फ़िरदौस ख़ान
सुविख्यात नवगीतकार देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' के कृतित्व पर एक शानदार पुस्तक पढ़ने का अवसर मिला। इस पुस्तक का नाम ‘नवगीत को देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ का अवदान’ है। वास्तव में यह एक शोध ग्रन्थ है, जिसे डॉ. प्रफुल्लिता तिवारी ने लिखा है। इस पुस्तक को आगरा के निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने प्रकाशित किया है।

देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' नवगीत के उन पुरोधाओं में सम्मिलित हैं, जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती, समकालीन एवं परवर्ती पीढ़ी के रचनाकारों को अत्यंत प्रभावित किया है। असंख्य छात्रों ने उनकी रचनाओं पर शोध किया है। डॉ. प्रफुल्लिता तिवारी ने भी नवगीत को उनके अवदान पर गहन अध्ययन कर शोध ग्रन्थ लिखा है। इस पुस्तक में छह प्रकरण हैं। प्रथम प्रकरण हिन्दी नवगीत : परम्परा का अवदान, द्वितीय प्रकरण देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ : व्यक्ति और सृष्टि, तृतीय प्रकरण देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’के गीतों का संवेदनात्मक धरातल, चतुर्थ प्रकरण देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’के गीतों की भाषा और छन्द-विधान, पंचम प्रकरण देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के नवगीतों का शिल्प-विधान, षष्ठ प्रकरण उपसंहार है, जिसमें देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी है। इसके अतिरिक्त ‘परिशिष्ट’नामक अध्याय में साक्षात्कार तथा देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अप्रकाशित नवगीत संग्रह एवं नवगीतेतर अप्रकाशित साहित्य का उल्लेख है।    

लेखिका कहती हैं कि नवगीत गीतिकाव्य परम्परा का अधुनातन रूप है जहाँ संवेदनाएँ कमरे से बाहर निकल कर चौराहे पर खड़ी दिखाई देती हैं। इस प्रक्रिया में नवगीत से छन्द की शास्त्रीयता के कठोर आवरण और भाषा के बासीपन के खोल को उतार फेंका है तथा युगबोध को अपना पाथेय बनाकर अभिव्यंजना की एक मौलिक और सर्वथा नई कलात्मक यात्रा सफलतापूर्वक पूरा किया है। नवगीत की यात्रा यों तो निराला से प्रारम्भ मानी जाती है परन्तु इसे गति देने में 1950 के बाद के गीतकारों की भूमिका विशेष रही है।        

देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ ने नवगीत को उर्वर भूमि एवं संस्कार देने का अथक प्रयास किया है। उन्होंने नवगीत को एक संतुलित दिशा देने के लिए अभिव्यक्ति को लक्ष्य केन्द्रित बनाया। उनका बिम्ब विधान तक लक्ष्यहीन नहीं है। उन्होंने न केवल गीतों को मूलचेतना से मंडित किया, अपितु नवगीतकारों का भी मार्ग प्रशस्त किया है। उनके इस लक्ष्य में समाज का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। यथा-
फिर दिशाओं के कपोलों पर 
रात का 
घुलने लगा काजल
झाड़ में उलझा 
करौंदों की 
हवाओं का 
चम्पई आँचल
धुंधलकों से फिर पता पूछना 
राह में भूले मुसाफ़िर।     
      
           
इस पुस्तक में गीत और नवगीत में अंतर को भी बहुत बारीकी से समझाया गया है। नवगीत ने समूह-चेतना को विराट पटल पर उतारा है, इसलिए उसका संवेदना-पक्ष अत्यंत सामाजिक रूप में रूपायित हुआ है। परम्परागत  गीत की व्यक्ति संवेदना में वैयक्तिकता अधिक होती है, नवगीत में ‘मैं’ और ‘हम’ शब्द भी सामाजिकता का बोध अधिक कराते हैं। यथा-
परम्परागत गीत : 
न बीते दिन, न बीते रात 
बिन तेरे सजन। 
कहें किससे हृदय की बात  
ये प्यासे नयन ।।
तड़पती वेदना मेरी 
घहरती इन घटाओं में । 
खिसकती लाज की चुनरी 
सरर बहती हवाओं में ।।
चपल चपला घटाओं से 
लिपट जब कौंध जाती है 
गीत बनकर व्यथा मेरी 
मचलती है दिशाओं में ।।
सही जाती नहीं, 
बरसात की दारुण अगन ।


नवगीत :
बीच में न रहे कुछ भी 
फेंक दें 
बैसाखियों को हम 
टूट जाए यातनाओं का वहम ।
सुगबुगाता जेब में 
सूरज अँधेरे का 
तड़फड़ाता आँख में 
क्रौंच का जोड़ा 
नापसे हटने लगा है 
मोह घेरे का, 
इस धुँआती आग से 
राख है 
अपनी गरम है।                      

 
इस शोध ग्रन्थ में लेखिका ने पुस्तक में प्रस्तुत तथ्यों को प्रमाणित किया है। संदर्भ ग्रंथों की सूची लेखिका के विराट अध्ययन एवं परिश्रम का प्रमाण है। ग्रंथ की भाषा परिमार्जित एवं विषय को स्पष्ट करने में पूर्ण समर्थ है। निसंदेह, यह कृति साहित्य विशेषकर काव्य प्रेमियों के लिए आलोक स्तम्भ सिद्ध होगी।

पुस्तक का नाम : नवगीत को देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’का अवदान
लेखिका : प्रफुल्लिता तिवारी
प्रकाशक : निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा
पृष्ठ : 448
मूल्य : 1200 रुपये      
 


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