कवि सम्मेलनों का समृद्धशाली इतिहास लगभग सन १९२० माना जाता हैं । वो भी जन सामान्य को काव्य गरिमा के आलोक से जोड़ कर देशप्रेम प्रस्तावित करना| चूँकि उस दौर में भारत में जन समूह के एकत्रीकरण के लिए बहाने काम ही हुआ करते थे, जिसमें लोग सहजता से आएं और वहां क्रांति का स्वर फूंका जा सके|  उसके बाद कवि सम्मेलन भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग बन गए। उस मुद्दे के बाद कवि  सम्मेलनों में नौ रसों को शामिल करने की कवायद शुरू हुई| भारत में स्वाधीनता के बाद से ८० के दशक के आरम्भिक दिनों तक कवि सम्मेलनों का 'स्वर्णिम काल' कहा जा सकता है। ८० के दशक के उत्तरार्ध से ९० के दशक के अंत तक भारत का युवा बेरोज़गारी जैसी कई समस्याओं में उलझा रहा। इसका प्रभाव कवि-सम्मेलनों पर भी हुआ और भारत का युवा वर्ग इस कला से दूर होता गया। मनोरंजन के नए उपकरण जैसे टेलीविज़न और बाद में इंटरनेट ने सर्कस, जादू के शो और नाटक की ही तरह कवि सम्मेलनों पर भी भारी प्रभाव डाला। कवि सम्मेलन संख्या और गुणवत्ता, दोनों ही दृष्टि से कमज़ोर होते चले गए। श्रोताओं की संख्या में भी भारी गिरावट आई। इसका मुख्य कारण यह था कि विभिन्न समस्याओं से घिरे युवा दोबारा कवि-सम्मेलन की ओर नहीं लौटे। साथ ही उन दिनों भीड़ में जमने वाले उत्कृष्ट कवियों की कमी थी। लेकिन नई सहस्त्राब्दी के आरम्भ होते ही इंटरनेटयुगिन युवा पीढ़ी, जो कि अपना अधिकांश समय इंटरनेट पर गुज़ार देती हैं वह कवि सम्मेलन को पसन्द करने लगी। इसी युग में काव्य को कई कवियों ने सहजता और सरलता से आम जनमानस की भाषा में लिखकर काव्य किताबों से निकल कर मंचो पर सजने लगा |
२००४ से लेकर २०१० तक का काल हिन्दी कवि सम्मेलन का दूसरा स्वर्णिम काल भी कहा जा सकता है। श्रोताओं की तेज़ी से बढती हुई संख्या, गुणवत्ता वाले कवियों का आगमन और सबसे बढ़के, युवाओं का इस कला से वापस जुड़ना इस बात की पुष्टि करता है। पारम्परिक रूप से कवि सम्मेलन सामाजिक कार्यक्रमों, सरकारी कार्यक्रमों, निजी कार्यक्रमों और गिने चुने कार्पोरेट उत्सवों तक सीमित थे। लेकिन इक्कईसवीं शताब्दी के आरम्भ में शैक्षिक संस्थाओं में इसकी बढती संख्या प्रभावित करने वाली है। जिन शैक्षिक संस्थाओं में कवि-सम्मेलन होते हैं, उनमें आई आई टी[, आई आई एम, एन आई टी, विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग, मेडिकल, प्रबंधन और अन्य संस्थान शामिल हैं। उपरोक्त सूचनाएं इस बात की तरफ़ इशारा करती है, कि कवि सम्मेलनों का रूप बदल रहा, परन्तु इसी दौर में साहित्यिक शुचिता का वो हश्र भी हुआ की भारत की संस्कृति में एक हवा बाजारवादी और विज्ञापनवादी संस्कृति की भी घुस गई जिसने स्ट्रीक को भोग्य समझा और उसी के साथ चुहल करने को साहित्य का नाम देकर काव्य से परिवारों को तोड़ दिया |इसी दौर में डॉ  उर्मिलेश ने लिखा हैं
तुम अगर कवि हो तो मेरा ये निवेदन सुन लो,
खोल कर कान जरा वक्त की धड़कन सुन लो,
तुम और न ये श्रृंगार न लिखो गीतों
तुम न अब प्यार या श्रृंगार लिखो गीतों
वक्त की मांग हैं अंगार लिखों गीतों में
सिर्फ कुंठाओं की अभिव्यक्ति नहीं है कविता
काम क्रीड़ाओं की आसक्ति नहीं है कविता
कविता हर देश की तस्वीर हुआ करती हैं
निहत्थे लोगो की शमशीर हुआ करती हैं...
तुम भी शमशीर या तलवार लिखों गीतों में
वक्त की मांग हैं अंगार लिखों गीतों में
इसी कविता में डॉ. उर्मिलेश कहते हैं कि जवानी को नपुंसक न बनाओं कवियों.. आखिर क्यों आवश्यकता आन पड़ी इस पंक्तियों को लिखने की ?  जरूर मंचों से वाग्देवी की पुत्रियों द्वारा पड़े श्रृंगार पर छींटाकशी ने उनके भी ह्रदय को विदारित किया ही होगा, इसीलिए उन्होंने श्रृंगार विहीन मंच की बात कही होगी, क्योंकि डॉ उर्मिलेश कोई कमजर्फ तो नहीं थे, बल्कि उस दौर के नायक रहें हैं। पहले उसके बोलो पर ग़ज़लों की बहर कही जा सकती थी, अब उन्ही बोलों की इशारा माना जाने लगा है और न जाने क्यों सीमाएं लांघी जाने लगी है। कवि सम्मेलनों के स्तरहीन होने पर अब सूरज को भी युगधर्म सीखने का समय है| कवि कुमार विश्वास की कविता की पंक्तियाँ यही कहती है कि-
तम शाश्वत है, रात अमर है, गिरवी पड़े उजाले बोले,
सूरज को युगधर्म सिखाते, अंधियारों के पाले बोले
चीर-हरण पर मौन साधते,प्रखर मुखों के ताले बोले
बधिरों के हित  रचें युग ऋचा, वाणी के रखवाले बोले
नितांत आवश्यक प्रश्न हैं कि वर्तमान में कवि सम्मेलनों के स्तरहीन होने पर वाणी के रखवाले क्यों खामोश है ? और सबसे पहले तो ये हो क्यों रहा हैं ? उपभोक्तावादी कविसम्मेलनों में लगातार आयोजक और संयोजक मिलकर कविता को धनपशुओं की रखैल बनाने पर आमद हो रहे हैं|वर्तमान में हिन्दी कवि सम्मेलनों में स्तरहीनता होने के पीछे कवि, संयोजक और आयोजको के साथ-साथ हिन्दी के पाठक और श्रोता भी जिम्मेदार हैं| क्योंकि आप ही यदि विरोध नहीं करेंगे तो प्रतिध्वनियों के कोलाहल पर ध्वनियों का मौन हो जाना ही स्वीकृति देने सामान हैं | यहाँ चुप्पी, चीखों का हल नहीं हैं|  स्त्री को भोग्या मानना और उसका उपहास उड़ाने के बाद भी द्विअर्थी संवादों के बहाने सम्पूर्ण नारी जाती को कटघरे में खड़ा करने में जिम्मेदार कुछ एक कवियत्रियाँ भी हैं जो सस्ती लोकप्रिय और ज्यादा काम पाने की लालसा में सरस्वती के मंच को वैश्यालय बनाने से बाज नहीं आ रही हैं |
हिन्दी  भाषा के रचनाकार इतने अभागे नहीं है कि अपने घर की बहन-बेटियों को आयोजकों और संयोजकों को परोसकर अपना घर चलाए , फिर क्यों वे आशा करते है भारत की बेटियों से कि वो स्वयं को परोसे और फिर कवि सम्मलेन से रोजगार और प्रसिद्धि पाएं | मंचों पर शब्दबाणों से कविता के साथ-साथ स्त्री का भी चीर-हरण होता हैं, और सभा में बैठे धृतराष्ट्र मुँह फाड़ -फाड़ कर ठिठोली करते हुए असंख्य दुःशासनों के हौसलों को बढ़ा रहें हैं, इस तरह से तो हिन्दी कवि सम्मेलनों और मुजरों में फर्क ही कहा रह जाएगा |
पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला
घेर ले छाया अमा बन
आज कंजल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन
निश्चित तौर पर आ. महादेवी वर्मा जी की कविता की प्रथम पंक्ति में ही समाधान के संग्रह को समाहित कर लिया गया है, इस समस्या का सीधा-सा समाधान हैं, या तो ऐसे कवि सम्मेलनों का बहिष्कार हो जहाँ द्विअर्थी संवादों के सहारे कविता के नाम पर फुहड़ता परोसी जा रही हो, या फिर उसी मंच पर फूहड़ या अभद्र होने वाले दुस्शासन हों तमाचा रसीद किया जाए, क्योंकि आपके भी घर में माँ-बेटी होती है और यदि कोई कवियत्री फुहड़ता परोसने में सहभागी बन रही हो तो हाथ-पकड़ कर मंच से उतरा जाए, क्योंकि मंच सरस्वती का मंदिर है, नगरवधुओं का घर नहीं| यदि देश के ५-१० कवि सम्मेलनों में भी ऐसा हो गया तो निश्चित तौर पर अन्य दलालों को शिक्षा मिल जाएगी| हिन्दी के श्रोताओं को जागना होगा यदि  हम न जागे तो हिन्दी के मंचों से ही हिन्दी की दुर्दशा का स्वर्णिम अध्याय लिखा जाएगा |
डॉ. अर्पण जैन 'अविचल'


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