देश में बारिश और ओलों के क़हर से लाखों हेक्टेयर में लहलाती फ़सलें बर्बाद हो गईं. इससे किसानों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है. किसान क़र्ज़ लेकर फ़सलें उगाते हैं, लेकिन जब प्राकृतिक आपदाओं की वजह से पूरी फ़सल तबाह हो जाती है, तो उनके सामने अंधेरा छा जाता है. फ़सल बर्बाद होने के सदमे से आहत सैकड़ों किसानों ने ख़ुदकुशी कर ली. देश भर से किसानों के मौत को गले लगाने के मामले सामने आए हैं.
अफ़सोस की बात यह है कि प्रशासन इस बात से इंकार कर रहा है कि किसानों ने फ़सल बर्बाद होने की वजह से आत्महत्या की है. हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार ने मान लिया है कि बेमौसम बारिश और ओलों की मार से हुए नुक़सान के सदमे से अब तक 41 किसानों की मौत हो चुकी है, लेकिन आत्महत्या करने वाले किसानों को इन आंकड़ों में शामिल नहीं कर रही है. ये आंकड़े 12 अप्रैल तक के हैं. इससे पहले 6 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव आलोक रंजन ने कहा था कि अभी तक फ़सल बर्बाद होने से किसी भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है. उन्होंने कहा कि ओलावृष्टि के कारण पहले 22 और बाद में 13 किसानों की मौत हुई है. इसलिए सिर्फ़ 35 मृतक किसानों के परिजनों को ही मुआवज़ा दिया जाएगा. उन्होंने सभी ज़िलों के डीएम को निर्देश दिए गए थे कि वे ख़ुद जाकर इस बात की जांच करें कि किसान ने किस वजह से आत्महत्या की है. अलग-अलग ज़िलों के डीएम द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट में फ़सल बर्बादी के कारण आत्महत्या करने वाले सिर्फ़ 35 किसानों की पुष्टि हुई है. अलग-अलग मदों में मृतक किसान के परिजनों को सात लाख रुपये मुआवज़े के तौर पर दिए जाते हैं. गत 5 अप्रैल को की सुबह हुई ज़ोरदार बारिश के बाद एक किसान ने रेल के आगे कूदकर आत्महत्या कर ली थी. शव के पास से सुसाइड नोट भी बरामद किया गया, जिसमें लिखा था- ‘मेरा नाम सियाराम है. गांव मरगया का रहने वाला हूं. खेती की पैदावारी से तंग आकर मैं सरकार की गाड़ी से अपना बलिदान दे रहा हूं. अब मुख्य सचिव इसे भी फ़सल बर्बादी के कारण आत्महत्या नहीं मान रहे हैं. बुंदेलखंड में भी फ़सल बर्बादी के कारण किसानों की मौतों का सिलसिला जारी है. 25 मार्च तक बुंदेलखंड में मरने वालों की तादाद 65 थी, जो दिनोदिन बढ़ती जा रही है. बुंदेलखंड ज़िले के गांव डूगरी गांव के 72 साल के बुज़ुर्ग किसान मंगू सिंह की मौत हो गई. उसके परिवार के लोगों का कहना है कि फ़सल की बर्बादी के सदमे की वजह से उसकी मौत हुई, जबकि एसडीएम अरुपण कुमार का कहना है कि पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में मंगू सिंह की मौत की वजह बुढ़ापा बताया गया है. गांव ख़्वाजपुर के 42 साल के किसान श्याम सिंह की मौत को भी प्राकृतिक बताया गया है. गांव पसरी गांव में 41 वर्षीय किसान प्रेम शर्मा ने आत्महत्या कर ली. गांव के दौरे के बाद तहसीलदार विजय शर्मा का कहना है कि मुआवज़ा देने से पहले किसान की मौत की जांच की जाएगी. गांव 55 सालक के किसान लेखराज ने मौत को गले लगा लिया. एसडीएम अतुल कुमार का कहना है कि मृतक किसान कई दिनों से बीमार था और कई बार अस्पताल में भर्ती भी हो चुका था. गांव औरंगाबाद में 28 साल के किसान अजय कुमार ने फ़सल बर्बाद होने और क़र्ज़ की वजह से ख़ुदकुशी कर ली. प्रशासन इन सभी मौतों को आत्महत्या मानने से इंकार कर रहा है.
उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद ज़िले के गांव मधुपुरी इनायतपुर के निवासी प्रमोद की गेंहू की फ़सल बर्बाद हो गई, जिससे वह बहुत परेशान था. जब वह घर नहीं पहुंचा, तो परिजनों ने उसे तलाश किया और गत 9 अप्रैल को खेत के किनारे एक पेड़ पर उसका शव लटका हुआ मिला. परिजनों का कहना है कि उस पर हज़ारों रुपये का क़र्ज़ था. फ़सल बर्बाद होने से वो हताश हो गया था. उनका कहना है कि अगर उसे मुआवज़ा मिल जाता, तो उसे मौत को गले नहीं लगाना पड़ता. अन्य राज्यों की भी हालत अच्छी नहीं है. वहां से भी किसानों की ख़ुदकुशी की ख़बरें आ रही हैं.
बारिश और ओलों ने देशभर में क़हर बरपाया है. उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ, ओडिशा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात और बिहार में बेमौसम बारिश से फ़सलों को भारी नुक़सान हुआ है. इन राज्यों में अनाज, तिलहन और दलहन लहलहाती फ़सलें बर्बाद हो गईं. कृषिमंत्री राधामोहन सिंह के मुताबिक़ देश भर में तक़रीबन 113 लाख हेक्टेयर फ़सल बर्बाद हुई है. अकेले उत्तर प्रदेश में साढ़े 10 लाख हेक्टेयर में खड़ी गेहूं की फ़सल तबाह होने की आशंका है. बताया गया है कि फ़सल को सबसे ज़्यादा नुक़सान राजस्थान में पहुंचा है. यहां 45 लाख हेक्टेयर में फ़सल तबाह हुई है. उत्तर प्रदेश में 10.5 लाख हेक्टेयर में खड़ी गेहूं की बर्बाद हुई है. छह लाख हेक्टेयर में दाल की फ़सल ख़राब हुई है, जबकि 68 हज़ार हेक्टेयर में तिलहन की फ़सल नष्ट हुई है.
किसानों का आरोप है कि सरकारी अधिकारी फ़सलों को हुए नुक़सान को बहुत कम बता रहे हैं. उत्तर प्रदेश के किसानों के मुताबिक़ राजस्व विभाग ने गोरखपुर ज़िले के गांव महीमात में महज़ 10 फ़ीसद नुक़सान की रिपोर्ट दी है, जबकि ज़िलाधिकारी रंजन कुमार ने ख़ुद निरीक्षण कर 75 फ़ीसद नुक़सान की पुष्टि की है. गोरखपुर मंडलायुक्त राकेश ओझा दावा करते हैं कि सभी अधिकारी किसानों के हित के लिए काम कर रहे हैं, हो सकता है किसी से कोई ग़लती हो गई हो. किसानों का यह भी कहना है कि मौसम की इस मार से वे पहले ही परेशान हैं और अब राज्य सरकार भी उनके ज़ख़्मों पर मरहम लगाने की बजाय राहत के नाम पर 75 रुपये और 100 रुपये के चेक जारी कर उनके साथ मज़ाक़ कर रही है. फ़ैज़ाबाद ज़िले के गांव वाजिदपुर में किसानों के साथ हुए इस खिलवाड़ का मामला सामने आने पर राज्य सरकार ने ऐलान किया है कि किसी भी किसान को डेढ़ हज़ार से कम मुआवज़ा नहीं मिलेगा.
प्रधानमंत्री ने फ़सलों के नुक़सान से प्रभावित किसानों को मिलने वाली मुआवज़ा राशि में 50 फ़ीसद बढ़ोतरी की घोषणा की है. प्रधानमंत्री ने यह भी कहा है कि सरकार ने मुआवज़ा मिलने के मानदंडों में भी बदलाव किया है. पहले जहां 50 फ़ीसद फ़सल का नुक़सान होने पर ही किसान को मुआवज़ा दिया जाता था, वहीं अब 33 फ़ीसद फ़सल के नुक़सान पर भी उसे मुआवज़ा दिया जाएगा. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने प्रति हेक्टेयर फ़सल के नुक़सान के लिए 50 हज़ार रुपये के मुआवजे की घोषणा की है. किसानों का मानना है कि घोषणा करने में और उसे सही से लागू करने में बहुत फ़र्क़ होता है. अगर सरकारी घोषणाओं और योजनाओं पर सही तरीक़े से अमल होता, तो अज किसान इतने बदहाल न होते. उन्हें अपनी जानें न गंवानी पड़तीं.
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ने केंद्र सरकार को चिट्ठी लिखकर किसानों के पक्ष में नियमों में ढील देने की की मांग की है. केंद्रीय उपभोक्ता मामलों, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्री रामविलास पासवान को लिखे पत्र में उन्होंने कहा है कि बेमौसमी बरसात और ओलों की वजह से गेहूं की फ़सल ख़राब हो गई है. मौजूदा रबी सत्र में गेहूं में नमी की मात्रा बढ़ गई है. इसलिए सरकार ख़रीद के लिए नियमनों में ढील दे, ख़ासकर अनाज में नमी की मात्रा से संबंधित नियमन में. इससे किसानों को कुछ राहत मिलेगी. उन्होंने कहा कि पूर्व में कई ऐसे उदाहरण रहे हैं जब सरकार ने मुसीबत के वक़्त अनाज की ख़रीद के लिए गुणवत्ता मानकों में ढील दी है.
केंद्र सरकार ने बीमा कंपनियों को बेमौसम बारिश और ओलों से बर्बाद हुई फ़सलों के बीमा दावे का निपटारा 45 दिन में करने का निर्देश दिया है. क़ाबिले-ग़ौर है कि देश के 80 फ़ीसद किसान फ़सल बीमा योजना से बाहर हैं. इसलिए उन्हें इसका फ़ायदा नहीं मिलेगा. दरअसल, किसानों की इस बदहाली के लिए बीमा दावे के नियम और राज्य सरकारें ज़िम्मेदार हैं. केंद्र सरकार ने रबी 1999-2000 सत्र के लिए के एक योजना शुरू की थी, जिसका मक़सद प्राकृतिक आपदाओं से फ़सलों को होने वाले नुकसान की हालत में किसानों को राहत पहुंचाना था. योजना को भारतीय कृषि बीमा कम्पनी (एआईसीआईएल) द्वारा संचालित किया जा रहा है. यह योजना सभी किसानों के लिए है. इस योजना में बीमा दावों का निस्तारण जारी सत्र में मिलने वाली फ़सल में कमी के आधार पर किया जाता है. वाणिज्य एवं उद्योग मंडल (एसोचैम) की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 80 फ़ीसद किसानों को बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि, बाढ़, सूखा जैसी प्राकृति आपदाओं से फ़सल बर्बाद होने पर फ़सल बीमा का कोई फ़ायदा नहीं मिलता है. 46 फ़ीसद किसानों को फ़सल बीमा की जानकारी है, लेकिन वे बीमा नहीं कराते. 24 फ़ीसद किसानों फ़सल बीमा की जानकारी ही नहीं है. 11 फ़ीसद किसान बीमा प्रीमियम देने में ख़ुद को असमर्थ बताते हैं. ग़ौर करने लायक़ बात यह भी है कि राज्य सरकारों के फ़सल बीमा योजना के नियमों की वजह से भी किसान इसमें दिलचस्पी नहीं लेते. मसलन कुछ राज्य बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि, बाढ़, सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं का ब्लॊक स्तर पर असर होने पर बीमे का दावा देते हैं, जबकि कई राज्यों में तालुका स्तर पर नुक़सान होने पर किसानों को बीमा दावा दिया जाता है. अगर इनके कुछ भागों में प्राकृतिक आपदा से नुक़सान होता है, तो किसानों को फ़सल बीमा राशि नहीं दी जाती. फ़सल बीमा योजना में दावे की 33 फ़ीसद राशि बीमा कंपनी देती है, जबकि बाक़ी राशि का 50-50 फ़ीसद हिस्सा केंद्र और राज्य सरकारें बीमा कंपनियों को सब्सिडी के तौर पर देती हैं. इसलिए राज्य सरकारें राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना को लागू करने में कोताही बरतती हैं.
बीमा कंपनियों ने बेमौसम बारिश और ओलों से फ़सलों को हुए भारी नुक़सान का आकलन किया है. कृषि बीमा कंपनी (एआईसी) के महाप्रबंधक राजीव चौधरी का कहना है कि दावे की राशि 100 करोड़ रुपये से ज़्यादा हो सकती है. उन्होंने कहा कि जहां तक फ़सल बीमा दावों की बात है, इसमें उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर रह सकता है. एआईसी की बुंदेलखंड के सिर्फ़ 13 ज़िलों में मौजूदगी है और यहां से 25 करोड रुपये के दावे सामने आ रहे हैं. उन्होंने कहा कि वित्त वर्ष 2014-15 में कंपनी ने 5,167.58 करोड रुपये के दावों का निपटान किया और 2,750 करोड़ रुपये की बीमा प्रतिबद्धता प्रीमियम में है. वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान बीमा दावों के निपटान में एआईसी के लिहाज़ से मध्य प्रदेश सबसे ऊपर पर रहा और कंपनी को केवल इसी राज्य में ही 2,000 करोड़ रुपये का भुगतान करना पडा. इसके बाद तमिलनाडु में 800 करोड़ रुपये, आंध्रप्रदेश में 400 करोड़ रुपये और उत्तर प्रदेश में 270 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया. निजी क्षेत्र की बीमा कंपनी आईसीआईसीआई लोंबार्ड ने 2014-15 के दौरान तक़रीबन 500 करोड़ रुपये का बीमा किया है. आईसीआईसीआई का कहना है कि सबसे पहले राज्य सरकार इसका आकलन करती है और उसके बाद दावा निपटान का काम शुरू किया जाता है.
दरअसल, मुआवज़ा मिलना इतना आसान भी नहीं है. किसानों को बीमा दफ़्तरों के अनेक चक्कर काटने पड़ते हैं, तब कहीं जाकर उन्हें थोड़ी-बहुत रक़म हाथ आती है. किसानों का कहना है कि अगर वक़्त पर मुआवज़ा मिल जाए, तो किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर न होना पड़े. उनका कहना भी सही है. किसान उधार-क़र्ज़ करके बुआई करते हैं. वे न दिन देखते हैं, न रात. न सर्दी देखते हैं, न गर्मी. बस दिन-रात कड़ी मेहनत करके फ़सल उगाते हैं. अनाज के हर दाने में उनकी मेहनत की महक होती है. किसान अपने ज़्यादातर बड़े काम फ़सल कटने के बाद ही करते हैं, जैसे किसी की शादी, घर बनवाना, कोई ज़रूरी महंगी चीज़ ख़रीदना आदि. लेकिन जब किसी वजह से उनकी फ़सल बर्बाद हो जाती है, तो वो क़र्ज़ के बोझ तले और भी ज़्यादा दब जाते हैं. खेती की बढ़ती लागत और कृषि उत्पादों की गिरती क़ीमतों से किसानों को नुक़सान होता है. बड़े कारोबारी औने-पौने दामों में कृषि उत्पाद ख़रीद कर मोटा मुनाफ़ा कमाते हैं, लेकिन किसानों को उनकी मेहनत की भी वाजिब क़ीमत नहीं मिल पाती.
ग़ौर करने लायक़ बात यह भी है कि लाखों करोड़ रुपये के कृषि क़र्ज़ के बजटीय लक्ष्य के बावजूद आधे से ज़्यादा किसानों को साहूकारों और आढ़तियों से क़र्ज़ लेना पड़ता है. किसानों को घर या ज़मीन गिरवी रखकर मोटी ब्याज़ दर पर ये क़र्ज़ मिलता है. उनकी हालत यह हो जाती है कि असल तो दूर, वे ब्याज़ भी नहीं चुका पाते. अकसर यही क़र्ज़ उनके लिए जानलेवा साबित हो जाता है. किसान हितैषी संगठन और सियासी दल क़र्ज़ माफ़ी की मांग तो अकसर उठाते हैं, लेकिन किसानों के असल मुद्दों पर ख़ामोशी अख़्तियार कर जाते हैं.
किसान हित में कृषि लागत को कम करने के तरीक़े तलाशने होंगे. किसानों को उनकी फ़सल की सही क़ीमत मिले, इसकी व्यवस्था करनी होगी. प्राकृतिक आपदाओं आदि से फ़सलों को हुए नुक़सान की भरपाई के लिए देश के हर किसान तक को बीमा योजना के दायरे में लाना होगा. जब तक देश का एक भी किसान बदहाल है, देश तरक़्क़ी नहीं कर सकता. हमें समझना होगा कि सिर्फ़ जय किसान का नारा देने भर से किसानों का भला होने वाला नहीं है. किसानों के हित में ज़मीनी स्तर पर काम करना होगा.
आख़िर में
जिन किसानों ने ख़ुद्कुशी की हैं, उनके घर दोहरा मातम पसरा पड़ा है. पहला फ़सल तबाह होने का और दूसरा अपने परिजन को खो देने का. फ़सल तो अगले मौसम में फिर से उगाई जा सकती है, लेकिन जो मर गया है, उसे कैसे ज़िंदा करें. यही एक सवाल ऐसा है, जिसका किसी के पास कोई जवाब नहीं है.