यावर अली  
काफ़ी दिनों से मेरी अलमारी में दौर-ए-हाज़िर के बेहतरीन शायर सिराज फ़ैसल ख़ान का दिया हुआ नज़्म-संग्रह ‘परफ़्यूम’ एक किताब की शक्ल में ख़ामोशी से महक रहा था। ज़िंदगी की रोज़मर्रा की भाग-दौड़ में उसे छूने का वक़्त ही नहीं मिल पाया। मगर आज जब उस ‘परफ़्यूम’ को खोला, तो दिल ने कहा, कि चलो आज उस ख़ुशबू को महसूस किया जाए, जो उनकी नज़्मों में छुपी हुई है। मैंने इस नज़्म-संग्रह पर एक समीक्षा लिखने की कोशिश की है, ताकि आप भी उन एहसासों को महसूस कर सकें जो इस किताब के हर लफ़्ज़ में साँस ले रहे हैं।
नज़्म-संग्रह "परफ़्यूम" ख़यालों के शहर की कोई आम परफ़्यूम नहीं, बल्कि अदब की वह महक है जो ज़हन और दिल दोनों को मदहोश कर देती है। इस क़िताब को पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है कि आप किसी और की शाइरी नहीं, बल्कि अपने अंदर की कश्मकश, उदासी और अधूरी सोच को पढ़ रहे हैं।
सिराज फ़ैसल ख़ान की नज़्में एक तरफ़ रिवायती नज़्मों की नज़ाकत समेटे हुए है, तो दूसरी तरफ़ आज़ाद नज़्मों की जदीद सोच भी रखती हैं। इस क़िताब में ज़ियादातर आज़ाद नज़्में हैं, बिना रदीफ़-काफ़िया की बंदिशों के, जिस से ख़यालों को और ज़ियादा उड़ान मिलती है।
यह किताब किसी ऐसे शायर की नहीं है जो सिर्फ़ काग़ज़ों पर शायरी करता है, बल्कि उस शायर की है जिसने ज़िंदगी के हर पन्ने को शिद्दत से जिया, महसूस किया, और फिर उन्हें लफ़्ज़ों में ढाला है। उनकी लिखावट का हर लफ़्ज़ दिल की तहों में उतरता चला जाता है। उनकी इस नज़्म को देखिए, इसमें बेबसी को कितनी ख़ूबसूरती से बयान किया गया है...
...हँसी आती है ज़ख्मों पर,
मैं रोता हूँ लतीफों पर
बज़ाहिर हूँ बहुत ही ख़ुश,
बहुत ज़ख्मी हूँ पर अंदर
मेरा अब जी नहीं लगता...
सिराज फ़ैसल ख़ान के इस नज़्म-संग्रह की आवाज़ किसी मंच से नहीं बल्कि आम ज़िन्दगी की गलियों से उठती है, जहाँ भूख है, थकन है, और टूटी उम्मीदें हैं। ये वो आवाज़ है जो शोर में नहीं ख़ामोशी में सुनाई देती है। एक नज़्म में वो लिखते हैं...
...यहाँ मुंडेरों पे गिद्ध बैठे हैं वासना के 
नज़र गड़ा के
यहाँ पे इस्मत नहीं सलामत है अब किसी की
न बच्चियों की, न बूढ़ियों की
ये भेड़ियों का मुआशरा है...
सिराज फ़ैसल ख़ान की नज़्मों में लगभग हर मौज़ू को ख़ूबसूरती और सलीके से जगह दी गई है, चाहे वो मुहब्बत हो, बेवफ़ाई हो या कोई और पहलू। उनकी इस नज़्म को देखिए, इसमें दिल के एहसासों को किस ख़ूबसूरती से लफ़्ज़ों में पिरो कर वफ़ा, ज़फ़ा, गिले-शिकवे और उदासी में लिपटी हुई मुहब्बत की एक हसीन तस्वीर पेश की गई है...
तेरे दुख में तेरा हौसला कौन था 
मैं नहीं था अगर तो बता कौन था
किस की चाहत पे ईमान लाईं थीं तुम
इश्क़ में वो तुम्हारा ख़ुदा कौन था 
कौन था जिस के लफ़्ज़ों को चूमा गया
जिस के जज़्बों को रौंदा गया कौन था...
उन की नज़्में हमें सवाल देती हैं, जवाब नहीं। वक़्त, एहसास, और ज़मीर जैसे मौज़ू' उनके यहाँ किरदार बन जाते हैं। वे शोर नहीं मचाते, बल्कि ख़ामोशी से आपको झिंझोड़ देते हैं। उन की नज़्में वही ईंटें हैं, जो ज़मीर की दीवारों को थोड़ा और ऊँचा कर देती हैं। वो कहते हैं...
...मैं ज़ालिमों के
ख़िलाफ़ मिट्टी का जिस्म लेकर खड़ा रहूँगा
ज़मीर जिनको भी बेचना है 
वो बेच दें 
मैं नहीं बिकुँगा 
अड़ा रहूंगा...
सिराज फ़ैसल ख़ान की नज़्मों में एक साफ़ सामाजी सलीक़ा है, जो नारेबाज़ी नहीं करता, बल्कि तर्क, एहसास, और बातचीत के ज़रिये पाठक को झकझोरता है। ये केवल लफ्जों का नहीं, हमारे  एहसासों का मजमुआ है जो क़िताब की शक्ल में है। इस में कोई बनावटी रोमांस नहीं, कोई ज़बरदस्ती की उदासी नहीं। बल्कि इसमें वो ख़ामोशियाँ हैं जो चीख़ती हैं, वो हँसी भी है जो मजबूरी में आती है, और वो प्रेम है जो ख़याल बन चुका है। वो कहते हैं...
...ये कुछ दिनों से उजाड़ दुनिया 
खिली खिली सी जो लग रही है 
हर इक ख़ुशी में घुला है ग़म सा
हर एक ग़म में ख़ुशी घुली है 
ये कैसा दरिया है जितना डूबा हूँ 
प्यास उतनी ही बढ़ रही है 
ये बर्फ़ कैसी है जो लहू में
रगों के अंदर पिघल रही है...
सिराज फ़ैसल ख़ान की ज़बान बहुत सीधी, सादी और असरदार है। वो न उलझे हुए इस्तियारों (प्रतीकों) का सहारा लेते हैं, न दुश्वार-ओ-वज़नी फ़लसफ़े का। उनकी नज़्में ज़मीन से जुड़ी हैं, और दिल में सीधे उतरती हैं, जैसे ये नज़्म देखिए...
...तअल्लुक़ तर्क करना है
तअल्लुक़ तर्क कर लेना
मगर इक मशवरा सुन लो
इसे तुम इल्तिज़ा समझो
तुम्हें बस इतना करना है 
कि इस अंजाम से पहले 
मेरा आगाज़ दोहरा दो 
मुझे फिर मुझ से मिलवा दो...
इस क़िताब की टाइटल नज़्म ‘परफ्यूम’ उस ख़ुशबू की तरह है जो एक बार ज़हन में बैठ जाती है तो देर तक रहती है। इसमें इश्क़ की एक बहुत ही नर्म, मगर असरदार तस्वीर उभरती है। इस तरह की नज़्में दिल के दरवाज़े पर दस्तक नहीं देतीं बल्कि दिल पर कब्ज़ा कर लेती हैं।
तेरे परफ़्यूम की ख़ुशबू 
मेरी जानाँ 
हमारे वस्ल पर पहले
गले लगने से
मेरे फ़ेवरेट स्वेटर पे मेरे साथ आई थी 
ये तेरे प्यार की
तन पर मेरे 
पहली निशानी थी
जिसे अब तक हिफाज़त से
मेरी सारी
मुहब्बत से
सजा के मैं ने रक्खा है 
ये ख़ुशबू छूट ना जाए
इसी डर से 
दोबारा
मैं ने उस स्वेटर को
पहना है 
न धोया है...
इस क़िताब की एक नज़्म "बेरोज़गार" को देखिए। ये नज़्म सिर्फ़ एक शख़्स की नहीं, बल्कि एक पूरी नस्ल की नुमाइंदगी करती है, उस नस्ल की जो रोज़ नाक़ामियों से टकराती है, और फिर भी हार नहीं मानती...
...कहीं पे
मज़हब जवाज़ था तो 
कहीं पे 
रिश्वत ने हाथ काटे
कहीं पे
पर्चा बहुत कठिन था 
कहीं पे
बीमार पड़ गया मैं...
मैं अपनी
जानिब से पूरी कोशिश 
तो कर रहा हूँ 
मगर नतीजे 
ख़िलाफ़ आएँ तो क्या करूँ मैं...
इस क़िताब की कई नज़्मों के टाइटल अंग्रेज़ी में हैं जैसे नास्टेल्जिया, परफ़्यूम, कैफे, मोबाइल, ज़ाम्बी, ब्रेकअप, फ्लैशबैक, Melancholy वगैरह। इन्हें देख कर ऐसा वहम हो सकता है कि शायद शायर पर मग़रिबी तहज़ीब का ज़ियादा असर है, मगर यह किसी मग़रिबी असर का नतीजा नहीं, बल्कि एक जदीद नज़रिया है। जैसे Melancholy नज़्म के इस हिस्से को देखिए...
...देखना वो अब के भी
जल्द लौट आएगी
फिर मुझे मनाएगी 
फेवरेट इमोजी से
कार्टून से, जिफ़ से
बात फिर बनाएगी...
सिराज फ़ैसल ख़ान की कई नज़्मों में नारेबाज़ी की जगह ख़ामोशी और तर्क के ज़रिये सामाजी नाहमवारियों (विसंगतियों) पर भी गहरी चोट मिलती है। जैसे इस नज़्म को देखिए...
...ये फ़िरक़ा-वारियत का ज़हर, ये नफ़रत की तक़रीरें 
नहीं होती है ऐसे क़ौम की तामीर मौलाना
मिसाइल मोड़ देना आप फ़तवों की मेरी जानिब
लगे गर आप को कड़वी मेरी तहरीर मौलाना...
जो नज़्म जितनी छोटी होती है, वो मआनी के लिहाज़ से उतनी ही वज़्नदार और असरदार होती है। नज़्म "आख़िरी मैसेज" इसकी बेहतरीन मिसाल है...
आख़िरी लिफ़ाफे में 
उसने ख़त नहीं रक्खा 
फिर भी उस में मैसेज था
जिस को बस मैं समझा था 
उस ने मुझ से बोला था 
उस की ज़िंदगी मुझ बिन 
इस हसीं लिफ़ाफे सी
देखने में अच्छी है 
असलियत में ख़ाली है...
ये एक बेहतरीन नज़्म-संग्रह है। ये मजमूआ नौजवान पढ़ने वालों को ज़ेहनी तौर पर आगाह करता है, और तजुर्बेकार पढ़ने वालों को अदबी इतमीनान देता है। इसमें फ़न है, एहसास है, और सबसे बढ़कर एक साफ़ और सच्ची आवाज़ मौजूद है।


أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ

أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ
I Love Muhammad Sallallahu Alaihi Wasallam

फ़िरदौस ख़ान का फ़हम अल क़ुरआन पढ़ने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें

या हुसैन

या हुसैन

फ़िरदौस ख़ान की क़लम से

Star Web Media

सत्तार अहमद ख़ान

सत्तार अहमद ख़ान
संस्थापक- स्टार न्यूज़ एजेंसी

ई-अख़बार पढ़ें

ब्लॉग

  • नजूमी... - कुछ अरसे पहले की बात है... हमें एक नजूमी मिला, जिसकी बातों में सहर था... उसके बात करने का अंदाज़ बहुत दिलकश था... कुछ ऐसा कि कोई परेशान हाल शख़्स उससे बा...
  • कटा फटा दरूद मत पढ़ो - *डॉ. बहार चिश्ती नियामतपुरी *रसूले-करीमص अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि मेरे पास कटा फटा दरूद मत भेजो। इस हदीसे-मुबारक का मतलब कि तुम कटा फटा यानी कटा उसे क...
  • Dr. Firdaus Khan - Dr. Firdaus Khan is an Islamic scholar, poetess, author, essayist, journalist, editor and translator. She is called the princess of the island of the wo...
  • میرے محبوب - بزرگروں سے سناہے کہ شاعروں کی بخشش نہیں ہوتی وجہ، وہ اپنے محبوب کو خدا بنا دیتے ہیں اور اسلام میں اللہ کے برابر کسی کو رکھنا شِرک یعنی ایسا گناہ مانا جات...
  • डॉ. फ़िरदौस ख़ान - डॉ. फ़िरदौस ख़ान एक इस्लामी विद्वान, शायरा, कहानीकार, निबंधकार, पत्रकार, सम्पादक और अनुवादक हैं। उन्हें फ़िरदौस ख़ान को लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी के नाम से ...
  • 25 सूरह अल फ़ुरक़ान - सूरह अल फ़ुरक़ान मक्का में नाज़िल हुई और इसकी 77 आयतें हैं. *अल्लाह के नाम से शुरू, जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है*1. वह अल्लाह बड़ा ही बाबरकत है, जिसने हक़ ...
  • ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ - ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਕਿਤੋਂ ਕਬੱਰਾਂ ਵਿਚੋਂ ਬੋਲ ਤੇ ਅੱਜ ਕਿਤਾਬੇ-ਇਸ਼ਕ ਦਾ ਕੋਈ ਅਗਲਾ ਵਰਕਾ ਫੋਲ ਇਕ ਰੋਈ ਸੀ ਧੀ ਪੰਜਾਬ ਦੀ ਤੂੰ ਲਿਖ ਲਿਖ ਮਾਰੇ ਵੈਨ ਅੱਜ ਲੱਖਾਂ ਧੀਆਂ ਰੋਂਦੀਆਂ ਤ...

एक झलक

Followers

Search

Subscribe via email

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

साभार

इसमें शामिल ज़्यादातर तस्वीरें गूगल से साभार ली गई हैं