पिछले साल दिल्ली में सामूहिक बलात्कार के हादसे के बाद देश में महिला सशक्तिकरण की आवाज़ फिर से बुलंद होने लगी है. मगर यह भी एक हक़ीक़त है कि पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को हमेशा दोयम दर्जे और हाशिये पर ही रखना चाहता है, और इसीलिए आज तक महिला आरक्षण विधेयक पास नहीं हो पाया. दरअसल, इस विधेयक के रास्ते में वही पुरुषवादी मानसिकता रुकावट बनी हुई है, जो महिलाओं को सिर्फ़ घर की चहारदीवारी तक ही क़ैद रखना चाहती है. क्यों है पुरुष सांसदों को आपत्ति? हमारी एक ख़ास रिपोर्ट...
फ़िरदौस ख़ान
महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों के बावजूद महिला आरक्षण विधेयक पिछले डे़ढ दशक से भी ज़्यादा वक़्त से लोकसभा में लंबित पड़ा है, क्योंकि ज़्यादातर पुरुष सांसद नहीं चाहते कि महिलाएं सियासत में आगे आएं. उन्हें डर है कि अगर उनकी सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हो गई, तो फिर ऐसे में वे चुनाव कहां से लड़ेंगे. दरअसल, कोई भी सांसद अपना चुनाव क्षेत्र नहीं छो़ड़ना चाहता. हालांकि महिला आरक्षण विधेयक का विरोध करने वाले सियासी दल दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं और इसके लिए उन्होंने बहाना भी तलाश लिया है. यह जगज़ाहिर है कि दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और ग़रीब महिलाओं के हित के दावे करने वाले सियासी दल चुनाव के दौरान टिकट वितरण में पैसा, प्रभाव और वंशवाद को ही तरजीह देते हैं. वे जिन महिलाओं को अपना उम्मीदवार बनाते हैं, उनमें से ज़्यादातर महिलाएं सियासी परिवारों से ही होती हैं. ऐसे में दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और ग़रीब महिलाएं हाशिये पर चली जाती हैं. कुछ दलों को यह भी चिंता होती है कि इतनी बड़ी तादाद में वे जिताऊ महिला उम्मीदवार कहां से लाएंगे. इसलिए उम्मीदवार न मिलने पर राजनेता अपने परिवार की महिलाओं और महिला रिश्तेदारों को ही चुनाव मैदान में उतारते हैं.
लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज महिला आरक्षण विधेयक को लेकर चिंतित दिखीं. उनका कहना है कि महिलाओं का सशक्तिकरण आज वक़्त की मांग है, इसलिए महिला आरक्षण बिल पारित होना ही चाहिए. वह कहती हैं कि भाजपा हमेशा इस विधेयक के समर्थन में रही है और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दौरान पार्टी ने इसे पारित कराने की पूरी तरह से कोशिश भी की थी, लेकिन उस वक़्त अन्य पार्टियों से ज़रूरी समर्थन नहीं मिल पाया था. दरअसल, देश की संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने वाले विधेयक को लेकर सियासी दल आमने-आमने हैं. जहां एक तरफ़ सत्ताधारी कांग्रेस सहित भाजपा और वामपंथी दल विधेयक का समर्थन कर रहे हैं, वहीं राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और लोकजन शक्ति पार्टी ने इस विधेयक के मौजूदा स्वरूप का विरोध इसलिए किया है, क्योंकि वे समाज के पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के अंदर आरक्षण चाहते हैं. हैरत की बात तो यह है कि इस विधेयक को राज्यसभा की मंज़ूरी मिलने के बावजूद कार्रवाई आगे नहीं बढ़ पाई. यह विधेयक लोकसभा में लंबित है. हालांकि एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौक़े पर राज्यसभा के सदस्यों ने एकमत से महिला आरक्षण विधेयक को संसद से पारित करने का आह्वान किया.
क़ाबिले-ग़ौर है कि महिला आरक्षण विधयेक कई बार संसद में रखा गया. यह विधेयक सबसे पहले एचडी देवेगौड़ा के प्रधानमंत्रित्व काल में 1996 में लोकसभा में पेश किया गया था. इस पर काफ़ी हंगामा हुआ. फिर 1998 में जब तत्कालीन क़ानून मंत्री तंबी दुरै विधेयक पेश करने के लिए खड़े हुए तो उनके हाथ से विधेयक की प्रति लेकर फाड़ दी गई. इसके बाद 6 मई, 2008 को इसे राज्यसभा में पेश किया गया, जहां इसे क़ानून व्यवस्था और कार्मिक मामलों की स्थाई समिति को सौंपा गया. सियासी दलों के विरोध के बावजूद संसदीय समिति ने इसे मूल रूप में ही पारित कराने की सिफ़ारिश की. इस विधेयक के मामले में केंद्र सरकार को 9 मार्च, 2010 में उस वक़्त एक बड़ी कामयाबी मिली, जब इस प्रावधान के लिए लाए गए 108वें संविधान संशोधन विधेयक को राज्यसभा की मंज़ूरी मिल गई. सियासत में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व दिलाने के लिए महिला आरक्षण विधेयक का पारित होना बेहद ज़रूरी है. महिला आरक्षण विधेयक में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फ़ीसद स्थान आरक्षित करने का प्रावधान है. महिला आरक्षण लागू होने के 15 सालों के बाद यह आरक्षण ख़त्म हो जाएगा और इसे आगे जारी रखने के बारे में समीक्षा की जाएगी. दुनिया के तक़रीबन सौ देशों में सियासत में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण का प्रावधान है, लेकिन एशियाई देशों में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है. इन देशों का औसत अनुपात 18.5 फ़ीसद है, जो काफ़ी कम है. इस मामले में श्रीलंका की हालत बेहद ख़राब है, जहां यह दर महज़ छह फ़ीसद है. पश्चिमी देशों की महिलाएं सियासत में बहुत आगे हैं. रवांडा की संसद में 56 फ़ीसद महिलाएं हैं. यह दर दुनिया में सबसे ज़्यादा है. इसके बाद स्वीडन का स्थान आता है, जहां यह दर 47 फ़ीसद है. दक्षिण अफ्रीका में 45 फ़ीसद, आइसलैंड में 43 फ़ीसद, अर्जेंटीना में 42 फ़ीसद, नीदरलैंड्स में 41 फ़ीसद, नॉर्वे में 40 फ़ीसद, सेनेगल में भी 40 फ़ीसद, डेनमार्क में 38 फ़ीसद, अंगोला में 37 फ़ीसद और कोस्टारिका में भी 37 फ़ीसद महिलाएं संसद में हैं. भारत में यह दर महज़ 11 फ़ीसद ही है. हालांकि 1995 से 2012 के बीच सियासत में महिलाओं की तादाद 75 फ़ीसद बढ़ी है, लेकिन भारत में हालत अच्छी नहीं है. 1991 से 2012 के बीच महिला प्रतिनिधियों की संख्या 9.7 फ़ीसद से 10.96 फ़ीसद ही ब़ढी है. साल 1957 में लोकसभा में 22 (48.9 फ़ीसद) महिलाएं जीतकर आई थीं. 1962 में 31 (47 फ़ीसद), 1967 में 29 (43.3 फ़ीसद), 1971 में 21 (24.4 फ़ीसद), 1977 में 19 (27.1 फ़ीसद), 1980 में 28 (19.6 फ़ीसद), 1984 में 42 (25.2 फ़ीसद), 1989 में 29 (14.7 फ़ीसद), 1991 में 37 (11.4 फ़ीसद), 1996 में 40 (6.7 फ़ीसद), 1998 में 43 (15.7 फ़ीसद), 1999 में 49 (17.3 फ़ीसद), 2004 में 45 (12.7 फ़ीसद) और 2009 में 49 (10.6 फ़ीसद) महिलाएं लोकसभा की सदस्य बनीं. महिला आरक्षण विधेयक के विरोध के लिए राजनेता तरह-तरह की दलीलें दे रहे हैं. उनका मानना है कि इस विधेयक से ग़रीब और ग्रामीण महिलाओं को कोई फ़ायदा नहीं मिलेगा. यूपीए के घटक दल, जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष शरद यादव ने विधेयक के प्रावधानों पर ऐतराज़ जताते हुए कहा था कि इस विधेयक से सिर्फ़ परकटी महिलाओं को ही फ़ायदा पहुंचेगा. वहीं सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव का कहना है कि अगर केंद्र सरकार महिला आरक्षण विधेयक में संशोधन करके दलित, पिछड़े वर्ग और मुस्लिम महिलाओं के लिए आरक्षण की बात करे, तो उनकी पार्टी उसे समर्थन देने पर विचार कर सकती है. इसी तरह राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव का कहना है कि उनकी पार्टी आरक्षण के ख़िलाफ़ नहीं है, लेकिन वे चाहते हैं कि इस विधेयक में पिछड़ी, दलित और मुसलमान महिलाओं को आरक्षण मिले. पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी भी अपने पति की तर्ज़ पर महिला आरक्षण के कोटे के अंदर कोटे की मांग करती है. इन पार्टियों के विरोध की हालत यह है कि मार्च, 2010 में जब भारी हंगामे और शोर-शराबे के बीच सरकार की ओर से तत्कालीन क़ानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने जैसे ही महिला आरक्षण विधयेक सदन के पटल पर रखा, तभी विधेयक का विरोध कर रहे राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी के सांसद सभापति हामिद अंसारी के आसन तक जा पहुंचे. राजद सांसद सुभाष यादव, राजनीति सिंह और सपा सांसद कमाल अख्तर ने हामिद अंसारी से छीना-झपटी करते हुए विधेयक की प्रतियां छीन लीं और उन्हें फाड़कर सदन में लहरा दिया. विरोध यहीं नहीं थमा और मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव ने केंद्र में सत्तारूढ़ यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने का ऐलान तक कर दिया.
हक़ीक़त यही है कि इस विधेयक के पारित न होने के पीछे पुरुषवादी मानसिकता काम कर रही है, क्योंकि जब से मानव ने इस धरती पर क़दम रखा है, तभी से समाज दो वर्गों में विभाजित रहा है. पहला वर्ग पुरुषों का है और दूसरा महिलाओं का. महिलाओं के साथ शुरू से ही भेदभाव होता रहा है. चाहे मामला धर्म का हो, सियासत का हो या फिर किसी और क्षेत्र का. हर जगह महिलाओं को कमतर आंका गया. देश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने महिलाओं को प्रेरित किया कि वे घर की चहारदीवारी से बाहर आकर अंग्रेजों से लोहा लें. उन्होंने महिलाओं को झांसी की रानी की मिसाल दी. नतीजतन, देश के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं ने ब़ढ-चढ़कर शिरकत की. आज़ादी के बाद महिलाएं सियासत में भी आईं, लेकिन उनकी तादाद नाममात्र ही रही. महिलाओं को राजनीति में उचित स्थान देने के लिए आरक्षण की मांग उठी. संसद में 1993 में 73वां और 74वां संविधान संशोधन किया गया. इसके तहत नगर निगमों और पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देने के साथ ही इनमें महिलाओं के लिए 33 फ़ीसद स्थान आरक्षित करने का प्रावधान है. ख़ास बात यह है कि संविधान में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए उनकी आबादी के अनुपात के मुताबिक़ स्थान आरक्षित करने का प्रावधान है, लेकिन इनमें महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित करने का कोई प्रावधान नहीं है. दरअसल, इसीलिए इस सुविधा का फ़ायदा सिर्फ़ पुरुष ही उठा रहे हैं.
हैरत की बात तो यह भी है कि बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ख़ुद महिला होते हुए भी इस विधेयक का विरोध कर रही हैं. हालांकि उन्होंने प्रस्तावित विधेयक में संशोधन की मांग की है. उनका कहना है कि उनकी पार्टी महिलाओं की हर क्षेत्र में भरपूर भागीदारी के लिए इस विधेयक का समर्थन करते हुए प्रस्तावित फ़ीसद आरक्षण में अलग से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग करती है. इस बाबत उन्होंने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को एक पत्र भी लिखा है, जिसमें यह कहा गया है कि हमारे देश में सभी वर्गों की महिलाएं, ख़ासकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाएं शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी हुई हैं. ये महिलाएं राजनीति के क्षेत्र में तो और भी ज़्यादा पिछड़ी हैं. राजनीति में महिलाओं को प्रतिनिधित्व दिलाने की मांग पिछले काफ़ी अरसे से उठ रही है. साल 1974 में महिलाओं की स्थिति पर गठित एक समिति ने राजनीतिक निकायों में महिलाओं की कम भागीदारी पर चिंता ज़ाहिर करते हुए पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों में उनके लिए स्थान आरक्षित करने की सिफ़ारिश की थी. इसी तरह 1988 में महिलाओं के लिए नेशनल प्रस्पेक्टिव प्लान में पंचायतों, शहरी निकायों और राजनीतिक दलों में महिलाओं के लिए 30 फ़ीसद आरक्षण की सिफ़ारिश की गई थी. इसके बाद 2001 में महिला सशक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति के तहत लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने की वकालत की गई.
महिला आरक्षण को लेकर सियासत भी ख़ूब जमकर होती रही है. यूपीए ने पिछले चुनाव में महिला आरक्षण को अपने घोषणा पत्र में शामिल करते हुए महिलाओं के सशक्तिकरण के प्रति अपना संकल्प दोहराया. यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी का कहना है कि महिला आरक्षण विधेयक पारित हो जाता है, तो समझिए राजीव गांधी का महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण का सपना साकार हो जाएगा. कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अंबिका सोनी कहती हैं कि संसद और राज्य विधानमंडलों में महिलाओं के लिए आरक्षण बेहद ज़रूरी है.
दरअसल, इस महिला आरक्षण विधेयक का शुरू से ही विरोध किया गया. हालांकि सत्तारूढ़ कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, और वामपंथी दलों के साथ ही अन्य क्षेत्रीय दल जैसे तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा), द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक), ऑल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कषगम (अन्नाद्रमुक), अकाली दल और नेशनल कॉन्फ्रेंस इसका समर्थन कर रहे हैं, लेकिन कांग्रेस और भाजपा के सदस्यों में इस मुद्दे पर आमराय नहीं दिखी. कांग्रेस और भाजपा के आला नेता यह जानते हैं कि उनके बहुत से सांसद महिला आरक्षण विधेयक के ख़िलाफ़ हैं. यही वजह थी कि राज्यसभा में दोनों दलों को व्हिप जारी कर अपने सांसदों को वोट देने के लिए मजबूर करना पड़ा. ग़ौरतलब है कि व्हिप तभी जारी की जाती है, जब सांसदों या विधायकों के पार्टी के ख़िलाफ़ जाने का ख़तरा हो. एक कम्युनिस्ट पार्टी ही ऐसी है, जिसका इस विधेयक को पूरी तरह से समर्थन हासिल है, क्योंकि कम्युनिस्ट सांसद पार्टी की विचारधारा पर चलने में ही यक़ीन रखते हैं. माकपा नेता वृंदा करात महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन करते हुए कहती हैं कि इसके पारित होने से देश का लोकतंत्र और मज़बूत होगा.
बहरहाल, जिस तरह बड़े सियासी दल विधेयक के मौजूदा स्वरूप का विरोध कर रहे हैं, उसके मद्देनज़र लोकसभा में इसका पारित होना मुमकिन नज़र नहीं आ रहा है. अगर सियासी दल दलित, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के हितों के प्रति इतने ही गंभीर हैं, तो उन्हें इस विधेयक को पारित कराना चाहिए. इसके बाद वे अपने स्तर पर इन वर्गों को टिकट देकर सियासत में आगे ला सकते हैं. मगर ये दल ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि इनका असल मक़सद इन वर्गों का कल्याण नहीं, बल्कि महिलाओं को आगे आने से रोकना है.