जब समय की दीवारों पर अन्याय की परछाइयाँ गहराने लगती हैं,
जब धर्म अपने अर्थ खोकर कर्मकांडों में सिमट जाता है,
जब मनुष्य जाति-धर्म और ऊँच-नीच की खाइयों में बँट जाती है —
तब इतिहास किसी नये धर्मग्रंथ का नहीं,
एक नयी रोशनी का इंतज़ार करता है।
ऐसी ही अंधेरी घड़ी में तलवंडी की धरती पर 1469 में एक बालक जन्मा —
गुरु नानक देव।
यह जन्म केवल किसी व्यक्ति का नहीं था,
यह मानवता में पुनः प्रेम के जन्म का क्षण था।
इक ओंकार – सबका एक ही स्रोत
गुरु नानक ने सबसे पहले यह कहा कि सृष्टि के सारे रूप एक ही तत्व से बने हैं।
ईश्वर न हिन्दू है, न मुसलमान — वह बस एक ओंकार है।
उन्होंने कहा —
“ना कोई हिन्दू, ना कोई मुसलमान – सब मनुष्य, सब परमात्मा के अंश हैं।”
यह संदेश अपने समय से सैकड़ों वर्ष आगे था।
उन्होंने मनुष्य को धर्म की सीमाओं से मुक्त किया
और उसे अपनी आत्मा की ओर लौटने का आमंत्रण दिया।
जीवन का सच्चा सौदा
एक प्रसंग प्रसिद्ध है —
किशोर नानक को उनके पिता ने व्यापार के लिए भेजा।
उन्होंने रास्ते में भूखे साधुओं को भोजन करवा दिया और कहा —
“यही सच्चा सौदा है।”
यहीं से उनकी साधना की यात्रा शुरू हुई,
जो आगे चलकर जपजी साहिब और गुरु ग्रंथ साहिब की पंक्तियों में अमर हो गई।
उनका दर्शन तीन सरल सूत्रों में सिमटता है —
किरत करो, नाम जपो, वंड छको।
यानि —
ईमानदारी से परिश्रम करो,
ईश्वर का नाम स्मरण करो,
और जो मिले उसे दूसरों में बाँटो।
यह दर्शन केवल अध्यात्म नहीं,
एक संतुलित, न्यायपूर्ण समाज की नींव था।
उदासियाँ — विचार की यात्राएँ
गुरु नानक देव ने जीवन भर यात्राएँ कीं — जिन्हें उदासियाँ कहा जाता है।
उन्होंने काबुल से लेकर श्रीलंका, मक्का से तिब्बत तक भ्रमण किया।
पर वे तीर्थ नहीं खोज रहे थे —
वे मानव की आत्मा खोज रहे थे।
हर जगह उन्होंने वही कहा —
सत्य एक है, बस उसके देखने के ढंग अलग-अलग हैं।
मक्का में जब उन्होंने अपना सिर काबे की ओर नहीं किया,
तो लोगों ने पूछा — “तू किस दिशा में देख रहा है?”
नानक ने मुस्कुराकर कहा —
“जिस दिशा में ईश्वर नहीं, वह दिखाओ।”
उनकी वाणी में करुणा थी, पर क्रांति भी थी।
वे सादगी से जीते थे, पर सच्चाई पर अडिग खड़े रहते थे।
उन्होंने धर्म के नाम पर फैलती हिंसा, पाखंड और शोषण का विरोध किया।
उनकी क्रांति किसी तलवार की नहीं,
शब्द की क्रांति थी।
भक्ति और कर्म का समन्वय
गुरु नानक ने भक्ति को कर्म से जोड़ा।
उन्होंने सिखाया कि साधना केवल ध्यान नहीं,
सेवा भी है।
उनके कहे अनुसार —
जो हाथ प्रार्थना में जुड़ते हैं,
वो रोटी बाँटने में भी उठने चाहिए।
इसलिए सिख परंपरा में लंगर केवल भोजन नहीं,
समानता और सेवा का प्रतीक बना।
गुरुद्वारे की रसोई में हर जाति, हर धर्म का व्यक्ति
एक थाल में बैठकर खाना खाता है —
वहीं नानक की आत्मा अब भी मुस्कुरा रही होती है।
मानवता का धर्म
गुरु नानक का धर्म किसी धर्मग्रंथ की परिधि में नहीं बंधा।
उनके लिए धर्म का अर्थ था —
सत्य, प्रेम, और समानता।
उन्होंने कहा —
“सबना दा भला होवे।”
यानी, “सभी का कल्याण हो।”
आज जब संसार फिर से विभाजनों की दीवारें खड़ी कर रहा है,
नानक की वाणी पहले से ज़्यादा प्रासंगिक लगती है।
उनकी आवाज़ हमें याद दिलाती है —
कि इंसान होने का मतलब है सबको अपनाना,
ना कि किसी एक को चुनकर बाकियों को नकार देना।
प्रेम की वह रौशनी
गुरु नानक की उपस्थिति किसी काल-सीमा में सीमित नहीं।
उनकी वाणी आज भी उतनी ही उजली है जितनी पाँच सौ साल पहले थी।
वे किसी पर्व पर याद करने के लिए नहीं,
हर दिन की सुबह में जीने के लिए हैं।
उन्होंने कहा था —
“हुकम रजाई चलना, नानक लिख्या नाल।”
अर्थात् —
जीवन उसी का है जो ईश्वर की रज़ा में चलता है।
गुरु नानक देव ने मनुष्य को अहंकार से मुक्त कर,
प्रेम और सेवा के मार्ग पर चलने की सीख दी।
उनकी वाणी, उनका जीवन —
एक ऐसी रौशनी है जो आज भी हमारे भीतर
पहले अक्षर की तरह चमकती है —
“इक ओंकार सतनाम करता पुरख।”
-हरकीरत कौर
गुवाहाटी (असम)
