फ़िरदौस ख़ान
अवाम के दिलों पर राज करने वाली कांग्रेस को इस वक़्त सोनिया गांधी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.  इतिहास गवाह है कि जब भी कांग्रेस पर कोई मुसीबत आई है, तो सोनिया गांधी ढाल बनकर खड़ी हो गईं. देश के लिए, देश की अवाम के लिए, पार्टी के लिए सदैव उन्होंने क़ुर्बानियां दी हैं. देश की हुकूमत उनके हाथ में थी, प्रधानमंत्री का पद उनके पास था, वे चाहतीं, तो प्रधानमंत्री बन सकती थीं. अपने बेटे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बना सकती थीं, लेकिन उन्होंने ऐसा बिल्कुल नहीं किया. उन्होंने डॊ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया और उनकी अगुवाई में भारत दुनिया में एक बड़ी ताक़त बनकर उभरा.

फिर से कांग्रेस को संकट में देखकर पिछले काफ़ी अरसे से पार्टी से दूर रही पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सियासत में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है. फ़िलहाल वे राष्ट्रपति चुनाव को लेकर विपक्ष को एकजुट करने की क़वायद में जुटी हैं.  दरअसल, वह भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ एक मज़बूत गठजोड़ बनाना चाहती हैं. इसके लिए वे विपक्षी दलों के नेताओं से मुलाक़ात कर रही हैं.  क़ाबिले-ग़ौर है कि जब-जब कांग्रेस पर संकट के बादल मंडराये, तब-तब सोनिया गांधी ने आगे आकर पार्टी को संभाला. उन्होंने कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने के लिए देशभर में रोड शो किए. आख़िरकार उनकी अगुवाई में कांग्रेस ने साल 2004 और 2009  का आम चुनाव जीतकर केंद्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की हुकूमत क़ायम की थी. इस दौरान देश के कई राज्यों में कांग्रेस सत्ता में आई. लेकिन जब से अस्वस्थता की वजह से सोनिया गांधी की सियासत में सक्रियता कम हुई है, तब से पार्टी पर संकट के बादल मंडराने लगे. साल 2014 में केंद की हुकुमत गंवाने के बाद कांग्रेस ने कई राज्यों की सत्ता भी खो दी. सोनिया गांधी की सेहत को देखते हुए उनके बेटे राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया और पार्टी की अहम ज़िम्मेदारी उन्हें सौंपी गई. राहुल गांधी ने ख़ूब मेहनत भी की, लेकिन उन्हें वह कामयाबी नहीं मिल पाई, जिसकी उनसे उम्मीद की जा रही थी. राहुल गांधी अभी कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं बने हैं, लेकिन उनकी कार्यशैली की तुलना सोनिया गांधी की कार्यशैली से की जाने लगी है. जानकारों का मानना है कि जहां सोनिया गांधी अपनी टीम के सदस्यों को उनकी तरह से काम करने की पूरी छूट देती हैं, वही राहुल गांधी ऐसा नहीं करते. दरअसल, काम करने का सबका अपना एक तरीक़ा होता है. फ़िलहाल राहुल गांधी पार्टी के संगठनात्मक चुनाव के मद्देनज़र नई टीम बनाने के काम में लगे हैं. उन पर दोहरी ज़िम्मेदारी है. एक तरफ़ उन्हें पार्टी को मज़बूत बनाना है और दूसरी तरफ़ खोयी हुई हुकूमत को हासिल करना है. इस साल 31 दिसंबर तक कांग्रेस के आंतरिक चुनाव होने हैं. साल 2019 में लोकसभा चुनाव होने हैं. इससे पहले दस राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे, जिनमें हिमाचल प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मेघालय, मिज़ोरम, त्रिपुरा और नगालैंड शामिल हैं. इस वक़्त हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मेघालय और मिज़ोरम में कांग्रेस सत्ता में है. गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है. कांग्रेस गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लंबे अरसे से सत्ता से बाहर है और इन राज्यों में उसे भारतीय जनता पार्टी से कड़ा मुक़ाबला करना है. बहरहाल, राहुल गांधी संगठन को मज़बूत करने में जुटे हैं, तो सोनिया गांधी राष्ट्रपति चुनाव के बहाने विपक्ष को एक मंच पर लाना चाहती हैं.

ग़ौरतलब है कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल आगामी 24 जुलाई को ख़त्म हो रहा है और इससे पहले ही चुनाव कराए जाने हैं. राष्ट्रपति के चुनाव के मामले में सियासी समीकरण भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हैं. इसलिए यह कहना ग़लत न होगा कि अगला राष्ट्रपति वही होगा, जिसे भारतीय जनता पार्टी पसंद करेगी. एक आकलन के मुताबिक़ 23 सियासी दलों वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पास राष्ट्रपति चुनाव से संबंधित निर्वाचक मंडल में तक़रीबन 48.64 फ़ीसद मत हैं. इसके मुक़ाबले में कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्ष के साथ जाने वाले 23 सियासी दलों के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के पास महज़ 35.47 फ़ीसद मत हैं. इनके अलावा तमिलनाडु की अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके),  ओडिशा की बीजू जनता दल (बीजेडी),  आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (वाईएसआरसीपी), दिल्ली की आम आदमी पार्टी और हरियाणा के इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) का निर्वाचक मंडल में तक़रीबन 48.64 फ़ीसद मत हैं. इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी पार्टी शिवसेना भी बहुत अहम मानी जा रही है. यह भारतीय जनता पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन सकती है, जो कांग्रेस के लिए फ़ायदेमंद है. सनद रहे, शिवसेना ने कांग्रेस की तरफ़ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल और प्रणब मुखर्जी को अपना समर्थन दिया था.

इसके विपरीत अगर भाजपा इन पार्टियों में से कुछ को भी अपने साथ शामिल करने में सफल होती है उसकी राह आसान हो जाएगी। एनडीए को सिर्फ एक या दो पार्टियों के समर्थन की जरूरत होगी। भाजपा इस समय सत्ता में है इसलिए उसे चुनावी नतीजे अपने पक्ष में करने के लिए ज्यादा परेशानी नहीं होगी। गौरतलब है कि भाजपा की प्रमुख सहयोगी शिवसेना इससे पहले दो बार भाजपा का खेल बिगाड़ चुकी है पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल और प्रणव मुखर्जी को शिवसेना ने अपना समर्थन दिया था। हालांकि इस बार बजट सत्र के दौरान एनडीए ने राष्ट्रपति चुनाव से पहले एकता दिखाई।

दरअसल, राष्ट्रपति चुनाव में लोकसभा, राज्यसभा और विधान सभाओं के सभी सदस्य वोट देते हैं. इन सबको मिलाकर ही राष्ट्रपति पद के चुनाव का निर्वाचक मंडल बनता है. इसमें कुल 784 सांसद और 4114 विधायक हैं. इस कॉलेज में मतदाताओं के वोट की वैल्यू अलग-अलग होती है. सांसद के मत की वैल्यू निकालने के लिए सबसे पहले सभी राज्यों की विधानसभा के चुने गए सदस्यों के मतों की वैल्यू जोड़ी जाती है. इसके बाद राज्यसभा और लोकसभा के चुने गए सदस्यों की कुल संख्या से भाग दिया जाता है. इसके बाद जो अंक मिलते हैं, वे एक सांसद के वोट की वैल्यू होते हैं. हर सांसद के मत की वैल्यू 708 है, जबकि विधायक के वोट की वैल्यू संबंधित राज्य की विधानसभा की सदस्य संख्या और उस राज्य की आबादी पर आधारित होती है, यानी जिस प्रदेश का विधायक है, उसकी आबादी देखी जाती है. इसके साथ उस प्रदेश के विधानसभा सदस्यों की संख्या को भी मद्देनज़र रखा जाता है. प्रदेश की आबादी को चुने गए विधायकों की संख्या से बांटा जाता है. इस तरह जो भी अंक मिलते हैं, उसे फिर एक हज़ार से भाग दिया जाता है. फिर जो अंक सामने आता है, वह उस प्रदेश के विधायक के वोट की वैल्यू होता है. एक हज़ार से भाग देने पर अगर बाक़ी पांच सौ से ज़्यादा हों, तो वैल्यू में एक जोड़ दिया जाता है. इस हिसाब से उत्तर प्रदेश के हर विधायक के वोट की वैल्यू सबसे ज़्यादा 208 है, जबकि सिक्किम के हर विधायक के वोट की वैल्यू सबसे कम सात है.

देश में राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल के ज़रिये होता है. इसमें जनता अपना राष्ट्रपति नहीं चुनती, लेकिन जनता के चुने प्रतिनिधि मतदान करते हैं. ख़ास बात यह भी है कि राष्ट्रपति द्वारा संसद में नामित सदस्य वोट तथा राज्यों की विधान परिषदों के सदस्य मतदान नहीं कर सकते, क्योंकि इन्हें जनता ने चुना है. निर्वाचक मंडल के सदस्यों का प्रतिनिधित्व अनुपातिक भी होता है. मतदाता वोट तो एक ही देता है, लेकिन वह राष्ट्रपति चुनाव में हिस्सा ले रहे सभी उम्मीदवारों में से अपनी पसंद तय कर देता है यानी उसकी पहली, दूसरी और तीसरी पसंद कौन है. अगर पहली पसंद वाले उम्मीदवार के मतों से कोई उम्मीदवार नहीं जीतता, तो उम्मीदवार के खाते में मतदाता की दूसरी पसंद को नये सिंगल वोट की तरह ट्रांसफ़र किया जाता है.

अगर सोनिया गांधी इन दलों को कांग्रेस के साथ लाने में कामयाब हो जाती हैं, तो कांग्रेस का मत फ़ीसद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के मुक़ाबले का हो जाएगा. ऐसे में मुक़ाबला रोचक और कांटे का होगा. इसके साथ-साथ पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भी भर जाएगा. साल 2014 के आम चुनाव के बाद से कांग्रेस को कोई ख़ास कामयाबी नहीं मिली. लगातार सत्ता से दूर रहने, विभिन्न चुनावों में हार और पार्टी की आंतरिक कलह की वजह से पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटने लगा था. लेकिन अब सोनिया गांधी के सक्रिय होने से कार्यकर्ताओं में नये जोश का संचार होगा.


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