डॉ. रामस्नेहीलाल शर्मा 'यायावर'
कल पितृ विसर्जनी अमावस्या है। पितृलोक से पृथ्वी पर पधारे हुए हमारे पितृ गण अपने लोक को विदा हो जाएंगे। यह 15 दिन हम पितृपक्ष के रूप में स्वीकार करते हैं और पूरे पखवाड़े अतीतजीवी होकर अपने पूर्वजों का स्मरण करते, उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करते, उनके लिए श्राद्ध करते और उनकी स्मृतियों को पुनः स्मरण करते हुए विताते हैं ।कई अधकचरे आधुनिकतावादी अपनी श्रेष्ठतम सनातन सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति वितृष्णा उपेक्षा और घृणा का भाव रखने वाले लोगों को पितृपक्ष की आलोचना करते हुए देखा गया है। वे सनातन धर्म की किसी भी उदात्त परंपरा को व्यर्थ की रूढ़ि और अंधविश्वास बताने में एक क्षण का भी संकोच नहीं करते। मैं पितृपक्ष की व्यवहारिक महत्ता को सरल ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास करता हूं। पितृपक्ष के पूरे 15 दिन पितरों की दिशा दक्षिण की ओर मुख करके ताम्रपत्र में काले तिल या जौ पड़े जल से पितरों का तर्पण किया जाता है। तर्पण करते समय हम अपने पूर्ववर्ती सात पीढियों को- नाम जानते हैं तो नाम लेकरऔर नाम न जानने पर जाने अनजाने -कहकर आवाहन करते हैं। पितरों का स्मरण करके उनको कहा जाता है हमारे अर्पित किए जल को स्वीकार कर परिवार के लिए आशीर्वाद प्रदान करें। स्मरण रखें हम जो कुछ भी हैं वह अपने वंश की परंपरा के कारण ही हैं। इसलिए पितृ ऋण को चुकाने के लिए श्राद्ध अनिवार्य है। संस्कृत में एक धातु है तनु, तनु का अर्थ होता है लंबा करना संतान संबंधी जितने भी शब्द हैं वे सब इसी तनु धातु से बनते हैं जैसे तनय, तनया, तनुज तनुजा आदि तो जब हम पितरों को जल देते हैं या उनका श्राद्ध करते हैं तो हम उनकी परंपरा, उनके शुभ कर्म ,उनके धर्म ,उनके इतिहास,उनकी संस्कृति और उनके दिये हुए ज्ञान की परंपरा को लंबा कर रहे होते हैं ।इसीलिए अगर कोई गलत काम करें तो कहा जाता है कि अमुक ने तो अपने वंश के नाम को डुबा दिया। जिस दिन किसी पूर्वज का श्राद्ध किया जाता है ।उस पूरे दिन उन पूर्वजों की चर्चा होती है। दुर्भाग्य से मैंने अपने तीनों बाबाओं और दादियों को नहीं देखा।
व्यवहारिकता की दृष्टि से दो वस्तुओं पर ध्यान दें 1-दाब औषधीय घास हैऔर काले तिल औषधीय अन्न है।बहुत सारी बीमारियों में आयुर्वेदिक चिकित्सक दूब और दाव के रस और शहद में दवा खाने को देते हैं। इसी तरह बहुमूत्र और सर्दी से होने वाली बीमारियों की श्रेष्ठतम औषधि काले तिल हैं ।सही अर्थों में तिल से निकलने वाला तेल ही वास्तविक तेल होता है। इसलिए चर्म रोगों में आयुर्वेदिक डॉक्टर तिल के तेल में कपूर मिलाकर शरीर पर लगाने की सलाह देते हैं।नवरात में माता दुर्गा की अखण्ड ज्योति भी तिल के तेल में ही जलाई जाती है। अगर पितृपक्ष में दोनों का उपयोग किया जाएगा ,तो व्यावहारिक दृष्टि से इनका उत्पादन भी होगा ही। व्यावहारिकता का दूसरा पक्ष है,2- जिस दिन किसी पूर्वज का श्राद्ध किया जाता है हम पूरे दिन उनका स्मरण करते हैं उदाहरण के लिए मेरे घर में जब पूर्णिमा के दिन माता जी और पिताजी का श्राद्ध हुआ तो बहन और बहनोई भी यही थे उन्हें भी बुला लिया गया और पूज्य पिताश्री के भानजे और उनकी पत्नी को श्रद्धा सहित निमंत्रण देकर बुलाकर भोजन करवा कर उन्हें यथा योग्य दान- दक्षिणा के साथ विदा किया गया ।फिर शेष पूरे दिन हम भाई-बहन,बहनोई' पुत्र और पौत्र मिलकर पिताजी और माताजी की स्मृतियां के सागर में डूबते- उतराते रहे। हमने याद किया की पिताजी किसान के पुत्र होते हुए बहुत छोटी आयु में स्वतंत्रता सेनानी बन गए थे इसीलिए आधे उत्तर प्रदेश के सारे स्वतंत्रता सेनानी उन्हें लला के आत्मीय सम्बोधन से सम्बोधित करते थे। 86 वर्ष की आयु में जब वे गोलोकवासी हुए तब भी सारे सेनानी उन्हें लला के आत्मीय संबोधन से ही स्मरण कर रहे थे। वह प्रारंभ में भजन गायक थे और भजन गाकर जन-जन को अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन करने के लिए प्रेरित करते थे।बाद में ब्रजप्रदेशीय ढोला के अप्रतिम गायक बन गए 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्हें आगरा कमिश्नरी का डिक्टेटर बनाया गया था क्योंकि कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता जेल चले गए थे उनके ऊपर यह जिम्मेदारी दी गई थी कि वह आंदोलन का नेतृत्व करते हुए उसे सतत जारी रखें ।वे 14 वर्ष की अवस्था में जेल गए थे। 14 वर्ष पूरी तरह घर से बाहर रह कर प्राणपण से भारतीय आज़ादी के लिए जूझते रहे।परिणाम स्वरूप हमारे परिवार में चाची पहले आई और माताजी काफी समय बाद ।क्योंकि भला ऐसे युवक का विवाह कौन पिता अपनी पुत्री से करता जिसका एक पाँव हर समय जेल में रहता हो और अक्सर वारंट कटा रहता हो।कुर्की की तलवार सिर पर लटकी रहती हो।
हमारी पूज्या माताजी बेहद सफाई पसंद और पवित्रता का ध्यान रखने वाली थी ।जब तक चौका पूरी तरह पवित्र न हो जाए बर्तन सोने की तरह चमक न जाएं तब तक वह भोजन नहीं बनाती थीं ।इस चक्कर में हम कभी-कभी स्कूल में देर से पहुंचते थे। किसी का भी अनुरोध उन्हें इस पवित्रता से हटा नहीं सकताथा। इसलिए कभी-कभी पिताजी हमें डांट कर भूखा ही स्कूल भेज देते थे ।उनका कहना था भूख से नहीं मारोगे परंतु शिक्षा ग्रहण नहीं की तो जीवन बर्बाद हो जाएगा। परंतु फिर वही मां पूरे गांव में भटकती थी और पता करती थी कि 3 किलो मीटर दूर पचवान की प्राइमरी पाठशाला और 5 किलोमीटर दूर जूनियर हाई स्कूल असन तक जाने वाला कोई व्यक्ति मिल जाए तो उसके हाथों उनके भूखे पुत्र के लिए भोजन पहुंच जाए। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं घर से भूखा गया तो स्कूल भोजन नहीं पहुंचा ।कैसे तलाशती होंगीं वे ऐसे व्यक्ति को और भोजन ले जाने को कितनी चिरौरी करती होंगीं उसकी और कभी अपवाद स्वरूप ऐसा दिन आया कि भोजन पहुंचाने वाला कोई नहीं मिला तो हमारे स्कूल से लौटने तक माँ ने खुद भी अन्न का एक दाना तक अपने मुंह में नहीं डाला। यह सब स्मरण करते हुए हमारी आंखें बार-बार सजल हुई। पिताजी अक्सर बाहर रहते थे ।माताजी कठोर अनुशासनप्रिय और भयंकर क्रोधी भी थीं। उनके हाथों बुरी तरह पिटने का सौभाग्य हम तीनों भाई-बहिनों को मिला था। पिताजी मानते थे कि महंगे कपड़े पहनने वाला और लंबे-लंबे बाल रखने वाला लड़का कभी पढ़ नहीं सकता। वह अपनी शान शौकत बनाएगा कि पढेगा। इसलिए हमें पहली पेंट पहनने का सौभाग्य हाई स्कूल कर लेने के बाद मिला।वे हमेशा कहते थे भोजन करते समय कभी भी नमक मिर्च ऊपर से न मांगा जाए और कभी किसी के घर भोजन करके उसकी बुराई न की जाए। यह उनकी दी हुई शिक्षा थी जिसका अनुपालन हम आज तक करते हैं। कुछ ऐसे प्रसंग भी स्मरण में आए जिन्होंने उस दिन हमारे चेहरों पर मुस्कुराहट और हंसी भी ला दी। जब मैं प्रवक्ता हो गया तो छोटी बहिन और अपनी दोनों बेटियों का प्रवेश सरस्वती शिशु मंदिर में करा दिया था। उस समय वही सर्वश्रेष्ठ विद्यालय था परंतु बहन ने एक मजेदार प्रसंग सुनाया माताजी और पिताजी में किसी न किसी प्रसंग को लेकर प्रतिदिन हल्की-फुल्की बहस और लड़ाई होती ही थी। जिस दिन यह बहस न हो उस दिन लगता था कि किसी की तबीयत खराब है। (यह अलग बात है कि माताजी के गोलोकवासी होने के बाद वे हमसे छिप-छिपकर रोते थे और केवल साढ़े आठ महीने बाद वे भी दिवंगत हो गए)
बहिन ने बताया कि मेरी दूसरी बेटी बहुत छोटी थी शायद 5 या 6 साल की थी वह बाबा के पास गई और उनसे बोली बाबा हंसिया कहां है बाबा ने कहा बेटा क्या करोगी हसिया का। तो उत्तर दिया तुम्हारी गर्दन काटूंगी ।बाबा हंसने लगे उन्होंने पूछा क्यों बेटा, मेरी गर्दन क्यों काटोगी? बोली आप अम्मा से लड़ते हो। आशय यह है कि पूर्वजों का स्मरण करते हुए उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना यह पितृ पक्ष का मुख्य उद्देश्य है परंतु महत्व और संदेश यह भी है कि हम अपने जीवित पूर्वजों के प्रति श्रद्धा रखें और उनके सुख -सुविधा का ध्यान रखें उनका आदर करें अगर जीवित पूर्वज दुखी हैं तो श्राद्ध पक्ष का सारा का सारा ताम-झाम निरर्थक है।
मेरी दृष्टि में वृद्धाश्रम देश के युवा वर्ग पर लानत और देश का कलंक हैं।वृद्धों का सम्मानजनक स्थान घर में है। अपने एक मुक्तक के साथ इस चर्चा को विराम देता हूं
"छांव चाहिए तो द्वारे के पीपल को कटने मत देना।
घर के आंगन से पुरखों के चिह्न कभी मिटने मत देना। बड़ा कठिन जीवन का पथ है जलते रेगिस्तान मिलेंगे।
सिर से माँ की आशीशों का हाथ कभी हटने मत देना।।
(लेखक सुप्रसिद्ध कवि एवं साहित्यकार हैं)
