इमरजेंसी में जेल जाने वाले इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक कुलदीप नैयर कल प्रेस क्लब में पत्रकारों की भीड़ देख कर उत्साहित थे. जिस तरह मीडिया का बड़ा तबका राजा का बाजा बना हुआ है उसे देखते हुए किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि प्रेस क्लब में इतनी बड़ी संख्या में पत्रकार जुटेंगे. कुलदीप नैयर के साथ एक्सप्रेस के दूसरे संपादक अरुण शौरी, एक्सप्रेस के एक और पूर्व संपादक एचके दुआ, एस निहाल सिंह के साथ प्रणय राय और मशहूर विधिवेत्ता फली एस नरीमन की मौजूदगी के राजनैतिक संकेत साफ़ है. इंडिया टुडे समूह के मालिक अरुण पूरी का लिखित संदेश पढ़ा गया जो अभिव्यक्ति की आजादी पर होने वाले हमले के विरोध में था. इन दिग्गज पत्रकारों ने इस उम्र में साथ आकर नौजवान पत्रकारों को तो झकझोर ही दिया है. सरकार की मनमानी के खिलाफ बहुत से हाथ खड़े हो चुके हैं. हाल के दो दशक में इस तरह की एकजुटता तो मुझे नहीं दिखी .
बिहार प्रेस बिल के समय जरुर दिखी थी जब एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका से लेकर खुशवंत सिंह और स्टेट्समैन तक के मालिक बोट क्लब पर प्रेस की आजादी वाले प्ले कार्ड लिए खड़े थे .एनडीटीवी के मालिक प्रणय राय पर जिस समय छापा पड़ा उसके ठीक पहले उनके चैनल की एक एंकर ने भाजपा के एक प्रवक्ता को बहस से बाहर कर दिया था .ऐसे में सभी का ध्यान इसी पर गया भी .प्रणय राय पर कितना कर्ज है कितने मामले है और सत्ता पक्ष से कैसा रिश्ता है यह सब मीडिया से जुड़े लोग ठीक से जानते हैं.जो नहीं जानते थे उन्हें राष्ट्रवादी पत्रकारों ने कैरेवान पत्रिका का पुराना लिंक देकर जागरूक भी करने का सार्थक प्रयास किया. जो भी अख़बार पत्रिका या चैनल चलाता है उसे बैंक का कर्ज लेना पड़ता है और उसकी वसूली, भारी ब्याज आदि के विवाद से लगातार जूझना पड़ता है. इंडियन एक्सप्रेस में यह सब मैंने गोयनका जी के समय से देखा है. तब तो न्यूज प्रिंट के कोटा का भी खेल होता था और सरकार चाहती तो किसी भी मामले में आसानी से फंसा सकती. पर एनडीटीवी के मामले में ऐसा कुछ नहीं था जो था वह खबरों को लेकर ज्यादा था. हालांकि इंडियन एक्सप्रेस और टेलीग्राफ की चोट और तीखी होती, पर शायद इन अखबारों से ज्यादा लोगों तक पहुंच रखने और सत्ता विरोधी विचार पहुंचाने की वजह से यह चैनल हमेशा भाजपा नेताओं के निशाने पर रहा. यह बात अलग है कि ज्यादातर चुनाव में इसे विपक्ष को ही हराया पर धारणा यही बनी कि यह सत्ता के खिलाफ है, क्योंकि इसके कुछ कार्यक्रम खबरों की चीड़ फाड़ ठीक से करते रहे है. बहरहाल ताजा विवाद भाजपा के एक बडबोले प्रवक्ता था, जिसे बहस से बाहर करने के बाद ही प्रणय राय के घर सीबीआई का छापा पड़ा. इससे पहले डीएवीपी के नियमों में बदलाव लाकर बड़ी संख्या में लघु और मझोले अखबारों का सरकारी विज्ञापन बंद किया जा चुका था. कुछ अख़बार सिर्फ फ़ाइल कापी निकालते होंगे, पर सभी तो ऐसा नहीं करते थे .मीडिया को लेकर केंद्र सरकार की नीति साफ़ हो चुकी है. खुद प्रधानमंत्री मोदी कभी बड़ी प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते न ही बाहर के दौरे पर उस तरह पत्रकारों को साथ ले जाते हैं, जैसे अन्य प्रधानमंत्री ले जाते थे .एकाध प्रायोजित इंटरव्यू जरुर अपवाद है. हालांकि मीडिया का बड़ा तबका वैसे ही उनका समर्थन करता है, पर अगर कोई सत्ता विरोधी खबर या विश्लेष्ण करे तो वह उनके निशाने पर आ जाता है. राज्य सभा टीवी में जो हाल में हुआ वह सामने था. कई अखबारों को यह साफ़ कह दिया गया है कि कुछ पत्रकारों के लेख नहीं लिए जाएं. खासकर संपादकीय पृष्ठ पर .ऐसे हालात पहले कभी नहीं थे. कांग्रेस ने इमरजंसी में यह सब किया और नतीजा भी भुगतना पड़ा. ऐसे में मौजदा सरकार जिसे सिर्फ सकारात्मक खबरे और लेख पसंद है उसके खिलाफ लिखने और बोलने की कीमत चुकानी पड़ेगी. एंकर निधि राजदान के साहस की कीमत सीबीआई का छापा है. यह हथकंडा पुराना है, पर बार बार यही इस्तेमाल होता है. आगे भी होगा .इसलिए प्रेस क्लब आफ इंडिया परिसर में पत्रकारों के इस जमावड़े को गंभीरता से लेना चाहिए. कुलदीप नैयर ने बताया भी कि इमरजंसी में तो तो सिर्फ तिहत्तर पत्रकार ही समर्थन में खड़े हुए, पर आज तो बड़ी संख्या में पत्रकार आए. इसका संकेत सरकार को भी समझना चाहिए. अब पुलिस या सीबीआई से मीडिया को धमका ले यह आसान नहीं है. कल जो एकजुटता दिल्ली के प्रेस क्लब में दिखी, उसका संदेश देश के कोने कोने में जा चुका है. देश के बहुसंख्यक पत्रकार भी लड़ाई के लिए तैयार है.