आतंकवाद और भारत

Posted Star News Agency Wednesday, December 25, 2013 , ,


खु़र्शीद अनवर साहब को उनकी क़लम के ज़रिये ही जानते हैं... उन्होंने हमें स्टार न्यूज़ एजेंसी के लिए कुछ लेख भेजे थे, जो कई अख़बारों में शाया भी हुए... उन्होंने हमसे वादा किया था कि वह हमें अपने लेख भेजते रहेंगे... लेकिन उनके अचानक यूं चले जाने से उनका वादा भी सिर्फ़ वादा ही रह गया... 
खु़र्शीद अनवर साहब ! आप जहां भी हैं... हमेशा खु़श रहें... आपके लिए यही दुआ करते हैं... आमीन...
एक रोज़ सबको इस दुनिया से जाना है... आज आप गए... कल हमारी बारी है...
खु़र्शीद अनवर साहब का यह आख़िरी लेख है, जो उन्होंने जनसत्ता के लिए लिखा था.

आतंकवाद और भारत
खु़र्शीद अनवर
मौलाना मौदूदी का पाकिस्तान को एक इस्लामी राष्ट्र के रूप में देखने का जो सपना था उसमें पारिवारिक संबंध, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मसले, प्रशासन, नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य, न्यायपालिका, युद्ध के नियम आदि सभी इस्लामी शरीआ के अनुरूप ढाला जाना था।
उन्होंने नागरिकों की दो श्रेणियां बनाई थीं। एक मुसलिम और दूसरे जिम्मी। मुसलिमों को ही हक  दिया गया कि शासन-प्रशासन चलाएं, गैर-मुसलिमों को नहीं। अपनी किताब ‘मीनिंग ऑफ कुरान’ में उन्होंने लिखा, ‘‘मुसलमानों को जजिया जैसे मानवीय कानून पर गर्व होना चाहिए कि जो अल्लाह के रास्ते पर नहीं चल रहे उनको अधिकतम आजादी यही दी जा सकती है कि ऐसी (दरिद्रता की) जिंदगी गुजारें। यहूदी और ईसाई के लिए जजिया बेहद जरूरी है जिससे उनकी आर्थिक आजादी और प्रभुत्व समाप्त हो।’’ वह आगे लिखते हैं कि ‘‘राष्ट्र गैर-मुसलमानों को सुरक्षा तभी दे सकता है, जब वे दोयम दर्जे की जिंदगी गुजारने को तैयार हों और जजिया तथा शरीअत के कानून को मानें।’’

इसी संदर्भ को आगे लिया जाए तो हिंदुस्तान के बारे में भी उनकी राय देखनी होगी। यह भी देखना होगा कि हिंदुस्तानी मुसलमानों को वे किस रूप में देखना चाहते थे। ठीक वैसे ही, जैसे जिम्मी, शरीअत के अनुसार, गैर-मुसलिमों को पाकिस्तान में देखना चाहते थे। मौलाना मौदूदी ने 1953 में लाहौर में अहमदिया मुसलमानों के जनसंहार के बाद बनी जांच समिति के सामने बयान दिया कि अब पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र बन गया है तो हिंदुस्तान को हिंदू राष्ट्र हो जाना चाहिए। और हां, जो मुसलिम पाकिस्तान नहीं आए उन्हें हिंदुस्तान में शूद्र का दर्जा मिलना चाहिए। आज उनकी दोनों ही मंशाएं पूरी होती दिख रही हैं, लेकिन वह खुद अपने ख्वाबों की ताबीर न देख सके।
किस कदर खतरनाक ख्वाब थे जो आज सामने हकीकत का रूप लेते दिख रहे हैं! तालिबान और अल कायदा के हाथों पाकिस्तान में वही सब हो रहा है, जो मौदूदी का ख्वाब था। हिंदुस्तान में हिंदुत्व और पाकिस्तान में पल रहे आतंकियों के कारण हिंदुस्तानी मुसलमान अपने आप दोयम दर्जे का नागरिक बनता जा रहा है जिसमें तालिबानी आतंकी भी बेहद अहम भूमिका निभा रहे हैं।
मोहम्मद अली जिन्ना ने अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए उपमहाद्वीप को खून में डुबो दिया, मगर जिस पाकिस्तान की नींव पड़ी उस पर 11 अगस्त को पाकिस्तान की संसद के पहले इजलास में जिन्ना ने साफ तौर पर कहा ‘‘आप किसी भी मजहब, जाति या पंथ के हो सकते हैं, राज्य का इसमें कोई दखल नहीं होगा। आप देखेंगे कि समय के साथ-साथ न कोई हिंदू रह जाएगा न कोई मुसलमान। धार्मिक अर्थों में नहीं क्योंकि वह निजी आस्था है, बल्कि राजनीतिक तौर पर, देश के एक नागरिक के रूप में।’’
लेकिन हुआ क्या आखिर, विशेषकर 2 दिसंबर 1978 को जिया उल-हक  के बहुचर्चित भाषण के बाद। ‘निजाम-ए-मुस्तफा’ या इस्लामी कानून नाफिज होने के बाद, एक के बाद एक कानून बदले गए। 1980 में पाकिस्तान के संविधान और पाकिस्तान दंड संहिता में बदलाव के साथ ईशनिंदा कानून भी लगा दिया गया। मौदूदी के सपने साकार होना शुरू हुए। और इसी दौरान शुरू हुआ पाकिस्तान का तालिबानीकरण। अफगानिस्तान से शुरू होकर पाकिस्तान तक तालिबान को अमेरिकी, सऊदी और पाकिस्तानी राजनीतिक समर्थन और अथाह पैसे ने पाकिस्तान को आखिर मौदूदी के सपनों का मुल्क बनाना शुरू किया और इसकी काली छाया जो हिंदुस्तान पर पड़ी तो हिंदुस्तान गोलवलकर और मौदूदी के सपनों का मुल्क बनने की राह पर चल पड़ा।
आज पाकिस्तान में अल्पसंख्यक दोयम दर्जे की जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं, तालिबान जजिया का एलान ही नहीं करते, बल्कि वसूलते हैं और पाकिस्तान की सरकार कोई कदम नहीं उठाती। शरीअत के कानून को पाकिस्तान के कबायली समाज पर पूरी तरह तालिबान ने नाफिज कर रखा है। अल्पसंख्यक ही नहीं, गैर-वहाबी मुसलिम भी इनकी बंदूकों का निशाना बन रहे हैं। मौदूदी ने 1953 में अहमदिया मुसलमानों का कत्ल-ए-आम करवाया था और अब तालिबान उसी काम को आगे बढ़ाते हुए शिया मुसलिमों को कत्ल-ए-आम कर रहे हैं। शरीआ कानून और ‘निजाम-मुस्तफा’ को चार चांद लगा रहे हैं! कोई इनके खिलाफ आवाज नहीं उठा सकता।
अब जरा हिंदुस्तान की तस्वीर पर एक नजर डालते हैं। पिछले लगभग डेढ़ दशक में अल-कायदा और तालिबान गठजोड़ ने हिंदुस्तानी मुसलमानों को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से दोयम दर्जे का नागरिक बना डाला। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद की इससे बड़ी मदद और क्या हो सकती थी!
हिंदुस्तान पर आतंकी हमलों से न तो राजनीति की मुख्यधारा को और न ही बहुसंख्यक समुदाय को इतना नुकसान पहुंचा जितना कि पाकिस्तान की पूरी आबादी से अधिक तादाद में हिंदुस्तान में मौजूद मुसलिम अल्पसंख्यकों को। ‘आतंकवाद के खिलाफ जंग’ और जम्मू-कश्मीर विधानसभा और संसद भवन पर हमले, और एक के बाद एक आतंकी घटनाओं ने हिंदुस्तानी मुसलमानों में दहशत, असुरक्षा और लगभग सामाजिक बहिष्कार की स्थिति बना दी। संसद और मुंबई हमलों के बाद अगर कहीं सार्वजनिक वाहन में कोई दाढ़ी वाला, विशेष वेशभूषा वाला व्यक्ति मौजूद हो तो लोग सीटों के नीचे झांकते नजर आते कि कहीं विस्फोटक पदार्थ न छिपा हो। लोग उसको ऐसी नजरों से देखते जैसे वह सचमुच आतंकवादी हो। हिंदुस्तानी मुसलिमों के साथ हिंदुस्तान में कैसा सलूक हो, मौदूदी का सपना साकार होने लगा।
दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में कोई मुसलिम नाम वाला व्यक्ति किराये पर घर लेना चाहे तो मुश्किलों का पहाड़। मिश्रित आबादी वाले इलाकों में भारी तब्दीली आनी शुरू हुई। दिल्ली में ओखला, जामिया नगर, जाकिर नगर जैसे इलाकों में मुसलिम आबादी में बाढ़ आ गई। राजनीतिक हलकों ने बड़ी सावधानी से इस आग में घी का काम किया। रेडियो और टेलीविजन पर सरकारी प्रचार को ही लें। किसी अनजान को किराये पर घर देने के पहले पुलिस से तस्दीक करें। किसी के चेहरे पर नहीं लिखा होता कि वह आतंकी या अपराधी है। अब आतंकी नाम सुनते ही जो छवि उभरती है वह बिना मूंछ की दाढ़ी, कुर्ता-पायजामा और जालीदार टोपी वाले एक इंसान की। भले ही आप जब किराये का मकान देखने जाएं तो आप बिना मूंछ की दाढ़ी और कुर्ता-पायजामा और जालीदार टोपी वाले न हों। सारी बातचीत तय हो जाने पर बस अपना नाम बता दें। नाम मुसलमानों जैसा होना काफी है। बहाना बना कर आपको टाल दिया जाएगा।
सरकारी तंत्र, ऐसी स्थिति न आने देने के लिए, क्या और कोई तरीका नहीं अपना सकता था? ऐसे शक के माहौल में, जब मानसिकता ऐसी बनने लगे कि ‘सारे मुसलमान आतंकवादी हैं’ या ‘सारे आतंकवादी मुसलमान हैं’, इस तरह के टीवी और रेडियो विज्ञापन शक के दायरे को बढ़ाते हैं या आतंकवाद को रोकते हैं? खैर, यह एक अलग मसला है। यहां देखना यह है कि मौदूदी और गोलवलकर के हूबहू एक ही सपने को आतंकवाद ने साकार कैसे किया इस मुल्क में। जिस तरह से अल कायदा और उसके सहयोगी संगठन तालिबान ने हिंदुस्तान में आतंकी गतिविधियां चलार्इं उससे हिंदुस्तानी मुसलमान सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से दोयम दर्जे का नागरिक कैसे बन गया। राजनीतिक रूप से वह कैसे पिछड़ने लगा।
इन संगठनों ने यानी अल कायदा और तालिबान ने जहां मुसलमानों को सामाजिक बहिष्कार की स्थिति में ला दिया, वहीं सेक्युलरिज्म का दम भरने वाली कांग्रेस सहित तथाकथित प्रगतिशील विचारधारा वाली पार्टियों ने उसे हाशिये पर ला खड़ा किया। चार राज्यों के चुनाव में 589 नवनिर्वाचित विधायकों में मुसलिम विधायकों की संख्या केवल आठ है।
शायद पहली बार ऐसा हुआ हो। पिछली बार इनकी संख्या बीस थी। और वह भी इनको चुनाव में उतारा इसलिए गया था कि इनमें से सात पिछले चुनाव में जीते हुए थे और फिर जीतने की उम्मीद थी इनसे। छत्तीसगढ़ में एक भी मुसलिम विधायक नहीं; राजस्थान में संख्या बारह से घट कर दो हो गई और मध्यप्रदेश में सिर्फ एक विधायक मुसलिम है। आरिफ अकील ने खुद कहा कि उन्होंने कांग्रेस पर जोर डाला कि कम से बीस मुसलिम उम्मीदवार खड़े किए जाएं मगर पार्टी ने पांच से ज्यादा उम्मीदवार खड़े करने से इनकार कर दिया। यह इस बात का संकेत है कि राजनीतिक दल जोखिम नहीं उठाना चाहते और नतीजे के तौर पर मुसलिम समुदाय को जाने-अनजाने हाशिये पर डाल रहे हैं। कौन है इसका जिम्मेवार? क्या सिर्फ भारतीय राजनीतिक परिवेश या फिर आतंकवाद का पीठ पर लगा ठप्पा। एक बार कोई समुदाय राजनीतिक तौर पर हाशिये पर जाने लगे तो उसके जीवन के अन्य पक्ष खुद-ब-खुद कमजोर होने लगते हैं। सामाजिक तौर पर उसकी स्थिति के उदाहरण ऊपर आ ही चुके हैं।
आसान रास्ता होगा कि ऐसी स्थिति के लिए हिंदुत्व के उभार को जिम्मेवार मान लिया जाए और अपनी ऊर्जा इसी के खिलाफ लड़ाई में लगाई जाए। मान लिया जाए कि भारतीय जनता पार्टी का रुख तो जिम्मेवार है ही,अन्य राजनीतिक दल भी ‘नरम हिंदुत्व’ के साये में आ गए हैं। ऊर्जा इस लड़ाई में लगाना जरूरी है, लेकिन उतना ही जरूरी है दूसरे रुख की पड़ताल, जिसने ऐसे सोच को वैधता दी। महानगरों में अगर बहुसंख्यक समुदाय का व्यक्ति अपना मकान किराये पर अल्पसंख्यक को नहीं देना चाहता तो यह मान लेना स्थिति का सरलीकरण होगा कि ऐसे सारे के सारे बहुसंख्यक सांप्रदायिक हो गए। उनकी ओर से भी सोचना जरूरी है। घर देने में झिझक कि कहीं किरायेदार सचमुच आतंकी न हो। फिर पुलिस-थाना कौन करे! आसान रास्ता है झंझट में न पड़ना; कोई न कोई किरायेदार मिल ही जाएगा जो शक के दायरे में नहीं आएगा।
अगर अल कायदा और तालिबानी हमलों को हिंदुस्तानी माहौल से निकाल कर सोचें तो क्या मुसलमान ऐसी स्थिति में पहुंचता? क्या बसों और मेट्रो में या अन्य सार्वजनिक स्थलों पर उसको शक की निगाह से देखा जाता? क्या ‘सारे मुसलमान आतंकवादी हैं’ या ‘सारे आतंकवादी मुसलमान हैं’ जैसा सोच बहुसंख्यकों के दिलों में घर करता? भारतीय मुसलमानों की जैसी सामाजिक स्थिति आज बन चुकी है उसमें आतंकी संगठनों की भूमिका भी देखनी होगी। यह भी देखना होगा कि आज फासीवाद की जो दस्तक है इस मुल्क के दरवाजे पर, और नमो-नमो का जाप सुनाई दे रहा है, उसमें अल कायदा और तालिबान जैसे वहाबी संगठनों ने कितनी बड़ी भूमिका निभाई है।

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