राजेश कुमार गुप्ता
वो आवाज़, जिसे सुनकर स्वयं स्वरकोकिला लता मंगेश्कर जी ने 'तपस्विनी' कहकर संबोधित किया। तो उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ान ने उन्हें ‘सुस्वरलक्ष्मी’ की उपाधि दी और किशोरी आमोनकर ने उन्हें ‘आठवां सुर’ तक कह दिया, जो संगीत के 7 सुरों से भी ऊंचा होता है। ख़ुद सरोजनी नायडू जी ने उन्हें अपने स्वयं के ख़िताब 'नाइटिंगगेल ऑफ़ इण्डिया’ कहकर पुकारा। सिर्फ़ महान संगीतज्ञों ने ही नहीं, बल्कि राजनेता भी उनकी गायकी के प्रशंसक थे। महात्मा गांधी सुब्बुलक्ष्मी को ‘आधुनिक भारत की मीरा’ कहा करते थे। गांधी जी ने उनकी प्रशंसा में कहा था ... "'हरि तुम हरो जन की पीर ...', इस मीरा भजन को सुब्बुलक्ष्मी सिर्फ़ उच्चारित भी कर दें तो ये भजन किसी और के गाने से ज़्यादा सुरीला होगा"। दिल्ली में 1953 में आयोजित कर्नाटक संगीत के एक समारोह में सुब्बुलक्ष्मी को गाते हुए सुनकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू जी ने मंत्रमुग्ध हो कर कहा कि सुब्बुलक्ष्मी के संगीत के आगे मेरा प्रधानमंत्री पद भी तुच्छ सा प्रतीत होता है।
ये वही दौर था जब कर्नाटक संगीत में एक ऐसी सधी हुई आवाज़ गूंजी और लोगों को अपने बस में करती गयी। उस आवाज़ ने भाषाओं का भेद मिटा दिया और सभी को समान रूप से अपने मोह में बाँध चली। ये आवाज़ थी "मदुरै षण्मुखवडिवु सुब्बुलक्ष्मी" जी की, जिन्हें हम आज "एम एस सुब्बुलक्ष्मी" के नाम से जानते हैं।
16 सितम्बर 1916 में तमिलनाडु के मदुरै शहर में रहने वाली वीणा वादक शनमुकवादिवेर अम्माल और सुब्रमण्य अय्यर के घर में एक बच्ची का जन्म हुआ। घर वालों ने उसका नाम कुंजम्मा रखा था। उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि ये कुंजम्मा आगे चलकर अपने समय की सबसे महान गायिका बनेगी। इस बच्ची ने आरंभिक गायन भक्ति संगीत के रूप में अपनी माता से सीखा। इसके उपरांत सुब्बुलक्ष्मी ने 5 साल की उम्र से ही शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेना शुरू कर दिया था। उन्होंने पण्डित नारायण व्यास, के. अलावा आर्यकुड़ी, श्रीनिवास अय्यर और रामानुज आदगर से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली। उन्होंने 8 साल की उम्र से ही कार्यक्रमों में गाना शुरू कर दिया था। सबसे पहले उन्होंने कुम्बाकोनम में महामहम उत्सव के दौरान कार्यक्रम किया था और इस कार्यक्रम के बाद ही उनकी संगीत जगत की यात्रा शुरू हो गई। देखते-देखते 2 साल बाद यानी 10 साल की उम्र में सुब्बुलक्ष्मी का पहला डिस्क एल्बम भी रिलीज़ हो गया। उस समय जब संगीत जगत में पुरुषों का दबदबा था तब ऐसा कर दिखाना अपने आप में एक उपलब्धि थी।
ये दौर भारतीय स्वतंत्रता का भी था। और इस समय स्वतंत्रता आंदोलन भी ज़ोरों पर थे। सुब्बुलक्ष्मी का मानना था कि कला से पैसे नहीं कमाना चाहिए। तो जो भी धन उन्हें कार्यक्रमों से मिला करता उन्हें वो स्वतंत्रता आंदोलन में लगा दिया करती थीं। उनके पति सदाशिवम् भी एक राष्ट्रभक्त थे और स्वतंत्रता आंदोलनों में महात्मा गांधी के साथ जुड़े हुए थे। अपनी पत्नी का सदाशिवम हमेशा प्रोत्साहन और मार्गदर्शन किया करते थे। सुब्बुलक्ष्मी के लिए उन्होंने गायन सभाओं का आयोजन किया और इससे सुब्बुलक्ष्मी की प्रतिभा को आगे बढ़ने में मदद भी मिली। सुब्बुलक्ष्मी को उनकी बेहतरीन आवाज़ के लिए आम जनता के साथ साथ तमाम बड़े बड़े विख्यात लोग भी उनके मुरीद होते गए। विदुषी एम एस सुब्बुलक्ष्मी पहली भारतीय रही हैं। जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ की सभा में संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत किया। कर्नाटक संगीत का सर्वोत्तम पुरस्कार ‘संगीत कलानिधि’ पाने वाली पहली महिला भी आप ही हैं। प्रसिद्ध कांचीपुरम साड़ी में एक शेड आता है जिसका नाम है ‘एम एस ब्लू', ये नाम एम एस सुब्बुलक्ष्मी के नाम पर रखा गया है। क्योंकि वो उस ख़ास तरह के नीले रंग की साड़ी अक्सर अपने कार्यक्रमों में पहना करती थीं।
सुब्बुलक्ष्मी जी को संगीत के साथ-साथ अभिनय में भी ख़ूब सराहना मिली। 1938 में आई तमिल फ़िल्म ‘सेवासदन’ से उन्होंने अपने अभिनय की शुरुआत की थी। सेवासदन फ़िल्म अपने समय में बहुत ही ज़्यादा लोकप्रिय हुई। इस फ़िल्म ने तमिल सिनेमा को बदलकर रख दिया। फ़िल्म की कहानी प्रेमचंद के उपन्यास ‘सेवासदन’ या उर्दू में कहें तो ‘बाज़ार-ए-हुस्न’ पर आधारित थी। 1940 में 'शकुंतला', 1941 में सुब्बुलक्ष्मी ने ‘सावित्री’ फ़िल्म में नारद का क़िरदार निभाया जो एक मर्द का क़िरदार था। फिर 1945 में आई फ़िल्म ‘मीरा’ से उन्हें पूरे भारत में ख़ूब प्रसिद्धि भी मिली। उनकी प्रसिद्धि को देखते हुए फ़िल्म के निर्माताओं ने 1947 में सुब्बुलक्ष्मी को लेकर ‘मीरा’ फ़िल्म का हिंदी में रीमेक भी बनाया। इसमें उन्होंने कई मशहूर मीरा भजन भी गाये। कुछ समय बाद सुब्बुलक्ष्मी को लगा कि नहीं उन्हें फ़िल्मी जगत को छोड़कर संगीत पर ही अपना पूरा ध्यान देना चाहिए। इस फ़ैसले के बाद ही उन्होंने फ़िल्मी दुनिया को पूरी तरह अलविदा कह दिया और अपने आपको पूरी तरह से संगीत में झोंक दिया।
सुब्बुलक्ष्मी को संगीत के क्षेत्र में जो उपलब्धि मिली है उन पर नज़र डालें तो इसमें 1954 में पद्मभूषण, 1956 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1975 में पद्मविभूषण, 1988 में कालिदास सम्मान, 1968 में संगीत कलानिधि और 1974 में मैग्सेसे पुरस्कार, 1990 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार उल्लेखनीय हैं। साल 1998 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से भी सम्मानित किया गया था। 2005 में सरकार ने सुब्बुलक्ष्मी के नाम से डाक टिकट भी प्रकाशित किया गया था।
1997 में उनके पति कल्कि सदसिवम की मृत्यु के बाद उन्होंने सार्वजनिक कार्यक्रम करना छोड़ दिया। ऐसा माना जाता है कि सुब्बुलक्ष्मी के शुरुआती समय में कल्कि (जो एक पत्रकार, लेखक, गायक, स्वतंत्रता सेनानी और फ़िल्म निर्माता थे) ने अपने लेखों के माध्यम से सुब्बुलक्ष्मी की आवाज़ को लोगों तक पहुंचाने में बहुत मदद की थी। धीरे-धीरे जब दोनों में जान-पहचान काफ़ी हो गई तो 1940 में दोनों ने शादी भी कर ली। सुब्बुलक्ष्मी के पति की मृत्यु के 7 साल बाद 11 दिसम्बर 2004 को 88 साल की उम्र में उन्होंने भी दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी आवाज़ आज भी हमें सुरों के सागर में गोते लगवाती है।