खु़र्शीद अनवर
‘होना तो ये चाहिए कि हिंदुस्तान में जितने मुसलमान हैं उन्हें भारत की सरकार शूद्र या म्लेच्छ का दर्जा दे और मनु के कानून इन मुसलमानों पर लागू हों। उन्हें सरकार के किसी महकमे में ना रखा जाए, और उनसे नागरिकता का अधिकार भी छीन लिया जाए।’ 
इसे पढ़ कर कोई भी यह कहेगा कि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई वक्तव्य है, मगर उस संगठन का वक्तव्य गुरु गोलवलकर के शब्दों में इस प्रकार है ‘भारत से आए तमाम विदेशियों को चाहिए कि वे हिंदू संस्कृति और भाषा अपनाएं, हिंदू धर्म के प्रति सम्मान और आस्था दिखाएं। वे हिंदू पहचान अपना लें और इस देश में बिना किसी मौलिक या नागरिकता के अधिकार के साथ रहें।’ यह उद्धरण ‘वी आॅर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ से लिया गया है। लेकिन पहला वक्तव्य जो बिल्कुल इसी विचार की प्रतिध्वनि लगता है, वह है मौलाना मौदूदी का, जिन्हें दारुल उलूम देवबंद से लेकर पाकिस्तान, अफगानिस्तान और सऊदी अरब के वहाबी समर्थक बड़ी इज्जत से याद करते हैं और उनके चिंतन और लेखन को अपनी जीवन शैली बनाते हैं। 
मौलाना मौदूदी ने उपरोक्त वक्तव्य 1953 में अहमदिया समुदाय विरोधी दंगों के बाद गठित जांच आयोग के सामने दिया था। याद रहे कि मौलाना मौदूदी को अहमदिया समुदाय के कत्लेआम के जुर्म में फांसी की सजा हुई थी, जिसे सऊदी अरब के हस्तक्षेप पर रद््द कर दिया गया। 
यहां बहस का मुद््दा मौलाना मौदूदी या गुरु गोलवलकर नहीं हैं, यहां बहस उस विचारधारा पर है जिससे नफरत के बीज फैलते हैं और कट््टरपंथी विचारों के व्यक्ति और संगठन पनपते हैं। जहां एक तरफ अनगिनत सरस्वती शिशु मंदिर फल-फूल रहे हैं और दिमागों में जहर घोल कर नवयुवकों के हाथ में त्रिशूल और बम पकड़ा देते हैं वहीं दूसरी तरफ इस्लामी शिक्षा के नाम पर और इस्लाम को फैलाने के नाम पर भी उन्हें गुमराह किया जाता है और पैदा होते हैं उसी किस्म के दरिंदे जो धर्म के नाम पर खुद को भी खत्म कर लेते हैं और सारी दुनिया को खत्म कर देने का खतरा बन बैठते हैं। वहाबियत की शिक्षा भी वही काम करती है, जो सरस्वती शिशु मंदिरों की शिक्षा करती आई है। आज केवल पाकिस्तान में मदरसों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में जहरीली शिक्षा नहीं दी जा रही, बल्कि हिंदुस्तान में भी यही सिलसिला चल रहा है।
एक उदाहरण लेते हैं दारुल उलूम देवबंद का, जिसे इस्लाम का सबसे बड़ा शिक्षा केंद्र माना जाता है। खुद दारुल उलूम की वेबसाइट कहती है ‘दुनियावी विज्ञान के दारुल उलूम में पढ़ाने जैसी किसी व्यवस्था के लिए कोई स्थान नहीं है इस पर विरोध करने वालों के लिए स्पष्ट जवाब यह है कि सबसे पहले मर्ज का इलाज होना चाहिए, मर्ज हो ही न तो उसका इलाज करवाना बेकार है। ...इन सरकारी स्कूलों का औचित्य ही क्या है। अगर आसमानी साइंस का उपयोग हो ही न तो फायदा ही क्या है।’ अब जरा देखिए कि साइंस के नाम पर यहां किताबें कौन-सी पढ़ाई जाती हैं। सहीह-ए-बुखारी, सहीह-ए-मुसलिम, जामा-ए-तिमरीजी, सुनान-ए-अबी-दाऊद, सुनान-ए-नासई वगैरह। और जिन विद्वानों को यहां खासतौर पर वैज्ञानिक और समाजशास्त्री के रूप में पढ़ाया जाता है वे कुछ इस तरह हैं: हजरत गंगोही, हजरत शेखुल-हिंद और सय्यद अनवर शाह कश्मीरी। 
ऐसा ज्ञान हासिल करके जब स्नातक दारुल उलूम से निकलता है तो उसकी मानसिकता क्या होती होगी इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इतना ही नहीं, दारुल उलूम के पाठ्यक्रम संकाय का कहना है: ‘गैर-मुसलिम ज्ञान प्राप्त करता है दुनिया में मिलने वाली सत्ता, महानता, विकास और श्रेष्ठता के लिए। गैर-मुसलिमों के लिए ज्ञान धन-दौलत पाने का एक साधन है, लेकिन एक मुसलिम के लिए शिक्षा जीवनयापन भी कभी नहीं होती, बल्कि अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति होती है।’ ये उद्धरण इंटरनेट पर मौजूद दारुल उलूम के ‘एजुकेशनल फीचर्स आॅफ दारुल उलूम’ से लिए गए हैं। 
अजीब इत्तिफाक है कि कराची (पाकिस्तान) स्थित दारुल उलूम में हूबहू यही शिक्षा दी जाती है। वही पाठ्यक्रम और वही शिक्षण पद्धति। जिस तरह दारुल उलूम, देवबंद के मदरसे पूरे देश में फैले हुए हैं उसी तरह दारुल उलूम, कराची के मदरसे भी पूरे पाकिस्तान में फैले हुए हैं। हालांकि दारुल उलूम, देवबंद ने इस बात से इनकार किया है कि उन्हें कोई पैसा सऊदी अरब से आता है, लेकिन दारुल उलूम, कराची ने इस बात से कभी इनकार नहीं किया। दारुल उलूम, कराची को एक तरफ सीधे सऊदी अरब से पैसा लेने की सरकारी इजाजत मिली हुई है तो दूसरी तरफ सिपाह-ए-सहबा और अल-कायदा को मिलने वाले पेट्रोडॉलर भी खुलेआम इस शिक्षण संस्थान को पहुंचते हैं। हिंदुस्तान और पाकिस्तान के दारुल उलूम में एक ही बड़ा अंतर है और वह यह कि देवबंद का दारुल उलूम किसी भी तरह की हथियारबंद ट्रेनिंग से दूर है, लेकिन कराची के दारुल उलूम में शिक्षा हासिल कर रहे नवयुवकों को सिपाह-ए-सहबा और अल-कायदा की सरपरस्ती में हथियारबंद प्रशिक्षण भी दिया जाता है। मगर जहां तक विचारधारा का सवाल है, तमाम ऐसे मदरसे और इन मदरसों से निकलने वाले अतिवादी इस्लाम के अनुयायी दारुल उलूम, देवबंद से ही प्रेरणा लेते हैं। 
दारुल उलूम, देवबंद ने पूरी तरह से वहाबी होने पर भी कुछ ऐसा रवैया अख्तियार किया हुआ है कि ‘साफ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं’। मगर देवबंदी विद्वान मौलाना मंजूर नोमानी की ‘स्पष्टवादिता’ इस बात का खुलासा कर देती है कि दारुल उलूम सिर्फ और सिर्फ वहाबी विचारधारा का केंद्र है। उनके अनुसार ‘इन तथाकथित मुसलमानों पर हमें नजर रखनी चाहिए, जो मजारों और ताजियों की इबादत करते हैं। शैतान ने इनके दिलों में मुशरीकाना हरकत बैठा दी है कि वे कुरान और हदीस की बातों पर यकीन नहीं रखते। इन तथाकथित मुसलमानों पर नजर डालने के बाद ही हमें शिर्क (एकेश्वरवाद में यकीन न रखना) का मतलब समझ में आता है। अगर ऐसे मुसलमान समाज में मौजूद न होते तो हम शिर्क का मतलब ही मुश्किल से समझते’ (देवबंद से निकलने वाली पत्रिका ‘अल फुरकान’ के संपादकीय में ये बातें मौलाना नोमानी ने लिखीं)। 
जाहिर है कि केवल वहाबी ऐसा समुदाय है, जो मजारों पर जाने और ताजियादारी को मूर्तिपूजा की श्रेणी में रखता है। ताजियादारी शिया मुसलमानों की आस्था का अभिन्न अंग है और मुहर्रम के महीने की पहली तारीख से शुरू होकर अगले दो महीने आठ दिन तक ताजियादारी का सिलसिला चलता है। इसके अस्तित्व के बिना शिया समुदाय अपनी पहचान नहीं बनाए रख सकता। साफ मतलब है कि दारुल उलूम, देवबंद ने शिया सहित तमाम ऐसे मुसलमानों को इस्लामी दायरे से खारिज कर दिया, जो वहाबी उसूलों और विचारधारा से सहमत न हों। इनमें सुन्नी समुदाय का बरेलवी विचारधारा में विश्वास रखने वाला वह हिस्सा भी है, जो वहाबी मुसलमानों के मुकाबले कहीं बड़ी संख्या में हैं।
जहां एक तरफ वहाबी समुदाय सुन्नियों के बीच मुश्किल से दस फीसद होगा, वहीं बरेलवी विचारधारा के मानने वाले लगभग अस्सी फीसद हैं। लेकिन बरेलवी विचारधारा में विश्वास रखने वाले सुन्नी समुदाय ने न कभी मजारों और ताजियादारी के खिलाफ कुछ कहा, और न जिहाद की व्याख्या ऐसे की, जिसमें कत्ल और खून शामिल हो। इसके ठीक उलट देवबंदी विचारधारा आतंकवादी संगठनों के समर्थन में खड़ी होती है, जिसका जिक्र साफ तौर पर सात सितंबर की अपनी एक रिपोर्ट में ‘द डॉन’ ने किया है। 
हालांकि देवबंद ने आतंकवाद के समर्थन में कभी कोई शब्द बोला नहीं, बल्कि इस बात का खंडन किया है कि आतंकवाद से उनका कुछ लेना-देना है, बल्कि उसके खिलाफ वक्तव्य भी जारी किया है, लेकिन पाकिस्तान में मौजूद न केवल तमाम आतंकवादी संगठन और उसके कार्यकर्ता देवबंदी विचारों से प्रभावित रहे हैं, बल्कि पाकिस्तानी समाज भी इस बात से इनकार नहीं करता कि देवबंदी प्रभाव ही आतंकवाद की जड़ में है। देवबंद के लिए कोई नई बात नहीं है कि वह वक्तव्य कुछ और जारी करे और गतिविधियां कुछ और चलाए। यह काम बड़ी चालाकी से भी किया जाता है। इंटरनेट पर मौजूद देवबंद की वेबसाइट अगर दो भाषाओं में अलग-अलग देखी जाए तो यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। 
अगर आप उर्दू लिपि में इस वेबसाइट को देखें तो आपको देवबंद के बारे में जो जानकारी मिलेगी उसमें उसका काम इस्लाम और उसका प्रचार, शिक्षा और ऐसे नवयुवक तैयार करना मिलेगा, जो इस्लामी मूल्यों को और अल्लाह और मुहम्मद द्वारा कही गई बातों को सीखे और उसका प्रचार करे। लेकिन अगर इसी वेबसाइट पर हिंदी पृष्ठ देखें तो तस्वीर बिल्कुल अलग नजर आएगी। आपको 1857 का भी जिक्र मिलेगा, देशभक्ति का भी जिक्र मिलेगा और स्वतंत्रता संग्राम में दारुल उलूम की भूमिका के बारे में भी लिखा हुआ मिलेगा। यहां तक कि आपको ओड़िशा के पूर्व (1983-88) राज्यपाल विश्वंभरनाथ पांडे के लेख का भी जिक्र मिलेगा जिसमें स्वतंत्रता संग्राम में दारुल उलूम, देवबंद की भूमिका के बारे में बताया गया है। उद्देश्य स्पष्ट है। मुसलमानों तक जो संदेश पहुंचे वह कट्टरवादी इस्लाम का; और हिंदी पृष्ठ पर दिखाई देंगे हाथी के दांत जो दिखाने के लिए ही हैं, जिससे उन्हें चौतरफा समर्थन प्राप्त हो और उन पर अंगुली न उठाई जा सके। 
दारुल उलूम, देवबंद सारे काम खुद अंजाम नहीं देता। जिस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक नहीं अनेक हाथ हैं उसी तरह देवबंद ने भी बहुत पहले इसकी शुरुआत कर दी थी। इस्लाम के नाम पर जहर फैलाने और दरवाजे-दरवाजे जाकर प्रचार करने के लिए 1926 में देवबंद से शिक्षा पाकर मोहम्मद इलियास, अल-कंधन्वी ने तब्लीगी जमात की नींव डाली।
भारत में सूफी संतों और उनकी मजारों के खिलाफ अभियान की शुरुआत तब्लीगी जमात ने ही की थी। पाकिस्तान में तब्लीगी जमात, सिपाह-ए-सहबा और अल कायदा की इस्लामी प्रचारक के रूप में देखी जाती हैं। इनका काम है घर-घर जाकर शिक्षा से वंचित मुसलमानों में मनगढ़ंत बातों का प्रचार करके उन्हें कट््टर बनाना। और जब यह नींव पक्की हो जाए तो आतंकी संगठन इसका फायदा उठाते हुए इनके हाथों में बंदूक पकड़ा देते हैं। 
कितनी समानता है विचारों और गतिविधियों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इन वहाबी संगठनों के बीच। संघ अपने को सांस्कृतिक संगठन बताता है और शाखाएं लगा कर डंडा, लाठी और दंगल के खेल सिखाता है। शिक्षण संस्थान खोलता है और उनमें ऐसे पाठ्यक्रम शामिल करता है जिनसे मासूम दिमागों में जहर घुलता रहे। दूसरी तरफ विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और दुर्गावाहिनी जैसे संगठन हैं, जो त्रिशूल और बमों, बारूद और अन्य हथियारों से आग और खून का खेल खेलते हैं। दोनों ही तरह के ये संगठन एक दूसरे के पूरक भी हैं। एक ही जैसी व्यवस्था भी चाहते हैं। एक को हुकूमत-ए-इलाहिया चाहिए और दूसरे को हिंदू राष्ट्र। 
आज जरूरत इस बात की है कि हिंदुस्तान में जो सांप्रदायिकता का जहर फैल रहा है- जिसका ताजा उदाहरण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दंगे हैं- उसमें ऐसे शिक्षण संस्थानों (दारुल उलूम देवबंद और उससे जुड़े मदरसे, संघ के अनगनित सरस्वती शिशु मंदिर और अन्य शिक्षण संस्थान) की भूमिका की पहचान की जाए और बच्चों में संकीर्णता कूट-कूट कर भरने के बजाय उन्हें वैज्ञानिक सोच की तरफ लाया जाए।

जनसत्ता से साभार


أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ

أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ
I Love Muhammad Sallallahu Alaihi Wasallam

फ़िरदौस ख़ान का फ़हम अल क़ुरआन पढ़ने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें

या हुसैन

या हुसैन

फ़िरदौस ख़ान की क़लम से

Star Web Media

सत्तार अहमद ख़ान

सत्तार अहमद ख़ान
संस्थापक- स्टार न्यूज़ एजेंसी

ई-अख़बार पढ़ें

ब्लॉग

  • नजूमी... - कुछ अरसे पहले की बात है... हमें एक नजूमी मिला, जिसकी बातों में सहर था... उसके बात करने का अंदाज़ बहुत दिलकश था... कुछ ऐसा कि कोई परेशान हाल शख़्स उससे बा...
  • कटा फटा दरूद मत पढ़ो - *डॉ. बहार चिश्ती नियामतपुरी *रसूले-करीमص अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि मेरे पास कटा फटा दरूद मत भेजो। इस हदीसे-मुबारक का मतलब कि तुम कटा फटा यानी कटा उसे क...
  • Dr. Firdaus Khan - Dr. Firdaus Khan is an Islamic scholar, poetess, author, essayist, journalist, editor and translator. She is called the princess of the island of the wo...
  • میرے محبوب - بزرگروں سے سناہے کہ شاعروں کی بخشش نہیں ہوتی وجہ، وہ اپنے محبوب کو خدا بنا دیتے ہیں اور اسلام میں اللہ کے برابر کسی کو رکھنا شِرک یعنی ایسا گناہ مانا جات...
  • डॉ. फ़िरदौस ख़ान - डॉ. फ़िरदौस ख़ान एक इस्लामी विद्वान, शायरा, कहानीकार, निबंधकार, पत्रकार, सम्पादक और अनुवादक हैं। उन्हें फ़िरदौस ख़ान को लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी के नाम से ...
  • 25 सूरह अल फ़ुरक़ान - सूरह अल फ़ुरक़ान मक्का में नाज़िल हुई और इसकी 77 आयतें हैं. *अल्लाह के नाम से शुरू, जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है*1. वह अल्लाह बड़ा ही बाबरकत है, जिसने हक़ ...
  • ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ - ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਕਿਤੋਂ ਕਬੱਰਾਂ ਵਿਚੋਂ ਬੋਲ ਤੇ ਅੱਜ ਕਿਤਾਬੇ-ਇਸ਼ਕ ਦਾ ਕੋਈ ਅਗਲਾ ਵਰਕਾ ਫੋਲ ਇਕ ਰੋਈ ਸੀ ਧੀ ਪੰਜਾਬ ਦੀ ਤੂੰ ਲਿਖ ਲਿਖ ਮਾਰੇ ਵੈਨ ਅੱਜ ਲੱਖਾਂ ਧੀਆਂ ਰੋਂਦੀਆਂ ਤ...

एक झलक

Followers

Search

Subscribe via email

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

साभार

इसमें शामिल ज़्यादातर तस्वीरें गूगल से साभार ली गई हैं