पीले हो कर सूखते हुये भूरे पत्ते-सा होता है
मटमैली राह से धीरे-से आती है
और बर्फ़ीली राख की तरह झरती है उदासी
जिसके तले प्राय: दब जाती हैं
हरी दूब की कोंपलों-सी रक्ताभ
फूटती खुशियाँ
ओढ़े हुये सदैव एक धुँधला-सा कम्बल वह
शाम की तरह उतरती है और
घनी अँधेरी ठण्डी रात की तरह छा जाती है
किनारे पर खड़ा होते हैं आप
कि उदासी का अजगर जकड़ कर आपको
बीच भँवर में खेंच ले जाता है
बचो उदासी से
इसी तरह के ठण्डे मौसम में आती है उदासी
हरे भरे पेड़ के पत्तों को पीला करती
भूरा बना कर बर्फ़ीली राख की तरह
पतझड़ ले आती है उदासी
उम्मीद की खुशियों से भरा
वसंत आने तक
-कैलाश मनहर
