मलिक असगर हाशमी


जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।’ देश के अधिकांश उर्दू अखबारों की मानें तो वे अब इस उक्ति को सार्थक करने की स्थिति में नहीं हैं। फिलवक्त उनके सामने वजूद बचाने की बड़ी चुनौती है। उनके बिगड़े आर्थिक हालात उन्हें रवानगी से चलने की इजाजत नहीं देते। ज्यादातर अखबार घिसट-घिसटकर बढ़ने को मजबूर हैं। 

उन्हें लगता है कि विश्व स्तर पर मुसलमान, इस्लाम, मदरसे को दबाने का जो खेल चल रहा है, उसका शिकार उर्दू अखबार हो रहे हैं। चुनावों के दौरान इनके तीखे तेवर से कई सरकारों और पार्टियों को भी परेशानी होती है। इसलिए वे भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उर्दू मीडिया के खिलाफ रची जाने वाली साजिश का हिस्सा बन गए हैं। 

अखबार इस वक्त ज्यादा नाराज केंद्र सरकार और कॉरपोरेट जगत से हैं। उन्हें लगता है, जानबूझकर उनके हिस्से के विज्ञापन में कटौती की जा रही है। कुल सरकारी विज्ञापनों का एक से दो फीसदी हिस्सा भी उन्हें नहीं मिलता। पिछले एक सप्ताह से बाजार के अनुरूप अपने को ढालने के गंभीर विषय पर चर्चा करने के बजाय उर्दू अखबार विज्ञापन के मसले पर सरकार को घेरने में लगे हैं। इसे धार्मिक और सियासी रंग देने की कोशिशें चल रही हैं।

शाही इमाम अहमद बुखारी से लेकर दूसरे लोग समस्या का समाधान सुझाने की जगह मामले को और उलझाने में लगे हैं। उनका बयान पहले सफे की सुर्खी बन रहा है। ‘हमारा समाज’ में शाही इमाम के हवाले से कहा गया है-उर्दू अखबारात का गला घोंटना चाहता है हुक्मरान तबका। उर्दू अखबारों में सरकारी अदारों के इश्तेहारों में कमी निहायत अफसोसनाक है।
एक अखबार का तो कहना है-हद यह है कि अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के विज्ञापन भी गैर उर्दू अखबारों को दिए जाने लगे हैं। ‘हमारा मकसद’ में डॉ. रऊफ पारिख कहते हैं-जुबान, उस समाज के एफराद के रवैये और मनोविज्ञान के बारे में जानकारी देने का बेहतरीन और दिलचस्प जरिया है। उर्दू अखबारों को लगता है उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते मुस्लिमों से यह जरिया छीना जा रहा है। कश्मीर घाटी से शाया अखबारों की समझ है कि उनकी कमजोरी के चलते वहां की सरकार जब चाहती है उन पर बंदिशें लगा देती है। घाटी में हाल में मचे बवाल के दौरान तकरीबन चार दिनों तक अखबारों के दफ्तरों पर ताले लटके रहे।

कश्मीर के ‘डेली आफताब’ का कहना है जम्मू-कश्मीर सरकार अपने यहां कवरेज करने के लिए दिल्ली से आने वाले मीडिया कर्मियों की तो खूब आव-भगत करती है लेकिन उन्हें हर तरफ से दबाने के तिकड़म आजमाए जाते हैं। 
 
उर्दू अखबारों पर पहले इल्जाम था कि वे मजहबी जज्बातों से ऊपर उठकर दूसरे क्षेत्रों को अहमियत नहीं देते। यहां तक कि जदीद तकनोलॉजी से लैस होकर दूसरी जुबान के अखबारों के शाना-बशाना नहीं चलते। इस कलंक को धोकर जब उर्दू अखबार भी रंगीन छपने लगे तो उन्हें दरकिनार करने की साजिश शुरू हो गई।

‘सहाफत’ कहता है - यूपीए सरकार ने एनडीए सरकार में तय किए गए उर्दू अखबारों के कोटे कम कर दिए हैं। 2004 में यूपीए के सत्ता में आने पर उर्दू जुबान को बढ़ावा देने का ऐलान किया गया था। सरकार इस पर खरी नहीं उतर रही है।
मासूम मुरादाबादी ‘जदीद खबर’ में कहते हैं -यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला साल पूरा होने पर आयोजित सम्मेलन में वजीर-ए-आजम मुसलमानों की तालीमी पसमांदगी का ऐतराफ कर चुके हैं। इसके बाद भी उर्दू अखबारों को ऊपर उठने में सहयोग नहीं मिल रहा है।
अखबारों को लगता है कुल सरकारी विज्ञानों का पंद्रह प्रतिशत हिस्सा उन्हें मिल जाए तो उनका कायाकल्प हो सकता है। बड़े औद्योगिक घरानों, कॉरपोरेट सेक्टर को भी मुसलमानों की जनसंख्या और उर्दू अखबारों की प्रसार संख्या को ध्यान में रखकर उनके प्रति नरमी दिखानी चाहिए। वैसे अखबार यह भी मानते हैं कि शिक्षित मुस्लिम परिवार उर्दू से ज्यादा अंग्रेजी अखबारों को तरजीह देते हैं। हिन्दी अखबारों का नंबर उसके बाद आता है।
एक अखबार में अहमद खान ने अपनी रिपोर्ट में लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अब्दुल हक, मुस्लिम पॉलिटिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के सदर डॉ. तस्लीम अहमद रहमानी, भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी, एनसीपी के तारिक अनवर के हवाले से उर्दू अखबारों की अनदेखी और बदहाली पर चिंता जताई है।
कांग्रेस सांसद राशिद अलवी ने अखबारों को विश्वास दिलाया है कि संसद के मानसून सत्र से पहले इस बारे में वे पार्टी नेताओं से बात करेंगे। ‘मुंसिफ’ के संपादक के नाम पत्र में हैदराबाद के मोख्तार अहमद फरदीन कहते हैं-अच्छी लीडरी के लिए नेता को उर्दू सीखना जरूरी है। इसके लिए अखबार से बेहतर और कोई माध्यम नहीं हो सकता।
(लेखक हिन्दुस्तान से जुड़े हैं)


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