फ़िरदौस ख़ान
हिंदुस्तानी मुसलमानों में दहेज का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है. हालत यह है कि बेटे के लिए दुल्हन तलाशने वाले मुस्लिम अभिभावक लड़की के गुणों से ज़्यादा दहेज को तरजीह दे रहे हैं. एक तऱफ जहां बहुसंख्यक तबक़ा दहेज के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रहा है, वहीं मुस्लिम समाज में दहेज का दानव महिलाओं को निग़ल रहा है. दहेज के लिए महिलाओं के साथ मारपीट करने, उन्हें घर से निकालने और जलाकर मारने तक के संगीन मामले सामने आ रहे हैं. बीती एक जुलाई को हरियाणा के कुरुक्षेत्र ज़िले के गांव गुआवा निवासी नसीमा की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई. करनाल ज़िले के गांव मुरादनगर निवासी नज़ीर की बेटी नसीमा का विवाह क़रीब छह साल पहले गांव गुआवा के सुल्तान के साथ हुआ था. 26 वर्षीय नसीमा की तीन बेटियां हुईं. उसके परिवार के लोगों का आरोप है कि नसीमा को दहेज के लिए परेशान किया जाता था. इतना ही नहीं, बेटियों को लेकर भी उसे दिन-रात ताने सुनने को मिलते थे. उनका यह भी कहना है कि उसके पति सुल्तान ने दहेज न मिलने की वजह से उसे फांसी दे दी. पुलिस ने सुल्तान के ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी के तहत दहेज हत्या का मामला दर्ज किया है.

हरियाणा के करनाल ज़िले के गांव जैनपुर के मुस्लिम परिवार की सुनीता के साथ की गई दरिंदगी को देखकर रूह कांप उठती है. उसका निकाह 23 फ़रवरी, 2003 को हरियाणा के ही जींद ज़िले के गांव शंबो निवासी शेर सिंह के साथ हुआ था. उसने अपनी ज़िंदगी को लेकर कई इंद्रधनुषी सपने देखे थे, लेकिन उसके पति शेर सिंह की दहेज की मांग ने उसके सारे सपने बिखेर दिए. उसका पति बार-बार उससे अपने मायके से मोटरसाइकिल लाने की मांग करता. इस बात को लेकर उनके बीच लड़ाई-झगड़े होते. उसके पिता की इतनी हैसियत नहीं थी कि वह दहेज में अपनी बेटी को मोटरसाइकिल दे सकें. सुनीता की एक बेटी हुई, जिसका नाम सोनिया रखा गया. उसने सोचा कि औलाद होने के बाद शायद शेर सिंह सुधर जाए, लेकिन दहेज की मांग को लेकर उसने पत्नी को और ज़्यादा प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. 5 नवंबर, 2005 को शाम तक़रीबन सात बजे जब सुनीता खाना बना रही थी, तब शेर सिंह आया और उससे मोटरसाइकिल की बात करने लगा. सुनीता ने मायके से मोटरसाइकिल लाने से इंकार कर दिया. इस पर शेर सिंह ने जलती लालटेन उस पर फेंक दी, जिससे उसके कपड़ों में आग लग गई. वह बुरी तरह झुलस चुकी थी. उसे अस्पताल में दाख़िल कराया गया. शेर सिंह के ख़िलाफ़ पत्नी की हत्या की कोशिश के आरोप में धारा-307 के तहत मामला दर्ज किया गया. जींद के अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश जे एस जांग़डा ने 8 अगस्त, 2007 को शेर सिंह को पांच साल की सज़ा सुनाई. सुनीता को इंसाफ़ तो मिल गया, लेकिन उसके पूरे जिस्म पर आग से झुलस जाने के दाग़ हैं, जो उसके ज़ख़्म को ताज़ा बनाए रखते हैं. ऐसे मामले आए दिन सामने आ रहे हैं. इंडियन स्कूल ऑफ़ वुमेंस स्टडीज एंड डेवलपमेंट के सर्वे के मुताबिक़, शादी के सात साल के भीतर मुस्लिम महिलाओं की अप्राकृतिक मौतें सबसे ज़्यादा गुजरात में हुईं. उनमें से ज़्यादातर महिलाओं की मौत का कारण दहेज उत्पीड़न रहा.

क़ाबिले-ग़ौर है कि दहेज की वजह से लड़कियों को पैतृक संपत्ति के हिस्से से भी अलग रखा जा रहा है. इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि उनके विवाह और दहेज में काफ़ी रक़म ख़र्च की गई है, इसलिए अब जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं रह जाता. ख़ास बात यह भी है कि लड़की के मेहर की रक़म तय करते वक़्त सैकड़ों साल पुरानी रिवायतों का वास्ता दिया जाता है, जबकि दहेज लेने के लिए शरीयत को ताख़ पर रखकर बेशर्मी से मुंह खोला जाता है. हालत यह है कि शादी की बातचीत शुरू होने के साथ ही लड़की के परिजनों की जेब कटनी शुरू हो जाती है. जब लड़के वाले लड़की के घर जाते हैं तो सबसे पहले यह देखा जाता है कि नाश्ते में कितनी प्लेटें रखी गई हैं यानी कितने तरह की मिठाई, सूखे मेवे और फल रखे गए हैं. इतना ही नहीं, दावतें भी मुर्ग़े की ही चल रही हैं यानी चिकन बिरयानी, चिकन क़ोरमा वग़ैरह. फ़िलहाल 15 से लेकर 20 प्लेटें रखना आम हो गया है और यह सिलसिला शादी तक जारी रहता है. शादी में दहेज के तौर पर ज़ेवरात, फ़र्नीचर, टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, क़ीमती कपड़े और ताम्बे-पीतल के भारी बर्तन दिए जा रहे हैं. इसके बावजूद दहेज में कारें और मोटरसाइकिलें भी मांगी जा रही हैं, भले ही लड़के की इतनी हैसियत न हो कि वह इन वाहनों के तेल का ख़र्च भी उठा सके. जो अभिभावक अपनी बेटी को दहेज देने की हैसियत नहीं रखते, उनकी बेटियां कुंवारी बैठी हैं. मुरादाबाद की किश्वरी जीवन के 47 बसंत देख चुकी हैं, लेकिन अभी तक उनकी हथेलियों पर सुहाग की मेहंदी नहीं सजी. वह कहती हैं कि मुसलमानों में लड़के वाले ही रिश्ता लेकर आते हैं, इसलिए उनके अभिभावक रिश्ते का इंतज़ार करते रहे. वे बेहद ग़रीब हैं, इसलिए रिश्तेदार भी बाहर से ही दुल्हनें लाए. अगर उनके अभिभावक दहेज देने की हैसियत रखते, तो शायद आज वह अपनी ससुराल में होतीं और उनका अपना घर-परिवार होता. उनके अब्बू कई साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गए. घर में तीन शादीशुदा भाई, उनकी बीवियां और उनके बच्चे हैं. सबकी अपनी ख़ुशहाल ज़िंदगी है. किश्वरी दिन भर बीड़ियां बनाती हैं और घर का कामकाज करती हैं. अब बस यही उनकी ज़िंदगी है. उनकी अम्मी को हर वक़्त यही फ़िक्र सताती है कि उनके बाद बेटी का क्या होगा? यह अकेली किश्वरी का क़िस्सा नहीं है. मुस्लिम समाज में ऐसी हज़ारों लड़कियां हैं, जिनकी खु़शियां दहेज रूपी लालच निग़ल चुका है.

राजस्थान के बाड़मेर निवासी आमना के शौहर की मौत के बाद 15 नवंबर, 2009 को उसका दूसरा निकाह बीकानेर के शादीशुदा उस्मान के साथ हुआ था, जिसके पहली पत्नी से तीन बच्चे भी हैं. आमना का कहना है कि उसके अभिभावकों ने दहेज के तौर पर उस्मान को 10 तोला सोना, एक किलो चांदी के ज़ेवर, कपड़े और घरेलू सामान दिया था. निकाह के कुछ दिनों बाद ही उसके शौहर और उसकी दूसरी बीवी ज़ेबुन्निसा कम दहेज के लिए उसे तंग करने लगे. यहां तक कि उसके साथ मारपीट भी की जाने लगी. वे उससे एक स्कॉर्पियो गाड़ी और दो लाख रुपये मांग रहे थे. आमना कहती हैं कि उनके अभिभावक इतनी महंगी गाड़ी और इतनी बड़ी रक़म देने के क़ाबिल नहीं हैं. आख़िर ज़ुल्मो-सितम से तंग आकर आमना को पुलिस की शरण लेनी पड़ी. राजस्थान के गोटन की रहने वाली गुड्डी का क़रीब तीन साल पहले सद्दाम से निकाह हुआ था. शादी के वक़्त दहेज भी दिया गया था. इसके बावजूद शौहर और ससुराल के अन्य सदस्य दहेज के लिए उसे तंग करने लगे. उसके साथ मारपीट की जाती. जब उसने और दहेज लाने से इंकार कर दिया तो 18 अक्टूबर, 2009 को ससुराल वालों ने मारपीट कर उसे घर से निकाल दिया. अब वह अपने मायके में है. मुस्लिम समाज में आमना और गुड्डी जैसी हज़ारों महिलाएं हैं, जिनका परिवार दहेज की मांग की वजह से उजड़ चुका है. यूनिसेफ़ के सहयोग से जनवादी महिला समिति द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दहेज के बढ़ रहे मामलों की वजह से मध्य प्रदेश में 60 फ़ीसद, गुजरात में 50 फ़ीसद और आंध्र प्रदेश में 40 फ़ीसद लड़कियों ने माना कि दहेज के बिना उनकी शादी होना मुश्किल हो गया है. दिल्ली की छात्रा परवीन का कहना है कि दहेज बहुत ज़रूरी है, क्योंकि लड़की जितना ज़्यादा दहेज लेकर जाती है, ससुराल में उसे उतनी ही ज़्यादा इज्ज़त मिलती है. वह कहती हैं कि उसके परिवार की माली हालत अच्छी नहीं है और अभिभावक उसे ज़्यादा दहेज नहीं दे पाएंगे, इसलिए वह खु़द ही नौकरी करके अपने दहेज के लिए रक़म इकट्ठा करना चाहती है. ऐसी लड़कियों की भी कमी नहीं है, जो दहेज लेना चाहती हैं. इन लड़कियों का मानना है कि इस तरह उन्हें उनकी पुश्तैनी जायदाद से कुछ हिस्सा मिल जाता है. उनका कहना है कि इस्लाम में बेटियों को उनके पिता की जायदाद में से कुछ हिस्सा देने की बात कही गई है, लेकिन कितने अभिभावक ऐसा करते हैं? अगर दहेज के बहाने लड़कियों को कुछ मिल जाता है तो इसमें ग़लत क्या है? मगर जो माता-पिता ग़रीब हैं, वे अपनी बेटियों के लिए दहेज कहां से लाएंगे, इसका जवाब इन लड़कियों के पास नहीं है.

दहेज को लेकर मुसलमान एकमत नहीं हैं. जहां कुछ मुसलमान दहेज को ग़ैर इस्लामी क़रार देते हैं, वहीं कुछ मुसलमान दहेज को जायज़ मानते हैं. उनका तर्क है कि हज़रत मुहम्मद साहब ने भी तो अपनी बेटी फ़ातिमा को दहेज दिया था. ख़ास बात यह है कि दहेज की हिमायत करने वाले मुसलमान भूल जाते हैं कि पैग़ंबर ने अपनी बेटी को विवाह में बेशक़ीमती चीज़ें नहीं दी थीं. इसलिए उन चीज़ों की दहेज से तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि उनकी मांग नहीं की गई थी. अब तो लड़के वाले मुंह खोलकर दहेज मांगते हैं और लड़की के अभिभावक अपनी बेटी का घर बसाने के लिए हैसियत से बढ़कर दहेज देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कितनी ही परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े. अमरोहा के परवेज़ आलम बताते हैं कि उन्होंने अपनी पुश्तैनी जायदाद में मिले घर के आधे हिस्से को बेचकर बड़ी बेटी की शादी कर दी थी, लेकिन यह देखकर दिल रो प़डता है कि वह अब भी सुखी नहीं है. उसके ससुराल वाले दहेज की मांग करते हैं. अगर बाक़ी बचा घर बेचकर उसे दहेज दे दूं तो अपने अन्य बच्चों को लेकर कहां जाऊंगा. छोटी बेटी के भी हाथ पीले करने हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं. अगर अल्लाह बेटियां दे तो उनके नसीब भी अच्छे करे और उनके माता-पिता को दौलत भी दे, साथ ही दहेज के लालचियों को तौफ़ीक़ दे कि वे ऐसी नाजायज़ मांगें न रखें. हैरत की बात यह भी है कि बात-बात पर फ़तवे जारी करने वाले मज़हब के नुमाइंदों को समाज में फैल रही दहेज जैसी बुराइयां दिखाई नहीं देतीं. शायद उनका मक़सद सिर्फ़ बेतुके फ़तवे जारी कर सुर्ख़ियां बटोरना या फिर मुस्लिम महिलाओं के दायरों को और मज़बूत करना होता है. इस बात में कोई दो राय नहीं कि पिछले काफ़ी अरसे से आ रहे ज़्यादातर फ़तवे महज़ मनोरंजन का साधन साबित हो रहे हैं, वह चाहे मिस्र में जारी मुस्लिम महिलाओं द्वारा कुंवारे पुरुष सहकर्मियों को अपना दूध पिलाने का फ़तवा हो या फिर महिलाओं के नौकरी करने के ख़िलाफ़ जारी फ़तवा. अफ़सोस इस बात का है कि मज़हब की नुमाइंदगी करने वाले लोग समाज से जुड़ी समस्याओं को गंभीरता से नहीं लेते. हालांकि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम समाज में बढ़ती दहेज की कुप्रथा पर चिंता ज़ाहिर करते हुए इसे रोकने के लिए मुहिम शुरू करने की बात कही थी. बोर्ड के वरिष्ठ सदस्य ज़फ़रयाब जिलानी के मुताबिक़, मुस्लिम समाज में शादियों में फ़िज़ूलख़र्ची रोकने के लिए इस बात पर भी सहमति जताई गई थी कि निकाह सिर्फ़ मस्जिदों में ही कराया जाए और लड़के वाले अपनी हैसियत के हिसाब से वलीमें करें. साथ ही इस बात का भी ख़्याल रखा जाए कि लड़की वालों पर ख़र्च का ज़्यादा बोझ न पड़े, जिससे ग़रीब परिवारों की लड़कियों की शादी आसानी से हो सके. इस्लाह-ए-मुआशिरा (समाज सुधार) की मुहिम पर चर्चा के दौरान बोर्ड की बैठक में यह भी कहा गया कि निकाह पढ़ाने से पहले उलेमा वहां मौजूद लोगों को बताएं कि निकाह का सुन्नत तरीक़ा क्या है और इस्लाम में यह कहा गया है कि सबसे अच्छा निकाह वही है, जिसमें सबसे कम ख़र्च हो. साथ ही इस मामले में मस्जिदों के इमामों को भी प्रशिक्षित किए जाने पर ज़ोर दिया गया था.

हरियाणा ख़िदमत सभा के मुख्य संयोजक मोहम्मद रफ़ीक़ चौहान का कहना है कि दहेज लेना ग़ैर इस्लामी है. यह एक सामाजिक बुराई है, जो धीरे-धीरे समाज को खोखला कर रही है. अभिभावकों को चाहिए कि वे दहेज मांगने वाले परिवार में अपनी बेटी की शादी न करें और ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत दर्ज कराएं, क्योंकि लालच की कोई सीमा नहीं होती. साथ ही वे ऐसे व्यक्ति के साथ भी अपनी बेटी की शादी न करें, जिसकी पत्नी की दहेज की वजह से मौत हुई हो या उसे तलाक़ दे दिया गया हो. तभी इस बुराई को बढ़ने से रोका जा सकता है. सरकार ने क़ानून बनाया है, पीड़ितों को उसका इस्तेमाल करना चाहिए.

बहरहाल, मुस्लिम समाज में बढ़ती दहेज की कुप्रथा रोकने के लिए कारगर क़दम उठाने की ज़रूरत है. इस मामले में मस्जिदों के इमाम अहम किरदार अदा कर सकते हैं. वे नमाज़ के बाद लोगों से दहेज न लेने की अपील करें और उन्हें बताएं कि यह कुप्रथा किस तरह समाज के लिए नासूर बनती जा रही है. इसके अलावा महिलाओं को भी जागरूक करने की ज़रूरत है, क्योंकि देखने में आया है कि दहेज का लालच पुरुषों से ज़्यादा महिलाओं को होता है. अफ़सोस की बात यह भी है कि मुस्लिम समाज अनेक फ़िरक़ों में बंट गया है. अमूमन सभी तबक़े ख़ुद को असली मुसलमान साबित करने में जुटे रहते हैं और मौजूदा समस्याओं पर उनका ध्यान नहीं जाता है. जब तक सामाजिक बुराइयों पर खुलकर चर्चा नहीं होगी, तब तक उनके उन्मूलन के लिए भी माहौल तैयार नहीं किया जा सकता है. इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि समाज में फैली दहेज प्रथा जैसी बुराइयों के विरुद्ध विभिन्न मंचों से ज़ोरदार आवाज़ उठाई जाए.


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