फ़िरदौस ख़ान
उपजाऊ कृषि भूमि को बचाना होगा, क्योंकि उपजाऊ ज़मीन होगी, तभी तो खेतीबाड़ी होगी. उपजाऊ शक्ति के लगातार क्षरण से भूमि के बंजर होने की समस्या ने आज विश्व के सामने एक बड़ी चुनौती पैदा कर दी है. सूखा, बाढ़, लवणीयता, कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल और अत्यधिक दोहन के कारण भू-जल स्तर में गिरावट आने से सोना उगलने वाली उपजाऊ धरती मरुस्थल का रूप धारण करती जा रही है. इस वक़्त दुनिया की आबादी तक़रीबन सात अरब है, जो 2050 तक नौ अरब हो जाएगी. ज़ाहिर है, अगले चार दशकों में धरती पर दो अरब लोग बढ़ जाएंगे, लेकिन भूमि सीमित होने की वजह से लोगों को उतना अनाज नहीं मिल पाएगा, जितने की उन्हें ज़रूरत होगी. ऐसे में खाद्यान्न संकट पैदा होगा. दुनिया की कुल ज़मीन का सिर्फ़ 11 फ़ीसद हिस्सा ही उपजाऊ है. संयुक्त राष्ट्र ने भी बढ़ते मरुस्थलीकरण पर चिंता ज़ाहिर करते हुए कहा है कि अगर रेगिस्तान के फैलते दायरे को रोकने के लिए विशेष क़दम नहीं उठाए गए, तो आने वाले वक़्त में अनाज का संकट पैदा हो जाएगा. इसके मद्देनज़र संयुक्त राष्ट्र ने 2010-20 को मरुस्थलीकरण विरोधी दशक के तौर पर मनाने का फैसला किया. हमारे देश में भी उपजाऊ भूमि लगातार बंजर हो रही है. भारत में दुनिया की कुल आबादी का 16 फ़ीसद हिस्सा है, जबकि इसकी भूमि विश्व के कुल भौगोलिक क्षेत्र का महज़ दो फ़ीसद है. जिस तरह मध्य एशिया के गोबी मरुस्थल से उड़ी धूल उत्तर चीन से लेकर कोरिया के उपजाऊ मैदानों को ढंक रही है, उसी तरह थार मरुस्थल की रेत उत्तर भारत के उपजाऊ मैदानों को निग़ल रही है. अरावली पर्वत काफ़ी हद तक धूल भरी आंधियों को रोकने का काम करता है, लेकिन अंधाधुंध खनन की वजह से इस पर्वतमाला को नुक़सान पहुंच रहा है, जिससे यह धूल भरी आंधियों को पूरी तरह नहीं रोक पा रही है. इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (इसरो) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पहले मरुस्थल राजस्थान के थार तक ही सीमित था, लेकिन अब यह देश के सबसे बड़े अनाज उत्पादक राज्यों हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश तक फैलने लगा है. 1996 में थार मरुस्थल का क्षेत्र 1.96 लाख वर्ग किलोमीटर था, जो अब बढ़कर 2.08 लाख वर्ग किलोमीटर हो गया है.

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के एक अनुमान के मुताबिक़, देश में कुल 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर ज़मीन में से 12 करोड़ 95 लाख 70 हज़ार हेक्टेयर भूमि बंजर है. मध्य प्रदेश में दो करोड़ एक लाख 42 हेक्टेयर ज़मीन बंजर है, जबकि राजस्थान में एक करोड़ 99 लाख 34 हेक्टेयर ज़मीन बंजर है. महाराष्ट्र में एक करोड़ 44 लाख हेक्टेयर, आंध्र प्रदेश में एक करोड़ 14 लाख 16 हज़ार हेक्टेयर, कर्नाटक में 91 लाख 65 हज़ार हेक्टेयर, उत्तर प्रदेश में 80 लाख 61 हज़ार हेक्टेयर, गुजरात में 98 लाख 36 हज़ार हेक्टेयर, उड़ीसा में 63 लाख 84 हज़ार हेक्टेयर, बिहार में 54 लाख 58 हज़ार हेक्टेयर, पश्चिम बंगाल में 25 लाख 36 हज़ार हेक्टेयर, हरियाणा में 24 लाख 78 हज़ार हेक्टेयर, असम में 17 लाख 30 हज़ार हेक्टेयर, हिमाचल प्रदेश में 19 लाख 78 हज़ार हेक्टेयर, जम्मू-कश्मीर में 15 लाख 65 हज़ार हेक्टेयर, केरल में 12 लाख 79 हज़ार हेक्टेयर, पंजाब में 12 लाख 30 हज़ार हेक्टेयर, मणिपुर में 14 लाख 38 हज़ार हेक्टेयर, मेघालय में 19 लाख 18 हज़ार हेक्टेयर और नागालैंड में 13 लाख 86 हज़ार हेक्टेयर भूमि बंजर है. अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर (एसएसी) ने 17 अन्य राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिलकर मरुस्थलीकरण और भूमि की गुणवत्ता के गिरते स्तर पर देश का पहला एटलस बनाया है. इसके मुताबिक़, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का तक़रीबन 25 फ़ीसद हिस्सा मरुस्थल में तब्दील हो चुका है, जबकि 32 फ़ीसद भूमि की गुणवत्ता कम हुई है. इसके अलावा देश के 69 फ़ीसद हिस्से को शुष्क क्षेत्र के तौर पर वर्गीकृत किया गया है.

ग़ौरतलब है कि देश में हर साल 600 करोड़ टन मिट्टी कटाव की वजह से बह जाती है, जबकि अच्छी पैदावार योग्य भूमि की एक सेंटीमीटर मोटी परत बनने में तक़रीबन तीन सौ साल लगते हैं. उपजाऊ मिट्टी की बर्बादी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हर साल 84 लाख टन पोषक तत्व बाढ़ आदि की वजह से बह जाते हैं. इसके अलावा कीटनाशकों की वजह से हर साल एक करोड़ चार लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की उपजाऊ शक्ति ख़त्म हो रही है. बाढ़, लवणीयता और क्षारपन आदि की वजह से हर साल 270 हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का बंजर होना भी निश्चित ही गंभीर चिंता का विषय है. अत्यधिक दोहन की वजह से भू-जल स्तर में गिरावट आने से भी बंजर भूमि के क्षेत्र में बढ़ोतरी हो रही है. विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले पांच दशकों में भू-जल के इस्तेमाल में 125 गुना वृद्धि हुई है. पहले एक तिहाई खेतों की सिंचाई भू-जल से होती थी, लेकिन अब तक़रीबन आधी कृषि भूमि की सिंचाई के लिए किसान भू-जल स्तर पर ही निर्भर हैं. 1947 में देश में एक हज़ार ट्यूबवेल थे, जो 1960 में बढ़कर एक लाख हो गए. व़क्त के साथ इनकी तादाद में लगातार इज़ा़फा होता गया. अब इनकी तादाद दो करोड़ दस लाख है, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है.

दिलचस्प बात यह भी है कि सरकारी आंकड़ों में बंजर भूमि लगातार कम होती जा रही है. ग्रामीण विकास मंत्रालय के भूमि संसाधन विभाग (डीओएलआर) के मुताबिक़, 1986 से 2000 के बीच पांच चरणों में चलाई गई परियोजना के ज़रिए देश में 6.38 करोड़ हेक्टेयर बंजर ज़मीन आकलित की गई थी. 2003 में किए गए आकलन के मुताबिक़, देश में बंजर ज़मीन घटकर 82 लाख हेक्टेयर कम हो गई. इसके बाद 2005-06 में उपग्रह मैपिंग के ज़रिए तैयार की गई रिपोर्ट में बंजर ज़मीन 84 लाख हेक्टेयर और घटकर 4.72 करोड़ हेक्टेयर रह गई. अधिकारियों का मानना है कि बंजर ज़मीन के क्षेत्रफल में इस कमी की सबसे बड़ी वजह यह है कि हमारे पास तीनों मौसमों में ज़मीन के उपजाऊपन के तुलनात्मक आंकड़े मौजूद नहीं हैं. ज़मीन का कोई टुकड़ा जो गर्मियों में अनुपजाऊ दिखता है, वही मानसून में हरा दिखाई देता है, जबकि सर्दी के मौसम में इसी ज़मीन का रंग अलग नज़र आता है.

ग्रामीण विकास मंत्रालय के मुताबिक़, देश की मौजूदा बंजर ज़मीन में 50 फ़ीसद भूमि ऐसी है, जिसे समुचित रूप से विकसित कर उपजाऊ बनाया जा सकता है. यह असुरक्षित ग़ैर-वनेतर भूमि है, जो अत्यधिक दबाव की वजह से प्रभावित हुई है. बंजर भूमि के उन्मूलन के लिए केंद्र सरकार ने 1992 में ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत बंजर भूमि विकास विभाग का गठन किया था. बाद में इसका पुनर्गठन कर इसका नाम बदल कर भूमि संसाधन विभाग रखा गया. इसके बाद ज़मीन के अतिक्रमण की समस्या को हल करने और ईंधन लकड़ी एवं चारे की लगातार बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के तहत 1985 में राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड का गठन किया गया. सातवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड द्वारा अपनाई गई कार्य नीति में बंजर भूमि के विकास के लिए सामुदायिक भागीदारी की बजाय पौधारोपण पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया. इसके बाद 1992 में ग्रामीण विकास मंत्रालय (तत्कालीन ग्रामीण क्षेत्र एवं रोज़गार मंत्रालय) के तहत एक नए विभाग का गठन किया गया और राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड को उसके अधीन रखा गया. अगस्त, 1992 में बोर्ड का पुनर्गठन किया गया और विकास के हर स्तर पर स्थानीय लोगों को शामिल करके वनेतर क्षेत्रों में मुख्यत: बंजर भूमि को समग्र रूप में विकसित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. इसका मक़सद एक ऐसा परिदृश्य सृजित करना है, जिसमें सरकार सुविधा मुहैया कराने वाले के रूप में और लोग ज़मीनी स्तर पर कार्यक्रम के वास्तविक संचालक के तौर काम कर सकें. ग़रीबी, पिछड़ापन एवं स्त्री-पुरुष असमानता आदि के मद्देनज़र बंजर और अतिक्रमित भूमि की उत्पादकता में सुधार लाने के लिए कार्यान्वित किए गए समेकित बंजर भूमि विकास कार्यक्रम के वे नतीजे सामने नहीं आ पा रहे हैं, जो आने चाहिए.

बढ़ती आबादी की रिहायशी और अन्य ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पिछले पांच दशकों में हरित वनीय क्षेत्र और पेड़-पौधों को काफ़ी नुक़सान पहुंचाया गया है. वन्य इलाक़ों में वृक्षों को काटकर वहां बस्तियां बसा ली गईं. फ़र्नीचर और ईंधन आदि के लिए हरे-भरे वृक्षों को काट डाला गया. आदिवासी इलाक़े छोटे गांवों और गांव शहरों में तब्दील होने लगे. शहर महानगर बन रहे हैं. ऐसे में इंसान की बढ़ती ज़रूरतों को पूरा करने के लिए प्रकृति का अत्यधिक दोहन किया गया. नतीजतन, प्राकृतिक चीज़ें, मिट्टी, पानी और हवा प्रदूषित होने लगीं. इसका सीधा असर इंसान की सेहत पर भी पड़ा है. बहरहाल, धरती के मरुस्थलीकरण और मिट्टी की ऊपरी परत के क्षरण को रोकने के कई तरीक़े हैं, जैसे पौधारोपण और बेहतर जल प्रबंधन. पौधारोपण के ज़रिए मिट्टी के कटाव को रोका जा सकता है, वहीं बेहतर जल प्रबंधन करके अत्यधिक भू-जल दोहन पर रोक लगाई जा सकती है. इसके अलावा यह कोशिश भी करनी चाहिए कि कृषि योग्य भूमि को किसी अन्य काम में इस्तेमाल न किया जाए. देखने में आ रहा है कि कृषि योग्य भूमि पर कॉलोनियां बसाई जा रही हैं, उद्योग लगाए जा रहे हैं.

पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन राज्यमंत्री प्रकाश जावड़ेकर का कहना है कि यदि सभी हितधारक – पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, कृषि मंत्रालय, जल संसाधन मंत्रालय तथा भूमि संसाधन विभाग एक साथ मिलकर रणनीति को लागू करें, तो 2030 तक भारत भूमि क्षरण तटस्थ देश हो जाएगा. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए यह ज़रूरी है कि सभी हितधारक एक रोड मैप तैयार करें, और सभी चिंताओं का निराकरण करें. निरंतर विकास की राह में जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ मरूस्थलीकरण तथा जैव-विविधता की हानि सबसे बड़ी चुनौती है. ज़मीन के मरूस्थलीकरण को भूमि के समन्वित इस्तेमाल के ज़रिये रोका जा सकता है. महाराष्ट्र में 11 जलागम (वाटरशेड) परियोजनाओं पर काम करते हुए उन्हें अनुभव में यह दिखा कि ज़मीन का मरूस्थलीकरण सामूहिक प्रयास से रोका जा सकता है. भारत को भूमि क्षरण तटस्थ बनाने के उद्देश्य को हासिल करने के लिए विभिन्न हितधारकों के बीच तालमेल महत्वपूर्ण है. बंजर भूमि को फिर से हासिल करने से ग़रीबी उन्मूलन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है और इससे समुदाय भी समृद्ध होता है.

किसान क्या करें
कृषि योग्य भूमि के बंजर होने से उत्पादन पर भी असर पड़ा है. एक तरफ़ जहां कीटनाशकों, रसायनों और उर्वरकों की वजह से लागत ज़्यादा हो गई है, वहीं उत्पादन कम होने से किसान लगातार घाटे में जा रहे हैं. जिन किसानों के पास कृषि भूमि कम है, उनका तो और भी बुरा हाल है. कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक़, बंजर ज़मीन वह भूमि है, जिसमें लवणों, ख़ासकर सोडियम की अधिकता हो. ऐसी ज़मीन में खेती नहीं होती. अगर होती भी है, तो उत्पादन बहुत कम होता है. ऐसी ज़मीन को अकार्बनिक यानी जिप्सम, पायराइट, फ़ास्फोजिप्सम, गंधक का अम्ल, कार्बनिक पदार्थ जैसे प्रेसमड, ऊसर तोड़ खाद, शीरा, धान का पुआल, धान की भूसी, बालू, जलकुंभी, गोबर और पुआल, गोबर और कम्पोस्ट की खाद, वर्गी कम्पोस्ट, सत्यानाशी खरपतवार और जैविक पदार्थों के ज़रिये सुधारा जा सकता है. किसानों को मेड़बंदी करनी चाहिए. यह काम बरसात या सितंबर-अक्टूबर में जब भूमि नम रहती है, तब शुरू कर देना चाहिए. मेड़ के धरातल की चौड़ाई 90 सेंटीमीटर, ऊंचाई 30 सेंटीमीटर और मेड़ की ऊपरी सतह की चौड़ाई 30 सेंटीमीटर होनी चाहिए. मेड़बंदी करते वक़्त सिंचाई नाली और खेत जल निकास नाली का निर्माण दो खेतों की मेड़ों के बीच कर देना चाहिए. भूमि की जुताई बरसात या सितंबर-अक्टूबर या फ़रवरी में करके छोड़ दें, जिससे लवण भूमि की सतह पर इकट्ठे न हों. भूमि की जुताई दो-तीन बार 14-20 सेंटीमीटर गहरी करें. खेत को कम चौड़ी और लंबी-लंबी क्यारियों में बांटकर क्यारियों का समतलीकरण करना चाहिए. जल निकास नाली की तरफ़ बहुत हल्की-सी ढाल देनी चाहिए, ताकि खेत का फ़ालतू पानी जल निकास नाली द्वारा बहाया जा सके. मिट्टी की जांच करा लें, जिससे ज़रूरी 50 फ़ीसद जिप्सम की मात्रा का पता चल जाता है. खेत की ढाल और नलकूप की जगह को ध्यान में रखते हुए सिंचाई तथा खेत नाली का निर्माण करना चाहिए. सिंचाई नाली भूमि की सतह से ऊपर बनाई जाए, जो आधार पर 30 सेंटीमीटर और शीर्ष पर 120 सेंटीमीटर गहरी हो. खेत नाली भूमि की सतह से 30 सेंटीमीटर गहरी बनाई जाए, जो आधार पर 30 सेंटीमीटर और शीर्ष पर 75-90 सेंटीमीटर गहरी हो. नई कृषि तकनीक को अपनाकर भी भूमि को बंजर होने से बचाया जा सकता है.


أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ

أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ
I Love Muhammad Sallallahu Alaihi Wasallam

फ़िरदौस ख़ान का फ़हम अल क़ुरआन पढ़ने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें

या हुसैन

या हुसैन

फ़िरदौस ख़ान की क़लम से

Star Web Media

सत्तार अहमद ख़ान

सत्तार अहमद ख़ान
संस्थापक- स्टार न्यूज़ एजेंसी

ई-अख़बार पढ़ें

ब्लॉग

  • नजूमी... - कुछ अरसे पहले की बात है... हमें एक नजूमी मिला, जिसकी बातों में सहर था... उसके बात करने का अंदाज़ बहुत दिलकश था... कुछ ऐसा कि कोई परेशान हाल शख़्स उससे बा...
  • कटा फटा दरूद मत पढ़ो - *डॉ. बहार चिश्ती नियामतपुरी *रसूले-करीमص अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि मेरे पास कटा फटा दरूद मत भेजो। इस हदीसे-मुबारक का मतलब कि तुम कटा फटा यानी कटा उसे क...
  • Dr. Firdaus Khan - Dr. Firdaus Khan is an Islamic scholar, poetess, author, essayist, journalist, editor and translator. She is called the princess of the island of the wo...
  • میرے محبوب - بزرگروں سے سناہے کہ شاعروں کی بخشش نہیں ہوتی وجہ، وہ اپنے محبوب کو خدا بنا دیتے ہیں اور اسلام میں اللہ کے برابر کسی کو رکھنا شِرک یعنی ایسا گناہ مانا جات...
  • डॉ. फ़िरदौस ख़ान - डॉ. फ़िरदौस ख़ान एक इस्लामी विद्वान, शायरा, कहानीकार, निबंधकार, पत्रकार, सम्पादक और अनुवादक हैं। उन्हें फ़िरदौस ख़ान को लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी के नाम से ...
  • 25 सूरह अल फ़ुरक़ान - सूरह अल फ़ुरक़ान मक्का में नाज़िल हुई और इसकी 77 आयतें हैं. *अल्लाह के नाम से शुरू, जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है*1. वह अल्लाह बड़ा ही बाबरकत है, जिसने हक़ ...
  • ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ - ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਕਿਤੋਂ ਕਬੱਰਾਂ ਵਿਚੋਂ ਬੋਲ ਤੇ ਅੱਜ ਕਿਤਾਬੇ-ਇਸ਼ਕ ਦਾ ਕੋਈ ਅਗਲਾ ਵਰਕਾ ਫੋਲ ਇਕ ਰੋਈ ਸੀ ਧੀ ਪੰਜਾਬ ਦੀ ਤੂੰ ਲਿਖ ਲਿਖ ਮਾਰੇ ਵੈਨ ਅੱਜ ਲੱਖਾਂ ਧੀਆਂ ਰੋਂਦੀਆਂ ਤ...

एक झलक

Followers

Search

Subscribe via email

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

साभार

इसमें शामिल ज़्यादातर तस्वीरें गूगल से साभार ली गई हैं