खुशदीप सहगल
'2014 का संदेश कमल और मोदी का है।'.... 'कमल पर दबाये बटन से आपका हर वोट सीधे मोदी को मिलेगा।'- ये शब्द किसी और के नहीं, खुद नरेंद्र मोदी के हैं। एक ऑडियो-वीडियो विज्ञापन में भी मोदी दहाड़ते देखे जा सकते हैं- 'सौगंध मुझे इस मिट्टी की, मैं देश नहीं मिटने दूंगा, मैं देश नहीं झुकने दूंगा।' प्रख्यात फिल्मी गीतकार प्रसून जोशी को मोटी फीस देकर लिखवाए गए इस गीत में पूरा जोर मोदी को 'लार्जर दैन लाइफ' छवि देने पर है, यानी देश को झुकने ना देने के लिए अकेले मोदी काफी हैं।
मोदी के प्रचार में और भी गीत सुने जा सकते हैं- 'अच्छे दिन आने वाले हैं, मोदी जी आने वाले हैं।'... 'इंद्र है, इंद्र है, नरों में इंद्र है।' हर जगह मोदी की कोशिश बेशक बीजेपी से पहले खुद को बताने की है। अब यह बात दूसरी है कि मुरली मनोहर जोशी देश में मोदी की नहीं, बीजेपी की हवा बता रहे हैं। आडवाणी मोदी को अच्छा 'इवेंट मैनेजर' कह रहे हैं। उमा भारती मोदी को 'अच्छा वक्ता' नहीं भीड़जुटाऊ नेता करार दे रही हैं।
सुपरमैन की छवि
मोदी के बीजेपी में 'स्वयंभू सर्वशक्तिमान' होने से पार्टी के कई नेता हैरान-परेशान हैं। पर इन सबको पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के जरिए मोदी का साफ संदेश है- बीजेपी में रहना होगा तो मोदी-मोदी कहना होगा। कुछ-कुछ फिल्म 'शोले' के हिट डॉयलॉग की तर्ज पर- 'अगर गब्बर के ताप से तुम्हें कोई शख्स बचा सकता है तो वो है खुद गब्बर।' मोदी की राजनीति की यह विशिष्ट शैली है। गुजरात में भी उन्होंने अपना सियासी कद इसी तरह बड़ा किया। इस दर्द को गुजरात के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों- सुरेश मेहता, शंकर सिंह वाघेला और केशुभाई पटेल से ज्यादा अच्छी तरह और कौन समझता होगा।
मोदी अब बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व में भी अपनी लाइन से अलग बोलने वाले नेताओं को जिस तरह हाशिए पर ले जा रहे हैं, उस कार्यशैली से एक सवाल उठता है। मोदी जैसे अधिनायकवादी नेता के हाथ में अगर केंद्र की सत्ता की कमान आती है तो देश किस दिशा में अग्रसर होगा? भारतीय लोकतंत्र की अवधारणा जिस संसदीय जनवाद पर टिकी है, क्या देश उससे इतर नरम फासीवाद की लाइन पकड़ेगा?
भारत भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टि से जितना विशाल और विविध है, उसे देखते हुए यहां कठोर फासीवाद के तत्काल जड़ें जमा लेने की गुंजाइश बहुत कम है। ऐसा अजेंडा बहुलतावादी भारत पर थोपना आसान नहीं है। मगर केंद्र में कोई अधिनायकवादी प्रधानमंत्री बनता है और कई राज्यों में उसके कठपुतली मुख्यमंत्री बनते हैं तो फिर कट्टर फासीवाद भी दूर की कौड़ी नहीं रहेगा। तब शायद दक्षिणपंथी अजेंडे से अलग मत रखने वालों के सामने समर्पण या मौन के सिवा कोई विकल्प नहीं बचेगा। यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों से एक रणनीति के तहत मोदी की खास छवि बनाने की कोशिश की गई। प्रचारित किया गया कि मोदी इकलौते नेता है जो देश को बचा सकते हैं। मोदी ईमानदार है, कुशल प्रशासक हैं, त्वरित निर्णय लेते हैं, आदि आदि।
सवाल है कि मोदी क्या अकेले दम पर अपनी ये छवि गढ़ सकते थे? आखिर वे कौन से तत्व हैं, जिन्होंने उनके व्यक्तित्व को इतना तिलिस्मी बना दिया? उनका सबसे बड़ा मददगार है कॉर्पोरेट जगत। उसके बड़े खिलाड़ियों का एक सुर में मोदी की शान में कसीदे पढ़ना संयोग नहीं है। नव उदारवादी नीतियों को देश पर थोपने के लिए कारोबारियों को मोदी से ज्यादा मुफीद नेता कोई और नहीं दिख रहा। वेलफेयर स्टेट की धारणा के तहत चलने वाले महंगे सामाजिक कार्यक्रम अब कॉर्पोरेट जगत की आंख की किरकिरी बन गए हैं। यही हाल छोटे-मोटे कारोबारियों का भी है।
मोदी की सुपरमैन सरीखी छवि के लिए मीडिया का भी सहारा लिया जा रहा है। मीडिया बड़े कारोबारियों से प्रभावित रहता है क्योंकि उनके विज्ञापनों से ही उसे अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा मिलता है। मोदी की मसीहाई छवि गढ़ने वाले लोग मध्यवर्ग की नाराजगी को भुनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। दरअसल मध्य वर्ग मानने लगा है कि मौजूदा आर्थिक नीतियां धन्ना सेठों को और अमीर बनाने वाली हैं। और सामाजिक कल्याण के नाम पर सारी मदद गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के लिए है। मिडिल क्लास नाराज है कि अपनी कमाई से पूरा टैक्स देने के बावजूद उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।
याद आएंगे वाजपेयी
ये तो वो कारण हैं, जिनकी वजह से मोदी सुपरब्रैंड नजर आ रहे हैं। लेकिन, इन पर ही पूरा देश सीमित नहीं हो जाता। कर्नाटक को छोड़ दें, तो दक्षिण और पूर्व भारत में अभी तक बीजेपी की नाम की ही मौजूदगी रही है। केंद्र में दमदार नेता होना जरूरी है, लेकिन देश की सामूहिकता भी बहुत मायने रखती है। देश के अल्पसंख्यक दिल्ली की गद्दी पर ऐसे नेता को देखना चाहते हैं, जिससे उन्हें अपनी सुरक्षा की पूरी गारंटी मिले। बीजेपी लोकसभा चुनाव में बहुमत के आंकड़े से अगर दूर रह जाती है तो उसके पोस्टरबॉय मोदी उसके लिए कमजोरी भी बन सकते हैं। ऐसा हुआ तो बीजेपी को सबसे ज्यादा याद मोदी को कभी राजधर्म की नसीहत देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की आएगी।