प्रियदर्शी दत्ता
भारत में महात्मा गांधी के प्रथम सत्याग्रह की शताब्दी को इस माह अप्रैल में मनाया जा रहा है. इसका शुभांरभ उत्तरी बिहार के पूर्व में अविभाजित चंपारण जिले से किया गया था. गांधी जी ब्रिटिश स्टेट मालिकों के द्वारा जिले के किसानों के खिलाफ बढ़ते हुए दुर्व्यवहारों की जानकारी मिलने पर अप्रैल 1917 को वहां गए थे. चंपारण के किसानों ने गांधी जी को जानकारी दी कि वे अपनी भूमि के प्रत्येक बीस हिस्सों में से तीन पर अपने भूमि मालिकों के लिए खेती करने के कानून से बंधे हैं. इस व्यवस्था को तिनकथिया कहा जाता था.
उन दिनों कृषि से संबंधित मुद्दों को मुश्किल से ही राजनीतिक क्रियाकलापों का हिस्सा बनाया जाता था. यहां तक कि गांधी जी भी प्रारंभ में इस कार्य के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध करने के प्रति अनिच्छुक थे, लेकिन चंपारण के ही एक इंडिगो किसान राजकुमार शुक्ल से मिली जानकारी के बाद उन्होंने इस मामले की जांच करने का फैसला लिया. गांधी जी की योजना इस जिले में एक व्यापक जांच कराने और इसके निष्कर्षों के आधार पर कार्यवाही करने की मांग की थी. उन्हें दक्षिण अफ्रीका के अपने दो दशकों के लंबे निवास से लौटे हुए अभी मात्र दो वर्ष ही हुए थे. इस मामले की जानकारी के लिए वह व्यक्तिगत रूप से चंपारण गए और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ अपने संबंधों का खुलासा नहीं किया. गांधी जी ने चंपारण की यह व्यक्तिगत यात्रा राजनीतिक अभियान के बजाय मानवीय आधार पर की थी. नेपाल की सीमा से सटे बिहार के उत्तरी छोर पर स्थित इस जिले में उन्हें कोई नहीं जानता था. यह भारत के शेष भागों में राजनीतिक धाराओं से व्यवहारिक तौर पर भी परिरक्षित था.
बागान मालिक एसोसिएशन के अध्यक्ष, तिरहुत विभाग के आयुक्त और पुलिस अधीक्षक जैसे स्थानीय अधिकारियों को उनकी यह यात्रा रास नहीं आई. उन्होंने गांधी जी को इस जांच से रोकने की भरसक कोशिश की लेकिन गांधी जी ने जिले के मुख्यालय मोतिहारी में बाबू गोरख प्रसाद के घर से दृढ़तापूर्वक अपने कार्य को प्रारंभ किया. जब वह हाथी की सवारी के माध्यम से एक गांव का दौरा कर रहे थे, जो उस वक्त बिहार में आवागमन का एक आम माध्यम था, तब उन्हें अदालत का सम्मन दिया गया. उन पर अपराधिक दंड संहिता की धारा 144 का उल्लंघन करने के आरोप लगाए गए थे. गांधी जी ने उस सम्मन को बिना भय के प्राप्त करते हुए चंपारण छोड़ने से इंकार कर दिया. उनकी जांच की इस घोषणा ने पहले से ही किसानों के मन को मोह लिया था और इस अभियोजन की खबर के साथ उनकी लोकप्रियता और बढ़ गई.
18 अप्रैल, 1917 को जब गांधी जी मोतिहारी की अदालत में उपस्थित हुए तो उन्होंने देखा कि दो हजार स्थानीय लोग भी वहां उपस्थित थे. हालांकि  मजिस्ट्रेट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए इसे टालने की कोशिश की लेकिन आश्चर्यजनक रूप से गांधी जी चाहते थे कि उन्हें दोषी ठहराया जाए. गांधी जी ने एक बयान पढ़ा उसके अंश इस प्रकार है:- एक कानून से प्रतिबद्ध नागरिक के रूप में यहां रहना मेरी पहली प्राथमिकता होगी, जैसा कि मुझे भेजे गए आदेश का पालन करना, लेकिन अपने कर्तव्य के भाव के प्रति हिंसा किए बिना मैं ऐसा नहीं कर सकता, इसलिए मैं यहां आया हूं. मुझे लगता है कि मैं सिर्फ उनके बीच रहकर ही सेवा कर सकता हूं, इसलिए मैं स्वेच्छा से इस सेवा से नहीं हट सकता. कर्तव्यों के इस संघर्ष के बीच मैं अपने को यहां से हटाये जाने की जिम्मेदारी प्रशासन पर नहीं लगा सकता. मैंने व्यवस्था के वैध अधिकार के सम्मान की इच्छा के लिए नहीं बल्कि अपने अस्तित्व के लिए उच्च कानून के प्रति अपने विवेक का उपयोग किया.
मोतिहारी का मामला समाप्त हो गया. बिहार के लेफ्टिनेंट गर्वनर ने गांधी जी के खिलाफ चल रहे इस मामले को वापस लेने के आदेश दिए और कलेक्टर ने गांधी जी को लिखा कि वह जांच करने के लिए स्वतंत्र है लेकिन इस छोटे से कदम ने ही स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक ऊंची छलांग लगाई. इस प्रकार, यह देश में, जैसा कि गांधी जी कहते हैं नागरिक अवज्ञा की दिशा में पहला अनुभव था. इस घटना को समाचार पत्रों में व्यापक रूप से प्रकाशित किया गया और इसे गांधीवादी युग के आगमन का शुभारंभ भी बताया गया.
चंपारण में गांधी जी की जांच स्वयं सेवकों के द्वारा किए गए सर्वेक्षणों पर आधारित थी. स्वेच्छा से उत्तर देने वाले लोगों को अपने बयान पर हस्ताक्षर अथवा अगूंठे के निशान देने थे. स्वयंसेवकों को इस सर्वेक्षण में शामिल न होने के अनिच्छुक लोगों के कारणों को भी दर्ज करना था. इस सर्वेक्षण में शामिल प्रमुख स्वयंसेवकों में अधिकांश तौर पर बाबू राजेन्द्र प्रसाद, धरणीधर प्रसाद, गौरखप्रसाद, रामनवमी प्रसाद, संभूशरण और अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे अधिवक्ता थे. मोतिहारी और बेतिया में दो केंद्रों की स्थापना की गई. लोगों की भीड़ इतनी ज्यादा थी कि स्वयंसेवक अपने प्रतिदिन के काम को पूरा नहीं कर पा रहे थे. बयानों को दर्ज करने के दौरान सीआईडी का एक अधिकारी भी उपस्थित था. इसके अलावा अनेक ग्रामों का दौरा करके सैकड़ों रैयतों से उनके घरों पर जाकर जानकारी ली गई. एक महीने के भीतर करीब चार हजार बयान लिए गए. भू-मालिकों ने उन बैठकों में शामिल होनेसे भी इंकार कर दिया जहां रैयत उपस्थित थे, लेकिन उनमें से कुछ ने एक प्रतिनिधिमंडल के रूप में गांधी जी से मुलाकात कर यह तर्क देने के कोशिश की कि वे रैयतों के लिए लाभपद्र है और उन्हें ऋण प्रदाताओं से सुरक्षा करते हैं. लेकिन रैयतों की उनके बारे में अलग राय थी.
चंपारण में गांधी जी की लंबे समय तक रही उपस्थिति ने बिहार प्रशासन को चिंता में डाल दिया. 4 जून, 1917 को बिहार के लेफ्टिनेंट गर्वनर सर एडवर्ड गाइट ने रांची में गांधी जी से मुलाकात करते हुए इस मामले में एक औपचारिक जांच समिति के गठन की घोषणा की. लेकिन गाइट को इस बात पर सहमत होना पड़ा कि गांधी जी और स्वयंसेवक चंपारण में रह सकते हैं और गांधी जी को रैयतों का अधिवक्ता बनने से नहीं रोका जाएगा.
चंपारण जांच समिति ने 11 जुलाई, 1917 को अपनी प्रारंभिक बैठक से शुरूआत की. कई बैठकों और स्थलों की यात्रा के बाद समिति ने 4 अक्टूबर को अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंप दी. सरकार ने रैयतों के लाभ के लिए इसमें की गई लगभग सभी सिफारिशों को स्वीकार कर लिया. स्वीकार की गई सिफारिशों में से मुख्य सिफारिश के अंतर्गत तिनकथिया व्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त  कर दिया गया. ब्रिटिश भू-मालिकों के लिए यह एक बड़ा झटका था जिसने उन्हें अप्रसन्न कर दिया था, लेकिन वे 4 मार्च,1918 को बिहार और उड़ीसा  विधान परिषद में चंपारण कृषि अधिनियम को पारित करने से रोक नहीं पाए.
गांधी जी का यह अभियान चंपारण में करीब एक वर्ष तक चला. इसके पूर्ण होने के बाद वे गुजरात के खेड़ा में एक अन्य कृषि सत्याग्रह में जुट गए. उन्होंने अपने प्रवास को चंपारण के इंडिगो मुद्दे तक ही सीमित नहीं किया. उन्होंने स्वयंसेवकों को आमंत्रित करते हुए महाराष्ट्र और गुजरात से आये गरीब लोगों को जिले में साक्षर बनाने की दिशा में प्राथमिक शिक्षा को भी बढ़ावा दिया. चंपारण की जीत ने गांधी जी की प्रतिष्ठा को भारतीय राजनीति में स्थापित कर दिया.


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