फ़िरदौस ख़ान
कहते हैं, रौनक़ इंसानों से ही होती है. कोई जगह कितनी ही ख़ूबसूरत क्यों न हो, अगर वहां कोई इंसान नज़र न आए, तो वह भी सूनी-सूनी लगती है. इंसानों से ही ये दुनिया आबाद है. आबादी किसी भी देश की सबसे बड़ी ताक़त है, सबसे बड़ी पूंजी है, साधन है. आबादी ही खाद्यान्न, फल-फूल सब्ज़ियां व ज़िन्दगी की ज़रूरत की अन्य चीज़ों का उत्पादन करती है, उनका इस्तेमाल भी करती है. आबादी ही सेवाएं मुहैया कराती है और इनका उपयोग भी यही आबादी करती है.  आबादी से ही देश और समाज का वजूद क़ायम है. लेकिन अगर यही आबादी ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ जाए, तो अनेक मुसीबतें भी पैदा कर देती है. आज लगातार बढ़ती आबादी दुनिया के लिए एक बड़ी चुनौती बनी हुई है.बढ़ती आबादी की रिहायशी और अन्य ज़रूरतों को पूरा करने के लिए हरे-भरे वनों और पेड़-पौधों को काफ़ी नुक़सान पहुंचाया जा रहा है. जंगली इलाक़ों में वृक्षों को काटकर वहां बस्तियां बसाई जा रही हैं. फ़र्नीचर और ईंधन आदि के लिए हरे-भरे पेड़ों को काटा जा रहा है. इंसान की बढ़ती ज़रूरतों को पूरा करने के लिए प्रकृति का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है. नतीजतन, प्राकृतिक चीज़ें मिट्टी, पानी और हवा प्रदूषित होने लगीं. इसका सीधा असर इंसान की सेहत पर भी पड़ा है.

बढ़ती जनसंख्या के प्रति जनमानस को जागरूक करने के लिए हर साल 11 जुलाई  को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है. इसकी शुरुआत साल 1987 में की गई थी. दरअसल, 11 जुलाई 1987 में दुनिया की आबादी 5 अरब से ज़्यादा हो गई थी, जो मानव समाज के लिए आने वाले ख़तरे की दस्तक थी. संयुक्त राष्ट्र संघ ने दुनियाभर में ख़ासकर उन देशों में जागरुकता फैलाने का फ़ैसला किया, जहां आबादी बेहिसाब बढ़ रही थी. तब से इस दिन हर साल विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाने लगा. फ़िलहाल दुनिया की आबादी 7 अरब से ज़्यादा है. साल 2050 तक ये आंकड़ा तक़रीबन दस अरब और  2100 तक 11 अरब पहुंचने का अनुमान है. इतने लोगों के लिए रहने के लिए घर और खाने के लिए भोजन और पीने के लिए पानी कहां से आएगा? यह एक बड़ा सवाल है. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन का मानना है कि 2050 तक खाद्यान्न की पैदावार दुगनी करनी पड़ेगी, तभी आबादी का पेट भरा जा सकेगा.

साल  2011 की जनगणना के मुताबिक़ भारत की आबादी 1 अरब, 21 करोड़, 1 लाख, 93 हज़ार, 422 है. यह आबादी अमेरिका, इंडोनेशिया, ब्राज़ील, पाकिस्तान और बांग्लादेश की कुल आबादी से भी ज़्यादा है. देश के राज्यों की आबादी दुनिया के कई देशों की आबादी से ज़्यादा है, मसलन ओडिशा की आबादी अर्जेंटीना की आबादी से ज़्यादा है. इसी तरह राजस्थान की आबादी इटली की आबादी से ज़्यादा है. मध्य प्रदेश की आबादी थाईलैंड से और तमिलनाडु की आबादी फ़्रांस की आबादी से ज़्यादा है.  उत्तर प्रदेश की आबादी ब्राज़ील, गुजरात की आबादी दक्षिण अफ़्रीका और पश्चिम बंगाल की आबादी वियतनाम की आबादी से ज़्यादा है. झारखंड की आबादी उगांडा और उत्तराखंड की आबादी ऑस्ट्रिया की आबादी  से ज़्यादा है. केरल की आबादी कनाडा और आसाम की आबादी उज़्बेकिस्तान की आबादी से ज़्यादा है. इस लिहाज़ से यह कहना ग़लत न होगा कि भारत में कई देश बसते हैं और इसके राज्य कई देशों से आगे हैं. लेकिन भारत के पास दुनिया का महज़ 2.4 फ़ीसद इलाक़ा ही है. पिछली एक दहाई में देश की आबादी 17.64 फ़ीसद की दर से बढ़ी है. देश में आबादी बढ़ने की एक बड़ी वजह जन्म दर का मृत्यु दर से ज़्यादा होना है. देश में मृत्यु दर को कम करने में कामयाबी हासिल कर ली गई, लेकिन जन्म दर में कोई कमी नहीं आई, बल्कि यह बढ़ गई. देश में हर 7 मौतों के पीछे 7 22 बच्चे जन्म लेते हैं. इसलिए सालाना हर 1000 लोगों के पीछे 15 लोग बढ़ जाते हैं. अगर आबादी इसी रफ़्तार से बढ़ती रही, तो साल 2030 तक चीन को पछाड़ कर भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएगा. यहां हर एक मिनट में 25 बच्चों का जन्म होता है. यह संख्या सिर्फ़ उन बच्चों की है, जो अस्पतालों में पैदा होते हैं और जिनका पंजीकरण कराया जाता है. गांव-देहात और छोटे बड़े शहरों में घरों में पैदा होने वाले बच्चों की तादाद इसमें शामिल नहीं है. अगर इनकी संख्या मालूम हो, तो यह दर न जाने कहां पहुंच जाए.

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में जब देश में पहली बार जनगणना हुई थी, तब देश की आबादी 20 करोड़ थी.  इसके कुछ अरसे तक तो आबादी में ठहराव ही रहा, लेकिन इसके बाद यह तेज़ी से बढ़ने लगी. भारत पहला देश है, जिसने 1950 में परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू किया.  सरकार ने बढ़ती आबादी के प्रति जनमानस में जागरुकता पैदा करने के लिए ’हम दो, हमारे दो’, ’छोटा परिवार, सुखी परिवार’ और ’बढ़ती आबादी का बोझ, घटते संसाधन’ जैसे नारे भी दिए, लेकिन उसे कोई ख़ास कामयाबी नहीं मिली. समाज में कोई बदलाव नहीं आया. हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो बच्चों को ईश्वर की देन मानते हैं और बच्चों की क़तार लगाते रहते हैं, भले ही उनकी हैसियत बच्चों की अच्छी परवरिश करने की क़तई न हो. ऐसे परिवारों के बच्चों को न तो पौष्टिक भोजन मिल पाता है और न ही अच्छी शिक्षा. छोटी उम्र से ही अभिभावक उन्हें छोटे-मोटे काम-धंधों में लगा देते हैं. खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने की उम्र में ये बच्चे बाल मज़दूरों का अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं. कुछ बच्चे नशीले पदार्थों की गिरफ़्त में फंस जाते हैं, बाद में यही बच्चे अपराध की दलदल में भी धंस जाते हैं. और इस तरह उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता है.

लगातार बढ़ती आबादी पर विशेषज्ञों ने चिंता ज़ाहिर की है. दुनिया के महान भौतिकविद् स्टीफ़न हॉकिंग ने धरती पर मानव जीवन को लेकर सौ सालों के बाद होने वाली मुश्किलों के लिए आगाह किया है. उनका कहना है कि जलवायु परिवर्तन, बढ़ती आबादी और उल्का पिंडों के टकराव को देखते हुए ख़ुद को बचाए रखने के लिए मनुष्य को दूसरी धरती खोज लेनी चाहिए.

इस बढ़ती आबादी ने बहुत-सी समस्याएं पैदा की हैं. साधन सीमित हैं. ज़मीन को खींच कर बड़ा तो नहीं किया जा सकता है. बस्तियां बस रही हैं और खेत लगातार छोटे होते जा रहे हैं. खाद और रसायनों का इस्तेमाल करके आख़िर कब तक कृषि भूमि का दोहन किया जा सकता है. रसायनों के ज़्यादा इस्तेमाल से खेत भी बंजर होने लगे हैं. जब तक बढ़ती आबादी पर क़ाबू नहीं पाया जाता, तब तक साधन कम ही पड़ते रहेंगे. अगर हमें जल, जंगल और ज़मीन को बचाना है, तो किसी भी हाल में बढ़ती आबादी पर रोक लगानी ही होगी. यह तभी हो सकता है, जब सख़्ती बरती जाए. सनद रहे, जनसंख्या विस्फोट एक बड़ी समस्या है. यह कहना ग़लत न होगा कि यह अनेक समस्याओं की जड़ है. बढ़ती आबादी की वजह से बेरोज़गारी बढ़ गई है. अमीर और अमीर होता जा रहा है, ग़रीब और ग़रीब हो रहा है. अमीर और ग़रीब के बीच की ख़ाई लगातार बढ़ती जा रही है. ग़रीबी बढ़ने से अराजकता और अपराध बढ़ते हैं, जो किसी भी देश और समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं हैं. देश में शहरी आबादी के साथ-साथ स्लम आबादी में भी इज़ाफ़ा हो रहा है. 2011 की जनगणना के आधार पर सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में साढ़े छह करोड़ से ज़्यादा लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं. यानी इंग्लैंड या इटली की कुल आबादी जितने लोग भारत में स्लम बस्तियों में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं. ये लोग बुनियादी ज़रूरत की सुविधाओं तक के लिए तरस रहे हैं.

दरअसल, बढ़ती आबादी एक संवेदनशील सामाजिक ही नहीं, धार्मिक मुद्दा भी है. इसलिए जनसंख्या नियंत्रण के कार्यक्रमों पर पानी की तरह पैसा बहाने के बाद भी सरकार को कोई ख़ास कामयाबी नहीं मिलती. लड़कों की चाह में भी लोग लगातार बच्चे पैदा करते रहते हैं. बाल विवाह और कम उम्र में शादी होने से भी आबादी बढ़ती है. लोगों को छोटे परिवार के प्रति जागरूक करने की ज़रूरत है. उन्हें समझाना होगा कि छोटे परिवार में साधनों का ज़्यादा बंटवारा नहीं होता. इसके साथ ही बच्चों की अच्छी परवरिश होती है. उन्हें बेहतर रहन-सहन और अच्छी खान-पान मिलता है. बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाई जा सकती है.  छोटा परिवार ही सुखी परिवार होता है. एक सुखी परिवार ही सुखी समाज की पहली सीढ़ी है. सरकार को भी बढ़ती आबादी पर रोक लगाने के लिए सख़्त और कारगर क़दम उठाने चाहिए. जनमानस को भी रूढ़िवादिता त्याग कर अपने, अपने परिवार, अपने समाज और अपने देश के भले के लिए आगे आना होगा, तभी यह दुनिया इंसानों के रहने लायक़ बनी रह सकती है.


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