फ़िरदौस ख़ान
दिनोदिन बढ़ते बच्चों के यौन शोषण के मामलों ने यह साबित कर दिया है कि देश में नौनिहाल कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। बाहर ही नहीं घर के भीतर भी उनका यौन उत्पीडन होता है और इसमें वही लोग शामिल होते हैं जिन पर उनकी सुरक्षा का दायित्व होता है। एक सरकारी सर्वे के मुताबिक़ देश में पांच से बारह साल की उम्र के 53 फ़ीसदी बच्चे ऐसे हैं जिन्हें पारिवारिक व्यक्तियों ने ही यौन उत्पीड़न का शिकार बनाया है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो तथा राष्ट्रीय बालाधिकार आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि बाल यौन उत्पीड़न और बाल कदाचार के मामलों में उत्तर प्रदेश की स्थिति सबसे दयनीय है। 2006-08 के एक सर्वे में दिल्ली में बाल दुष्कर्म के 301 व बाल कदाचार के 53 मामले दर्ज किए गए। वर्ष 2008 में बाल दुष्कर्म के कुल 5446 मामले दर्ज किए गए, जिसमें उत्तर प्रदेश में ही 900 मामले दर्ज हैं, जबकि 2007 में छेड़छाड़ व बाल कदाचार के कुल 298 मामलों में 61 मामले उत्तर प्रदेश में सामने आए। दूसरा स्थान मध्यप्रदेश का रहा, जहां बाल दुष्कर्म के 892 व बाल यौन कदाचार के 52 मामले दर्ज किए गए। तीसरे स्थान पर महाराष्ट्र हैं जहां 690 में से 9 मामले दर्ज किए गए। वहीं, कर्नाटक में यह संख्या क्रमश: 97 व 9 है, जबकी गुजरात में 99 व 6 मामले दर्ज किए गए। राजस्थान में 420 व 5, आंध्रप्रदेश में 412 व 16, बिहार में 91 व 15 और उड़ीसा में 65 और 22 मामले सामने आए हैं। अफ़सोस की बात यह है कि इन मामलों को निपटाने व सजा दिलवाने का रिकॉर्ड खराब है। 61 मामलों में मात्र 87 केस ऐसे हैं जिन्हें निपटाया गया। आज भी 70 फ़ीसदी बच्चे ऐसे हैं जो अपने शोषण की शिकायत दर्ज नहीं करा पाते और डर की वजह से चुप रहते हैं.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों की सुरक्षा के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाए गए हैं। राजधानी दिल्ली से सटे उप महानगर नोएडा के निठारी गांव में बच्चों के अपहरण, बलात्कार और हत्या का सनसनीखेज मामला उजागर होने के बाद उत्तर प्रदेश की पुलिस और कानून व्यवस्था पर सवाल उठने शुरू हो गए थे। हालांकि निठारी कांड के खुलासे के बाद देशभर में एक बार फिर से बच्चों की सुरक्षा को लेकर आवाज बुलंद की जाने लगी थी, कुछ वक़्त बाद फिर यह आवाज़ कहीं खो गई । देशभर में गुमशुदा बच्चों के बारे में भी जानकारी जाने की कवायद शुरू हुयी थी। कोर्ट ने भी इस मामले में स्वयं ही संज्ञान लिया था। इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सालाना रिपोर्ट को गंभीरता से लेकर अपराध की रोकथाम के लिए कारगर कदम उठाए गए होते तो बच्चों को निठारी कांड का शिकार बनने से बचाया जा सकता था। मगर अपराध के संबंध में पुलिस अधिकारी अपनी मजबूरियां गिनाने लगते हैं। पुलिस के एक पूर्व आला अधिकारी ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर समाज में बढ रहे अपराधों में हर व्यक्ति की एफआईआर दर्ज होने लगे तो स्थानीय नेता हंगामा करते हैं कि क्षेत्र में अपराध बढ रहे हैं। पुलिस निष्क्रिय है। ऐसे में नौकरी का खतरा है। इसके अलावा प्रभावशाली लोगों और राजनेताओं का भी दबाव रहता है। ऐसी हालत में पुलिस से क्या उम्मीद की जा सकती है।
मनोरोग विशेषज्ञों का मानना है कि यौन शोषण के कारण बच्चों में असुरक्षा की भावना पैदा होती है। बच्चे अकेलेपन के आदी हो जाते हैं। वे लोगों से मिलने-जुलने से डरते हैं। वे अकसर सहमे-सहमे रहते हैं। उन्हें भूख कम लगती है और वे कई प्रकार के मानसिक रोगों की चपेट में आ जाते हैं। मन में पल रहे आक्रोश के चलते ऐसे बच्चों के अपराधी बनने की संभावना भी बढ़ जाती है।
देश के नवनिर्माण और स्वस्थ समाज के लिए यह बेहद जरूरी है कि राष्ट्र के भावी कर्णधारों का बचपन अच्छा हो और उन्हें सही माहौल मिले। इसके लिए बाल यौन उत्पीड़न को रोकना होगा। और यह तभी मुमकिन है जब लोग सजग रहें और अपराध होने की स्थिति में अपराधी को सख्त से सख्त सजा मिले, जिससे दूसरे भी इबरत हासिल कर सकें। इसके अलावा न्याय प्रक्रिया को भी आसान बनाए जाने की जरूरत है, ताकि पीड़ितों को वक़्त पर इंसाफ़ मिल सके।