'अब्दुल हयी' उर्फ़ 'साहिर लुधियानवी'
ऐ ग़म-ए-दुनिया तुझे क्या इल्म तेरे वास्ते
किन बहानों से तबीअ’त राह पर लाई गई
साहिर लुधियानवी को इस दुनिया से गए 45 साल गुज़र गए हैं, मगर आप जब भी उनकी शायरी और फ़िल्मी नग़्मों की तरफ़ जाएँगे तो आपको यक़ीनन ऐसा महसूस होगा कि वो अब भी मौजूद हैं। वो अपनी शायरी और फ़िल्मी नग़्मों में ही कहीं साँसें ले रहे हैं। वो आज भी शायरी और फ़िल्मी नग़्मों में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए मिसाल बने हुए हैं। उनकी शायरी और फ़िल्मी नग़्मों की अब भी बहुत लम्बी उम्र बाक़ी है। अपनी शायरी के लिए साहिर कॉलेज के दिनों से ही काफ़ी मशहूर रहे और फिर बम्बई आकर उन्होंने जो किया उसे उनका हर चाहने वाला बहुत अच्छी तरह जानता है।
"कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं", "मेरे दिल में आज क्या हैं तू कहें तो मैं बता दूँ", "जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा", "तुम अगर साथ देने का वादा करो", "ए मेरी ज़ोहराजबीं तुझे मालूम नहीं", “नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले", "अभी ना जाओ छोड़कर, के दिल अभी भरा नहीं" ऐसे सैकड़ों मधुर प्रेमगीतों के रचनाकार साहिर लुधियानवी का जन्म संयोग से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन यानी 8 मार्च को हुआ था। सन 1921 को लुधियाना (पंजाब) के एक जागीरदार घराने में जन्मे साहिर का असली नाम अब्दुल हयी था। पिता फ़ज़ल मोहम्मद की ग्यारहवीं बीवी सरदार बेग़म उनकी मां थीं। साहिर उनके पहले और इकलौते बेटे थे। इसी कारण उनकी परवरिश बड़े प्यार से हुई।
लेकिन अभी वह बच्चे ही थे कि सुख के सारे दरवाज़े उसके लिए एकाएक बंद हो गए। फ़ज़ल मोहम्मद को अपनी बेशुमार दौलत पर ग़ुरुर था, उसी की वजह से उनकी अय्याशियाँ भी बढ़ने लगीं और उन्होंने बारहवीं शादी करने का फ़ैसला किया। अपने पति की इन अय्याशियों से तंग आकर साहिर की माँ ने पति से अलग होने का फ़ैसला किया। चूँकि लाहौर की अदालत में 13 साल के साहिर ने पिता के मुक़ाबले माँ को अहमियत दी थी। इसलिए उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी उनकी माँ को सौंपी गयी। नतीजे में साहिर का अपने पिता और उनकी जागीर से कोई संबंध नहीं रहा। इसी के साथ साहिर और उनकी माँ, दोनों का कठिनाइयों और निराशाओं का दौर शुरू हो गया।
मुक़दमा हार जाने पर पिता ने यह धमकी दी थी कि वह साहिर को मरवा डालेंगे। तब माँ ने अपने सारे क़ीमती जेवर बेचकर साहिर की हिफ़ाज़त का बंदोबस्त किया। सुरक्षा गार्ड एक पल भी साहिर को अकेला नहीं छोड़ते थे। इस तरह पिता के प्रति घृणा भाव के साथ साहिर के मन में एक विचित्र सा भय भी पल रहा था। बचपन से ही साहिर ने अपनी माँ को, अपने लिए तमाम तरह के दुख-दर्द सहकर और मुश्किल हालात में जूझते हुए देखा था। साहिर को पाल-पोसकर बड़ा करने के लिए मां को बड़ा कठिन संघर्ष करना पड़ा। यही संघर्ष फ़िल्म ‘त्रिशूल’ के लिये लिखे, साहिर के एक गीत में उभर कर आया है। जिसमें अकेली मां की भूमिका निभाने वाली वहीदा रहमान अपने बेटे की परवरिश के लिए कई कठिनाइयों से लड़ती है ...
"तू मेरे साथ रहेगा मुन्ने, ताकि तू जान सके
तुझको परवान चढ़ाने के लिए
कितने संगीन मराहिल से तेरी मा गुज़री
कितने पाँव मेरे ममता के कलेजे पे पड़े
कितने ख़ंजर मेरी आँखों, मेरे कानों में गड़े"
साहिर ने जब बाक़ायदा शायरी शुरू की और फ़िल्मों के लिए गीत लिखना शुरू किये तो ग़रीबी-मुफ़लिसी, तंगहाली, सांप्रदायिकता, शोषण के ख़िलाफ़ उनकी नज़्में आकार लेने लगीं।
"ज़िंदगी भीक में नहीं मिलती ज़िंदगी बढ़ के छीनी जाती है
अपना हक़ संग-दिल ज़माने से छीन पाओ तो कोई बात बने।
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से मुस्कुराओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से कुछ नहीं होता सर उठाओ तो कोई बात बने ..."
लुधियाना के ख़ालसा हाई स्कूल में अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद साहिर गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ लुधियाना में दाख़िल हुये। वहाँ की सियासी सरगर्मियों का उन पर असर होने लगा। और उस दौर के मशहूर शायर - इक़बाल, फ़ैज़, मजाज़, फ़िराक़ वगैरा की विद्रोही शायरी से भी वह रूबरू होने लगे। सन 1945 में केवल 24 साल की उम्र में 'तल्ख़ियाँ' नाम से उनका पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। जिसकी वजह से उन्हें बतौर शायर बड़ी क़ामयाबी हासिल हुई। साहिर ने बचपन से ही जीवन की कठोर वास्तविकता का अनुभव किया था। जिसकी वजह से उन्होंने अपनी पहली किताब का नाम भी 'तल्ख़ियाँ' मतलब 'कड़वाहटें' रखा था।
साहिर ने कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रसिद्ध उर्दू पत्र ‘अदब-ए-लतीफ़’, ‘शाहकार’ (लाहौर) और द्वैमासिक पत्रिका ‘सवेरा’ के संपादक की ज़िम्मेदारियाँ निभाई। 'सवेरा' पत्रिका में उनकी एक रचना छपी थी जिसे सरकार के विरुद्ध समझा गया और पाकिस्तान सरकार ने उनके ख़िलाफ़ वारंट भी जारी कर दिया था। सन 1949 में साहिर अपनी माँ के साथ पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान आ गये। उसके बाद अपना नसीब आज़माने के लिए बंबई शहर पहुँचे। फ़िल्म 'आज़ादी की राह पर' (1949) से उन्होंने गीतकार के रूप में अपनी पहचान बनाई। प्यार में नारी के समर्पण की भावना को साहिर से ज़्यादा शायद ही किसी गीतकार ने इतने खुबसूरत शब्दों में बयाँ किया होगा ...
"आज सजन मोहे अंग लगा लो, जनम सफल हो जाये
हृदय की पीड़ा देह की अगनी, सब शीतल हो जाये ..."
साहिर ने अपने निजी जीवन में कई दफ़ा मोहब्बत की और वो ज़िंदगी में मोहब्बत की अहमियत से भी अच्छी तरह से वाक़िफ़ थे। उनका कहना था कि मोहब्बत भी तक़दीरवालों के हिस्से में आती है। शायद इसलिए उन्होंने लिखा था।
"मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी-कभी
होती है दिलबरों की इनायत कभी-कभी ..."
लेखिका और शायरा अमृता प्रीतम और गायिका सुधा मल्होत्रा के साथ साहिर के नाम जोड़े जाते रहे हैं। अमृता प्रीतम ने तो साहिर से अपने प्यार को दुनिया के सामने कई बार ज़ाहिर भी किया था। साहिर के लिए उनकी मोहब्बत दिवानगी की हद तक थी। इस मोहब्बत को साहिर ने भी अपनी रचनाओं में ढ़ालते हुए कहा है ...
"तुम मुझे भूल भी जाओ, तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है, मैंने तो मुहब्बत की है ..."
पर अफ़सोस, साहिर को प्यार में कभी सफलता नहीं मिल सकी। शायद साहिर, अमृता से अपने दिल की बात कह नहीं पाते थे। उनके दिल में भले ही मोहब्बत ख़ामोशी से पलती रहती होगी लेकिन वह उसे अंजाम तक कभी ला नहीं पाये। इन्हीं उलझन भरे सवालों पर वह रूककर, आख़िर यह कह उठते हैं ...
"वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा ..."
साहिर के गीतों में नारी की दुर्दशा और सामंती प्रवृत्तियों के प्रति रोष और उनका विरोध उनकी तीखी अभिव्यक्तियाँ हैं। सन 1955 में बनी फ़िल्म 'देवदास' का एक गीत आज भी पुरुष प्रधान समाज के अत्याचारों की सटीक कहानी बयाँ करने के लिए काफ़ी है, जिसमें नारी ख़ुद अपनी दर्दभरी दास्ताँ सुनाते हुए बोल उठती है ...
"मैं वो फूल हूँ कि जिसको गया हर कोई मसल के
मेरी उम्र बह गई है मेरे आँसुओं में ढ़ल के ...
जो बहार बन के बरसे वह घटा कहाँ से लाऊँ
जिसे तू क़ुबूल कर ले वह अदा कहाँ से लाऊँ ...
तेरे दिल को जो लुभाए वह सदा कहाँ से लाऊँ ..."
साहिर को किसी इन्सान से शिकायत नहीं थी। उन्हें शिकायत थी तो समाज के उस ढ़ाँचे से जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है। उसे शिकायत थी उस तहज़ीब से, उस संस्कृति से जहाँ मुर्दों को पूजा जाता हैं और ज़िंदा इन्सान को पैरों तले रौंदा जाता है। जहाँ किसी के दुःख-दर्द पर दो आँसू बहाना बुज़दिली समझा जाता है। देवियों की पूजा की जाती है और औरतों को इंसान नहीं बल्कि जी बहलाने का खिलौना समझा जाता है। फ़िल्म ‘इंसाफ़ का तराज़ू’ के गीत में साहिर ने यही बात स्पष्ट की है ...
"लोग औरत को फ़क़त एक जिस्म समझ लेते हैं
रूह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं ...
कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है
कितनी सदियों से है क़ायम, ये गुनाहों का रिवाज़ ..."
हमारे इस घोर ढ़ोंगी और पाखंडी समाज के चेहरे पर से ये झूठी शराफ़त का नक़ाब उठाने की हिम्मत साहिर ने अपने गीतों में की है। साहिर ने महिलाओं के शोषण के लिए, उन पर होनेवाले अत्याचार के लिए पितृसत्ता और सामंतवादी व्यवस्था को दोषी ठहराया है। फ़िल्म साधना में उन्होंने इसका स्पष्ट विवरण दिया है, जहां वह महिलाओं को उपभोग की वस्तु बनाने वाली बर्बर व्यवस्था पर ऊँगली उठाते हैं।
"औरत ने जनम दिया मर्दों को,
मर्दों ने उसे बाज़ार दिया ...
जब जी चाहा कुचला मसला,
जब जी चाहा दुत्कार दिया ...
मर्दों के लिये हर ज़ुल्म रवाँ,
औरत के लिये रोना भी ख़ता ...
मर्दों के लिये लाखों सेजें,
औरत के लिये बस एक चिता ...
मर्दों के लिये हर ऐश का हक़,
औरत के लिये जीना भी सज़ा ...
मर्दों ने बनायी जो रस्में,
उनको हक़ का फ़रमान कहा ...
औरत के ज़िन्दा जल जाने को,
क़ुर्बानी और बलिदान कहा ...
क़िस्मत के बदले रोटी दी,
उसको भी एहसान कहा ...
औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया ..."
नारी जीवन की पीड़ायें असहनीय हैं, यह साहिर भलीभांति जानते थे। समाज के इस क्रुर और अमानवनीय ढ़ाँचे में नारी का दम निरंतर घुटता रहता है। समाज के इस बेरहम और ज़ालिम ढ़ांचे से परेशान होकर साहिर इस हद तक झुँझलाकर कह उठते हैं ...
"जवानी भटकती है बद-कार बन कर,
जवाँ जिस्म सजते हैं बाज़ार बन कर ...
यहाँ प्यार होता है बेपार बन कर,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ..."
साहिर ने पाया कि समाज में देह व्यापार का धंधा अपने पांव पसारे हुए है। जहां लाखों महिलाएँ दुनिया से कटकर बेबस ज़िंदगी जी रही हैं। वेश्या बनी नारी की उफ़नती पीड़ा, अँधेरे कोनों में व्याप्त वेदना, अपमानित जीवन का आतंक, आतंरिक विवशता, दीनहीन होने की वेदना को साहिर ने अपनी रचनाओँ में अभिव्यक्ति दी है। फ़िल्म ‘प्यासा’ में उनकी क़लम ऐसे ही ग़ैर इंसानी रिवाजों के ख़िलाफ़ तेज़ आग बरसाती है। उसमें समाज और उसके ठेकेदारों पर साहिर सवाल उठाते हैं ... के 'आत्मसम्मान की बात करने वाले वह लोग अब कहाँ हैं?? क्या इन्हें अब तंग गलियों और अँधेरे कमरो में चलने वाले देह व्यापार नहीं दिखते?? सहमी हुयी नाबालिग़ लड़कियों को जब इस गहरी खाई में ढ़केला जाता है तब यह मानवता के रक्षक कहाँ होते हैं?? क्यों इस बर्बर प्रथा के ख़िलाफ़ इनकी आवाज़ नहीं उठती ...??
"ये कूचे, ये नीलाम घर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के ...
कहाँ हैं, कहाँ हैं मुहाफ़िज़ ख़ुदी के, जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं ...
ये सदियों से बेखौफ़ सहमी सी गलियाँ, ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियाँ ...
ये बिकती हुई खोखली रंगरलियाँ, जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं ...
ज़रा इस मुल्क के रहबरों को बुलाओ, ये कूचे ये गलियाँ ये मंज़र दिखाओ ...
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको लाओ, जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं ..."
अपने गीतों के माध्यम से साहिर ने नारी जगत की दिशा और दशा को उजागर किया है। ज़िंदगी के यथार्थ का दर्शन साहिर के नग़्मों की जान है। लेकिन साहिर यथार्थ के साथ-साथ ज्वलन्त आशावाद, उत्साह और दृढ़ विश्वास के शायर भी हैं। उन्होंने औरतों की बेहतरी, ख़ुशहाली व सुखद भविष्य वाले समाज की भी कल्पना की है। उन्हें यह यक़ीन था कि दुःख के ये काले बादल यक़ीनन दूर हो जायेंगे और न्याय, स्वतंत्रता और समानता की सुबह भी ज़रूर आयेगी ...
"दौलत के लिए जब औरत की,
इस्मत को ना बेचा जाएगा ...
चाहत को ना कुचला जाएगा,
इज़्ज़त को न बेचा जाएगा ...
अपने काले करतूतों पर जब,
ये दुनिया शर्माएगी ...
वो सुबह कभी तो आएगी,
वो सुबह कभी तो आएगी ..."
भारतीय साहित्यिक दुनिया में औरत पर सदियों से होते आ रहे ज़ुल्मों के ख़िलाफ़, इतनी शिद्दत से आवाज़ उठाने वाले शायद वह अकेले ही शायर रहे।
"सीता के लिये लिखा है यही,
हर युग में अग्नि परीक्षा दे ...
दु:ख सह के भी मुख से कुछ ना कहे,
मन को धीरज की शिक्षा दे ..."
साहिर कहते हैं कि स्त्रियाँ अपना पूरा जीवन अन्याय सहते हुए व्यतीत कर देती हैं, कभी विरोध नहीं करती लेकिन जिस दिन उसके ह्रदय में विद्रोह की चिंगारियां जागृत हो जाऐंगी। तो सम्पूर्ण शोषक समाज को उसके ताप में झुलसना पडेगा। साहिर लुधियानवी के नारी चेतना से ओत-प्रोत गीत आधी आबादी को जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। वर्तमान समाज में फैली अनेक कुरीतियों को भी धराशायी करते प्रतीत होते हैं। ऐसे "शब्दों के जादूगर" अपनी कर्म साधना से सदियों तक प्रासंगिक बने रहेंगे। आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें ख़िराज ए अक़ीदत ...
ऐ ग़म-ए-दुनिया तुझे क्या इल्म तेरे वास्ते
किन बहानों से तबीअ’त राह पर लाई गई
साहिर लुधियानवी को इस दुनिया से गए 45 साल गुज़र गए हैं, मगर आप जब भी उनकी शायरी और फ़िल्मी नग़्मों की तरफ़ जाएँगे तो आपको यक़ीनन ऐसा महसूस होगा कि वो अब भी मौजूद हैं। वो अपनी शायरी और फ़िल्मी नग़्मों में ही कहीं साँसें ले रहे हैं। वो आज भी शायरी और फ़िल्मी नग़्मों में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए मिसाल बने हुए हैं। उनकी शायरी और फ़िल्मी नग़्मों की अब भी बहुत लम्बी उम्र बाक़ी है। अपनी शायरी के लिए साहिर कॉलेज के दिनों से ही काफ़ी मशहूर रहे और फिर बम्बई आकर उन्होंने जो किया उसे उनका हर चाहने वाला बहुत अच्छी तरह जानता है।
"कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं", "मेरे दिल में आज क्या हैं तू कहें तो मैं बता दूँ", "जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा", "तुम अगर साथ देने का वादा करो", "ए मेरी ज़ोहराजबीं तुझे मालूम नहीं", “नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले", "अभी ना जाओ छोड़कर, के दिल अभी भरा नहीं" ऐसे सैकड़ों मधुर प्रेमगीतों के रचनाकार साहिर लुधियानवी का जन्म संयोग से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन यानी 8 मार्च को हुआ था। सन 1921 को लुधियाना (पंजाब) के एक जागीरदार घराने में जन्मे साहिर का असली नाम अब्दुल हयी था। पिता फ़ज़ल मोहम्मद की ग्यारहवीं बीवी सरदार बेग़म उनकी मां थीं। साहिर उनके पहले और इकलौते बेटे थे। इसी कारण उनकी परवरिश बड़े प्यार से हुई।
लेकिन अभी वह बच्चे ही थे कि सुख के सारे दरवाज़े उसके लिए एकाएक बंद हो गए। फ़ज़ल मोहम्मद को अपनी बेशुमार दौलत पर ग़ुरुर था, उसी की वजह से उनकी अय्याशियाँ भी बढ़ने लगीं और उन्होंने बारहवीं शादी करने का फ़ैसला किया। अपने पति की इन अय्याशियों से तंग आकर साहिर की माँ ने पति से अलग होने का फ़ैसला किया। चूँकि लाहौर की अदालत में 13 साल के साहिर ने पिता के मुक़ाबले माँ को अहमियत दी थी। इसलिए उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी उनकी माँ को सौंपी गयी। नतीजे में साहिर का अपने पिता और उनकी जागीर से कोई संबंध नहीं रहा। इसी के साथ साहिर और उनकी माँ, दोनों का कठिनाइयों और निराशाओं का दौर शुरू हो गया।
मुक़दमा हार जाने पर पिता ने यह धमकी दी थी कि वह साहिर को मरवा डालेंगे। तब माँ ने अपने सारे क़ीमती जेवर बेचकर साहिर की हिफ़ाज़त का बंदोबस्त किया। सुरक्षा गार्ड एक पल भी साहिर को अकेला नहीं छोड़ते थे। इस तरह पिता के प्रति घृणा भाव के साथ साहिर के मन में एक विचित्र सा भय भी पल रहा था। बचपन से ही साहिर ने अपनी माँ को, अपने लिए तमाम तरह के दुख-दर्द सहकर और मुश्किल हालात में जूझते हुए देखा था। साहिर को पाल-पोसकर बड़ा करने के लिए मां को बड़ा कठिन संघर्ष करना पड़ा। यही संघर्ष फ़िल्म ‘त्रिशूल’ के लिये लिखे, साहिर के एक गीत में उभर कर आया है। जिसमें अकेली मां की भूमिका निभाने वाली वहीदा रहमान अपने बेटे की परवरिश के लिए कई कठिनाइयों से लड़ती है ...
"तू मेरे साथ रहेगा मुन्ने, ताकि तू जान सके
तुझको परवान चढ़ाने के लिए
कितने संगीन मराहिल से तेरी मा गुज़री
कितने पाँव मेरे ममता के कलेजे पे पड़े
कितने ख़ंजर मेरी आँखों, मेरे कानों में गड़े"
साहिर ने जब बाक़ायदा शायरी शुरू की और फ़िल्मों के लिए गीत लिखना शुरू किये तो ग़रीबी-मुफ़लिसी, तंगहाली, सांप्रदायिकता, शोषण के ख़िलाफ़ उनकी नज़्में आकार लेने लगीं।
"ज़िंदगी भीक में नहीं मिलती ज़िंदगी बढ़ के छीनी जाती है
अपना हक़ संग-दिल ज़माने से छीन पाओ तो कोई बात बने।
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से मुस्कुराओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से कुछ नहीं होता सर उठाओ तो कोई बात बने ..."
लुधियाना के ख़ालसा हाई स्कूल में अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद साहिर गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ लुधियाना में दाख़िल हुये। वहाँ की सियासी सरगर्मियों का उन पर असर होने लगा। और उस दौर के मशहूर शायर - इक़बाल, फ़ैज़, मजाज़, फ़िराक़ वगैरा की विद्रोही शायरी से भी वह रूबरू होने लगे। सन 1945 में केवल 24 साल की उम्र में 'तल्ख़ियाँ' नाम से उनका पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। जिसकी वजह से उन्हें बतौर शायर बड़ी क़ामयाबी हासिल हुई। साहिर ने बचपन से ही जीवन की कठोर वास्तविकता का अनुभव किया था। जिसकी वजह से उन्होंने अपनी पहली किताब का नाम भी 'तल्ख़ियाँ' मतलब 'कड़वाहटें' रखा था।
साहिर ने कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रसिद्ध उर्दू पत्र ‘अदब-ए-लतीफ़’, ‘शाहकार’ (लाहौर) और द्वैमासिक पत्रिका ‘सवेरा’ के संपादक की ज़िम्मेदारियाँ निभाई। 'सवेरा' पत्रिका में उनकी एक रचना छपी थी जिसे सरकार के विरुद्ध समझा गया और पाकिस्तान सरकार ने उनके ख़िलाफ़ वारंट भी जारी कर दिया था। सन 1949 में साहिर अपनी माँ के साथ पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान आ गये। उसके बाद अपना नसीब आज़माने के लिए बंबई शहर पहुँचे। फ़िल्म 'आज़ादी की राह पर' (1949) से उन्होंने गीतकार के रूप में अपनी पहचान बनाई। प्यार में नारी के समर्पण की भावना को साहिर से ज़्यादा शायद ही किसी गीतकार ने इतने खुबसूरत शब्दों में बयाँ किया होगा ...
"आज सजन मोहे अंग लगा लो, जनम सफल हो जाये
हृदय की पीड़ा देह की अगनी, सब शीतल हो जाये ..."
साहिर ने अपने निजी जीवन में कई दफ़ा मोहब्बत की और वो ज़िंदगी में मोहब्बत की अहमियत से भी अच्छी तरह से वाक़िफ़ थे। उनका कहना था कि मोहब्बत भी तक़दीरवालों के हिस्से में आती है। शायद इसलिए उन्होंने लिखा था।
"मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी-कभी
होती है दिलबरों की इनायत कभी-कभी ..."
लेखिका और शायरा अमृता प्रीतम और गायिका सुधा मल्होत्रा के साथ साहिर के नाम जोड़े जाते रहे हैं। अमृता प्रीतम ने तो साहिर से अपने प्यार को दुनिया के सामने कई बार ज़ाहिर भी किया था। साहिर के लिए उनकी मोहब्बत दिवानगी की हद तक थी। इस मोहब्बत को साहिर ने भी अपनी रचनाओं में ढ़ालते हुए कहा है ...
"तुम मुझे भूल भी जाओ, तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है, मैंने तो मुहब्बत की है ..."
पर अफ़सोस, साहिर को प्यार में कभी सफलता नहीं मिल सकी। शायद साहिर, अमृता से अपने दिल की बात कह नहीं पाते थे। उनके दिल में भले ही मोहब्बत ख़ामोशी से पलती रहती होगी लेकिन वह उसे अंजाम तक कभी ला नहीं पाये। इन्हीं उलझन भरे सवालों पर वह रूककर, आख़िर यह कह उठते हैं ...
"वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा ..."
साहिर के गीतों में नारी की दुर्दशा और सामंती प्रवृत्तियों के प्रति रोष और उनका विरोध उनकी तीखी अभिव्यक्तियाँ हैं। सन 1955 में बनी फ़िल्म 'देवदास' का एक गीत आज भी पुरुष प्रधान समाज के अत्याचारों की सटीक कहानी बयाँ करने के लिए काफ़ी है, जिसमें नारी ख़ुद अपनी दर्दभरी दास्ताँ सुनाते हुए बोल उठती है ...
"मैं वो फूल हूँ कि जिसको गया हर कोई मसल के
मेरी उम्र बह गई है मेरे आँसुओं में ढ़ल के ...
जो बहार बन के बरसे वह घटा कहाँ से लाऊँ
जिसे तू क़ुबूल कर ले वह अदा कहाँ से लाऊँ ...
तेरे दिल को जो लुभाए वह सदा कहाँ से लाऊँ ..."
साहिर को किसी इन्सान से शिकायत नहीं थी। उन्हें शिकायत थी तो समाज के उस ढ़ाँचे से जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है। उसे शिकायत थी उस तहज़ीब से, उस संस्कृति से जहाँ मुर्दों को पूजा जाता हैं और ज़िंदा इन्सान को पैरों तले रौंदा जाता है। जहाँ किसी के दुःख-दर्द पर दो आँसू बहाना बुज़दिली समझा जाता है। देवियों की पूजा की जाती है और औरतों को इंसान नहीं बल्कि जी बहलाने का खिलौना समझा जाता है। फ़िल्म ‘इंसाफ़ का तराज़ू’ के गीत में साहिर ने यही बात स्पष्ट की है ...
"लोग औरत को फ़क़त एक जिस्म समझ लेते हैं
रूह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं ...
कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है
कितनी सदियों से है क़ायम, ये गुनाहों का रिवाज़ ..."
हमारे इस घोर ढ़ोंगी और पाखंडी समाज के चेहरे पर से ये झूठी शराफ़त का नक़ाब उठाने की हिम्मत साहिर ने अपने गीतों में की है। साहिर ने महिलाओं के शोषण के लिए, उन पर होनेवाले अत्याचार के लिए पितृसत्ता और सामंतवादी व्यवस्था को दोषी ठहराया है। फ़िल्म साधना में उन्होंने इसका स्पष्ट विवरण दिया है, जहां वह महिलाओं को उपभोग की वस्तु बनाने वाली बर्बर व्यवस्था पर ऊँगली उठाते हैं।
"औरत ने जनम दिया मर्दों को,
मर्दों ने उसे बाज़ार दिया ...
जब जी चाहा कुचला मसला,
जब जी चाहा दुत्कार दिया ...
मर्दों के लिये हर ज़ुल्म रवाँ,
औरत के लिये रोना भी ख़ता ...
मर्दों के लिये लाखों सेजें,
औरत के लिये बस एक चिता ...
मर्दों के लिये हर ऐश का हक़,
औरत के लिये जीना भी सज़ा ...
मर्दों ने बनायी जो रस्में,
उनको हक़ का फ़रमान कहा ...
औरत के ज़िन्दा जल जाने को,
क़ुर्बानी और बलिदान कहा ...
क़िस्मत के बदले रोटी दी,
उसको भी एहसान कहा ...
औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया ..."
नारी जीवन की पीड़ायें असहनीय हैं, यह साहिर भलीभांति जानते थे। समाज के इस क्रुर और अमानवनीय ढ़ाँचे में नारी का दम निरंतर घुटता रहता है। समाज के इस बेरहम और ज़ालिम ढ़ांचे से परेशान होकर साहिर इस हद तक झुँझलाकर कह उठते हैं ...
"जवानी भटकती है बद-कार बन कर,
जवाँ जिस्म सजते हैं बाज़ार बन कर ...
यहाँ प्यार होता है बेपार बन कर,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ..."
साहिर ने पाया कि समाज में देह व्यापार का धंधा अपने पांव पसारे हुए है। जहां लाखों महिलाएँ दुनिया से कटकर बेबस ज़िंदगी जी रही हैं। वेश्या बनी नारी की उफ़नती पीड़ा, अँधेरे कोनों में व्याप्त वेदना, अपमानित जीवन का आतंक, आतंरिक विवशता, दीनहीन होने की वेदना को साहिर ने अपनी रचनाओँ में अभिव्यक्ति दी है। फ़िल्म ‘प्यासा’ में उनकी क़लम ऐसे ही ग़ैर इंसानी रिवाजों के ख़िलाफ़ तेज़ आग बरसाती है। उसमें समाज और उसके ठेकेदारों पर साहिर सवाल उठाते हैं ... के 'आत्मसम्मान की बात करने वाले वह लोग अब कहाँ हैं?? क्या इन्हें अब तंग गलियों और अँधेरे कमरो में चलने वाले देह व्यापार नहीं दिखते?? सहमी हुयी नाबालिग़ लड़कियों को जब इस गहरी खाई में ढ़केला जाता है तब यह मानवता के रक्षक कहाँ होते हैं?? क्यों इस बर्बर प्रथा के ख़िलाफ़ इनकी आवाज़ नहीं उठती ...??
"ये कूचे, ये नीलाम घर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के ...
कहाँ हैं, कहाँ हैं मुहाफ़िज़ ख़ुदी के, जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं ...
ये सदियों से बेखौफ़ सहमी सी गलियाँ, ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियाँ ...
ये बिकती हुई खोखली रंगरलियाँ, जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं ...
ज़रा इस मुल्क के रहबरों को बुलाओ, ये कूचे ये गलियाँ ये मंज़र दिखाओ ...
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको लाओ, जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं ..."
अपने गीतों के माध्यम से साहिर ने नारी जगत की दिशा और दशा को उजागर किया है। ज़िंदगी के यथार्थ का दर्शन साहिर के नग़्मों की जान है। लेकिन साहिर यथार्थ के साथ-साथ ज्वलन्त आशावाद, उत्साह और दृढ़ विश्वास के शायर भी हैं। उन्होंने औरतों की बेहतरी, ख़ुशहाली व सुखद भविष्य वाले समाज की भी कल्पना की है। उन्हें यह यक़ीन था कि दुःख के ये काले बादल यक़ीनन दूर हो जायेंगे और न्याय, स्वतंत्रता और समानता की सुबह भी ज़रूर आयेगी ...
"दौलत के लिए जब औरत की,
इस्मत को ना बेचा जाएगा ...
चाहत को ना कुचला जाएगा,
इज़्ज़त को न बेचा जाएगा ...
अपने काले करतूतों पर जब,
ये दुनिया शर्माएगी ...
वो सुबह कभी तो आएगी,
वो सुबह कभी तो आएगी ..."
भारतीय साहित्यिक दुनिया में औरत पर सदियों से होते आ रहे ज़ुल्मों के ख़िलाफ़, इतनी शिद्दत से आवाज़ उठाने वाले शायद वह अकेले ही शायर रहे।
"सीता के लिये लिखा है यही,
हर युग में अग्नि परीक्षा दे ...
दु:ख सह के भी मुख से कुछ ना कहे,
मन को धीरज की शिक्षा दे ..."
साहिर कहते हैं कि स्त्रियाँ अपना पूरा जीवन अन्याय सहते हुए व्यतीत कर देती हैं, कभी विरोध नहीं करती लेकिन जिस दिन उसके ह्रदय में विद्रोह की चिंगारियां जागृत हो जाऐंगी। तो सम्पूर्ण शोषक समाज को उसके ताप में झुलसना पडेगा। साहिर लुधियानवी के नारी चेतना से ओत-प्रोत गीत आधी आबादी को जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। वर्तमान समाज में फैली अनेक कुरीतियों को भी धराशायी करते प्रतीत होते हैं। ऐसे "शब्दों के जादूगर" अपनी कर्म साधना से सदियों तक प्रासंगिक बने रहेंगे। आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें ख़िराज ए अक़ीदत ...
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