उम्र मेरे दरवाज़े पर
चुपचाप जूते उतार कर आई
हाथ बढ़ाकर
मेरी कलाई थाम ली
और बोली
बहुत भाग-दौड़ हुई
चलो अब तसल्ली से
पढ़ते हैं दुनिया को
अब रास्ते
पहले जैसे तेज़ नहीं भागते
हर मोड़ पर
थोड़ा रुकना
थोड़ा लौटकर देखना
अच्छा लगता है
चाय के प्याले में उठती
हल्की-सी भाप तक
अपनी कहानी कहती है
आईने से अब
वाद-विवाद नहीं होता
वह मुस्कुराता है
किसी पुराने साथी की तरह
साथी के साथ
बातें अब तर्कों की नहीं
ठहराव की होती हैं
दो लोग
एक ही शांत खिड़की से
दुनिया को देख लेते हैं
मित्र भी
अब केवल ऊपर-ऊपर मिलने वाले नहीं
बल्कि ठंडी छाँव जैसे हैं
समाज से रिश्ता
अब उलझनों का नहीं
समझ का है
कंधों पर रखे
बीते सालों के बोझ में भी
एक अजीब-सा संतुलन है
जैसे जीवन ने
मेरे लिए
नापकर ही रखा हो
उम्र अब मेरा परिचय नहीं
मेरी संगत बन गई है
एक ऐसी संगत
जो हर दिन मुझे
थोड़ा और गहरा
थोड़ा और हल्का
थोड़ा और अपना
बना देती है।
-मालिनी गौतम
