फ़िरदौस ख़ान               
हरियाणा में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बेहद ख़स्ता है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की योजनाओं का लाभ भी जनमानस तक नहीं पहुंच पाया है। केंद्र सरकार के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में भी केंद्र की योजनाओं को प्रदेश में ठीक तरीक़े से लागू न किए जाने पर नाराज़गी जताई जा चुकी है। इन योजनाओं के लिए प्रदेश को केंद्र से 282 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं, इसके बावजूद स्वास्थ्य सेवाओं की हालत में कोई सुधार नहीं आया। इसी साल गणतंत्र दिवस के मौक़े पर मुख्यमंत्री ने ऐलान किया था कि प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने पर 1500 करोड़ रुपए ख़र्च किए जाएंगे, मगर नतीजा सिफ़र ही रहा।

हालांकि पिछले दो दशकों में स्वास्थ्य सेवाओं का काफ़ी विस्तार हुआ है, लेकिन आबादी और ज़रूरत को देखते हुए यह नाकाफ़ी है। ग्रामीण इलाक़ों में चिकित्सकों के अनेक पद ख़ाली पड़े हैं। हरियाणा स्वास्थ विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक़ प्रदेश में स्वास्स्थ अधिकारियों के लिए मंज़ूरशुदा पदों में आधे से ज्यादा ख़ाली पड़े हैैं। अंबाला में 49 स्वीकृत पदों में से 13 रिक्त पड़े हैं। इसी तरह भिवानी में स्वीकृत पदों 129 में से 50, फ़रीदाबाद में 51 में से 10, फ़तेहाबाद में 58 में से 23, गुड़गांव में 66 में से 32, हिसार में 112 में से 35, झज्जर में 75 में से 35, यमुनानगर में 72 में से 27, जींद में 90 में से 45, कुरुक्षेत्र में 47 में से 17, करनाल में 78 में से 47, कैथल में 56 में से 16, मेवात में 69 में से 26, नारनौल में 74 में से 40, पंचकुला में 51 में से 7, पानीपत में 43 में से 12, पलवल में 51 में से 25, रोहतक में 73 में से 78, रेवाड़ी में 49 में से 22, सोनीपत में 77 में से 26 और सिरसा में 81 में से 34 पद ख़ाली हैं। क़ाबिले-ग़ौर है कि रोहतक प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा का गृह क्षेत्र है और झज्जर स्वास्थ्य मंत्री गीता भुक्कल का हलका है। इतना ही नहीं गुड़गांव के हेली मंडी सरकारी अस्पताल में कुछ स्वीकृत सातों पद ख़ाली पड़े हैं। अस्पतालों में पड़े इन रिक्त पदों के चलते स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं। ग्रामीण इलाकों के मरीज़ों को ख़ासी दिक्क़त का सामना करना पड़ता है। गंभीर मरीज़ों को शहरों तक ले जाने में काफ़ी वक्त लगता है और कई मरीज़ तो रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं। जींद ज़िले के गांव बडनपुर में 1992 में बनी डिस्पेंसरी में शुरू के दो वर्षों तक तो चिकित्सक तैनात रहा। उसके बाद यहां न तो कोई चिकित्सक ही आया और न ही दवाएं। मरीज़ों को इलाज के लिए आसपास के क़स्बों में जाकर निजी अस्पतालों में इलाज करवाना पड़ रहा है। 20 साल पहले गांव में एक अस्पताल की इमारत बनवाई गई थी, मगर अब वह भी जर्जर हो चुकी है। इमारत में लगे खिड़की और दरवाज़े भी ग़ायब हो चुके हैं।
 
सरकारी अस्पतालों में सर्जरी के मामले भी नाममात्र ही हैं। एक जुलाई 2009 से मई 2010 तक झज्जर में केवल एक ही सर्जरी (नवबंर 2009) हुई, जबकि मेवात में (जुलाई 2009) 6 और पलवल में 6 ही सर्जरी हुईं। इसी तरह डिलीवरी के मामलों में भी सरकारी अस्पताल फिसड्डी ही साबित हो रहे हैं। उपमंडलीय अस्पतालों में अप्रैल-मई के दौरान झज्जर ज़िले के बेरी उपमंडल में स्थित एकमात्र उपमंडल अस्पताल में एक भी डिलीवरी नहीं हुई, जबकि इसी समयावधि में फ़रीदाबाद के बल्लभगढ़ में 218, फ़तेहाबाद के टोहाना में 256, गुड़गांव के सोहना में 161 और यमुनानगर के जगाधरी में 362 डिलीवरी हुई। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में अप्रैल-मई 2010 के दौरान झज्जर ज़िले के ढाकला, छारा और दूबलधन में डिलीवरी नहीं हुई, जबकि डीघल में पांच, जमालपुर में 32 डिलीवरी हुईं। इसी समयावधि में पंचकुला ज़िले के कालका में 200 डिलीवरी हुईं, जबकि रोहतक ज़िले के चिड़ी में दो, सांपला में 11, किलोई में आठ, कलानौर में 66 और महम में 120 डिलीवरी हुईं। इसी तरह सोनीपत ज़िले के मुडलाना में तीन, फ़िरोज़पुर बांगड़ में 18, जुंआ में 10 और खरखौदा में 48 डिलीवरी के मामले आए, जबकि मेवात ज़िले के पुन्हाना में 223, फ़िरोज़पुर झिरका में 89 और नूंह में 139 डिलीवरी हुईं। 

अस्पतालों में महिला चिकित्सकों की भारी कमी है। डिस्पेंसरियों के पास अपने भवन तक नहीं हैं। आयुर्वेदिक डिस्पेंसरियां चौपाल, धर्मशाला या गांव के किसी पुराने मकान के एकमात्र कमरे में चल रही हैं। अधिकांश जगहों पर बिजली की सुविधा भी नहीं है। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक़ प्रदेश में न तो नए स्वास्थ्य केंद्रों का निर्माण किया गया है और न ही मौजूदा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्राें और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया गया है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत प्रदेश में नौ सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और 79 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनाए जाने थे, लेकिन इनका निर्माण होना तो दूर, इनका प्रशासनिक अनुमोदन तक नहीं किया गया। इस मिशन के मानकों के मुताबिक़ एक ऑपरेशन थियेटर, सर्जरी, सुरक्षित गर्भपात सेवाएं, नवजात देखभाल, बाल चिकित्सा, ब्लड बैंक, ईसीजी परीक्षण और एक्सरे आदि की सुविधाएं मुहैया कराई जानी थीं। इसके अलावा अस्पतालों में दवाओं की भी पर्याप्त आपूर्ति नहीं की गई।
                                                
डिस्पेंसरियों के पास अपने भवन तक नहीं हैं। कितनी ही डिस्पेंसरियां चौपाल, धर्मशाला या गांव के किसी पुराने मकान के एकमात्र कमरे में चल रही हैं। रिहायशी मकानों की कमी और यातायात की सुविधाएं उपलब्ध न होने के कारण चिकित्सक डिस्पेंसरियों में जाने से कतराते हैं। कई चिकित्सक तो महीने में एक या दो बार ही स्वास्थ्य केंद्रों पर जाते हैं। पिछले एक साल के दौरान 300 से ज्यादा चिकित्सक सरकारी नौकरी को छोड़कर जा चुके हैं। स्वास्थ्य केंद्रों में हमेशा दवाओं का अभाव रहता है। चिकित्सकों का आरोप है कि सरकार द्वारा दवाएं समय पर उपलब्ध नहीं कराई जातीं। उनका यह भी कहना है कि डिस्पेंसरियों द्वारा जिन दवाओं की मांग की जाती है, अकसर उनके बदले दूसरी दवाएं मिलती हैं।

ग़ौरतलब है कि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की योजनाओं को प्रदेश के आला अधिकारियों की देखरेख में लागू किया जाता है। इनका सारा कार्य राज्य स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण सोसायटी के माध्यम से किया जाता है। इस सोसायटी में मुख्यमंत्री के अलावा, प्रदेश के सचिव और अन्य वरिष्ठ अधिकारी शामिल होते हैं। इसके बावजूद इन योजनाओं के क्रिन्यान्वयन के लिए गंभीरता नहीं बरती गई। हालांकि प्रदेश की स्वास्थ्य मंत्री गीता भुक्कल का कहना है कि सरकार प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए प्रयासरत है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत प्रदेश को मिली राशि से यहां की स्वास्थ्य सेवाओं को और बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।

बहरहाल, प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं की हालत 'नौ दिन चले अढाई कोस' वाली कहावत को ही चरितार्थ करती है।

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