कुमार कृष्णन
प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण शिक्षण-केन्द्रों में नालंदा व तक्षशिला की तरह विक्रमशिला बौद्ध महाविहार का महत्वपूर्ण स्थान था जिसने करीब चार सौ वर्षों तक धर्म-संस्कृति की लौ को अक्षुण्ण रखा। विक्रमशिला की विडंबना यह रही कि जहाँ आजादी के पूर्व अंग्रेजों के काल में ही नालंदा व तक्षशिला की खुदाई हो जाने के कारण पूरा विश्व इनके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, पुरातत्वविक और शैक्षणिक विशिष्टताओं से अवगत हो गया, वहीं विक्रमशिला 1970 तक अपने वजूद़ की ही तलाश में छटपटाता रहा। 1970-80 के दशक में पुराविद् डॉ बीएस वर्मा के नेतृत्व में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) द्वारा भागलपुर जिला के कहलगांव अनुमंडल अन्तर्गत अंतीचक ग्राम में विक्रमशिला स्थल के उत्खनन परिणामों के आने के बाद ही यह स्थापित हो पाया कि इस प्राचीन बौद्ध महाविहार का 'लोकेशन' यहीं है। इस खुदाई में न सिर्फ विक्रमशिला के मुख्य स्तूप तथा कई संरचनाएं, वरन् कई बौद्ध व ब्राह्मण देवी-देवताओं की नायाब मूर्तियां, टेराकोटा शिल्प के उत्कृष्ट नमूने और अन्य पुरा सामग्रियां मिली हैं जिनके सम्यक अध्ययन-विश्लेषण से न सिर्फ बौद्ध धर्म, वरन् विक्रमशिला के इतिहास में कई सुनहरे पृष्ट जुड़ सकते हैं, इसके आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतिश सरीखे विद्वानों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विशेष रौशनी पड़ सकती है। पर यह भी अफसोसजनक है कि खुदाई के करीब 40 वर्ष बीत ने के बाद भी इनपर अभी तक कोई गंभीर शोध-अध्ययन नहीं हो पाया है। विक्रमशिला की विडंबना की इस पृष्टभूमि में क्षेत्रीय इतिहासकार शिव शंकर सिंह पारिजात की सद्य प्रकाशित पुस्तक 'विक्रमशिला बौद्ध महाविहार के महान् आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतिश' ऐसे कई प्रश्नों से दो-चार होने का सार्थक प्रयास है।
विक्रमशिला के स्वर्णिम अतीत व इसके आचार्यों के योगदान की बात करें तो बौद्ध धर्म के इतिहास में 'मंत्रयान'और 'वज्रयान' की शिक्षा के लिये पूरी दुनिया में प्रसिद्ध रहे विक्रमशिला महाविहार व भारतीय धर्म, इतिहास तथा संस्कृति में महती योगदान करनेवाले इसके आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतिश का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। बौद्ध धर्म के अवसान काल में जहाँ विक्रमशिला में इसकी अंतिम लौ टिमटिमायी, वहीं तिब्बत में धर्म के परिमार्जन- पुनरोत्थान में अतुलनीय योगदान के कारण वहाँ बुद्ध के अवतार के रूप में पूजे जानेवाले दीपंकर अतिश भारत के अंतिम महान् बौद्ध आचार्य माने जाते हैं। आचार्य दीपंकर ने 'बोधि पथ प्रदीप' व 'चर्या संग्रह प्रदीप' सहित 200 से अधिक ग्रंथों की रचना की है।
सुपरिचित क्षेत्रीय इतिहासकार शिव शंकर सिंह पारिजात की नई दिल्ली के अनामिका प्रकाशन से सद्य: प्रकाशित पुस्तक 'विक्रमशिला बौद्ध महाविहार के महान् आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतिश' (17 अध्याय, 315 पृष्ट, मूल्य 900 रू.) न सिर्फ विक्रमशिला के आभावान विद्वत मंडली के सबसे दीप्तिमान आचार्य दीपंकर के व्यक्तित्व, कृतित्व, जीवन, दर्शन-उपदेश व उनके अवदान की मीमांसा करता है, वरन् कतिपय अहम मुद्दों को उठाकर विक्रमशिला और आचार्य दीपंकर के विमर्श को प्रासांगिकता भी प्रदान करता है। विक्रमशिला संबंधी पुरातत्वविक साक्ष्यों के लम्बे समय तक जमींदेज रहने के कारण इसके आचार्य दीपंकर के जन्म-स्थान के मुद्दे को कतिपय विद्वानों ने विवादास्पद बना दिया है।
एएसआई द्वारा 1970 के दशक में खुदाई होने तक विक्रमशिला का 'लोकेशन' विवादास्पद बना रहा। इस पुस्तक की प्रस्तावना में स्वयं विक्रमशिला की खुदाई करनेवाले पुराविद् डॉ.बीएस वर्मा बताते हैं कि बांग्लादेश स्थित सोमपुरा विहार के साथ अद्भूत साम्यता के कारण कई विद्वानों ने इसे ही विक्रमशिला समझने की भूल कर दी थी। इसी के आधार पर विद्वानों की एक लॉबी आचार्य दीपंकर का जन्म स्थान बांग्ला- देश के ढाका के निकट स्थित विक्रमानीपुर होना बताती रही, जबकि तिब्बत की दुर्गम यात्रा कर वहाँ से लाये गये दीपंकर की जीवनी के आधार पर पण्डित राहुल सांकृत्यायन आजीवन यह दावा करते रहे कि आचार्य दीपंकर का जन्म विक्रमशिला के निकट स्थित 'सहोर राज्य' में हुआ था जो उन दिनों विक्रमशिला से लेकर वर्तमान भागलपुर तक फैला था। किंतु परवर्ती विद्वानों द्वारा इसपर सम्यक शोध-अध्ययन नहीं किये जाने के कारण मामला विवादों से घिरा रहा।
राहुल सांकृत्यायन के उक्त दावे के 70 वर्षों के बाद पहली बार शिव शंकर सिंह पारिजात ने गहराई से काम किया और तिब्बती ग्रथों में वर्णित उक्त सहोर राज्य के वर्तमान क्षेत्र में प्राप्त पुरातात्विक संरचनाओं, पुरावशेषों, मूर्तियों, ढूहों, बिहार सरकार के हालिया सर्वेक्षण रिपोर्ट सहित प्रमाणिक ग्रंथों के आधार पर दावा किया है कि आचार्य दीपंकर का जन्म स्थान भागलपुर जिले का ओलपुरा अथवा सौरडीह नामक स्थान है जिसकी सम्यक खुदाई कराने पर पूरी स्थिति स्पष्ट हो जायेगी।
गौरतलब है कि अभी भी बिहार सरकार अथवा केन्द्र सरकार या यहाँ के इतिहासवेत्ता-विद्वतगण आचार्य दीपंकर के जन्म स्थान के मसले को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं, किंतु आज की तिथि में इसके अंतरराष्ट्रीय निहितार्थ को आसानी से समझा जा सकता है। विदित है कि आचार्य दीपंकर की कर्म-स्थली होने के कारण तिब्बतियों की विक्रमशिला के प्रति अगाध श्रद्धा है और प्रति वर्ष बड़ी संख्या में वे यहाँ आते हैं। इतिहास व संस्कृति को अपने नये राजनयिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करनेवाला चीन भारत से तिब्बतियों की आस्था विमुख करने की मंशा से न सिर्फ आचार्य दीपंकर के जन्म स्थान के रुप में बांग्ला देश के विक्रमानीपुर को प्रचारित कर रहा है, वरन् वहाँ दीपंकर के नाम पर मंदिर बनवा उसमें तिब्बत से मंगवाकर उनका अस्थि-कलश भी स्थापित करवा दिया।
विक्रमशिला व उसके महान् आचार्य दीपंकर से संबंधित ज्वलंत मुद्दों को उठाने तथा सक्षमतापूर्वक विषय-वस्तु के निरूपण के कारण श्री पारिजात की पुस्तक पर लगातार विद्वानों के मत प्राप्त हो रहे हैं।
पुस्तक में वृहद् रूप से संदर्भ ग्रंथों व पाद टिप्पणियों के उपयोग पर जहाँ एएसआई के उत्तरी क्षेत्र के पूर्व निदेशक पुराविद् मोहम्मद केके का कहना है कि इससे दीपंकर पर अग्रेतर अध्ययनमें सुविधा होगी। पंडित राहुल सांकृत्यायन की पुत्री जया एस.पड़हाक का मानना है कि इस पुस्तक को राहुल जी के नाम समर्पित कर उनकी 125 वीं जयंती वर्ष में उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी गयी है। लेखक शिव शंकर सिंह पारिजात का मानना है कि यदि समय रहतेआचार्य दीपंकर के जन्म स्थान के मसले की सुधि नहीं ली जाती है तो कहीं अपना देश अपनी इस महान् विभूति को कहीं खो न बैठे।
प्रकाशक : अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली
मूल्य : 900 रुपये