फ़िरदौस ख़ान   
भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक देश है. यहां दुनिया की 90 फ़ीसद अरहर, 75 फ़ीसद चना और 37 फ़ीसद मसूर का उत्पादन होता है. विश्व में दालों की खेती 70.6 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है. इससे 61.5 मिलियन टन दालों का उत्पादन होता है. दलहनों की विश्व औसत उपज 871 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है. भारत की प्रमुख दलहनी फ़सलों में चना, मटर, मूंग, मसूर, अरहर, उड़द, मोठ और लोबिया शामिल है. ये रबी की फ़सलें हैं. ग़ौरतलब है कि भारत एक बड़ी आबादी वाला देश है और दालें यहां के लोगों के भोजन का एक अहम हिस्सा हैं. इसलिए यहां दालों की बहुत ज़्यादा खपत होती है. मगर अफ़सोस की बात यह है कि हमारे देश में दालों का उत्पादन मांग के मुताबिक़ बढ़ नहीं पा रहा है. एक अनुमान के मुताबिक़ देश में दालों की सालाना खपत तक़रीबन 180 लाख टन है, जबकि उत्पादन 130 से 148 लाख टन के बीच रहता है. इसलिए देश को हर साल 25 से 30 लाख टन दालों का आयात करना पड़ता है. मगर दालों का आयात साल 2013-14 के दौरान 11 फ़ीसद घटकर 32 लाख टन पर आ सकता है. इसकी वजह घरेलू स्तर पर अच्छा उत्पादन, रुपये में गिरावट, शुल्क पर बने हुए असमंजस और कनाडा में लॉजिस्टिक समस्याएं हैं. भारतीय दलहन एवं अनाज संघ के चेयरमैन प्रवीण डोंगरे का कहना है कि दालों के आयात में गिरावट की वजह से देश में दालों का अच्छा उत्पादन होने के बावजूद जनवरी के अंत से क़ीमतों में वर्तमान स्तर से कम से कम 10 फ़ीसद तेज़ी आ सकती है. साल 2012-13 में ऑस्ट्रेलिया से चने का आयात तक़रीबन छह लाख टन का हुआ था, जो 2013-14 में घटकर तक़रीबन एक लाख 20 हज़ार से एक लाख 30 हज़ार टन रहने का अनुमान है. वहीं रूस से चने का आयात एक लाख टन से घटकर 80 से 90 हज़ार टन रहने की संभावना है. कनाडा में रिकॉर्ड ठंड की वजह से दालों की आवाजाही में भारी परेशानी हो रही है, जिसका असर भारत के आयात पर भी पड़ रहा है. आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि भारत ने 2013 में अप्रैल से सितंबर तक तक़रीबन 14 लाख टन दालों का आयात किया था. हालांकि निर्यातक दालों के निर्यात पर पाबंदी हटाने की मांग कर रहे हैं. सरकार ने दालों की बढ़ती क़ीमतों पर अंकुश लगाने और इनकी खपत के मद्देनज़र इनके निर्यात पर 2006 से पाबंदी लगा रखी है. नतीजतन, दालें दिनोदिन महंगी होती जा रही हैं और ग़रीबों की थाली से ग़ायब भी हो रही हैं. साल 1950-51 में हमारे देश में दाल की खपत प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 61 ग्राम थी, जो 2009-10 तक आते-आते घटकर महज़ 34 ग्राम रह गई. विश्व खाद्य व कृषि संगठन ने प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 80 ग्राम दाल की खपत का मानक तय किया है. हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व खाद्य और कृषि संगठन द्वारा प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 104 ग्राम दालों की सस्तुति की गई है. वैश्विक स्तर पर दालों की उपयोगिता को समझते हुए और इसके कारोबार एवं उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने साल 2016 को अंतर्राष्ट्रीय दलहन वर्ष घोषित किया है. उसका मानना है कि दालों की खपत बढ़ने से कुपोषण में कमी आएगी.

साल 2005-06 के दौरान देश में दलहनों का कुल उत्पादन 134 लाख टन था, जो 2006-07 में बढ़कर 142 लाख टन और 2007-08 में 148 लाख टन हो गया. लेकिन इसके बाद दलहनों का उत्पादन बढ़ने की बजाय कम हो गया, जो साल 2008-09 में 145.7 लाख टन और साल 2009-10 में 147 लाख टन रह गया. लेकिन अब फिर से दलहन के उत्पादन में इज़ाफ़ा हुआ है. कृषि मंत्रालय द्वारा जारी अनुमान के मुताबिक़ साल 2013-14 में दलहन की पैदावार बढ़कर 197.7 लाख टन होने का अनुमान है, जबकि पिछले साल जून में ख़त्म हुए फ़सल साल 2012-13 में 183.4 लाख टन दलहनों का उत्पादन हुआ था. लेकिन इस दौरान कुछ राज्यों के पिछले साल के सूखे की वजह से कुल खाद्यान्न उत्पादन 1.5 फ़ीसद घटकर 25 करोड़ 53.6 लाख टन रहा. कृषि मंत्रालय के मुताबिक़ साल 2011-12 में दलहन उत्पादन एक करोड़ 70.9 लाख टन का हुआ था. दलहन उत्पादन का बढ़ना देश के लिए शुभ संकेत है, क्योंकि घरेलू खपत के लिए सालाना 30.40 लाख टन दलहन के आयात की ज़रूरत पड़ती है. दलहन उत्पादन बढ़ने से आयात पर निर्भरता कम होगी और क़ीमतों का दबाव भी कम होगा. दलहन का समर्थन मूल्य बढ़ाने से किसान अधिक दलहन उत्पादन करने को प्रोत्साहित हुए हैं.

हालांकि भारत में दलहनी फ़सलों की पैदावार विकसित देशों के मुक़ाबले काफ़ी कम है. साल 1971-2010 तक देश में दलहनी फ़सलों के तहत महज़ 10 फ़ीसद क्षेत्र  में बढ़ोतरी हुई है. पिछले 20 सालों से दलहनों की औसत उपज में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया. साल 1990 में प्रति हेक्टेयर 580 किलोग्राम दलहन का उत्पादन होता था, जो साल 2010 तक 607 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक ही पहुंच पाया. देश में सबसे ज़्यादा यानी 77 फ़ीसद दालों का उत्पादन मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में होता है, जबकि बाक़ी 23 फ़ीसद उत्पादन करने वाले राज्यों में गुजरात, छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा और झारखंड शामिल हैं.  सरकार ने 1991 में दलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए तिलहन, दलहन और मक्का प्रौद्योगिकी मिशन के तहत राष्ट्रीय दलहन विकास परियोजना (एनपीडीपी) शुरू की है. भारत में प्रति व्यक्ति कम से कम दालों की न्यूनतम उपलब्धता 50 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन और बीज आदि के लिए 10 फ़ीसद दलहन मुहैया कराने के मक़सद से साल 2030 तक 32 मिलियन टन दलहन उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है. दलहन की फ़सलों को प्रोत्साहित करने के लिए किसानों को बीज, खाद आदि कृषि विभाग की ओर से मुफ़्त दिए जाते हैं.

छत्तीसगढ़ के रायपुर स्थित इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के सस्य विज्ञान विभाग के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर के मुताबिक़ भारतीय कृषि पद्धति में दालों की खेती का महत्वपूर्ण स्थान है. दलहनी फ़सलें भूमि को आच्छाद प्रदान करती हैं, जिससे भूमि का कटाव कम होता है. दलहनों में नाइट्रोजन स्थिरिकरण का नैसर्गिक गुण होता है, जिससे ये वायुमंडलीय नाइट्रोजन को अपनी जड़ों में स्थिर करके मृदा उर्वरता को भी बढ़ाती हैं. इनकी जड़ प्रणाली मूसला होने के कारण कम वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों में भी इनकी खेती की जाती है. इन फ़सलों के दानों के छिलकों में प्रोटीन के अलावा फ़ास्फ़ोरस अन्य खनिज लवण काफ़ी मात्रा में पाए जाते हैं. दलहनी फ़सलें हरी खाद के रूप में प्रयोग की जाती हैं, जिससे भूमि में जीवांश पदार्थ और नाइट्रोजन की मात्रा में बढ़ोतरी होती है. इन फ़सलों की खेती सीमांत और कम उपजाऊ भूमि पर की जा सकती है. कम अवधि की फ़सलें होने के कारण बहुफ़सली प्रणाली में इनका महत्वपूर्ण योगदान है, जिससे अन्न उत्पादन बढ़ाने में दलहनी फ़सलें सहायक सिद्ध हो रही हैं. दलहनी फ़सलें जलवायु के प्रति अति संवेदनशील होती हैं. सूखा, पाला, निम्न और उच्च तापमान, जल मग्नता का दलहनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. भारत में 87 फ़ीसद क्षेत्र में दहलनों की खेती वर्षा पर निर्भर करती है. उत्तरी भारत में पाले के प्रकोप से दहलनों विशेषकर अरहर, चना, मसूर, मटर आदि की उत्पादकता कम हो जाती है. तराई क्षेत्र मे मृदा आर्द्रता अधिक होने के कारण उकठा रोग से दलहनों को नुक़सान होता है. राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में सूखे के प्रकोप से दलहन उत्पादन कम होता है. दहलन फ़सलें प्रचीन काल से ही सीमांत क्षेत्रों में उगाई जाती रही हैं और आज भी व्यवसायिक फ़सलों की श्रेणी में न आने के कारण, इन फ़सलों पर शोध कार्य सीमित हुआ है, जिससे रूप उच्च गुणवत्ता वाली लागत संवेदी क़िस्में उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं. दलहनी फ़सलों की कीट-रोग और सूखा रोधी क़िस्मों का अभाव है. दलहनों की खेती बहुधा किसान अवैज्ञानिक ढंग से करते हैं, जिसके कारण वांछित उपज नहीं मिलती है. शुष्क और सीमांत क्षेत्रों के किसानों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती है, जिससे वे उन्नत क़िस्म के बीज, उर्वरक आदि का प्रयोग नहीं कर पाते हैं. फ़सलों में जल प्रबंध, खरपतवारों, कीट-रोगों का प्रबंधन भी नहीं हो पाता है, जिसके कारण उत्पादकता कम आती है. दलहनी फ़सलों के लिए अलग-अलग जीवाणु संवर्धन की ज़रूरत होती है, लेकिन सभी दलहनों के जीवाणु संवर्धन अभी तक उपलब्ध नहीं हैं. राइजोबियम जीवाणुओं के लिए उचित तापक्रम नियंत्रक न होने के कारण, ज़्यादातर संवर्धन प्रभावहीन हो जाते हैं, जिससे वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हो पाते हैं. इसके अलावा सिंचाई सुविधा न होने के कारण प्रायः दलहनी फ़सलों की अगेती बुआई की जाती है, जिसके कारण दलहनों की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है तथा उत्पादन कम हो पाता है. आमतौर पर दलहनी फ़सलों की बुआई छिटकवां विधि से की जाती हैं, जिसके कारण बीज अंकुरण एक सार नहीं हो पाता है और प्रति इकाई ईष्टतम पौध संख्या स्थापित नहीं हो पाती है. निंदाई-गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण भी ठीक से नहीं हो पाता हैं, जिससे फ़सल उत्पादन कम हो जाता है. दलहनी फ़सल में प्रोटीन पदार्थ अन्य फ़सलों की अपेक्षा अधिक होने से वे सरस होते हैं, जिसके कारण कीट रोग अधिक लगता है. सीमांत क्षेत्रों के किसान आर्थिक तंगी और अज्ञानता के कारण पौध संरक्षण उपायों को नहीं अपनाते हैं, जिससे उपज में भारी कमी आती है. दलहनी पौधों की प्रकृति असीमित वृद्धि वाली होती है, जिसके कारण पौधे के अग्र भाग की वृद्धि सतत् रूप से चलती है तथा पत्तियों के कक्ष में फूल और फलियों का निर्माण भी होता रहता है. इससे नीचे वाली फलियों के पकने के समय ऊपर वाली फलियां अपरिपक्व रहती हैं तथा ऊपर वाली फलियों के पकने तक नीचे वाली फलियों के दाने झड़ने लगते हैं. इस प्रकार से उपज में भारी कमी आती है. दलहनी फ़सलें प्रकाश एवं ताप के प्रति अति संवेदनशील होती हैं यानी इनमें पुष्पन की क्रिया मौसम एवं जलवायु पर आधारित होती है. वर्षा पोषित क्षेत्रों में संचित नमी का उपयोग करने प्रायः बुआई जल्दी कर दी जाती है, जिससे फ़सल की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है. पौधे प्रकाश संवेदी होने के कारण उनमें पुष्पन तभी होता है जब उन्हें उचित प्रकाश एवं ताप उपलब्ध होता है. इसके विपरीत देर से बुआई करने पर फ़सल की वानस्पतिक वृद्धि काफ़ी कम हो पाती है, क्योंकि जैसे ही पौधों को उपयुक्त मौसम प्राप्त होता है, उनमें पुष्पन हो जाता है. इस प्रकार से दोनों ही परिस्थितियों में उपज प्रभावित होती है. दलहनी फ़सलें प्रोटीन से भरपूर बीजों के लिए उगाई जाती हैं. प्रोटीन के निर्माण में फ़सल को ज़्यादा ऊर्जा व्यय करनी पड़ती है और फोटोसिंथेट की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है, जबकि स्टार्च उत्पादन में इसकी कम आवश्यकता पड़ती है. दलहनी फ़सलों में फूलों का झड़ना एवं फलियों के चटकने जैसी पैतृक बाधाएं विद्यमान होती हैं, जो निश्चय ही इनकी उत्पादकता कम करती हैं. दलहनी फ़सलों में कीट-व्याधियों का प्रकोप भी अधिक होता है. दहलनों की क्षेत्रवार उत्पादन तकनीक तथा उपलब्ध तकनीक का प्रसार न होने के कारण किसान परंपरागत विधि से ही इनकी खेती करते आ रहे हैं. उन्नत क़िस्म के कृषि यंत्रों का अभाव है. भंडारण की उचित व्यवस्था की कमी है. दलहनों मे प्रोटीन की अधिकता होने के कारण भंडारण के समय भी इनमें कीट-रोग का प्रकोप अधिक होता है. भंडारण की उचित व्यवस्था न होने तथा दाल मिलों की कमी होने के कारण कटाई के बाद भी दलहनों को कीट-व्याधियों से नुक़सान पहुंचता है, जिससे दालों की उपलब्धता घटती है. सीमांत क्षेत्रों के किसानों मे यह आम धारणा रहती है कि दलहनों की खेती लाभकारी नहीं है. इसलिए इनकी खेती अनुपजाऊ भूमियो में बिना खाद-उर्वरक के की जाती है. इसके अलावा दलहनों को ज़्यादातर क्षेत्रों में मिश्रित फ़सल के रूप में उगाया जाता है. इससे इनकी उपज कम प्राप्त होती है.

क़ाबिले-ग़ौर है कि कृषि विभाग द्वारा गांवों में शिविर लगाकर किसानों को दलहन फ़सलों से संबंधित जानकारी दी जाती है, यानी किसानों को दलहन की फ़सलों की खेती करने के तरीक़े, फ़सल को कीटों से बचाने के उपाय आदि के बारे में जानकारी दी जाती है. कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि दलहन की खेती में पानी की लागत कम लगती है. इसलिए कम सिंचाई वाले क्षेत्रों में इसकी खेती आसानी से की जा सकती है. कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि दलहन की खेती से किसान ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सकते हैं. गेहूं और धान के बीच में किसान दलहन की बिजाई कर तीसरी फ़सल का लाभ ले सकते हैं. इससे न केवल किसानों की आमदनी में इज़ाफ़ा होगा, बल्कि भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढ़ेगी. इसकी बिजाई का समय 15 मार्च से 15 अप्रैल तक है.

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