फ़िरदौस ख़ान 
मीडिया स्टडीज़ ग्रुप द्वारा प्रकाशित पुस्तक दलित गणतंत्र लेखों का संग्रह है. इसके तमाम लेख दलित समाज से जुड़े कई ज्वलंत मुद्दों पर रौशनी डालते हैं. मीडिया स्टडीज़ ग्रुप के चेयरमैन अनिल चमड़िया ने अपने लेख वर्चस्व के ढांचे की पहचान में पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद की विचारधारा को समझाने का प्रयास किया है. लेखक का कहना है कि ब्राह्मणवाद एक जाति नहीं है. यह एक विचार है और उस पर आधारित एक व्यवस्था है. जैसे ही हम कहते हैं कि वह एक व्यवस्था है, तो व्यवस्था का अर्थ यह होता है कि उसके हर हिस्से को उसी विचारधारा के आधार पर निर्मित किया गया है. लेकिन आमतौर पर यह देखा जाता है और ब्राह्मणवाद को ब्राह्मण के पर्याय के रूप में पेश किया जाता है और ब्राह्मणवाद के पूरे ढांचे को मज़बूत करने की कोशिश होती है. ब्राह्मणवाद के विरोध का मतलब ब्राह्मणवाद नहीं हो सकता. जाति विरोधी आंदोलन यदि जाति की पहचान को स्थापित करने की लड़ाई में बदल जाते हैं, तो वह ब्राह्मणवाद के ही हित में होते हैं. वह अपने दूसरे लेख भारतीय मीडिया में दलित आदिवासी प्रतिनिधित्व के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हैं. दलित चिंतक डॊ. आनंद तेलतुम्डे ने अपने लेख अम्बेडकर सिर्फ़ एक राष्ट्रवादी थे, में बताया है कि किस तरह संघ परिवार ने डॊ. अम्बेडकर के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार किया. संघ परिवार का यह चिरपरिचित हथकंडा रहा है कि डॊ. अम्बेडकर को एक महान राष्ट्रवादी के तौर पर प्रस्तुत किया जाए. दरअसल, यह उनके बदले हुए रुख़ का परिचायक है. कुछ समय पहले तक छद्म बुद्धिजीवियों के ज़रिये उनकी तरफ़ से यह दुष्प्रचार चलाया जा रहा था कि डॊ. अम्बेडकर ब्रिटिश साम्राज्य के दलाल रहे हैं और भारत की आज़ादी के संघर्ष का उन्होंने लगातार विरोध किया. डॊ. अम्बेडकर को बदनाम करने की उनकी यह मुहिम ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सकी, क्योंकि तब तक वह दलितों के नायक बन चुके थे. डॊ. भीमराव अम्बेडकर के लेख क्या हिंदू धर्म बंधुत्व को मान्यता प्रदान करता है, में हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था और छुआछूत पर प्रकाश डाला गया है. डॊ. भीमराव अम्बेडकर के अनुसार जाति व्यवस्था की क्रमिक बनावट एक विशेष तरह की सामाजिक मानसिकता बनने और बनाने के लिए ज़िम्मेदार है, जिस पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिए. प्रथम, इसके कारण विभिन्न जातियों के बीच एक-दूसरे के लिए द्वेष और घृणा की भावना पनपती है. इस द्वेष तथा घृणा की भावना ने न केवल कहावतों में ही स्थान प्राप्त नहीं किया, बल्कि उसे हिंदू साहित्य में भी स्थान मिला है. केवी रमन्ना अपने लेख ऐसे बनती गई जातियां, में जातियों के निर्माण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं. उनके अनुसार पुरुष-सूक्त से ही वर्णाक्रम एक पुरातन अतीत की तरह जाना जाता है. मैत्रीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण, कौस्तुभ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण और बादरायण उपनिषदों से लेकर महाभारत के शांति-पर्व तक चार स्तरीय वर्ग-वर्ण विभाजन ईश्वरीय द्वारा निर्मित बताए गए हैं. यहां तक कि चारों वर्णों के देवताओं तक का निर्धारण कर दिया गया. ब्राह्मणों के लिए अग्नि और बृहस्पति, क्षत्रियों के लिए वरुण, सोम और यम, वैश्यों के लिए देवता वसु, रुद्र, विश्वदेव और मरुत तथा शूद्रों के लिए पूषान देवता का निर्धारण किया गया था. मनुष्य की आर्थिक-सामाजिक स्थिति का निर्धारण स्वर्ग में हो जाता है. चंद्रभान प्रसाद अपने लेख में मेरिट की हिस्ट्री के बारे में जानकारी देते हैं कि किस तरह थर्ड डिविज़न की मांग करते हुए ब्राह्मण समाज का तर्क था कि ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली भारत के लिए एकदम नई है, इसलिए इसे अपनाने और समझने में कुछ वक़्त लगेगा. दरअसल, जब ब्रिटिश शासन ने भारत में मॊडर्न एजुकेशन की शुरुआत की, तो सिर्फ़ फ़स्ट और सैकेंड दो डिविज़न होती थीं. तब न्यूनतम अंक 40 प्रतिशत होते थे. तब न तो थर्ड डिविज़न थी और न ही 33 प्रतिशत की सुविधा. मधु लिमये अपने लेख आरक्षण विरोधी दंगे कौन उकसा रहा है, में कहते हैं कि आरक्षण-विरोधियों के प्रवक्ता नाटकबाज़ी कर रहे हैं कि उन्हें व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपना आंदोलन चलाने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. यह बिल्कुल झूठ है. वास्तव में सारी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था न केवल आरक्षण-विरोधी युवकों का समर्थन कर रही है, बल्कि उन्हें उकसा भी रही है. इसमें समाचार-पत्रों की भूमिका अग्रणी है, जिन पर धनी वर्गों का नियंत्रण है और जिन्हें चलाने वाले उच्च जातियों के प्रतिनिधि हैं. किताब में आरक्षण के इतिहास पर भी महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है. इसके साथ ही कृश्न चंदर की कहानी कालू भंगी और डॊ. सपना चमड़िया की कविता रैदास का आत्मविश्वास भी इसे ख़ास बनाती है.

समीक्ष्य कृति : दलित गणतंत्र
प्रकाशक : मीडिया स्टडीज़ ग्रुप


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