जगदीश्वर चतुर्वेदी
हजारों सालों बाद आज भी औरत एक पहेली बनी हुई है। उसका
शरीर, आचार, विचार, संभोग, जादू-टोना, प्रेम आदि सभी के बारे में पंडितों में भयानक
भ्रम बना हुआ है। हमारे भक्ति आंदोलन के विचारकों में एक हैं पुरूषोत्तम अग्रवाल।
उन्होंने अपनी किताब में कबीर के साहित्य में ‘शाश्वत स्त्रीत्व’ की खोज की है। सच
यह है शाश्वत स्त्रीत्व जैसी कोई चीज नहीं होती। वे शाश्वत स्त्री की धारणा के आधार
पर पुंसवादी तर्कों का पहाड़ खड़ा कर रहे हैं। इसी तरह हमारे और भी अनेक विद्वान
दोस्त हैं जो आए दिन औरतों के धार्मिक व्रत, उपवास, पूजा-उपासना आदि को लेकर
फब्तियां कसते रहते हैं कि औरतें तो स्वभावतः धार्मिक होती हैं,पिछड़ी होती
हैं।
ऐतिहासिक तौर पर देखे तो स्त्री उत्पादक शक्ति है। वह कृषि की जनक है। मानव
सभ्यता के इतिहास में उसे कृषि उत्पादक के रूप में जाना जाता है। पुरानी मान्यता है
कृषि कार्यों की पुरूष के पौरूष पर निर्भरता कम है ईश्वर पर निर्भरता ज्यादा है।
कृषि के लिए वेदों में जितने मंत्र हैं उतने किसी अन्य कार्य के लिए नहीं हैं। भारत
में जनजातियों के अनेक तीज-त्यौहारों का कृषि जीवन से गहरा संबंध है।
यह एक ऐतिहासिक वास्तविकता है कि कृषि की धुरी औरत है और कृषि की निर्भरता
मंत्र-तंत्र और पूजा पर है, जिसके कारण औरतों में जादुई संस्कार सहज ही चले आए हैं।
जो लोग कहते हैं जादू-टोने का आधार अज्ञान है उन्हें देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय का
कथन याद रखना चाहिए। उन्होने लिखा है ‘‘इसे केवल अज्ञान मानना भी गलत होगा, क्योंकि
यह कर्म को निर्देशित करता है यद्यपि यह मनोवैज्ञानिक दिशानिर्देश होता है। कृषि के
प्रारंभिक चरण में जब इस मनोवैज्ञानिक निर्देशक की सबसे अधिक आवश्यकता होती है,हम
सहज ही देखते हैं कि जादू-टोने में विश्वास और इससे संबद्ध क्रियाओं में विचित्र
तीव्रता आ जाती है।’’
उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘‘कृषि की खोज स्त्रियों ने की थी तो यह तर्कसंगत ही
है कि अपने मूलरूप में जादू-टोना स्त्रियों के कार्य-क्षेत्र में आना चाहिए।’’यही
वजह है कि समस्त धार्मिक उत्सव पूरी तरह स्त्रियों पर निर्भर हैं।
औरतों का कृषि पर ही प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि उन्होंने चिन्तन के विभिन्न
क्षेत्रों को भी प्रभावित किया। इनमें तंत्र प्रमुख है। भारत में स्त्रियों से
प्रभावित वामाचार का पूरा सम्प्रदाय रहा है जिसने समूचे जीवन पर गहरा असर डाला है।
वामाचार का आम तौर पर संस्कृत के विद्वानों ने गलत अर्थ लगाया है। शब्द है वामा और
आचार। आचार का अर्थ है क्रिया या धार्मिक क्रिया। वामा का अर्थ है स्त्री या काम।
इस प्रकार वामाचार का अर्थ है स्त्री और काम के अनुष्ठान।
भारत में जो लोग स्त्री की स्वायत्त पहचान बनाना चाहते हैं। स्त्री की परंपरा और
स्त्री संस्कृति का अध्ययन करना चाहते हैं उन्हें तंत्र और वामाचार का गंभीरता से
अध्ययन करना चाहिए। तंत्र में स्त्री को काफी महत्व दिया गया है। वामाचारी स्त्री
को प्रसन्न रखने की कोशिश करते थे और इसके लिए स्त्री का रूप भी धारण करते थे।
तंत्र में ऐसे अनेक अनुष्ठान हैं जिनका सीधे संबंध स्त्री से है।
कबीर के अंदर पुरूषोत्तम अग्रवाल ने नारी के भाव को खोजा है। उन्होंने लिखा है
‘‘कबीर की महत्ता इस बात में है कि वे कम से कम कविता के क्षणों में तो शाश्वत
स्त्रीत्व को अपने आपमें व्यापने देते हैं।’’ इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि कबीर
पर योगियों-नाथों-सिद्धों और तांत्रिकों का गहरा असर था। उन्होंने बड़ी मात्रा में
तंत्र की धारणाओं का अपनी कविता में इस्तेमाल भी किया है।
तंत्र की योगसाधना मूलतःमनोदैहिक क्रियाएं हैं। देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने इस
पहलू की ओर ध्यान खींचा है। उन्होंने लिखा है कि योग क्रियाएं ‘‘ अपने अंदर नारीत्व
का बोध कराने के उग्र प्रयत्न के अतिरिक्त और कुछ नहीं। अन्य शब्दों में यह मूल
व्यक्तित्व और चेतना को एक स्त्री के व्यक्तित्व और चेतना में परिवर्तित करने के
लिए एक तरह का प्रशिक्षण है। हमारे विद्वान इस बात को अभी तक नहीं पकड़ पाए
हैं।’’
बौद्धों से लेकर संस्कृत विद्वानों तक और देशज भाषाओं के रक्षक हिन्दी के
पण्डितों तक योग में वर्णित नाडियों को लेकर जबर्दस्त भ्रम बना हुआ है। बाबा रामदेव
जैसे लोग इसे स्नायुजाल बनाकर कसरत की दुकानदारी चला रहे हैं। सिर्फ एक ही उदाहरण
काफी है। बौद्धों का एक मंत्र है ‘‘ओम मणि पद्मे हुम’’ अर्थात ओम वह मणि जो पद्म
में विराजमान है। इस मंत्र का बौद्ध प्रतिदिन जप करते हैं।
लेकिन इसका असली अर्थ नहीं जानते। पद्म या कमल को तंत्रवाद में भग या योनि के
अर्थ में लिया जाता है। पद्म इसका साहित्यिक नाम है। इसी तरह मणि का अर्थ बौद्धों
में नाम है वज्र, लेकिन तंत्र में कहते हैं पुरूष का लिंग। मणि इसका साहित्यिक नाम
है। इसी तरह सुषुम्ना नाडी पर सात कमल नारीत्व के सात स्थान हैं।
इसी तरह तंत्रवाद में त्रिकोण भग या योनि का प्रतीक है। इसके अलावा तंत्रों में
सात शक्तियों जैसे कुलकुंडलिनी, वाणिनी, लाकिनी इत्यादि का उल्लेख किया है।
प्रत्येक शक्ति एक-एक पद्म पर विराजमान है। मजेदार बात यह है कि वैष्णवों के सहजिया
सम्प्रदाय में कुल कुंडलिनी शक्ति को राधा माना गया है यानी वह वैष्णवों का स्त्री
सिद्धांत है। किंतु तंत्रवाद के निश्चित संदर्भ में ये सब अर्थ स्वीकार्य नहीं हैं।
कायदे से सुषुम्ना आदि नाडियां स्त्री शक्ति और स्त्री संस्कृति की प्रतीक है। इसके
अलावा वे किसी और रूप में स्वीकार्य नहीं हैं। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से
स्त्री संस्कृति आरंभ होती है।
हमारा यहां पर लक्ष्य योग के मंत्रों का विवेचन करना नहीं है। बल्कि उस बात की
ओर ध्यान दिलाना है जिससे ये सारी चीजें परिचालित हैं। पुराना मंत्र है ,‘‘वामा
भूत्वा यजेत् परम’’ अर्थात् स्वयं स्त्री बनकर प्रसन्न करो। यही वह आदि स्त्री
सिद्धांत है जिससे कबीर प्रभावित हैं। इस प्रसंग में भंडारकर का मानना है कि
‘‘तंत्रवाद के प्रत्येक निष्ठावान अनुयायी की महत्वाकांक्षा है कि वह त्रिपुरसुंदरी
(तंत्रवाद में स्त्री सिद्धांत का एक ना) बन जाए । उसकी धार्मिक साधनाओं में से एक
यह है कि वह स्वयं को एक स्त्री के रूप में समझने लगे। इस प्रकार शक्तिमत के
अनुयायी अपने नाम को इस विश्वास के साथ उचित बताते हैं कि भगवान एक स्त्री रूप है
और सभी का लक्ष्य एक स्त्री बनना होना चाहिए।’’
कबीर के शाश्वत स्त्रीत्व बोध का एक और आयांम है जिसे मनोवैज्ञानिक आयाम कह सकते
हैं। तंत्रवाद में योगसाधना का लक्ष्य कामोन्माद समाप्त करना नहीं है। यह कोई
नपुंसकता की अवस्था भी नहीं है। बल्कि सच यह है कि योगसाधना के जरिए आंतरिक
उन्माद,स्त्री उन्माद पैदा करना इसका लक्ष्य रहा है। वे पुरूषों में स्त्रीत्व
जाग्रत करना चाहते थे। जो प्रत्येक पुरूष में होता है। नारीत्व को जाग्रत करके वे
अपने अंदर के पुरूष को समाप्त कर देना चाहते थे। कामोन्माद को समाप्त करना उनका
ध्येय नहीं था।बल्कि आनंद उठाना लक्ष्य था।
देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘‘स्वयं को स्त्री रूप में परिवर्तित करने
का सतत प्रयत्न या अपने अंदर सुप्त नारीत्व को जाग्रत करने का युक्तिसंगत उद्देश्य
(चाहे वह कितना ही विचित्र हो) यह था कि प्रकृति की उत्पादन संबंधी गतिविधि को
क्रियाशील बनाने के लिए सर्वोच्च महत्व के इन कामों को पूरा किया जाए।’’