फ़िरदौस ख़ान
होली बसंत ऋतु में मनाया जाने वाला रंगों का पावन पर्व है. फाल्गुन माह में मनाए जाने की वजह से इसे फागुनी भी कहा जाता है. देश भर में हर्षोल्लास के साथ यह पर्व मनाया जाता है. म़ुगल शासनकाल में भी होली को पूरे जोश के साथ मनाया जाता था. अलबरूनी ने अपने स़फरनामे में होली का खूबसूरती से ज़िक्र किया है. अकबर द्वारा जोधा बाई और जहांगीर द्वारा नूरजहां के साथ होली खेलने के अनेक क़िस्से प्रसिद्ध हैं. शाहजहां के दौर में होली खेलने का अंदाज़ बदल गया था. उस वक़्त होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी कहा जाता था. आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में कहा जाता है कि उनके वज़ीर उन्हें गुलाल लगाया करते थे. सूफ़ी कवियों और मुस्लिम साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं में होली को बड़ी अहमियत दी है.

खड़ी बोली के पहले कवि अमीर ख़ुसरो ने हालात-ए-कन्हैया एवं किशना नामक हिंदवी में एक दीवान लिखा था. इसमें उनके होली के गीत भी हैं, जिनमें वह अपने पीर हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के साथ होली खेल रहे हैं. वह कहते हैं-
गंज शकर के लाल निज़ामुद्दीन चिश्त नगर में फाग रचायो
ख्वाजा मुईनुद्दीन, ख्वाजा क़ुतुबुद्दीन प्रेम के रंग में मोहे रंग डारो
सीस मुकुट हाथन पिचकारी, मोरे अंगना होरी खेलन आयो

अपने रंगीले पे हूं मतवारी, जिनने मोहे लाल गुलाल लगायो
धन-धन भाग वाके मोरी सजनी, जिनोने ऐसो सुंदर प्रीतम पायो...

कहा जाता है कि अमीर ख़ुसरो जिस दिन हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के मुरीद बने थे, उस दिन होली थी. फिज़ा में अबीर-गुलाल घुला था. उन्होंने अपने मुरीद होने की ख़बर अपनी मां को देते हुए कहा था-
आज रंग है, ऐ मां रंग है री
मोहे महबूब के घर रंग है री
सजन गिलावरा इस आंगन में
मैं पीर पायो निज़ामुद्दीन औलिया
गंज शकर मोरे संग है री...

पंजाबी के प्रसिद्ध सूफ़ी कवि बाबा बुल्ले शाह अपनी एक रचना में होली का ज़िक्र कुछ इस अंदाज़ में करते हैं-
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह
नाम नबी की रतन चढ़ी, बूंद पड़ी इल्लल्लाह
रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फ़ना फ़ी अल्लाह
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह...

प्रसिद्ध कृष्ण भक्त रसखान ने भी अपनी रचनाओं में होली का मनोहारी वर्णन किया है. होली पर ब्रज का चित्रण करते हुए वह कहते हैं-
फागुन लाग्यौ सखि जब तें तब तें ब्रजमंडल में धूम मच्यौ है
नारि नवेली बचै नाहिं एक बिसेख मरै सब प्रेम अच्यौ है
सांझ सकारे वही रसखानि सुरंग गुलालन खेल मच्यौ है
को सजनी निलजी न भई अरु कौन भटु जिहिं मान बच्यौ है...

होली पर प्रकृति ख़ुशनुमा होती है. हर तरफ़ हरियाली छा जाती है और फूल भी अपनी भीनी-भीनी महक से माहौल को महका देते हैं. इसी का वर्णन करते हुए प्रसिद्ध लोक कवि नज़ीर अकबराबादी कहते हैं-
जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की
और ढफ के शोर खड़कते हों
तब देख बहारें होली की...

परियों के रंग दमकते हों
तब देख बहारें होली की
खम शीश-ए-जाम छलकते हों
तब देख बहारें होली की...

गुलज़ार खिले हों परियों के
और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से
खुश रंग अजब गुलकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को
अंगिया पर तक कर मारी हो
तब देख बहारें होली की…

नज़ीर अकबराबादी की ग्रंथावली में होली से संबंधित 21 रचनाएं हैं. बहादुर शाह ज़फ़र सहित कई मुस्लिम कवियों नेहोली पर रचनाएं लिखी हैं. बहरहाल, मुग़लों के दौर में शुरू हुआ होली खेलने का यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. नवाबों के शहर लखनऊ  में तो हिंदू-मुसलमान मिलकर होली बारात निकालते हैं. रंगों का यह त्योहार सांप्रदायिक सद्‌भाव का प्रतीक है.


أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ

أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ
I Love Muhammad Sallallahu Alaihi Wasallam

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