त्रिभुवन
सुलक्षणा पंडित नहीं रहीं। 6 नवम्बर 2025 की शाम मुंबई में समय ने एक ऐसे स्वर को निगल लिया, जिसकी प्रतिध्वनि अब केवल कमज़ोर रेडियो तरंगों और स्मृति के भटके हुए गलियारों में सुनी जाएगी।
"तू ही सागर है तू ही किनारा” जैसा गीत उन्होंने गाया, जो "संकल्प" फ़िल्म से था। संगीत खय्याम का था। पचास साल पहले। उस समय शायद वह 21 साल की एक सुकुमार लड़की थी। सुकंठी। उसकी सिग्नेचर प्रार्थना-धुन। नर्म, गहरी और आध्यात्मिक।
और "संकोच" (1976) फ़िल्म का “बाँधी रे काहे प्रीत” खाँटी राग आधारित भावगान था। यहाँ उनका शास्त्रीय प्रशिक्षण सीधा ध्वनित होता है।
आज प्यारे प्यारे से लगते हैं आप, मैं न बताऊँगी, कजरे की बाती, परदेसीया तेरे देश में, सोमवार को हम मिले, खाली प्याला धुँधला दर्पन, मौसम मौसम लवली मौसम, अपनी बाहों का हार दे, जैसे गीत गाने वाली सुलक्षणा मृदु स्वर, सिल्की टोन, हल्के नैज़ल, लेकिन बहुत नियंत्रित तरीके से गाती थीं। कभी हार्श नहीं होतीं। हमेशा सुरीली और सुसंस्कृत।
वे मेवाती घराने से थीं। इस घराने की ख़ूबियाँ आलाप, मींड, सुर की शुद्धता तक सब उनकी फिल्मी मेलोडी के भीतर भी साफ़ दिखते हैं। उनकी आवाज़ का भावनात्मक मार्दव आकर्षित करता था। सच कहा जाए तो वे गायिका थीं, नायिका नहीं।
उनकी आवाज़ में एक ख़ास तरह के इन्नोसेंस और एक़् का मिश्रण है, जो नायिका की संकोची गरिमा, हल्की उदासी और भीतरी मर्यादा को आवाज़ के माध्यम से जीवंत करता है।
उनके डुएट ग़ज़ब थे। किशोर, रफ़ी, येशुदास जैसे दिग्गजों के साथ गाते हुए भी उनकी आवाज़ क़ाबिल-ए-शिनाख़्त रहती है। ये उनके सुर और व्यक्तित्व की ताक़त है।
नानावटी अस्पताल के एक कमरे में गुरुवार की रात आठ बजे के आसपास इस कोमल दिल और हृदयहारी कंठ ने अंतिम बार अपनी ज़िद छोड़ी। एहसास नहीं होता कि सुलक्षणा पंडित नाम की यह तारिका फिल्मों के परदे पर मुस्कान, रिकार्डों पर तैरती आवाज़ और अपने भीतर ख़ामोशी का विशाल महाद्वीप लिए विदा हो गईं हैं।
वे मशहूर संगीतकार जतिन ललित की बहन थीं और पंडित जसराज की भतीजी। यह परिवार हरियाणा के हिसार के निकट फतेहाबाद जिले के पीली मंडोरी गांव से था।
सुलक्षणा पंडित सत्तर और अस्सी के उस दशक की विशिष्ट रोशनी थीं, जिसमें सिनेमा रंगीन हो चुका था। वह समय था जब चेहरों पर एक भूली हुई शराफ़त टिकी रहती थी। उसी से सुलक्षणा पंडित उभरीं।
1975 में ‘उलझन’ की नायिका में बहुत से युवा उलझे थे। संजीव कुमार के साथ उनकी वह पहली उपस्थिति थी। मानो किसी नए सुर का ट्रायल हो। यह आगे चलकर ‘संकोच’, ‘हेराफेरी’, ‘अपनापन’, ‘खानदान’, ‘धरम कांटा’, ‘चेहरे पे चेहरा’ और ‘वक़्त की दीवार’ जैसी फ़िल्मों में आईं और लोगों ने उन्हें पसंद किया।
उन्होंने संजीव कुमार, जितेन्द्र, राजेश खन्ना, शशि कपूर, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नायकों के साथ काम किया; पर नायकों की चमक के समानांतर उनकी अपनी एक नर्म, नीली सी रौशनी थी, जो शोर नहीं करती, बस उपस्थित रहती।
गायिका के रूप में उनकी कहानी और पहले शुरू होती है: 1967, फ़िल्म ‘तक़दीर’ में लता मंगेशकर के साथ बाल स्वर में। मानो किसी महान नदी के किनारे एक छोटी जलधारा अचानक साथ बहने लगे।
आगे चलकर उन्होंने किशोर कुमार, मोहम्मद रफ़ी, येशुदास, महेंद्र कपूर, उदित नारायण जैसे स्वरों के बीच अपनी आवाज़ का महीन, पर पहचानने योग्य धागा पिरोया। हिन्दी के साथ बंगाली, ओड़िया, गुजराती, मराठी भाषाएँ बदलती रहीं, गायक बदलते रहे, संगीतकार बदलते रहे, पर सुलक्षणा की टोन में एक स्थायी उदासी और संकोची गरिमा बनी रही; जैसे हर गीत के पीछे कोई निजी कथा हो, जिसे वह श्रोताओं के सामने कभी पूरी तरह रख नहीं सकीं।
उनका अंतिम संस्कार मुंबई में, आज दोपहर हो रहा है। पर असली विदाई वहाँ होगी, जहाँ कोई पुराने कैसेट प्लेयर में अचानक “कहीं और चल बसेंगे हम” या “तुम्हें दिल्लगी भूल जानी पड़ेगी” के दौर की कोई धुन लगाकर ठिठक जाएगा और देर तक सोचेगा कि पर्दे के पीछे की यह स्त्री, जो उद्योग की अफ़वाहों और अकेलेपन की कथाओं में घिरी रही। दरअसल सुलक्षणा पंडित हमारे सांस्कृतिक अवचेतन की एक शांत, आहत और सुरीली पंक्ति थी, जो आज हमसे दूर हो गई है।
सुलक्षणा पंडित चली गईं; पर हर बार जब कोई पुराना गीत अपनी पूरी विनम्रता के साथ कमरे में भर उठेगा, हमें याद दिलाएगा कि कभी किसी युग ने नायिका को भी गाने दिया था और वह गा भी गई थी, बिना किसी शोर, बिना किसी नारे, केवल कला के पक्ष में।
