल होने की इजाजत किसी को नहीं। अल्लाह से वाबस्ता इबादत और तवस्सुल (अल्लाह तक पहुंचने का जरिया जैसे सुन्नी खलीफा या शिया इमामत) दो बिल्कुल अलग चीजें हैं। तवस्सुल तक आकर वहाबियत बाकी इस्लाम से दूर हो जाती है।

यह कुरान के खिलाफ है कि आप खालिक (अल्लाह) और मखलूक (इंसान) में मखलूक की अजमत को न मानें। खुदा ने आदम के सामने फरिश्तों तक को सजदा करने को कहा और वहाबी उसे नकारते हैं। इस तरह से आप इंसान को अशरफ-उल-मख्लूकात (जीवों में सर्वश्रेष्ठ) से गिरा कर सिर्फ जानवर बना देते हैं। जो लोग इंसान की श्रेष्ठता को ही नकारते हैं उनसे उम्मीद करना कि इंसानी खून की कोई कीमत होगी, बेकार ही है।

नफरत फैलाने का दूसरा जरिया है अन्य इस्लामी मान्यताओं को खारिज करना। इसी शिक्षा के अनुसार मजारों और कब्रों पर जाना भी इस्लाम के खिलाफ है। पूरे सऊदी पाठ्यक्रम में शुरू से ही बच्चों को यह तालीम दी जाती है। इससे फौरन इस्लामी सिलसिले के तमाम गैर-वहाबी समुदाय इस्लाम से बाहर हो जाते हैं। इतना ही नहीं, वहाबी ऐसा कदम उठा कर खुद कुरान को झुठलाते हैं।

सूरह अल-कहफ में साफ आया है कि ‘‘अल्लाह का वादा सच है यह बताने के लिए इमारत बनाओ’’ (कुरान 18:21)। ऐसी मान्यता है कि कयामत के दिन उसमें से ही मुर्दे निकल कर आएंगे। लेकिन इंसानियत के दुश्मन वहाबी मजारों पर जाने वालों को कत्ल करते हैं और मजार तोड़ने की बाकायदा मुहिम चला रहे हैं। शिया अपने इमामों के लिए जियारत (दर्शन) करने इराक, सऊदी अरब, ईरान सहित अन्य देश भी जाते हैं। सऊदी अरब में अब इस पर रोक लगा दी गई है।

पिछले कुछ वर्षों से वहाबियों ने सिलसिलेवार ढंग से सूफी संतों, शिया समुदाय, अहमदिया मुसलिम और गैर-वहाबी सुन्नी आस्था वाले प्रतीकों पर हमले शुरू किए। इनके हमले केवल इन प्रतीकों पर नहीं हुए, मक्का स्थित काबे के पीछे के हिस्से को भी इन्होंने ध्वस्त कर दिया। वहां पर बड़े-बड़े होटल और शॉपिंग मॉल बनाने शुरू किए। इनमें पेरिस हिल्टन का शॉपिंग मॉल मुख्य आकर्षण का केंद्र है। काबा के अलावा मदीना में इन्होंने मोहम्मद के परिवार और साथियों की मजारें और कब्रें तोड़नी शुरू कीं। इनमें मोहम्मद की बेटी फातिमा, अबू बकर और उमर की मजारें और मस्जिदें प्रमुख हैं।

सूफी मजारों पर हमले तमाम हदों को पार कर गए। माली में 333 सूफी संतों की मजारों वाले मशहूर स्थल को वहाबियों ने ध्वस्त कर दिया। 1988 में यूनेस्को से विश्व-धरोहर के रूप में मान्यता-प्राप्त सिद्दी याहिया मस्जिद भी इन वहाबी हमलों की भेंट चढ़ी। लीबिया में पचास सूफी मजारों को इन वहाबियों ने एक साथ उड़ा दिया। सोमालिया में शायद ही सूफी संतों का कोई मजार बचा हो जो अल-शबाब के हमलों का शिकार न हुआ हो। पाकिस्तान में बाबा फरीद, बाबा बुल्लेशाह, हजरत दाता गंजबख्श सहित अनेक मजारों पर लगातार वहाबी तालिबानी हमले हुए।

सऊदी अरब समर्थित ये हमले अल-कायदा और उसके सहयोगी संगठन अंजाम देते आए हैं। वहाबियत पूरी तरह से फासीवादी विचारधारा में ढल चुकी है जो इस धरती से मोहब्बत का नाम मिटा देना चाहती है। जरा एक नजर देखें कि वहाबियत का इस्लाम जो कर रहा है उसके बरक्स सूफी मत कैसा पैगाम दे रहा है।

निजामुद्दीन औलिया के बारे में मशहूर है कि बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने उनसे इस्लाम का प्रचार करने के लिए कश्मीर जाने को कहा। निजामुद्दीन का जवाब था कि मैं मोहब्बत का पैगाम देता हूं, मेरे लिए मुमकिन नहीं कि इस्लाम का प्रचार करने कश्मीर जाऊं। इसके बाद अलाउद्दीन ने अमीर खुसरो के जरिए निजामुद्दीन को दरबार तलब किया। निजामुद्दीन ने पैगाम भेजा कि जो सूफी सत्ता के नजदीक जाता है वह ईमान खो बैठता है। अलाउद्दीन ने कहलाया कि मैं खुद आ रहा हूं। निजामुद्दीन ने कहा, मेरी खानकाह में आने पर किसी को रोक नहीं, मगर मेरी खानकाह के दो दरवाजे हैं। जिस वक्त एक दरवाजे से बादशाह के कदम मेरी खानकाह में पड़ेंगे, उसी वक्त दूसरे दरवाजे से मैं निकल जाऊंगा।

बाबा बुल्ले शाह। मोहब्बत का पैगाम देने वाले इस सूफी को कौन नहीं जानता। जरा देखिए क्या है मजहब इनकी नजर में। ‘‘होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह/ नाम नबी की रतन चढ़ी, बूंद पड़ी इल्लल्लाह/ रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फना-फी-अल्लाह/ होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह/ अलस्तु बिरब्बिकुम पीतम बोले, सभ सखियां ने घूंघट खोले? कालू बला ही यूं कर बोले, ला-इलाहा-इल्लल्लाह/ होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह।’’

वारिस शाह की हीर आज भी मोहब्बत का पैगाम बनी हुई है। सितार की ईजाद करने वाले अमीर खुसरो फरमाते हैं: ‘‘काफिर-ए-इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नीस्त/ हर रग-ए-मन तार गश्ता हाजत-ए-जुन्नार नीस्त’’ (इश्क का काफिर हूं मुसलमान होना मेरी जरूरत नहीं। मेरी हर रग तार बन चुकी है मुझे जनेऊ की भी जरूरत नहीं)।

वहाबी मत ने पिछले लगभग दो दशक में न सिर्फ मासूम इंसानों का खून बहाया है बल्कि मोहब्बत का भी खून किया है। इस महाद्वीप में निजामुद्दीन औलिया, मोइनुद्दीन चिश्ती, अमीर खुसरो, वारिस शाह, बुल्लेशाह, बाबा फरीद जैसे सूफी संतों ने धार्मिकता की कट्टर जंजीरें तोड़ते हुए सिर्फ और सिर्फ मोहब्बत का पैगाम फैलाया था। वहाबी आंदोलन इन संतों की मजारों को रौंदता हुआ इनके मोहब्बत के पैगाम का भी गला घोंट रहा है। और इसके लिए सऊदी अरब बेपनाह धन खर्च कर रहा है।

जो देश अपने स्कूलों में नफरत की शिक्षा देगा, वहां से निकलने वाली विचारधारा और उस विचारधारा के वाहक ऐसे शिक्षा संस्थानों से निकलने वाले विद्यार्थी क्या गुल खिला सकते हैं इसका अंदाजा अफ्रीका, अरब देशों, दक्षिण एशिया और यहां तक कि पश्चिमी देशों में चल रहे खूनी खेल से लगाया जा सकता है। सऊदी अरब जैसे देश और दारुल उलूम जैसे शैक्षणिक संस्थानों का यह गठजोड़ आज सारी दुनिया को बारूद के ढेर पर बिठा चुका है। इससे पहले कि इस बारूद के ढेर को आग लगे, इन वहाबियों और इनकी विचारधारा को साकार रूप देने वाले अल-कायदा और उनके सहयोगी संगठनों का समूल नाश समय की मांग है।

जनसत्ता से साभार

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