कई दिनों से धुन्ध है सहर न शाम इन दिनों
बहुत बड़ी है रात, दिन बराए नाम इन दिनों

शरारतें हैं भीगती दिसम्बरी हवाओं की
पुकार आ रही है फिर सुनी सुनी सदाओं की

अजीब सा असर है इन उदास सी फ़िज़ाओं में
कि रंग कितनी सर्दियों के घुल गए घटाओं में

न अब वो गाँव है न घर बने हैं फिर भी रास्ते
ख़्यालो ख़्वाब हैं फ़क़त सुकूने दिल के वास्ते

दरीचा कोई है कहीं जो महवे इन्तेज़ार है
किसी सेहन में आज भी बरस रही फुहार है

बदन कँपाती ठण्ड वो हवाओं में घुली घुली
घना दरख़्त नीम का वो पत्तियाँ धुली धुली

वो धुन्ध से ढकी हुई सुबह किसी दयार की
नए नए से वलवले वो ज़िन्दगी बहार की

रज़ाइयों की महफ़िलों में दौर गुड़ की चाय के 
सिंघाड़े, खीर, सब्ज़ियाँ वो दूध घी के ज़ायक़े

दहक रही अँगीठियों से मिलके तापने के दिन
वो हँसते खिलते बचपने वो रूप रंग और सिन

अजीब हैं कमाल हैं ये बादलों की साज़िशें
घटाओं की नवाज़िशे ये सर्दियों की बारिशें

कहाँ उड़ा के ले गईं जहाँ फ़क़त ग़ुबार है
जहाँ से लौटने का अब, हमीं को इन्तेज़ार है।
शमीम ज़हरा


أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ

أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ
I Love Muhammad Sallallahu Alaihi Wasallam

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सत्तार अहमद ख़ान

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